वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 107
From जैनकोष
अप्पा णाणहं पर णाणु वियाणइ जेण ।
तिण्णिवि मल्लिवि जाणि तुहुं अप्पा णाणें तेण ।।107।।
यह आत्मा नियम से ज्ञान का गोचर है, क्योंकि ज्ञान ही आत्मा को स्वभाव से जानता है । इस कारण हे प्रभाकरभट्ट ! तुम धर्म, अर्थ, काम इन तीनों के भावों को छोड़कर ज्ञान से निज आत्मा को जानो । बड़ा कठिन काम है अपने आपके पते की बात समझना और बड़ा सरल काम हो रहा है पराधीन, कष्ट की खान, सुखाभास का भोगना । पर इंद्रिय विषयों को भोगकर, विषयभावों को भोगकर पूरा क्या पड़ेगा सो बतलाओ । जैसे स्वाद का लोभो पुरुष कर्जा ले लेकर भी बहुत बढ़िया स्वाद लेना चाहता है, पर इसके फल में होता क्या है कि स्वाद तो पुन: आता नहीं । ‘घाटी नीचे माटी ।’ खाने के आध मिनट ही बाद खाना नीचे आ गया । चाहो कि खाना गले के नीचे न उतरे, गले में ही ठहरा रहे, तो ऐसा नहीं होता हुए । वह तो निगलते ही नीचे सरक जाता है । बंदर तो भले ही दाढ़ से किसी तरह से निकाल लेते हैं । तो स्वाद पुन: आता नहीं है । और कर्जा जो ले चुके हैं तो उसका भूत और उपद्रव चैन नहीं लेने देता । इस सुखाभास में क्या रखा है? विवेक तो उसे कहते हैं कि जो आय हो उसके भाग बना लें । उतने हिस्से में हो तुम अपना गुजारा करो । चाहे रूखा गुजारा हो उसे मंजूर करलो, पर अपने धर्म की रुचि प्रबल बनाए रहो । इसी का नाम विवेक है, और धर्म का फल ही क्या है? विषयों में रम गए तो उसका नाम विवेक नहीं है ।
एक आदमी खजूर पर चढ़ गया । चढ़ तो गया, पर उतरने के टाइम पर नीचे को देखे तो डर लगे । सो कहता है कि भगवान् ! हम अच्छी तरह से नीचे उतर जायें तो 100 ब्राह्मणों को जिमायेंगे । कुछ नीचे उतरा तो बोला 50 को जिमायेंगे और कुछ उतरा तो रह गए 5, बिल्कुल नीचे उतर आया तो बोला, वाह जिमावें काहे को, उतरे तो हम हैं । ऐसी स्थिति हम, आपकी चलती है कि जब कोई संकट आ जाये, बड़ा तेज ज्वर आ जाये, किसी मृत्यु के संदेह वाला कोई संकट आ जाये तो यह सोचते कि यदि मैं बच जाऊं तो अब कुछ कमाना-धमाना नहीं है; सत्संगति, धर्मलाभ में लगकर अपना जीवन बिताना है । और जब बच गए तब तो ये सब बातें भूल जाया करते हैं । किस पर ऐसी नहीं बीती है? कई बार मरने में संदेह हों गया होगा और उस समय विचार किया होगा; पर जैसे ही संकट मिटता है तैसे ही यह जीव अपने विषयों के आनंद में मस्त हो जाता है ।
धर्म, अर्थ, काम―इन तीनों पुरुषार्थों को छोड़कर वीतराग, स्वसंवेदनरूप, शुद्ध आत्मा की अनुभूतिरूप ज्ञान में ठहर करके अपने शुद्ध आत्मा को जानो । आत्मज्ञान बिना कर्म नहीं कट सकते । उन बंदरों की तरह जरंहटा भी जोड़ लो, जुगनू भी जोड़ लो, हाथ पसार कर भी बैठ लो, पर क्या ठंड मिट जायगी ? नहीं । बंदर की चंचलता तो देखो कि ठंड और बरसात में कैसे भागते फिरते हैं । चिड़ियां तो अपना घोसला बनाकर ठंड बरसात काट देती है; पर मनुष्य के जैसे हाथ पैर रखने वाले बंदरों को तो देखो । वे जाड़े, बरसात में यों ही इधर-उधर भागते फिरते हैं । चिड़ियां तो ऐसा बढ़िया घोसला बनाती है कि आदमी भी नहीं बना पाता है । एक बैया चिड़िया देखी होगी, वह इतना बढ़िया घोसला बनाती है कि मनुष्य भी वैसा नहीं बना पाता । पर यह बंदर नहीं बना पाता । सो बंदरों की तरह मूलज्ञान की कितनी ही क्रियायें करें, उससे आत्मा का कोई लाभ नहीं।
