वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 110
From जैनकोष
मुणिविंदहँ हरिहरहँ जो मणि णिवसइ देउ ।
परहँजि परतरु णाणमउ सो बुच्चइ परलोउ ।।110।।
जो मुनिवरवृंदों के मन में बसा करता है, जो हरिहर के मन में बसा करता है, जो पर से अर्थात् उत्कृष्ट से भी उत्कृष्ट है―ऐसा जो ज्ञानमय तत्त्व है वह प्रयोग किया जाता है । मुनिजन वनों में रहते हैं और वर्षों व्यतीत कर देते हैं, उनका क्या सहारा है? इसी परमात्मा का सहारा है ।
विशल्या पूर्वभव में एक चक्रवर्ती की लड़की थी । लक्ष्मण की पत्नी विशल्या की बात कही जा रही है । वह रूप में सुंदर थी । तो सुंदरता का मिलना भी लोग तो कहते हैं कि पुण्य का उदय है; मगर आपत्तियों में फँसाने वाली है? उसे पुण्य का उदय कहें या पाप का; खेती की मेड़ पर बेल लगती है जहाँ कि नीले-नीले फूल मोटी नाक जैसी आकार के होते हैं । उनको कौन तोड़ता है? फूलते हैं और गिरते जाते हैं । पर गुलाब और बेला के फूलों का उदय है ना, सब लोग चाहते हैं ना, तो उसकी गति क्या होती है कि पूरे फूल नहीं हो पाते है, कच्ची कलियां ही तोड़ ली जाती हैं । यह है पुण्यवानों की गति । तो उस चक्रवर्ती की पुत्री को कोई हर ले गया । फिर उससे कोई दूसरा छुड़ा ले गया । फिर पकड़ने वालों ने घबड़ाकर उसे एक भयानक जंगल में छोड़ दिया, जिसके चारों ओर 10-20 मील तक निकलने वाला कोई रास्ता भी न था ।
अब बेचारी सुकुमाल राजपुत्री जंगल में क्या करे? कपड़े भी जितने वस्त्र पहिने थी, सब सालभर में फट गए । अब तन भी कैसे ढांके? पर उस जंगल में ही अपने ज्ञानबल से नंगी रहकर अथवा बल्कल पहिन कर और वहाँ के कभी कोई फल-पानी खा-पीकर परमात्मा के ध्यान में लग गई । 4 हजार वर्ष तक तप किया । और देखो कि पिता चक्रवर्ती सब जगहों से ढूंढ़ता हुआ उस स्थान पर पहुंचा तो उस पुत्री को कैसी दशा में देखा कि एक अजगर उसे कमर तक लील गया और कमर के ऊपर का धड़ बच गया । ऐसे समय में पिता ने चाहा कि इस सांप के टुकड़े कर देवें । उसने अपनी कमर से तलवार निकाल ली । उस समय पुत्री हाथ जोड़कर कहती है कि अब इस अजगर के प्राण मत लो, इसने जो मेरे साथ किया सो किया । इस अजगर के तुम प्राण मत लो । तदनुसार चक्री ने अभयदान दिया । वही पुत्री स्वर्ग में देवी हुई और वहाँ से आकर विशल्या नाम की राजपुत्री हुई । उसकी तपस्या के प्रभाव से इतना चमत्कार हो गया था कि उसके नहाए हुए पानी का छींटा जिस पर पड़ जाय उसका रोग दूर हो जाय ।
जब रावण के साथ युद्ध में शक्ति लक्ष्मण के लग गई और लक्ष्मण बेहोश हो गए, उस समय रामचंद्रजी ने बड़ा विलाप किया था । भाई को मरा हुआ सा देखकर भी राम की कोई युक्ति न चली । राम बड़ा विलाप करने लगे । कोई युक्ति सूझी, मालूम पड़ा कि विशल्या के प्रताप का ऐसा चमत्कार है कि उसके नहाए हुए पानी के छींटे पड़ जाने से सब कष्ट दूर हो जाते हैं । सो उसके नहाए हुए पानी के छोटे लाओ, जिससे कि मूर्च्छा दूर हो । लोगों ने कहा लाओ विशल्या का पानी । यह काम हनुमान को सौंपा गया । हनुमान ने कहा कि कहो तो पानी के छींटे ले आएँ, कहो तो विशल्या को ही यहाँ ले आएँ । यह भी विशल्या का पिता सुन चुका था कि विशल्या का पति तीन लोक का अधिपति होगा । हनुमान ने आकर विशल्या के पिता से सब कुछ कह सुनाया । राजा भी सुनकर विह्वल हो गए और विशल्या के सहित युद्धक्षेत्र में आ गए । विशल्या ने आशीर्वाद दृष्टि से लक्ष्मण को निरखा । विशल्या की दृष्टि पड़ते ही लक्ष्मण की बेहोशी दूर हो गई ।
