वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 119
From जैनकोष
जोइय णियमणि जिम्मलए पर दीसइ सिउ संतु ।
अंबरि णिम्मलि घणरहिए भाणु जि जेम फुरंतु ।।119।।
हे योगी ! निर्मल अपने चित्त में शिव, शांत, रागादि रहित निज परमात्मा नियम से दिखता है । निर्मल चित्त हो तो वहाँ परमात्मा अवश्य दिखता है और निर्मल चित्त न हो तो वहाँ परमात्मा को कितना ही ढूंढो, पर वह दिखेगा नहीं । जैसे बादल रहित निर्मल आकाश में सूर्य प्रकाशमान् होता है और बादलरहित आकाश न हो, मेघ छाया हो तो उसका प्रकाश फिर नहीं फैल सकता । मेघों की छटा का आरोप विघटित हो जाए तो निर्मल आकाश का यह सूर्य प्रकाशमान् होता है । उसी प्रकार शुद्धआत्मा के अनुभव के विरुद्ध काम, क्रोधादिक विकल्परूपी मेघों का नाश होकर निर्मल चित्तरूपी आकाश में केवलज्ञानादि अनंतगुणों से फैला हुआ यह निज शुद्ध आत्मरूपी सूर्य प्रकाश को करता है । सारा फैसला तो मोह और निर्मोह को बात का है । मोह है तो लटोरे, घटोरे, खचोरे बनना ही पड़ेगा और मोह नहीं है तो बेड़ा पार हो जायगा ।
भैया ! सत्य बात जानकर अपने भीतर में ऐसी हिम्मत तैयार करना है, किसी को दिखाना नहीं है, पर अपने आपमें ऐसी हिम्मत बनाना है कि यह ज्ञान स्वयं प्रतिभासित रहे कि मेरा मात्र में हूँ । मेरा अन्य कुछ भी नहीं है । मैं अकिंचन्य हूँ, मेरा कहीं कुछ नहीं है ।
किंतु अज्ञानी पुरुष ऐसा चिंतन करने के बजाय ऐसा चिंतन करता है कि यदि घर में खुद की स्त्री और उसकी बड़ी जेठानी का झगड़ा हो जाए तो मामला जाने या न जाने अपनी स्त्री का पक्ष लेने लग जाए । कहां तो न्यायनीति बर्तना चाहिए था, मोह छोड़ना चाहिए था और कहां स्त्री का पक्ष लेने लगे । कभी पुत्र का पक्ष ले लिया और कभी माँ का पक्ष ले लिया । पक्ष की बात हर जगह रखता है । अपना लड़का भी यदि खोटी चाल चलता है तो उसकी उपेक्षा करके उसे दंड दें, यह तो नहीं करता; किंतु दूसरे पुरुष को बुरा कहे और अपने लड़के का पक्ष ले । यह तो न्याय में नहीं लिखा है । यथार्थ-स्वरूप को जानो और सत्य का बर्ताव करो । याद काम, क्रोधादिक विकल्परूपी मेघ नष्ट हों तो इस आत्मा का प्रकाश बढ़ेगा । इस जीव के ये 6 ही तो शत्रु हैं―मोह, काम, क्रोध, मान, माया और लोभ । इन शत्रुओं के जीवित रहते कुछ चैन मान सकें शांति से रह सकें, यह नहीं हो सकता है । इसलिए भगवान् की भक्ति करना बताया है कि कुछ देर तो भगवान् के गुणों में चित्त दो ।
दर्शन करने की विधि यह है कि देखो तो मूर्ति पर चित्त ले जाओ वहाँ जिनकी मूर्ति बनी है । वीर प्रभु की मूर्ति है तो उस वीर के जमाने को सब आकार-प्रकार से सोचने लगो । समवशरण में विराजमान वीरप्रभु कैसा उपदेश कर रहे है; यह सब चित्रण अपने मन में उतारो तो समझो कि वीरप्रभु की उपासना की । जिस मूर्ति के दर्शन करते हैं उसके गुणों का ध्यान नहीं करते तो क्या होता है दर्शन करने से? अपने यहाँ यह प्रथा बढ़ चली कि धोती पहिने हुए पूजा करने आये और जितने भगवान हुए सबके पैर पड़ लिये और तनिक बड़े से भगवान् हुए तो पैर दाब लिये । छोटे के तो दाबते नहीं बनते । पर यह दर्शन, भक्ति और पूजा के विरुद्ध बात है । जैसे घर की चीजें समझ लो कि झट गए और खंभे से टिक गए, खंभे को पकड़ लिया और चाहे चीज को दाब दिया । ऐसे ही निर्भय होकर जब चाहे पैर छूते रहे तो भक्ति में कमी आ जायगी । अच्छा क्यों दाब रहे भगवान् के पैर? सो बतलाओ, क्या इस मूर्ति के पैर थक गए सो दाब रहे हो? जैसे धन पाने के लिए धनिक की खुशामद करते हैं, पैर दाबते हैं; ऐसे ही मूर्ति के पैर दाबे तो मिलेगा कुछ नहीं । मूर्ति के पैर दाबने की अपेक्षा गांव का कोई कंजूस सेठ हो उसके पैर दाबो तो कुछ न कुछ तो मिल ही जायेगा, पर उस मूर्ति के पैर दाबे तो अज्ञानकृत कर्मबंध हो जायेगा, पर कंजूस से तो पैसा मिलेगा ।