निज शुद्ध आत्मा ज्ञान द्वारा ही गम्य है । शुद्ध आत्मा का अर्थ है कि मेरी आत्मा का अपने आपके सत्त्व के कारण जो स्वरूप होता है वह है शुद्ध आत्मा खालिस आत्मा । बिना परपदार्थों के संयोग के आत्मा स्वयं जैसा हो सकता है वह कहलाता है शुद्ध आत्मा । वह ज्ञान से ही जाना जा सकता है । जब तक शुद्ध आत्मा का ज्ञान न हो तब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता और जिसके सम्यग्दर्शन नहीं है उसको अरबों की संपदा भी मिल जाय फिर भी गरीब है । संपदा से क्या होता है ? वह आनंद की जननी नहीं है । निज शुद्ध आत्मस्वरूप पर दृष्टि जाये तो वहां का आनंद विचित्र आनंद है । हम अरहंत सिद्ध भगवंत को क्यों पूजते हैं? क्योंकि वे आनंदमय हैं । सब जीवों का ध्येय एक आनंद होता है । ज्ञान की भी लोग उपेक्षा कर सकते हैं । हमें ज्यादा ज्ञान न हो, न सही, क्या लेना-देना? पर ज्ञान और आनंद, इन दो में से छटनी जीव किसकी करेगा? आनंद की । किसी से कहो कि तुम्हें बहुत ज्ञान चाहिए या आनंद? तो वह-क्या माँगेगा? वह आनंद माँगेगा । हालांकि आनंद ज्ञान बिना नहीं हो सकता है, इस कारण ज्ञान तो आ ही जायेगा, पर पाने की इच्छा आनंद की होती है । तो तुम्हारा आदर्श आराधनीय वही आत्मा हो सकता है, जो शुद्ध अविनाशी परम आनंदमय हो ।
कभी किसी को बचाने गए, कभी किसी की मुड़ में सहायता कर दी, कभी किसी स्त्री को भगाने लगे, कोई अपनी पूजा का उपदेश देने लगे, मौज मानने लगे―ऐसा जो करता हो वह प्रभु नहीं है । हाँ, साधारणजनों से कुछ बड़ा है । सांसारिक दृष्टि से जैसे आपके गांव में आप से बड़े दस-बीस होंगे; पर वे प्रभुता की श्रेणी में नहीं आ सकते हैं । प्रभु तो वही हो सकता है जो शुद्ध परम आनंदमय हो । यह शुद्ध आत्मा ज्ञान से ही गोचर है । वह शुद्ध आत्मा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान―इन पांचों के भेद से रहित है । जैसे कल कहा था ना, कि ऐसी अंगुली जो न टेढ़ी हो, न सीधी हो, बल्कि उसका नाम हो; तो क्या उस केवल नाम को ही देख सकते हो? आंखों से अंगुली दिखेगी क्या? नहीं । वह तो टेढ़ी अंगुली या सीधी अंगुली मिलेगी या और और प्रकार मिलेगी, पर सीधी, टेढ़ी आदि पर्याय से रहित अंगुली ही तत्त्व है, वह ज्ञान से समझ में आती है । वह अंगुली आंखों से नहीं दिखती है । है ना कोई एक अंगुली जो कभी सीधी हो जाती, कभी टेढ़ी हो जाती । अंगुली कुछ है ना । एक तो वह ज्ञान से तो समझ में आ रहा है पर आंखों से नहीं दिख सकता ।
भैया ! जब भौतिक पदार्थों में भी शुद्ध पदार्थ को अर्थात् पर्याय के विकल्प से रहित पदार्थ को इंद्रियों द्वारा नहीं जान सकते तो शुद्ध आत्मा को इंद्रियों द्वारा जान ही क्या सकेंगे? यह शुद्ध आत्मा साक्षात् मोक्ष का कारण है । तो जब तक इसे न जान जायें, न अनुभव कर जायें तब तक सम्यक्त्व नहीं होता । यह जो परम पद है, परमात्मा शब्द द्वारा वाच्य है, इस रूप का जो आत्मा है, वही परमात्मा है । उस आत्मा को वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञानगुण के बिना, चाहे कठिन से कठिन तपस्या और अनुष्ठान किये जाये तो भी, इस परमात्मपद को नहीं प्राप्त किया जा सकता । समयसार में भी यही कहा गया है कि ज्ञान गुण से रहित होकर इस परमात्मपद को प्राप्त नहीं किया जा सकता । यदि दुःखों से छूटना चाहो तो एक इस पद को ग्रहण करो । दुःख-सुख का बंधन खुद में विराजमान है, परदृष्टि में न होने से संसार में भटकना बन रहा है । बस, इस ही सुखनिधान आत्मतत्त्व को जिसने जान लिया वह अमीर है, सम्यग्दृष्टि है; उसकी निकट समय में मुक्ति होगी ।