भैया ! बतलाओ―इतने मनुष्य हैं, कोई पशु है, कोई पक्षी है, इस न्यारी दुनियां में, इस परलोक में, इस परमात्मस्वरूप में कौन पहुंचता है; जो पहुंच जाये अपने अंत:स्वरूप में, बस वही पार हो जाता है । मेरा जो ब्रह्मस्वरूप है वह तो है परलोक और जो दिखने वाली दुनियां है, पंचेंद्रिय के विषयभोगों के समागम हैं, ये सब हैं यह लोक । जो परलोक में पहुंचता है उसका नया जन्म कहा जाता है । जब यह जीव, मनुष्य उत्पन्न हुआ था तो एक जन्म तो उसका उस दिन हुआ था कि जिस दिन गर्भ से निकला, यों समझलो । वैसे तो जिस दिन गर्भ में आया उसी दिन से जन्म माना जाता है, पर लोकरूढ़ि में जिस दिन गर्भ से निकला उस दिन जन्म समझ लिया । एक जन्म तौ उस समय हुआ था । उस जन्म के बाद फिर बड़ा हुआ, फिर दंद-फंद की बातें भी आई, बड़ी ठोकरें भी खाई, सब कुछ ठुक पिट कर जब ज्ञान, होशहवास में आया और इस असार दुनियां से वैराग्य हुआ, रागादि विकल्पजाल का त्याग किया और निज में बसे हुए शुद्ध ज्ञानस्वरूप में उपयुक्त हो गए तो वह हुआ दूसरा जन्म । पहिले ही जन्म को लिए हुए लोग बैठे हैं । ये दूसरा जन्म नहीं प्राप्त करना चाहते ।
‘‘दूसरा जन्म है आत्मानुभव होना’’ । वह पुरुष दूसरी बार जन्म ले चुका समझो । अब पहली बातें उसके नहीं रहीं । पहिले मिथ्यात्व था, मोह बढ़ाना, राग बढ़ाना ये सारे दंद-फंद चल रहे थे । अब उसको दुनिया अलौकिक हो गई है । यही है परलोक में पहुंचना परमात्मस्वरूप में बसना, यही ब्रह्मस्वरूप है । इसे परलोक कहो या परमात्मतत्त्व कहो, एक ही बात है । जो यह शुद्ध निश्चयनय से शक्तिरूप से केवलज्ञान स्वभाव वाला परमात्मा है वह परमात्मद्रव्य एकेंद्रिय हो, दो इंद्रिय हो या तीन, चार अथवा पांच इंद्रिय वाला हो; सूक्ष्म हो, सभी जीवों के स्वरूप में पृथक्-पृथक् रूप से ठहरता है । इसको ही लोग परमब्रह्म कहते हैं, परमशिव कहते है, परमविष्णु कहते हैं । सो यह देवत्व शक्तिरूप से सब जीवों में विराजमान है । द्रव्यत्व वही है, पदार्थ दूसरा नहीं है । पर बहिर्मुखता हो गई, बाह्यपदार्थों में दृष्टि उलझ गई इस कारण से यह आकुलताओं में पड़ गया । किसी से प्रेम किया तो उसके फल में शांति न मिलेगी, आकुलताएं ही मिलेंगी । जो अपने आत्मा से ही रुचि रखता है, किसी दूसरे से प्रेम नहीं करता वह शांति प्राप्त करता है ।
आप रेलगाड़ी में बैठे जा रहे हो और किसी मुसाफिर से आप प्रेम कर लें और उस मुसाफिर की जाना है प्लेटफार्म पर चाय पीने, या नल पर पानी पीने तो वह यह कहेगा कि देखो हमारा यह सामान है, देखते रहना । आपने देख लिया । अगर वह मित्र कुमित्र निकल गया और आप पर आरोप कर दे कि इसमें 500 रुपये रखे थे । हमने तो तुम्हें संभालने को कहा और तुमने निकाल लिये । प्रेम का यह फल होता है, शांति नहीं है । शांति तो अपने शुद्धचैतन्य स्वरूप मैं दृष्टि लगाने में है ।
