वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 31
From जैनकोष
अमणु अणिदिय णाणमउ मुत्ति विरहिउ चिमित्तु ।
अप्पा इंदिय विसउ णवि ललवणु एहु विसंतु ।।31।।
कहते हैं कि यह आत्मा मनरहित है, मन जुदा चीज है और यह मैं आत्मा जुदा पदार्थ हूँ । मन दो प्रकार के होते हैं । एक द्रव्यमन और दूसरा भावमन । द्रव्यमन तो पौद्गलिक है । जैसे ये पंचेंद्रियां बनी हैं तो ये इंद्रियां पौद्गलिक हैं, पौद्गलिक परमाणुओं से रची हुई हैं । इसी प्रकार मन को कहते हैं अंतःकरण अर्थात् अंतरंग की इंद्रियां । पंचेंद्रिय को कहते हैं बाह्यकरण और मन को कहते हैं अंतःकरण । दूसरी मन में सात इंद्रियां हैं जो आत्मा में दिख नहीं सकती हैं किंतु अंतर की इंद्रियां हैं, उनका निमित्त है द्रव्यमन और जैसे इन बाहरी इंद्रियों के निमित्त से हम ज्ञान किया करते हैं, आंखों के निमित्त से इस रूप का ज्ञान करते हैं, कर्ण के निमित्त से हम शब्दों का ज्ञान करते हैं, जार के निमित्त से हम गंध का ज्ञान करते हैं, रसना के निमित्त से हम रस का और समूचे शरीर स्पर्शन के निमित्त से स्पर्शन का ज्ञान करते हैं । तो इन इंद्रियों के निमित्त से जो ज्ञान होता है वे भावेंद्रियां कहलाती हैं । इसी प्रकार इस द्रव्यमन के निमित्त से जो कल्पना बनती है चिंतन चलता है, विचारधारायें हुआ करती हैं वे सब कहलाते हैं भावमन । यह मैं आत्मा इन द्रव्येंद्रियों से परे हूँ, भावेंद्रियों से परे हूँ, द्रव्यमन से परे हूँ और भावमन से भी परे हूँ । मन का काम है विकल्पजालों को बनाना, किंतु मेरा स्वरूप है परमज्ञानस्वभाव का । मेरे स्वरूप में विकल्पजाल नहीं है और पौद्गलिक यह मन भी मेरा नहीं है । मैं मनरहित मात्र चैतन्यस्वरूप हूँ । मन का काम है विकल्पजाल बुनना । विषयों के साधनों में उपयोग लगाना । विषयों के साधनों की संचय बुद्धि करना―ये सब मन के काम हैं पर मैं स्वतःसिद्ध हूँ, स्वतंत्र हूँ । मेरा कार्य है ज्ञाता दृष्टा रहना । मैं मनरहित हूँ और इंद्रिय समूह से भी रहित हूँ, अत्यंत अतींद्रिय हूं । यह आत्मा अतींद्रिय है । उससे उल्टा ये इंद्रिय लग गई हैं । क्लेश कभी होते हैं तो उल्टे संग से होते हैं, इस चेतन का संबध किसी दूसरे पदार्थों से तो होता नहीं है इसका संबंध चेतन से रहता है और अचेतन तो इसके उल्टा चीज है । उस अचेतन के संग से उपाधि से जो विचार बनता है वह भी अचेतन विचार बनता है । मैं आत्मा इंद्रियों से परे हूँ । बतलावो पिता पुत्र की आत्मा से प्रेम करता है या पुत्र के शरीर से प्रेम करता है? यदि पिता पुत्र की आत्मा से प्रेम करता हो तो जिस प्रकार से आत्मा को भुला सकते हो उसी प्रकार का यत्न यहाँ पिता करता । पुत्र की आत्मा का भला कैसे हो सकता है? उसे बचपन से धर्म ज्ञान में लगावे, अध्यात्मज्ञान में लगावे और उसको साधुजनों का सत्संग अथवा धार्मिक योजनाओं में लगाना इससे पुत्र की आत्मा का भला है । पर मां व पिता की इच्छा इसके विपरीत रहती है कि यह कमाने लायक