भैया ! इस प्रभु आत्मा को कौन जानता है? जो सर्व प्रकार से परद्रव्यों से अछूता है । इन परद्रव्यों को जितनी देर छोड़ोगे उतनी देर जानन बनेगा । सारे दिन न छोड़ सके तो 5 मिनट को तो सब इच्छा की विदा कर दो । ऐसा भी तो कुछ आत्मीय आनंद लूटो कि जिन 5 मिनटों में किसी भी परद्रव्य की वान्छा न हो; न पुण्य की वांछा हो, न धन कमाने की वांछा हो:, न पालन-पोषण काम भोग, व्यवहारवृत्ति की इच्छा हो । सर्व परद्रव्यों की इच्छा को जो छोड़ता है वह निज शुद्ध आत्मा सुखरूप अमृत से तृप्त होता है, वही निष्परिग्रह है, वही तो शुद्ध आत्मा को जानता है ।
लोक में भी सीधी सी तो बात है । दो पुरुष यदि विरोधी हैं और आप किसी एक से मित्रता करें तो दूसरे से लड़ाई हो ही जायगी । और दोनों से ही मित्रता करें तो जिससे अधिक मित्रता होगी वह आपको अपना लेगा और जिससे मित्रता न होगी वह बाहर कर देगा । इसी तरह चीजें दो हैं―प्रभु-स्वरूप और संसारस्वरूप । दोनों परस्पर विरोधी हैं । प्रभुस्वरूप अत्यंत निर्मल है और संसारस्वरूप स्वयं मल है । दोनों में से आप यदि संसारस्वरूप से मित्रता करेंगे तो प्रभुस्वरूप से अलग हो जायेंगे । प्रभुस्वरूप तब प्रसन्न होगा जब आप केवल प्रभुस्वरूप में ही दृष्टि रखें ।
भैया ! बात बहुत सुगम भी है और बड़ी भी है । तिल की ओट पहाड़ है । तिल कितना बड़ा होता है? बिल्कुल छोटा । यदि उसे आंख के ऊपर रख दो तो लो पहाड़ ढक गया । तो एक अपने आपकी ओर दृष्टि न पहुंचने दें तो यह आत्मा सर्व प्रकार से तिरोहित हो गया । प्रभु के दर्शन करने की विधि इच्छा का अभावहै । सो जो धर्म, अर्थ, काम आदि समस्त परद्रव्यों की इच्छा को छोड़ता है वह आत्मीय आनंदरस में तृप्त होता हुआ निष्परिग्रही कहलाता है और वह ही आत्मा को जानता है । निष्परिग्रह किसे कहते हैं? जो इच्छाएं न रखे उसे निष्परिग्रही कहते हैं । इच्छाओं का ही नाम परिग्रह है, चीज का नाम परिग्रह नहीं है ।
भैया ! कोई चीज आत्मा से चिपटी नहीं फिरती है और इच्छाएँ ये आत्मा से चिपटी रहती हैं । तो हमें परिग्रह की आपत्ति देने वाली इच्छा है, बाह्यपदार्थ नहीं हैं । अत: यह आत्मा जब इच्छाओं से दूर हो जाता है तो परिग्रहरहित हो गया । ज्ञानी पुरुष न तो पुण्य चाहता है, न पाप को चाहता है, न भोजन चाहता है, न पान चाहता है और होती रहती हैं सब चीजें । क्या किसी सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष से पाप नहीं बंधता है? पाप भी होते हैं, घर में रहता है । क्या वह ज्ञानी पुरुष पुण्य नहीं करता? अरे ! वह तो पुण्य को बाहुल्यता से करता है । क्या सम्यग्दृष्टि भोजन नहीं करता, पानी नहीं पीता? अरे ! सब कुछ करता है । फिर भी अंतर में इच्छा है ज्ञानस्वरूप के अनुभव की । मेरे सदा काल शुद्ध आत्मस्वरूप की भावना हो, ऐसे अनुभव के कारण वह पुण्य-पाप व भोजनपान करने वाला नहीं कहलाता है । इसके अनेक दृष्टांत हैं । मुनीम को दुकान का कर्ता नहीं बताया, पर करता सब वही है । सेठ तो अपने घर में बैठा रहता है । कभी-कभी आ जाता है । तो सब कुछ करते हुए भी मुनीम को कर्ता नहीं कहते हैं । क्योंकि वह प्रत्येक पदार्थ में अपना स्वामित्व नहीं समझता है । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष घर में रहता हुआ भी वह कर्ता नहीं कहलाता है । क्योंकि उसके किसी भी प्रकार की धर्म, अर्थ, काम की वांछा नहीं है । अर्थात् सम्यग्दृष्टि ने धन का उद्देश्य नहीं बनाया और नाना साधनों का उद्देश्य भी नहीं बनाया। इस कारण ज्ञानी, सम्यग्दृष्टि पुरुष सब कुछ करता हुआ भी अकर्ता कहलाता है ।
प्रकरण यह चल रहा है कि ज्ञानी और अज्ञानी का स्वरूप कैसा है? यह ज्ञानमय है । ऐसे ज्ञान पर दृष्टि डालिए जो मतिज्ञान आदिक विकल्पों से परे है, केवल निज शुद्ध ज्ञानशक्तिमात्र है । वहाँ दृष्टि जाने पर फिर रागद्वेष के होशहवास उड़ जाते और । अभी 2-3 दृष्टांत ही मोटे-मोटे ले लो और उसकी जानकारी में लग जाओ तो होशहवास यहाँ भी उड़ने लगेंगे । जो दृष्टांत कई बार दिए गए । अच्छा, शुद्ध मनुष्य बतलाओ कौन है? जो न बालक हो, न जवान हो, न बूढ़ा हो उसे कहते हैं शुद्ध मनुष्य । केवल मनुष्य इस पर जरा निगाह तो दो । यदि कोई बरुवा दिखे तो उपयोग हटा लों । यह नहीं है शुद्ध मनुष्य । जवान दिख जाये तो उपयोग हटा लो, यह नहीं है शुद्ध मनुष्य । अथवा कोई बूढ़ा मिले तो उपयोग हटा लो, यह नहीं है शुद्ध मनुष्य । जो बालक, जवान, बूढ़ा सबसे रहित हो, वह है शुद्ध मनुष्य-ऐसा समझते हुए में कुछ होश भी नहीं रहा है । कहां चित्त पहुंचाया? वह तो नथिंग जैसा मालूम होता है । क्या है वह? यदि नहीं है मनुष्य, तो बालक कौन बनेगा, जवान कौन बनेगा, बूढ़ा कौन बनेगा? तो है ना मनुष्यत्व बालक, जवान आदि से अलग, मगर देखा कैसे जाये? वह ज्ञानगम्य है । ऐसे और और भी दृष्टांत ले लो ।
कहीं भी शुद्ध वस्तु में दृष्टि लगाओगे तो वहाँ रागद्वेष में अंतर जरूर पड़ेगा । फिर जो निजशुद्ध आत्मा में दृष्टि लगायेगा उसके तो रागद्वेष खत्म हो जाते हैं । जंगल में जो साधुजन रहते थे वहाँ और क्या बल था, जो जंगल में भी खुश रहते थे । उन्हें जंगल से हटना पसंद नहीं था । उनके पास कोई नौकर भी नहीं, कोई रसोई बनाकर खिलाने वाला भी नहीं, भूख लगी तो जंगल से गांव में आकर विधिपूर्वक मिला तो खाकर चल दिये । ऐसे असहाय, धन दौलत से रहित, कपड़ा तक से रहित साधुजन जंगल में भी प्रसन्न रहा करते हैं, वे किसे बल पर प्रसन्न रहा करते थे? वह बल तो बतलाओ? ‘‘वह बल है शुद्ध आत्मतत्त्व का दर्शन ।’’ वे तो जंगल में खूब मन भरकर प्रभु से मिले-जुले रहा करते हैं । उतना प्रसन्न और कौन रह सकता है ? जिस शुद्ध आत्मा का ध्यान करके योगीजन जंगल में प्रसन्न रहा करते हैं, कर्मों का क्षय करते है, परमात्मत्व का विकास करते हैं । वह शुद्धआत्मा, परमात्मा ही हम आपको उपादेय है ।
एक निर्णय कर लो अपने जीवन में, कि लाखों का भी धन उपादेय नहीं है । वहतो एक अचानकसी बात है जैसा जिसको मिल गया है, जैसा उदय चल गया है । वहाँ मुक्ति नहीं चलती है । यह वैभव सारभूत नहीं है । अपने आत्मा के स्वरूप के दर्शन से ही आनंद ही आनंद प्राप्त हो सकता है । उस ज्ञान की बात चल रही है । वह ज्ञान किस प्रकार जाना जाता है । उसका क्या स्वरूप है? उसे इस स्थल पर अंतिम दोहे में कहते हैं―