वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 117
From जैनकोष
जं मुणि लहइ अणंत सुहु णिय अप्पाझायंतु ।
तं सुहु इंदु वि णवि लहइ देविहिं कोडि रमंतु ।। 117।।
अपने आत्मा का ध्यान करते हुए जिस अनंत सुख को प्राप्त होते हैं उस सुख को इंद्र भी, करोड़ों देवियों के साथ रमता हुआ भी प्राप्त नहीं कर सकता है । मुनिगण अपने आपके शुद्ध स्वरूप का ध्यान करते हैं । बाह्य और आभ्यंतर परिग्रह से रहित, निज शुद्धआत्मतत्त्व की भावना से उत्पन्न वीतराग परम आनंद सहित मुनि जिस सुख को प्राप्त करते हैं उस सुख को देवेंद्रादिक भी नहीं प्राप्त कर सकते हैं । यह आत्मा स्वभाव से आनंदमय है । शुद्ध ज्ञानमात्र ऐसे ज्ञानस्वरूप, आनंदस्वरूप अपने आपको समझ जाय, और सब बातों को मना कर दिया जाय; मैं आगरावासी हूँ, मैं मनुष्य हूँ, मैं अमुक जाति का हूँ, अमुक पोजीशन का हूँ, पंडित हूँ, मूर्ख हूँ, इन सब बातों को मना कर दिया जाय । मात्र अपने को ज्ञानस्वरूप ही देखा जाय तो ऐसी स्थिति में जो सुख प्राप्त होता है वह सुख किसी भी जीव को नहीं है । जो इंद्र हजारों देवियों के साथ रमण करता हो, उस इंद्र को भी उतना सुख प्राप्त नहीं होता ।
इंद्र के हजारों क्या करोड़ों व खरबों देवियाँ उसके जीवन में हो जाती हैं, क्योंकि इंद्र की आयु होती है बड़ी और देवियों की आयु होती है थोड़ी । जैसे मानों सोलहवें स्वर्ग के इंद्र की आयु होती है 22 सागर और देवियों की आयु होती है ज्यादा से ज्यादा 55 पल्य । एक सागर में 10 कोड़ाकोड़ी पल्य होते हैं । एक करोड़ पल्य में एक करोड़ पल्य का गुणा किया जाय उसे कहते हैं एक कोड़ा कोड़ी । ऐसे 10 कोड़ाकोड़ी पल्य, एक सागर में होते हैं । और 22 सागर की आयु में हिसाब लगा लो तो एक इंद्र के करोड़ों देवियां क्या, खरबों, नीलों हो जायेंगी । हजारों तो रहती ही हैं । देवियां तो जल्दी मर जाती हैं और जल्दी ही उनकी एवज में, टाइम ज्यादा नहीं लगता; नई देवियां मिल जाती से । तो इंद्र के पूरी आयु में करोड़ों देवियां हो जाती हैं । उन करोड़ों देवियों के साथ रमण करने वाले इंद्र को भी उतना सुख नहीं प्राप्त होता है जितना कि सुख शुद्ध आत्मा ने ध्यान करने वाले पुरुष को प्राप्त होता है ये मुनि बाह्य और व्यंतर परिग्रह से रहित हैं । इनके निज शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना बहुत रहती है । उनके वीतराग परम आनंद प्रकट होता है । उस आनंदसहित ये मुनि जिस सुख को प्राप्त करते हैं, उस सुख को देवेंद्रादिक भी प्राप्त नहीं कर सकते।
कहा भी है किसी ग्रंथ में कि-यह सारा जगत् महान् मोहरूपी अग्नि से जल रहा है । सर्वत्र देखो―मोह का ही प्रसार है । ऐसे समय में जब कि सारा जगत् मोहरूप अग्नि से जल रहा हो, उस जगत् में विषय और परिग्रहों से विमुक्त हुए तपस्वीजन सुखी ही रहा करते हैं । विषयों की प्रीति में यह मोहरूपी अग्नि दुःख-ज्वाला से जला रही है और विषयों की संज्ञा हट जाय तो ये तपस्वीजन सुखपूर्वक ही रहें । सुखी होने का एक ही उपाय है कि अपने को नानारूप अनुभव न करो, अपने को एक ज्ञानमात्र अनुभव करो ।
इस लोक में सुखी कौन है? सुखी वे ऋषिराज हैं जिन्होंने बाह्य और आभ्यंतर परिग्रह का त्याग कर दिया और निरंतर निज शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना में रहते हैं । अत: इस शुद्ध भावना से उत्पन्न हुए वीतराग परमानंद सहित जो मुनि हैं, वे उत्तम सुख को प्राप्त करते हैं । जैसा आनंद ये मुनिराज प्राप्त करते हैं उस आनंद को देवेंद्रादिक भी नहीं प्राप्त कर सकते । एक इंद्र की जिंदगी में उसकी करोड़ों देवियां हो जाती हैं । हजारों देवियां तो उसकी जिंदगी में ही रहती हैं और देवियां गुजर गईं तो ज्यादा से ज्यादा एक दिन बाद में दूसरी देवियों का जन्म हो जाता है और अंतर्मुहूर्त में ही जवान हो जाती हैं, इंद्र की आयु है अधिक से अधिक 22 सागर और देवियों की आयु होती है अधिक से अधिक 55 पल्य । एक इंद्र के करोड़ों देवियों का संग हो जाता है ऐसी देवियों के साथ रमने वाला इंद्र भूख प्यास की चिंता से रहित भी उस सुख को प्राप्त नहीं कर सकता, जिन सुख को शुद्ध आत्मा को भावना करनेवाला मुनि प्राप्त करता है । देखो मोह की विचित्रता ये तपस्वीजन ती इस मोहरूपी अग्नि से जलने वाले लोक में विषय प्रसंगों से मुक्त होकर सुखी हुआ करते है, उसही सुख के संबंध में और विशेष कहते हैं―