बने, इसकी शादी कर दें और इसकी संतानों की परंपरा चले । पुत्र की आत्मा से तो प्यार यहाँ किसी को नहीं है । तो क्या पुत्र के शरीर से प्रेम है? शरीर से प्रेम होता तो पुत्र का आत्मा खोटे परिणाम वाला बन जाय, खोटे आचार वाला बन जाय तब वह शरीर नहीं रुचता अथवा मृत्यु होने के बाद इस शरीर को जला देने के यत्न में क्यों रहते? शरीर से भी प्रेम नहीं । तब फिर किससे प्रेम है? न आत्मा से प्रेम है, न शरीर से प्रेम है फिर प्रेम रहा अपने कषायों से । दूसरों से प्रेम नहीं है किसी का । प्रत्येक व्यक्ति का अपने कषायों से प्रेम हुआ करता है । छोटे बच्चे को हाथ में लेकर ऊँचे उठाते हैं खिलाने के लिये ना? ऊँचे उठाया फिर गोंच लिया । बच्चा ऊँचा उठता है, गिरता है तो डर के मारे मुंह बा देता है और खिलाने वाले समझते हैं कि इसे आनंद आ रहा है, हंसी आ रही है । उसके दुःखों को तो नहीं गिना किंतु अपने कषायों को गिना । कोई किसी से प्रेम तीन काल में कर ही नहीं सकता । जो प्रेम करते हैं वे अपने विचारों से, कषायों से, अपनी वासना से प्रेम करते हैं । इस जीव से प्रीति ही रही है, तो अपने इंद्रियज्ञान से प्रीति हो रही है, पर न मैं ये इंद्रिय हूँ, न इंद्रियज्ञान हूँ । मैं तो इंद्रियों से परे केवलज्ञानमय पदार्थ हूँ । मेरा स्वरूप क्या है? केवल ज्ञानप्रकाश । मुझमें पत्थर लोटे नहीं पड़े हुए हैं । रूप रस आदि नहीं भरा हुआ है । मैं आकाश की तरह अमूर्त एक चैतन पदार्थ हूँ । आकाश तो असीम है प्रदेशों से किंतु यह आत्मा प्रदेशों से सीमासहित है । जितना बड़ा आपको देह है उतने में आपका आत्मा विस्तृत है । पर इस ही आत्मा को स्वभावदृष्टि से देखें तो भाव में न सीमा है न असीमा है । वह तो एक चैतन्यस्वरूप है । स्वभाव की लंबाई चौड़ाई नहीं होती । पदार्थों में लंबाई चौड़ाई होती है, जब हम अपने आत्मा को पदार्थ और द्रव्य के रूप में देखते हैं तो इसका विस्तार है, सीमा है पर आत्मा के स्वभाव को देखते हैं तो उसके सीमा नहीं है । मनुष्य से पूछें कि यह कितना बड़ा होता है तो बता देगा कि 5-7 फुट का लंबा । और पूछें कि इस जीव को जो क्रोध आ रहा है वह कितना बड़ा है? तो क्रोध के बारे नहीं कह सकते कि यह 5 फुट का क्रोध है, 7 फुट का क्रोध है । अभी तो विचार की बात कह रहे हैं पर जो ज्ञानस्वभाव है उसको लख करके क्या कोई कह सकता है कि यह कितना बड़ा है? स्वभाव में लंबाई चौड़ाई नहीं होती है । पदार्थों की लंबाई चौड़ाई है पर आत्मा में लंबाई चौड़ाई हैं क्या? यह तो इतना लंबाचौड़ा है इसमें किस प्रकार की आदत पड़ गई है? इसमें वैराग्य की, राग की जो आदत पड़ गई है उस आदत में लंबाई चौड़ाई होती हैं क्या ? आत्मा का स्वरूप होता है विस्तार नहीं होता है । तो इस आत्मा के स्वरूप पर दृष्टि देकर और फिर जो स्वरूप ज्ञात हो उसको व्यक्ति का रूप देना वही ब्रह्मवेदांत कहलाता है । जैसे स्याद्वाद में यह कहते हैं कि द्रव्यदृष्टि से आत्मा की सीमा क्षेत्र से सीमा है