वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 111
From जैनकोष
सो पर वुच्चई लोउ परु जसु मइ तित्थु वसेइ ।
जहिं मइ तहिं गइ जीवह जि णियमें जेण हवेइ ।।111।।
वह परलोक है―ऐसा पर लोग कहते हैं, अर्थात् उत्कृष्ट पुरुष इस उत्कृष्ट लोक को बताते हैं । जिस भव्य जीव के जैसी मति बस गई अथवा में जैसी गति होती है वैसी ही ज्ञान की स्थिति होती है जिसका चित्त निज परमात्मस्वरूप में बस रहा है, विषय-कषाय के विकल्पों का त्याग करने के उपाय से जिसका चित्त निज ज्ञानस्वरूप में स्थिर हो रहा है, उसको तुम परलोक जानो । कोई बड़ी बढ़िया बात सुनाई जाय तो कहते हैं, वाह ! तुमने तो लौकिक दुनियां में मुझे पहुंचा दिया । तो सर्वोत्कृष्ट बात है अपने आत्मा के शुद्धस्वरूप की, जिसके जान लेने पर संसार के समस्त संकट सदा के लिए विदा हो जाते हैं । उस स्वरूप में पहुंच जाये तो वही तो कहलायेगा कि लो यह उस अलौकिक दुनियां में पहुंच गया । यह मन अलौकिक दुनियां में कैसे पहुंचता है? इसका उपाय है स्वसंवेदन, ज्ञान का ज्ञान? शुद्धस्वरूप में पहुंचने के उपाय में आपको पहले बहुतसी बातें जाननी होंगी ।
आपके घर का जो जीना है उसे आप जानते हैं ना? जीना उसे कहते हैं कि जो गिरे वह जिये ना, मर ही जाये । तो आपने जीना भी जाना होगा, तिजोरी भी जानी होगी, आप चौकी को जान रहे होंगे, इस शरीर को भी जान रहे होंगे । अब जरा जानने का जानन करो, चौकी को जान गए, यह तो ठीक है । पर चौकी का जानना भी तो कुछ तत्त्व है, उस तत्त्व को जानो कि वह क्या है? ‘‘जो जानन का ही जानना कर लेता है उसको सम्यग्दृष्टि कहते हैं’’ । ज्ञानी पुरुष तो उस जानने के जानने में लगे तो ऐसा अनुभव होगा कि हम तो किसी अलौकिक लोक में पहुंच गए हैं । इस लोक का तो सबको बहुत-बहुत परिचय है, पर इस लोक से तो वह अपना लोक विलक्षण हैं ना । जिसकी बुद्धि परमात्मतत्त्व में ठहरती है, वह स्वयं उत्कृष्ट है और उस उत्कृष्ट स्वरूप के देखने का नाम है परलोक गमन । जिस कारण से इस शुद्ध आत्मस्वरूप में बैठे हुए है, उसही कारण से इस शुद्धस्वरूप में बैठे हुए हैं, उस ही कारण से इस शुद्धस्वरूप में गति होती है ।
भैया ! आत्मा और शरीर जुदे हैं । ऐसी जुदा कर देने वाली चीज है क्या? प्रजा । शरीर जुदा है और आत्मा जुदा है―ऐसा जानकर शरीर को छोड़कर केवल आत्मा को ग्रहण करना; इसका उपाय क्या है? प्रज्ञा । आत्मा को ग्रहण करके फिर आत्मस्वरूप में ही रत हो जायें, इसका उपाय क्या है? प्रज्ञा । तो जिस उपाय से शुद्धस्वरूप को जानें उस उपाय से ही शुद्धस्वरूप तक गमन होता है । और यदि आर्त रौद्र ध्यान के अधीन बन कर निज शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना से च्युत होकर, पर भावोंरूप से वर्तमान है तो वह दीर्घसंसारी होता है । यदि निश्चय रत्नत्रयस्वरूप शुद्ध ज्ञानमात्र परमात्मतत्त्व में भावना करता है किसी प्रकार [तो यह मैं तो ज्ञानमात्र हूँ, वह ज्ञान भी ज्ञान के समय निर्विकल्प नजर आता रहे । यह भावना रखो] कि लो, यह मैं तो ज्ञानमात्र हूं―ऐसे ज्ञानस्वरूप में बुद्धि रखे, तो वह निर्वाण को प्राप्त होता है ।
