वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 106
From जैनकोष
अप्पहं जे वि विभिण्ण वढ ते वि हवंति ण णाणु ।
ते तुहुँ तिण्णिबि परिहरिवि णियमिं अप्पु वियाणु ।।106।।
हे वत्स ! आत्मा से जो भिन्न भाव हैं वे भी ज्ञान नहीं हैं । सब ज्ञान से रहित जड़रूप हैं । सो धर्म, अर्थ व काम; तीनों भावों को छोड्कर निश्चय से तू आत्मा को जान । धर्म, अर्थ, काम तीन तो ये पुरुषार्थ हैं और चौथा है मोक्ष । सो मोक्ष तो अभी है नहीं । तब एक पुरुषार्थ ऐसा बतायें जो आपको कुछ-कुछ अच्छा लगे । आप मान जायेंगे कि हमें बड़ी अच्छी बात बताई । तो चौथा पुरुषार्थ हो गया निद्रा लेना । धर्म करना, धन कमाना, व्यवस्था करना, भोग भोगना और नींद लेना । तो यहाँ करने की बातें तीन बताई जा रही हैं । नींद की बात तो लोक-पसंद की वजह से कही है (हंसी) । कहना पड़ता है, पर धर्म, अर्थ, काम ये तीनों भी आत्मा के स्वरूप नहीं हैं । जो पुण्य रूप भाव है वह आत्मा का स्वरूप नहीं है । वह तो राग परिणाम की बात है । आत्मा तो शुद्ध स्वच्छ ज्ञायकस्वरूप है । धन भी आत्मा का स्वरूप नहीं है और काम का तो स्वरूप ही क्या है? इनको छोड़कर तू आत्मा को केवल ज्ञानमात्र अनुभव कर ।
यह आत्मा समस्त परपदार्थों से भिन्न है । यह तो एक विशद ज्ञायकस्वरूप है, यह भगवान् (अरहंतसिद्ध) भिन्न है । अपने आपका अनुभव करो । धर्म, अर्थ, काम―इन तीनों पुरुषार्थों को छोड़कर एक ज्ञानमात्र अपने स्वरूप में लगो । इन तीनों में जो काम पुरुषार्थ है वह तो बुरा होगा ना? अपनी इंद्रियों का भोग भोगना, विषयवासना रखना, यह तो, बहुत बुरा होगा ना? तो कामपुरुषार्थ बुरा है और धन कमाना यह भी बुरा है, क्योंकि भोग भोगने के लिए ही धन की प्राप्ति की जा रही है । अच्छा तो दोनों बुरे हैं, धन का विकल्प करना और विषय-विकल्प करना । दोनों बुरे हैं, उनको छोड़ना है । अर्थ और काम पुरुषार्थ हेय है तो इनकी जो बड़वारी करे, उत्पन्न करे, ऐसा परिणाम तो उससे भी अधिक हेय है । तुम समस्त परपदार्थों से, निश्चय से भिन्न इन तीन पुरुषार्थों को छोड़कर वीतराग स्वसंवेदन ज्ञानरूप ज्ञान में स्थित होकर अपने आत्मा को जानो । यहाँ योगींदुदेव प्रभाकरभट्ट को समझा रहे हैं ।