वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 120
From जैनकोष
राएँ रंगिएँ हियवडए देउ ण दीसइ संतु ।
दप्पणि मइलए विंबु जिम एहउ जाणि णिभंतु ।।120।।
जिनका हृदय राग से रंजित है अथवा जो हृदय राग से रंगा हुआ है उस हृदय में देव नहीं दिखता । कैसा है वह देव? वह देव शांत व रागादिक रहित है । उसका दृष्टांत दिया गया है कि जैसे मलिन दर्पण में बिंब नहीं दिख सकता है, ऐसे हम निर्भ्रांत होकर तत्त्वस्वरूप को जानें । यह तो रोज दिखने में आता है कि मलिन दर्पण में अपना मुख कैसे देख सकते हैं? दर्पण पर जरासी तेल की चिकनाई ही लग रही हो तो कुछ भी उसमें नहीं दिखता है । इसी तरह यह उपयोग है दर्पण की तरह स्वच्छ निर्मल । यदि इस निर्मल उपयोग में रागादिक का मल आ जाय तो भगवान् नहीं दिख सकता है । अथवा जिस प्रकार मेघपटल से आच्छादित प्रकाशित सूर्य की किरणें नहीं दिख सकतीं, इसी प्रकार कामक्रोधादिक विकल्परूपी मेघों से ढका हुआ यह अपूर्व सूर्य दिख नहीं सकता ।
अभी यहीं पर किसी के विरोधी से आप स्नेह लगायें तो उसका प्रेम कम हो जायेगा । तो यह तो भगवान् है, परमात्मतत्त्व है, उसके विरोधी हैं, काम क्रोधादि कषाय । यदि यह विरोधियों से अपनी मित्रता बढ़ाये तो उस उपयोग में परमात्मा नहीं दिख सकता है और जिस उपयोग में परमात्मा के दर्शन नहीं हैं; पुत्र, मित्र, परिवार आदि का ही जहाँ लगाव है; आत्मा के उद्धार का वहाँ कोई अवसर नहीं है । ये लोग खुद असहाय हैं, पाप का उदय आ जाये तो ये विह्वल हो जायेंगे । तो जो विह्वल हो जायें, जिसके पाप का उदय आ सकता है; ऐसे जीवों से हम क्या आशा रखें कि ये मेरे शरण हो जायेंगे ।
भैया ! सूर्य के नीचे मेघपटल आ भी जायें तो भी मेघपटल के ऊपर सूर्य का प्रकाश रहता है ना, मेघों के नीचे सूर्य का प्रकाश न रहेगा; पर यह आत्मा केवलज्ञानावरणरूपी मेघों से छा जाय तो ऐसा नहीं है कि आत्मा के अंदर केवलज्ञान का प्रकाश यार । पड़ा हो और ऊपर से कर्मों ने ढक रखा हो―ऐसा यह नहीं है । जैसे कि आकाश में सूर्य के नीचे मेघ आ जायें तो सूर्य तो पूर्ण बराबर जगमग चमक रहे हैं, उस मेघ के ऊपर तो प्रकाश बराबर है ना, मेघों के नीचे प्रकाश नहीं है । पर यहाँ रागद्वेष का मल आया तो आत्मा में केवलज्ञान रंच भी नहीं प्रकट होता । केवलज्ञान की शक्ति है आत्मा में, पर केवलज्ञान रंच भी प्रकट नहीं है । तो शक्ति का घात किया है कर्मों ने; प्रकट नहीं होने दिया है । तो जो शुद्ध परमात्मतत्त्व हमारी ऐबों के कारण प्रकट नहीं होता है वह परमात्मतत्त्व ही उपादेय है ।
जैसे पहिले अंधा घड़ा रख दें तो उसके ऊपर दूसरा औंधा ही घड़ा रखा जा सकता है और उसके ऊपर तीसरा घड़ा भी अंधा ही रखा जा सकता है । सीधा घड़ा उन औंधे बड़ों पर नहीं रखा जा सकता है । ऐसे ही सीधा घड़ा रखें तो उसे के ऊपर भी सभी सीधे घड़े ही रखे जा सकते हैं, अंधा घड़ा उन सीधे बड़ों के ऊपर नहीं रखा जा सकता है । इसी प्रकार जिसके मूल में ज्ञान का उदय है, निर्मलता है, उसके जो बात आयेगी वह सही आयेगी, सीधी आयेगी, विपरीत नहीं आ सकती; किंतु जिसके मूल में अज्ञान बसा है, उस अज्ञान की जो भी क्रिया होगी, चेष्टा होगी, विचार होगा, वह सब औंधा होगा, विपरीत होगा । उसके शुद्ध भाव नहीं हो सकते । तभी तो ज्ञानी जीव का गुस्सा भी