‘‘जिसको हम पूजते हैं अरहंत, सिद्ध गुरुराज वे क्या करते हैं, इस मर्म को न जाना तो पूजा क्या? अरहंत परमात्मा, सिद्ध भगवान् क्या किया करता है निरंतर, रात-दिन, प्रतिसमय? यह मर्म न जाना तो उसे बड़ा न समझा? लोगों ने बड़ा कह दिया सो यह भी बड़ा कहने लगा ।’’ क्या किया इन भगवंतों ने, जो बड़े कहलाये? मोह का विनाश किया, इंद्रियों पर विजय की, आत्मस्वरूप में रति की, रागद्वेष सब खत्म किये । शुद्धज्ञान पूर्णविकसित हो गया । ऐसी भगवान् के प्रति भावना न जगे तो फिर भगवान् की हमने पूजा ही क्या की? तो कारण परमात्मा तो सब जीवों में अंत: प्रकाशमान है, और इन पदार्थों से जो रागद्वेष जीतकर कर्मों से मुक्त हो गया है वह कहलाता है कार्यपरमात्मा । अरहंत देव या मुक्ति को प्राप्त हुआ सिद्ध भगवान् परमब्रह्म, परमविष्णु और परम शिव कहा जाता है ।
भैया ! पदार्थों का स्वरूप निरखो, सत्यस्वरूप समझ में आ जायगा । चूंकि ये पदार्थ हैं, इसलिए निरंतर परिणमते ही रहते हैं । जब यह परिणमन का स्वभाव रखता है तो नई पर्याय उत्पन्न करके पुरानी पर्याय विलीन करते और अपनी सत्ता बनाए रहते । जब ऐसा अणु-अणु या कण-कण सबका स्वभाव है तब फिर कोई परिकल्पित लोकव्यापी एक परमात्मा ईश्वर माना जाय तो कैसे घटित होगा? कैसे बनाता है, कहां बैठकर बनाता है, किन साधनों को लगाता है, लगातार बनाता रहता है कि कुछ भूल भी कहीं हो जाती है । जिसके दसों काम हैं, दसों जगह काम हैं, उसके एक-दो जगह भूल भी हो सकती है । सर्वस्थितियों पर विचार करो तो बात नहीं ठहरती है और जीव के परिणमन स्वभाव को निरखो तो जीव के साथ सदा जीव के परिणमन का स्वभाव लगा है । अणुओं की सत्ता के साथ अणुओं का परिणमन स्वभाव लगा है । वे प्रतिक्षण परिणमते रहते है ।
रही अब भगवत् स्वरूपी बात । प्रश्न किया जा सकता है कि फिर भगवान् क्या करता है और हमारे लिए क्या करता है? जब वस्तुपरिणमन स्वभाव वाला है, निरंतर परिणमता रहता है तो हम भगवान् से क्यों दबे, क्यों हाथ जोड़े, क्यों सिर नवावें? क्या उत्तर होगा? इसका उत्तर यह है कि हम अपने आपके शुद्धस्वरूप को जब चलते हैं तो परमात्मा का जो शुद्धस्वरूप है उसका परिज्ञान सहायक होता है । हम निर्विकार, निर्दोष, शांत आनंदमय हो सकते हैं या नहीं? हो सकते हैं ।
मनुष्य को हिम्मत कभी न हारना चाहिए । गरीबी आए तो आए, जब परिवार में आपके 10-15 आदमी जुड़ गए तो क्या ये मरेंगे नहीं? मरेंगे । और खुद भी मरें पहले आप मरें या जो दिखते हैं वे मरें । क्या वे मरेंगे तो दुःखी न होना पड़ेगा? दु:खी होना पड़ेगा । कहाँ फूले फिरते हो, कहाँ हर्ष-मग्न हो रहे हो? कोई स्थिति आए, वियोग हो जाय, अनिष्ट संयोग हो जाय, धन की हानि हो जाय, अपने ही परमात्मदेव की शक्ति का विचार करो और अपने को सबसे न्यारा चित्स्वरूपमात्र निरखकर प्रसन्न रहो । कुछ भी होता हो पर चैतन्यस्वरूप का क्या बिगाड़ हो सकता है?