भैया ! जरासी मोड़ में ही संसार और मोक्ष का अंतर है । जैसे छोटी बैट्री है । उसको जिस ओर करके जला दिया, उधर तो उजेला है और उसके दूसरी ओर अंधेरा है और जरासा मोड़कर दूसरी ओर घुमा दिया तो उधर प्रकाश हो गया और उसके दूसरी ओर अंधेरा हो गया । ऐसा ही यहाँ प्रयोग है, लाइट है । इसका मुख इस ओर हो गया तो निर्वाणमार्ग है, शांतिमार्ग है और इसका मुख उस इस ओर कर दिया तो फिर बहिर्मुखी प्रकाश रहेगा । मुँह दूसरी ओर करने के लिए कोई लंबी फेंक नहीं फेंकना है, थोड़ासा ही घुमाने का काम है । इसी प्रकार यह उपयोग अपने में ही तन्मय होकर रह रहा है । रह रहा है अपने ही प्रदेशों में, पर उसका मुख दूसरी ओर हो गया तो वह दीर्घ संसारी बन गया और अपनी ओर मुख रहे उपयोग का, तो वह निर्वाण को प्राप्त होता है-ऐसा जानकर समस्त रागादिक विकल्पों के त्याग के द्वारा अपने शुद्ध परमात्मतत्त्व की ही भावना करनी चाहिए ।
भैया ! परमात्मतत्त्व की भावना के लिए, परमात्मतत्त्व की भेंट करने के लिए हमें अपने कषायों के त्यागरूप बड़ी बलि करनी होगी । अपने विभावों की, रागादिक भ्रमवासना की जब समाप्ति करेंगे तब उस परमात्मस्वरूप की भेंट हो सकेगी । यों ही नहीं कि लो, अभी थोड़ा और काम कर लें, धर्म का भी थोड़ा काम कर लें, सो ऐसी कुछ मनमानी पद्धति न बनेगी । या तो घर का काम कर लो या धर्म का कर लो । या तो मोह, राग, द्वेष से निपट लों या प्रभु दर्शन करलो । प्रभु-दर्शन करने के लिए इतनी बड़ी तैयारी चाहिए कि तन, मन, धन, वचन; किसी का भी पक्ष न हो । अपने आपके हृदय में किसी का भी ग्रहण न हो । भगवान् तो तैयार बैठा है, आपके इस आसन पर बैठने के लिए; पर इस उपयोग के आसन पर आपने विभावों को बिठा रखा है सो भगवान् को बैठने के लिए जगह नहीं है । वह तो तैयार है कि हमें आसन मिले तो बैठ जाएं, वह तो आसन पर बैठने के लिए है, मगर जब सीट खाली हो तब तो भगवान् आकर बैठे । सीट ही नहीं खाली है, रागद्वेष, संकल्प विकल्प इन सबका जमाव कर रखा है, किंतु शुद्ध भोलाभाला प्रभु जिसका ज्ञानमात्र ही रहना काम है, ऐसे शांत प्रभु को बैठने के लिए आप सीट नहीं खाली कर रहे हैं तो वह आपके पास कैसे आयेगा? बतलाओ । अत: उस प्रभु के दर्शन के लिए तो रागादिक विकल्पों का त्याग करना है ।
भैया ! दो बातें एक साथ नहीं हो सकती हैं । विषयभोग और मोक्ष में जाना । ‘‘दोउ काम नहीं होय सयाना । विषयभोग अरु मोक्ष में जाना ।।’’ 24 घाटे पड़े हैं, इन 24 घंटों में 10-15 मिनट को तो सबको भूलकर अपना प्लेटफार्म साफ बना लो । बाकी तो पौने चौबीस घंटे हैं, सो उनमें एकदम से परद्रव्यों में लगे रहना । पुण्य का उदय है, कौन तुम्हें मना करता है? पर 10-5 मिनट को तो अपने आपके उपयोग को निर्मल बना लो । किसी भी पर की आशा न करो, किसी पर का विकल्प न हो, ऐसी अपनी परम दशा बना लो । उसमें सब सिद्ध हो जायेगा । जैसे इत्र की फुरेरी एक ही बार लेना है । फिर तो सुवास दिन भर बनी ही रहेगी । कुछ भी काम करते रहो, सुवास बनी ही रहेगी । लगातार इत्र की फुरेरी लेने की जरूरत नहीं है । वह तो एक बार लगाकर अपने काम में लगा है, सुवास आती जा रही है । तो 24 घन्टे में 5 मिनट तो परमार्थ प्रभुभक्ति का काम तो निकाल लो । वह सुवास तो बना लो । फिर और और भी काम करते रहो घर के, कमाई के, कुटुंब पोषण के, वह सुवास बराबर आपको मिलती रहेगी तथा शांति और निराकुलता बनी रहेगी । पर दिन व रात में एक बार भावना बनाओ तो सही ।
