वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 116
From जैनकोष
जं सिवदंसणि परमसहु पावहि झाणु करंतु ।
तं सुहु भुवणि वि अत्थि एवि मेल्लिवि देउ अणंत ।।116।।
ध्यान करते हुए शुद्ध आत्मतत्त्व के दर्शन में जो परम सुख प्राप्त होता है व जिस परमसुख को हे भव्य ! तुम प्राप्त करते हो, वह सुख तीन लोकों में भी इस परमात्मदेव को छोड़कर अन्यत्र कहीं न मिलेगा । यहाँ परमात्मा को अनंत कहा है । अनंत का अर्थ है अविनाशी । जिसका कभी विनाश न हो उसे कहते हैं अनंत । वह अनंत हुआ परमात्मा । शिवशब्द के द्वारा वाच्य क्या है? निज शुद्ध आत्मा । जरा अपना उपयोग अपने भीतर ले जाकर कुछ निहारो तो । किसी भी परद्रव्य की पकड़ न करो । केवल अपनी सत्तामात्र ज्ञानस्वरूप का भाव बनाओ और अपने को एक जाननस्वरूप मैं हूँ, ज्ञान ज्योतिमात्र हूं, प्रतिभासमात्र हूं―ऐसी बार-बार अपनी भावना करो और इस भावना में ज्ञान का जो स्वरूप है उस रूप अपने को ढाल लें । ऐसी स्थिति में जो दर्शन होता है वह है शिवदर्शन । शिव मायने मोक्ष, शिव मायने कल्याण, कल्याणरूप दर्शन है । शिव शब्द से यह विशुद्ध ज्ञानस्वभाव वाला निजशुद्ध आत्मा जानन । चाहिए । उसके दर्शन से एक परमसुख तुम प्राप्त करो ।
परम सुख कैसा है कि निजशुद्धआत्मा की भावना से उत्पन्न हुए रागद्वेषरहित परम आह्लादरूप है, अनाकुल है, उस सुख को तुम प्राप्त कर लोगे । एतदर्थ क्या करना है? वीतराग निर्विकल्प तीन गुप्तिरूप समाधि को करना है । त्रिगुप्ति है मन को वश में करना, वचनों को वश में करना और काय को वश में करना, । काय से यथा-तथा चेष्टा न करो, दुर्वचन न बोलो और मन में किसी का बुरा चिंतन न करो । ऐसी तीन गुप्तियों से सहित जो समतापरिणाम है, उस समतापरिणाम को करता हुआ यह जीव एक अलौकिक आनंद को प्राप्त करता है । जैसे आप लोग सुख पाने के लिए दसों बातें करते हो ना । दुकान में भी बैठना, मित्रगोष्ठी में अपना यश लूटना; जैसे दसों काम करते हो तो एक ग्यारहवाँ काम और करलो, कुछ हर्ज नहीं होगा । रात-दिन के समय में किसी भो क्षण, किसी मी पर का ध्यान न करके विश्राम से बैठ जाओ । किसी भी अन्य का ख्याल न करो । ऐसी स्थिति में जो ज्ञानस्वरूप का अनुभवन होगा उससे इस जीव को अलौकिक आनंद प्राप्त होगा । थोड़े समय की ही तो बात है । अपने इस थोड़े समय में निर्विकल्पता से आनंद लेने के लिए अपने आत्मस्वरूप की धुनि बनानी पड़ेगी, तब कहीं एक आध मिनट के लिए जो आत्मानुभव का सुख है वह प्राप्त हो सकता है । ऐसे सुख को तुम कहां पाओगे? एक परमात्मा में पाओगे । जो शिव शब्दों के द्वारा वाच्य है, ऐसा जो परमात्मपदार्थ है उसको छोड़कर तुम तीनों लोकों में किसी भी जगह सुख को नहीं प्राप्त कर सकते हो ।
यहाँ इसका यह अर्थ है । शिव शब्द के द्वारा वाच्य जो यह निज परमात्मा है उसका ही राग, द्वेष, मोह के त्यागपूर्वक ध्यान किया जाय तो अनाकुलतारूप परम सुख प्राप्त होता है । अन्य कोई भी शिव नाम का भिन्न पुरुष नहीं है जो मुझे सुख दे । अपने आपको शुद्ध ज्ञानरूप अनुभव करने से ही अलौकिक आनंद प्राप्त होता है । इस जीव को आनंद हो, सुख हो, दुःख हो―ये तीनों ही बातें इस पर निर्भर हैं कि वे अपने को कैसा जानें कि सुख हो जाय, अपने को कैसा जानें कि दुःख हो जाय और अपने को कैसा जाने कि आनंद हो जाय । केवल अपने आपको जानने की विधि पर ही सुख, दुःख और आनंद निर्भर हैं । जब कभी हम और आप दुःखी होते हैं उस समय अपने को कैसा अनुभव करते हैं? यही अनुभव करते हैं कि मैं मनुष्य हूँ, मैं अमुकचंद हूँ, मैं अमुक प्रकार का हूँ इत्यादि किसी पररूप अपने को मानते हैं । हजारों घटनाएँ ऐसी अपने पर लगाकर अपने को दुःखी अनुभव कर सकते हैं । इसी प्रकार हजारों ही घटनाएँ बनाकर अपने को सुखरूप अनुभव कर सकते हैं । हमारा सुख-दुःख हमारे भावों पर ही अवलंबित है ।
इस प्रकार इस दोहे में यह बात कही गई है कि जो पुरुष अपने ज्ञानदर्शनरूप आत्मा को इस ही रूप से देखता है वह अलौकिक आनंद का प्राप्त करता है । यह आत्मा ही शिवमय है । अब अपने शुद्धआत्मा का ध्यान किए जाने पर कसा सुख प्राप्त होता है उसे इस दोहे में कहते हैं―