भला है और अज्ञानी जीव का प्रेम भी बुरा है । अज्ञानी के प्रेम से धोखा और दगा हो सकता है; पर ज्ञानी के प्रेम से धोखा और दगा नहीं हो सकता है । और लोगों में तो इतनी बात मानते हैं कि किसी ज्ञानी महापुरुष के द्वारा या भगवान् के स्वरूप द्वारा किसी की मौत हो जाए तो उसका कल्याण होगा―ऐसा मानते हैं । यदि ज्ञानी पुरुष किसी पर नाराज भी हों, तो उसमें हित का मर्म हुआ करता है और अज्ञानी पुरुष किसी पर प्रसन्न भी हो सकता हो तो उसके भीतर अहित ही घुसा हुआ है ।
अज्ञान बनता कैसे है? विभाव परिणमने की अपनायत से । बस, इस कारण क्रोध, मान, माया और लोभ की तीव्रता में क्लेश बढ़ते चले जाते हैं । जिसमें मोह है, वह अज्ञानी है । इस अज्ञान में रखा कुछ नहीं है, किंतु मानते है कि यही मेरा सर्वस्व है । कुछ थोड़े-से परपदार्थों को मान लिया कि ये ही मेरे सर्वस्व हैं । अन्य दूसरे जीवों की कुछ वैल्यू नहीं करते । ये हमारे सब कुछ हैं । हाँ, है तो सही तुम्हारे, पर ये तुम्हारी दुर्गति के लिए ही हैं । इस प्रकार का अर्थ लगाओ ।
भैया ! संसार में भ्रमाने के लिए, कष्ट में फंसाने के लिए जो कुछ हैं, सो ये मोहीजीव ही हैं । इसका अर्थ किया जाता है । मोह के मायने दो भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं, उनमें संबंध का भ्रम करना सो मोह है । मोह मिटाना सरल है, पर राग मिटाना सरल नहीं है । जैसे पेड़ की जड़ उखाड़ देना सरल है, पर डाला और पत्तों को जल्दी ही सुखा कर इस प्रकार का बना देना कठिन है । पेड़ को जड़ को 2 या 4 मनुष्य मिलकर कुल्हाड़ी से गिरा दें, जड़ उखड़ जायगी; मगर उस पेड़ के पत्ते अभी ही हरे न रहे, सूख जायें, यह कोई नहीं कर सकता है । तो दस या बीस दिन में सूखेंगे । मगर जड़ के मिटा देने में समय नहीं लगता । तो मोह का मिटाना सरल है, पर राग का मिटाना उतना अपने अधीन बात नहीं है । कारण यह है कि मोह मिटता है ज्ञान से और राग मिटता है ज्ञानाभ्यास से तथा अपने समय से । ज्ञान होने पर भी राग रहता है, किंतु मोह नहीं रह सकता हैं।
मोह क्या है कि दो भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं और उनमें एक को दूसरे का स्वामी मान लेना; इस मान्यता का नाम मोह है । जैसे ही वस्तु के स्वरूप का अवगम होता है, यथार्थज्ञान होता है वैसे ही मोह मिट जाता है । तो मोह मिटाने का यही काम बना लें तो समझो कि सदा के लिए दुःख दूर कर लिया । जैसे किसी चिढ़ने वाले बच्चे को चिढ़ाने वाले दूसरे लड़के खड़े हो जाते हैं । इसी तरह रुलने वाले इन जीवों को रुलाने के कारण दसों खड़े हो जाते हैं । इन मित्रों में और कुटुंबियों में तुम्हारे हित को बात कोई नहीं सोचेगा । वहाँ तो पर्यायबुद्धि लगी है कि धन बढ़ना चाहिए, गहने बढ़ने चाहियें, इज्जत बढ़नी चाहिए, नौकरचाकर बढ़ने चाहियें, आराम से रहें । पर आराम है कहा? शरीर से खूब काम करें और ज्ञान सही हो तो आराम उसे है । और शरीर से बड़ा आराम भोगे और ज्ञान है उल्टा, तो वहाँ क्लेश है । अभी दो आदमी सामने कोई गुपचुप बात कर रहे हौं और आपको कहीं यह भ्रम हो जाय कि ये मेरे ही बारे में बात कर रहे हैं, हमारी ही तरफ हाथ मिलाते हैं, मुंह करते हैं; ऐसा भ्रम करके ही उसका दुख बढ़ गया । तो यह ही खुद दु:ख का करने वाला है । वे दोनों तो बेचारे उनके अंदर जो भाव हैं उनके अनुसार बातें कर रहे हैं । वहाँ इसका किसी ने क्या बिगाड़ किया, पर यह अपने में भ्रम लगाकर स्वयं दुःखी होता है । अत: दूसरा रुलाने वाला कोई नहीं है । मैं स्वयं अज्ञान से व भ्रम से दु:खी होता हूँ ।