पर भावदृष्टि से आत्मा में सीमा नहीं है । जैसे पहिले लोक में व्यक्तिगत स्वरूप न्यारा-न्यारा है पर इसमें जो जैनत्व है अथवा जो जाति हैं उसकी सीमा क्या है? मेरी आत्मा का जो स्वरूप है उसे स्वरूपदृष्टि से लख सकते हैं पर और उपायों से आत्मा को नहीं लखा जो सकता है । यह आत्मा ज्ञान से रचा हुआ है । जैसे अपने आपको बच्चों वाला समझोगे तो बच्चों की फिकर करना ही पड़ेगा । अपने को इंसान समझोगे तो समाज और देश में इंसानियत के काम करना ही पड़ेगा । और कोई अपने अंत: मर्म को पहिचानकर ज्ञानस्वरूप देखेगा तो वह केवल जानने का ही काम करेगा, उसके अन्य प्रवृत्ति न होगी । जब केवल जानने का ही काम होता है तब ज्ञान का अनुभव होता है और ज्ञान के अनुभव का ही नाम आत्मा का अनुभव है । इस प्रकार अपने आपको केवलज्ञानस्वरूप ही सोचकर अनुभव करो । परिवार के ख्याल में, मोह में, पालनपोषण में ही सारा समय लगाये रहे तो उससे क्या लाभ? अपने सही स्वरूप के विचारने में भी समय देना चाहिये या नहीं? तो अपने आपके स्वरूप के अनुभव में कितने मिनट देना चाहते हो? 5 मिनट सही । तो 5 मिनट में ऐसी तैयारी रखो कि केवल हमें केवल आत्मा ही जानने में आये तो हमें जानने का काम मंजूर है, और कोई पदार्थ मेरे जानने में न आये । 5 मिनट को घर का, धन का, इज्जत का, किसी का भी ख्याल न रखो, सबका ख्याल छोड़ दो, कहीं 5 मिनट में वे सब नष्ट न हो जायेंगे, सब मिल जायेंगे पर 5 मिनट का टाइम जरूर अपने आत्मानुभव में दो । किसी बाह्यपदार्थ का चिंतन उस समय न हो । अपने इस जीवन में ही देख लो, कभी किसी भंयकर रोग से ग्रस्त थे, मुश्किल से बच गये । कभी कोई हिंदू मुसलमान के दंगे में फंस गया होगा, कोई किसी समय बड़े तेज बुखार से पीड़ित हो गया होगा, किसी समय घर के लोगों ने भी जीने की आशा को छोड़ दिया होगा । उस समय यदि हम गुजर गये होते तो हमारे लिये आज यहाँ कुछ न होता । आज देवयोग से यह मनुष्यभव मिला है, क्या हम पशु पक्षी कीड़े मकोड़ों के भव में न थे, यदि हम मनुष्य न होते, किसी पशु पक्षी के जन्म में होते तो मेरे लिये ये समागम कुछ न थे, जिनकी चिंता में आज हम परेशान होते हैं वे मेरे लिये कुछ न थे । और मरण के बाद ये सब मेरे लिये कुछ नहीं हैं । और जो कुछ है अपना ज्ञानबल बढ़ाकर देखो । लाभ तो सदुपयोग करने से होगा । सदुपयोग से ही-आत्मलाभ की बात हो सकती है । इन समागमों में पड़े रहने से तो वियोग होगा ही ।
एक देश था, उसमें राजा बनने की पद्धति प्रतिवर्ष की थी । मंत्रिमंडल किसी को राजा बना देता था और एक वर्ष बाद चूँकि यह देश में रहेगा तो इसकी बेइज्जती से देश की बेइज्जती होगी । राजा को एक वर्ष गुजरने के बाद यहाँ लोग पेन्शन दे देते हैं चार पाँच हजार रुपया, या हजार रुपया जिससे ठाठ से रहे । वहाँ पेन्शन देने की बात न थी किंतु एक वर्ष के बाद राजा को भयंकर जंगल में छोड़ देने का नियम था । ऐसा इसलिये होता कि कोई देखे नहीं तो राष्ट्रपति की बेइज्जती न होगी । एक बार