शुद्ध होकर दूर खड़े होकर प्रभु पूजादि करो । प्रभु को कोई छू भी सका है । प्रभु की स्थापना ही तो यह है । यह ध्यान रखिये कि मति का अभिषेक करना पड़ता है । यदि अभिषेक न करें तो मूर्ति की मुद्रा बिगड़ जायेगी, मुद्रा मलिन हो जायेगी । फिर दर्शनार्थियों को दर्शन में मन न लगेगा । इसलिए अभिषेक करना पड़ता है । यदि यह मूर्ति मुद्रा बिना अभिषेक किए चमकदार बनी रहती तो दूर से ही पूजा करके काम बना लेते । सो ऐसा होता नहीं इसलिए अभिषेक की विधि बनायी है । उसमें भी प्रभु की मूर्ति पर छन्ना रखकर अभिषेक न करें । छन्ना रखकर अभिषेक करने की बात दूर जाने दो । अकलंक-निकलंक ने एक डोरा डालकर लांघ दिया था, सो उन्हें उसका दोष नहीं लगा था । यह सोच लिया था कि परिग्रहसहित दिगंबर मूर्ति नहीं होती है । उसमें अकलंक, निकलंक का कोई चारा न था । बड़ा कठिन समय था । उस समय को ऐसा ही करके टाला था, और फिर सब मूर्तियों को एक-एक करके पहिले पैर छू ले और फिर अंत में एक बार अपने माथे में लगा ले तो वह तो हमें भक्त नहीं मालूम देता और बहुतसी मूर्तियां रखी हैं । सो बार-बार पैर छूने से समय ज्यादा लगता है तो एक बार सबके पैर छू लें और अंत में एक बार माथे में लगा लें, तो यह भी हमें भक्ति नहीं मालूम होती है । मूर्ति तो दर्शन के लिए है और जिसके दर्शन किए हैं शांतिनाथ, महावीर आदि के उनके जो गुण समझ सकें हैं वहाँ दृष्टि ले जायें, यह है भगवान् की भक्ति, भगवान का पूजन । यह आदत बनी हो तो ख्याल करके धीरे-धीरे पुरानी आदत को मिटाने की कोशिश करो । पर मुद्रा से तो बहुत दूर रहकर ही गुणगान करना चाहिए, उसमें ही भक्ति है ।
जैसे किसी कलेक्टर के पास जाओ तो झट उसकी कुर्सी पर चढ़कर पैर दाबने लगो तो बात न बनेगी । दूर रहकर ही काम करो । प्रभु को तो कोई छू भी नहीं सकता अत: दूर रहकर ही दर्शन करना चाहिए । अभिषेक के समय मूर्ति का छूना ठीक है और शेष समय दूर रहकर ही मूर्ति को निहार कर उनके गुणों का स्मरण करके अपने आपमें भक्ति बढ़ाना चाहिये । सबसे बड़ी भक्ति तो यह है कि भगवान् ने जो हुक्म दिया है उसका पालन करें । भगवान् का हुक्म यह है कि तुम मोह कम कर दो; मान, माया, लोभ से दूर रहो । उनके बताये हुए काम को हम करेंगे तो हम भगवान् के निकट भक्त बनेंगे । केवल पूजा, अभिषेक, दर्शन या झांझ-मंजीरा बजाने आदि से हम भगवान् के भक्त नहीं कहे जा सकते । यह भी व्यवहार से करना है, करना चाहिए । पर उनका जो उपदेश है उसको चित्त में उतारें तो हम भक्त कहलायें । पिताजी को भोजन तो अच्छा करा दें और बात उनकी एक भी न मानें और उल्टी दो बातें सुना दें, तो हो गये पिता के भक्त क्या? नहीं । इसी तरह भगवान को हम बहुत कुछ चढ़ा, और उनकी बात एक भी न मानें और मन से दो बातें उनको सुना दें, तुम्हें बैठना हो तो बैठो, हम तो घर में जाकर मौज करेंगे । तो वह भगवान की भक्ति नहीं हुई । अत: भगवान् के गुणों में चित्त हो तो उससे जो सुख प्राप्त होता है, वह सुख बड़े इंद्रादिकों को भी नहीं प्राप्त हो सकता ।
अब यह बतला रहे हैं कि जैसे―मलिन दर्पण में रूप नहीं दिख सकता है, इसी प्रकार रागादिक परिणामों से मलिन चित्त में शुद्ध आत्मा का स्वरूप नहीं दिख सकता ।