एक कथानक है । दीवाली के दिन थे, पुताई हो रही थी । तो दीवाली में गेरुवे के रंग की पुताई सस्ती पड़ती है ना । तो घर के बड़े अधबटवा थे सो उनकी यह आदत थी कि सुबह उठें और लोटा लेकर अंधेरे में ही 2-3 फर्लांग शौच के लिए जावें । सो पानी शाम को लोटे में भरकर रख दिया जाता था । अब दीपावली के दिनों में गेरुवे रंग की पुताई बाबा की पोती कर रही थी । सो शाम को कुछ पुताई करने के बाद बाबा की खाट के नीचे गेरुवे रंग से भरा हुआ लोटा रख दिया । उस दिन पानी भी धरने का ध्यान न रहा । अब ये बाबा उठे और वही लोटा लेकर दो-तीन फर्लांग दूर चले गए । शौच होकर जब शुद्धि करने लगे लोटे से पानी लेकर, नीचे गिरा हुआ तो खून दिखा हाथ
में देखा कि लाल-लाल सारा खून लगा दे । अरे ! लगभग आधा सेर खून निकल गया । अब तो आफत आ गई, सिर दर्द हो गया, और घर आते-आते तेज बुखार आ गया । खाट पर लेट गए । अब खाट पर पड़े हुए दु:खी हो रहे हैं । कहते किसी से नहीं बनता, क्योंकि जो गुप्त रोग होते हैं वे किसी से कहते नहीं बनते हैं । हाँ, या तो तब कहा जा सकता है जब कि बिल्कुल शक्ति खत्म हो जाय । कुछ देर बाद में जब बाबा की पोती आई, सो वह तो घर की पुताई की धुन में थी । पूछा―बाबा ! वह गेरुवे रंग का लोटा कहाँ गया जो मैंने शाम को पुताई करने के बाद खाट के नीचे रख दिया था । इतनी बात सुनकर कि अरे ! वह तो गेरुवे रंग का लोटा था, बाबा का सारा बुखार दूर हो गया । समझ में आ गया कि वह खून नहीं था, वह तो गेरुवा रंग था ।
तो भैया ! बहुत सी बीमारियाँ तो भ्रम से लगी हैं । अभी मित्र-मित्र हों, भ्रम हो जाय तो भ्रम होने के कारण बोल तो सकते नहीं, क्योंकि जब श्रम हो जाता है तो थोड़ा द्वेष जग जाता है, जिसके कारण बोलता नहीं है । जब बोलना बंद कर दिया तो जरा-जरा सी बातों में भ्रम हो जायगा । यह जो कुछ करता है, मुझे क्लेश पहुंचाने के लिए करता है, यह भ्रम हो जाता है और उसका फल यह होता है कि एकदम बात बिगड़ जाती है । और, देखो तो, हम और आप पर आफत क्या है? हम और आप पर कुछ आफत नहीं है । आफत तो यह है कि जिनसे कुछ लेना-देना नहीं उनकी चिंता करते हैं । ये किस गति से आये हैं और किस गति को जायेंगे, मगर चिंता उनकी बेहिसाब करते हैं । धन कम हो गया तौ उसकी चिंता में मरे जा रहे हैं । यह नहीं सोचते हैं कि पहले कुछ न था, अब बढ़ गया है । घर के लोग कहना नहीं मानते, उल्टा चलते, तो उनके शल्य बना रहता है । शरीर में वैसे ही फंसे हैं । आज जरा अच्छा शरीर मिला है और फिर मरकर पशु बन गए तो स्वकल्याण से भी गए । कितना पाप का उदय है शरीर में फंसे हैं, कितनी ही आफतें हैं हम और आप पर । पर इन आफतों के अंदर ही रहकर पुण्योदय से कुछ क्षणिक सुख
पाया है और इस पुण्योदय के ही कुछ समय बाद बड़ी दुर्गतियों की स्थिति हो जाती है । उन सब आपत्तियों से बचने का उपाय केवल एक ही है―भ्रम दूर करना ।