यह परमात्मदेव बड़े पूज्य मुनिवृंद के मन में विराज रहा है । इन लुटेरों, घसीटों के मन में परमात्मदेव नहीं आ सकता है । यह परमात्मा प्रेम से खिंचा-खिंचा फिरता जब चाहो तब निर्दोष ज्ञानमात्र प्रभु के दर्शन हो सकते हैं । तो यहाँ के समागमों से विश्वास का भाव लेना । जिसे आप विरोधी मानते हो, शत्रु मानते हो, उससे प्रेम बढ़ा लो । शत्रुता विलीन हो जायगी । शत्रुता मिटा लो, वही मित्र रूप में आपके सामने आयगा । इस परमात्मतत्त्व के जानने की तीव्र रुचि होनी चाहिए । फिर यह दर्शन अवश्य देगा । दृढ़ निश्चय कर लो । मोह और राग यदि बढ़ गया तो मरकर जब गाय, बैल बनोगे तो वहाँ पर भी बच्चों से राग करोगे । इसी प्रकार यदि गधा, सूवर बनें तो वहाँ भी अपने बच्चों से राग किया । इस मनुष्य भव को राग और मोह से अछूता समझलें, तो संसार के दुःखों से हम पार हो सकते हैं । यहाँ कह रहे हैं कि जो उत्कृष्ट से भी उत्कृष्ट है, केवलज्ञान से रचा है, बड़े-बड़े मुनिवृंदों के मन में बसा है उसको तुम परमात्मा जानो, परलोक जानो, दुनियां मानो, इसके ही दर्शन से शाश्वत सुख का लाभ होता है ।
यहां यह बताया जा रहा है कि परलोक का अर्थ है शुद्ध आत्मा । जैसे किसी को समझाया जाय कि तुम वह हो जो किसी एक पर्याय रूप नहीं हो । सब पर्यायों का मूल आधार असाधारण शक्ति मात्र हो, केवल चैतन्य प्रतिभास हो । ऐसे उसको परमपारिणामिक भाव की ओर ले जावें तो उसे ऐसा लगेगा कि मुझे किस दुनियां में पहुंचाया जा रहा है? वह दुनियां इस दुनियां से विलक्षण है या नहीं? है यहाँ के विषयकषाय के प्रसंग तो कहलाते हैं यह दुनियां, यह लोक और शुद्ध आत्मतत्त्व कहलाता है परलोक । अथवा पर कहिए उत्कृष्ट सारभूत तत्त्व को; जहाँ अवलोकन होता है उसे कहते हैं परलोक । कारणसमयसार परमात्मद्रव्य का जिस दृष्टि से अवलोकन हो रहा है उस दृष्टि की स्थिति परलोक कहलाती है और जहाँ वर्तमान क्षणिक औपाधिक रागादिक प्रसंगों में चित्त चल रहा है यह सब है ‘‘यह लोक’’ ।
उत्कृष्ट वीतराग चिदानंद एकस्वभाव वाले आत्मा का अवलोकन कहाँ होता है? निर्विकल्प समाधि में । निर्विकल्प समाधि में ऐसे शुद्ध अद्वैत तत्त्व का अनुभवन हो, सोही परलोक गमन है, अथवा पर कुछ जिसमें देखा जाय, पर में जिसके द्वारा देखा जाय उसे कहते हैं परलोक । जितने जीवादिक पदार्थ हैं वे इस परमात्मस्वरूप में केवल ज्ञान के द्वारा देखे जाते हैं ना? तो केवलज्ञान के द्वारा जिस स्वरूप में यह समस्त विश्व देखा जाय उस स्वरूप को कहते हैं परलोक । और व्यवहार से जो मोक्ष है, स्वर्ग है उसे परलोक कहते हैं । वर्तमान भव मिट गया, इसका नाम परलोक है । तो इस दोहे में क्या शिक्षा दी है कि परलोक शब्द के द्वारा वाच्य जो परमात्मपदार्थ है, वह उपादेय है ।
देखिए, सबसे बड़ी कमाई अपने आपके स्वरूप की दृष्टि पा लेना है । और बातों में लगना पड़ता है, लगें । बंधन, फंसाव-परिस्थिति जो कुछ है, लाखों का धन कमा लिया जाय, इससे कुछ लाभ जीव को नहीं हो गया । ज्ञानी पुरुष तो अपने उपयोग को विशुद्ध रखने के लिए कार्य करता है । ज्ञानी गृहस्थ वास्तव में तो अपने उपयोग को विशुद्ध रखने के लिए बस रहा है । ज्ञानी गृहस्थ 6 आवश्यक कार्यों में लगता है । देवपूजा आदिक में अपने उपयोग को विशुद्ध रखने के लिए रहता है । उसका लक्ष्य अपने परिणामों को निर्मल बनाने का है, मलिनता से बचाने का है । क्योंकि खाली दिमाग शैतान का घर है । कुछ कार्य न हो तो अटपट थोथी कल्पनाएँ होने लगती हैं । अत: शुभोपयोग संबंधी कार्य तो होना चाहिए; पर ज्ञानी की दृष्टि शुभोपयोग में बर्तकर भी एक शुद्धतत्त्व की प्रतीति को लिए हुए रहती है । उसका परलोक उसका परम ब्रह्मस्वरूप है । वह परम ब्रह्मस्वरूप ही उपादेय है । इसी शुद्ध आत्मतत्त्व के संबंध में अथवा ज्ञान के स्वरूप के संबंध में कहते है ।