यहां तीन बार की सामायिक बताया है, वह इसलिए बताया कि सुबह सामायिक किया, यानी समता परिणाम किया । उसके बाद फिर पड़ गए अड़चनों में, और-और अड़चनों में यदि फँस गए तो 6 घंटे का फिर समय फँस गया, वे 6 घंटे हुए दोष के 6 घंटों में जो असावधानी बन गई उसको दूर करने की चेष्टा सामायिक में की । दो बार सामायिक हो गई । इसके बाद फिर 6 घंटे बाद चूँकि उसकी भी दल में फँस गए तो फिर सामायिक का टाइम आ गया । उन 6 घंटों की असावधानी को फिर सामायिक में ठीक कर लिया । फिर उसके बाद रात्रि के 12 घंटे गुजरते हैं । तो 6-7 घंटे सोने के गुजर गए और जागने के जो 6 घंटे बचे उनकी सामायिक फिर कर ली । तो जो सामायिक के समय का अंतर है वह बराबर 6 घंटे चल रहा है । 6 घंटे तो सोने में गए और जगने के 6-6 घंटे के बाद में सामायिक होती है । तो दिन, रात की असावधानी में अपन पड़ गए तो अब सावधानी रखने के लिये 5 मिनट ही निश्चित कर लें । 5 मिनट को भी, क्षण भर को भी यदि अपना उपयोग ऐसा शुद्ध बन जाये कि हमें किन्हीं भी परवस्तुओं से प्रयोजन नहीं है तो इसका भला होने में कोई संदेह नहीं है । पर इतनी बात बने कैसे?
भैया ! कोई सोचे कि भलाई का काम 2 मिनट में बना लेंगे । बा की समय खूब मौज में रहे तो न बन सकेगा । तुम तो रात-दिन का काफी समय ज्ञानार्जन में, ध्यान में, चर्चा में उपदेश में लगाओ । सबसे अच्छा काम है लिखना । धर्म की बात लिखने में बड़ा निर्मल उपयोग रहता है और यदि उपयोग निर्मल होता है तो आत्मा में बल प्रकट होता है । बहुत बड़ा काम करना होगा तब जाकर कहीं ऐसा अवसर पा सकेगा । यह कि जहाँ उपयोग को निर्मल रखकर प्रभुता में दर्शन किया जा सकता है । एक मिनट की सांवर पड़ने के लिए तीन महीने बीत जाते हैं । एक मिनट की भांवर वही है जो सातवीं भांवर पड़ती है और विवाह हो जाता है । विवाह तो उस एक ही मिनट में होता है और उसकी तैयारियां महीनों पहले की जाती हैं । कोई कहे कि इतने आडंबर करने की क्या जरूरत? अरे ! इन आडंबरों के बिना उस एक मिनट का मूल्य नहीं रह सकता । कोई कहे कि दिल मिला किसी से और 1 मिनट में ही विवाह हो गया तो इसमें धर्मप्रभावना नहीं रहेगी; जीवन का नियम, बंधन नहीं रहेगा; पाप फैल जायगा ।
जैसे उस एक मिनट के विवाह के अवसर के पाने के लिये महीनों गुजर जाते हैं, तो इस एक मिनट के निर्मलभावों को पाने के लिये आपका कितना समय गुजरना चाहिये कि जब वह चीज प्राप्त हो सकेगी । इसलिये एक निर्णय रखो कि खुद का लोटा छानो, जिससे आपको अपनी प्रगति जंचे, निर्मलता बने, स्वाध्याय करो, सत्संग भाव बनाओ, उदारवृत्ति रखो, मोह ममता हटाओ । अच्छी बातों के लिये अपनी लगन होनी चाहिये, तब जाकर किसी समय वह अवसर प्राप्त होगा, जहाँ ज्ञानज्योतिर्मय प्रतिभासमात्र प्रभुस्वरूप का अनुभव होगा । सो इस ज्ञान के अनुभव के लिये इन संकल्पों व विकल्पों के त्याग करने की आवश्यकता है । इसी ज्ञानस्वरूप को अब अगले दोहे में बताते हैं कि―