देखो भैया ! आपत्तियाँ तो आ गईं सचमुच की । आत्मा से यह शरीर चिपटा है तो शरीर से फंस गये कि नहीं? फंस गए । तो यह रोग सचमुच हो गया कि नहीं? हो गया । पर इतना फंस जाने की जड़ क्या है? तो खोदते-खोदते उसकी जड़ निकली यह कि पर वस्तुओं के बारे में यह भाव कर लिया कि यह मेरा है । जड़ इतनी सी निकली, खोदते-खोदते । एक ऐसा परिणाम बन गया कि ‘‘यह मेरा है ।’’ इतने व्यर्थ के परिणाम के आधार पर ये विपदाएं सचमुच की खड़ी हो गई हैं । तो इन विपत्तियों को मिटाने का उपाय अपने शुद्ध ज्ञानस्वरूप परमात्मा का भेद करना है । बड़े से मिलना है तो खूब बड़े से मिलें । अधकचे बड़े से मिलने में लाभ नहीं है । खूब बड़ा कौन है? भगवान् अरहंतदेव, परमात्मदेव, वीतराग सर्वज्ञदेव, वही बड़ा है और उससे मिलने पर अर्थात् उनके गुणों को अपने उपयोग में रखने पर समझ लो कि संसार में कोई कष्ट नहीं आता ।
भगवान् से कौन मिल सकता वह पुरुष भगवान् से मिल सकता है, जिसने अपने हृदय को निर्मल बनाया हो । हृदय में तो विषय भरे हों और परमात्मस्वरूप से मिलन कर लें, यह कभी नहीं हो सकता है । मैले घर में तो पड़ोसी को भी आप नहीं बैठालना चाहते । कोई छोटा अफसर आ जाए और एक आधे घटे पहले मालूम पड़ जाए, तो आप बड़ी सफाई करते हैं और अपने मकान को बडे सुंदर ढंग से सजाते हैं । अगर घर के एक कोने में हंडिया रखी है तो उनके आगे सफेद पर्दा लगा देते हैं । इस तरह आप एक आफीसर से मिलने के लिए तो घर को साफ और स्वच्छ बनाते हैं और जो भगवान् तीनों लोकों का अधिपति है, शुद्ध है, सर्वलोकों का ज्ञाताद्रष्टा है, दोषों से अत्यंत परे है―ऐसे प्रभु को आप अपने घर में बिठाना चाहे और घर को गंदा रखें तो क्या प्रभु आपके घर में आएगा? नहीं आ सकता है । जिसका हृदय अत्यंत स्वच्छ हो; रागद्वेषरहित हो; क्रोध, स्वार्थ, वासना आदि कुछ भी न हों, केवल शुद्धस्वरूप की जिज्ञासा के लिए अपना लक्ष्य बनाया हो तो प्रभु मिल सकता है ।
जैसे मलीन दर्पण में प्रतिबिंब नहीं दिख सकता । इसी प्रकार रागद्वेष से मलीन उपयोग में परमात्मा का स्वरूप दिख नहीं सकता । मलीन हृदय की पहिचान कैसे होगी? दूसरे पहिचान नहीं कर सकते । दूसरा पहिचान करेगा तो उसकी बोली और वाणी से करेगा कि इसका हृदय मलीन है या कैसा है? बोलने से हृदय की स्वच्छता का अनुमान किया जा सकता है । वह शुद्ध प्रेमपूर्वक बोले कि तो जगत् में उसका असर क्यों न होगा ? भगवान् की दिव्यध्वनि का असर समवशरण में विराजमान सब जीवों में होता है । कारण यह है कि वहाँ लागलपेट की बातों की दिव्यध्वनि नहीं निखरती । स्वत: सहज जैसा मेघ गर्जता है वैसी जीव के पुण्योदयवश उनके दिव्यध्वनि निकलती है । तो जो निर्दोष वाणी है, उस निर्दोष वाणी का दूसरों पर प्रभाव पड़ता है और दूसरों पर प्रभाव पड़े या न पड़े, पर अपनी निर्दोषता तो बनाओ, जिससे स्वयं पर अपना प्रभाव रहे । अपने को सुखी बनाना है तो मैं केवल ज्ञानमात्र हूँ, ऐसा जो सहज सत्यस्वरूप है, उसे स्वरूप की भावना बनाओ ।
भैया ! गृहस्थी में यद्यपि काम अनेकों करने पड़ते हैं, किंतु मुख्य उद्देश्य यही बनाओ कि अपने उस सहज सत्यस्वरूप को हम निरखते रहें । अपनी ही दृष्टि से अपना भला हो सकता है । इस कारण अपना हृदय निर्दोष रखो और प्रभु के मनमाने दर्शन करके प्रसन्न रहा करो ।
अब इसके बाद यह बात दिखाते हैं कि विषयों में आशक्ति रखने वाले जीवों को यह परमात्मा नहीं दिख सकता ।