एक समझदार राजा बना उसने सोचा कि मैं एक वर्ष के लिये राजा हूँ सो जो चाहूं वह कर सकता हूँ । सो जिस जंगल में छोड़ देना था उसमें बहुतसा प्लाट तैयार किया, बैल हो गये, खेत हो गये । वर्ष गुजरा और राजा जंगल में छोड़ दिया गया जो अब वहाँ जाकर राजा आराम से रहने लगा । इसी तरह यह कुछ वर्ष का नर जन्म मिला है, इसके बाद क्या गति होगी कि 84 लाख योनियों में भटकना पड़ेगा । जो विवेकी मनुष्य है वह क्या करेगा? जब तक मनुष्य है, मन श्रेष्ठ है तब तक जो चाहे सो कर सकते हैं । और करना क्या है? केवल शुद्ध भाव बनाना है । परवस्तुओं में तो यह आत्मा परिणमन कर नहीं सकता । हाथ से यह चश्माघर उठाया तो यह आत्मा ने नहीं उठाया, जीव ने नहीं उठाया । बहुत से लोगों की समझ में तो यह है कि वाह मैंने ही तो उठाया । मैं तो एक जीव हूँ, जिसका स्वरूप ज्ञान है, आकाश की तरह अमूर्त है । अमूर्त आत्मा किसी पुद्गल को छू नहीं सकता है । तो यह मैं जीव इस चश्माघर को पकड़ सकता हूँ क्या? जरा जीव के स्वरूप पर दृष्टि दो । जीव तो ज्ञान और आनंद स्वरूप है पर जीव के रहे बिना यह चश्माघर उठाया धरा नहीं जा सकता है । फिर बात क्या? यह जीव मलीन है, इसमें उपाधि लगी है, इसमें विकार उत्पन्न होता है । इस हालत में भी जीव ने इच्छा उत्पन्न की कि उठाकर रख दें । उठाकर रख नहीं सकता । किंतु जीव ने तो अंदर में एक इच्छा उत्पन्न की । अब आगे देखो कैसे काम बढ़ता है? उस जीव को इच्छा के निमित्त से जीव के प्रदेशों में कंपन हुआ और जीव के इस कंपन के निमित्त से शरीर में रहने वाला जो ध्रुव है उस ध्रुव में कंपन हुआ । जिस तरह की इच्छा की उस तरह का कंपन हुआ । और उसके ही अनुकूल वायु कंपन हुआ। उस वायु के संचालन के निमित्त से ये हाथ पैर चलने लगे । सो इसने इच्छा की कि मैं चश्मा के घर को उठाऊं तो वैसा ही इसमें कंपन हुआ, वैसे ही शरीर की हवा चलो और वैसे ही ये अंगुलियां सिमटी अब उन सिमटी हुई अंगुलियों के बीच में यह चश्माघर है । जब निमित्तनैमित्तिक प्रसंग से अंगुली चलीं तो उसके बीच में फंसा हुआ यह चश्माघर भी चल पड़ा, हाथ मैंने नहीं चलाया । यह तो कितने ही निमित्तों के संबंध से चल उठा है । एक रेलगाड़ी जिसमें 12 डिब्बे लगे हैं इंजन चलता है तो लोग यह कहते हैं कि इंजन 12 डिब्बों को खींच रहा है । इंजन तो केवल पास के डिब्बे को खींच रहा है । उस डिब्बे का संबंध है सो अगले डिब्बे का निमित्त पाकर अन्य डिब्बे भी साथ में खिंच रहे हैं, पहिले डिब्बे का संबंध है दूसरे से । इस प्रकार से एक दूसरे डिब्बे का निमित्तनैमित्तिक संबंध है । इस प्रकार की परंपरा बढ़ती चली जायगी । हो रहा है सब काम । इंजन में भी देखो एक-एक पुर्जा अपना-अपना काम कर रहा है । एक पुर्जा काम करता है । उसका निमित्त पाकर दूसरा पुर्जा काम करता है एक पुर्जे का निमित्त पाकर डंडा चला, फिर उससे फंसी हुई पात चली, फिर उससे फंसा हुआ पहिया चला । तो प्रत्येक पुर्जा केवल अपना काम कर रहा है । किसी एक पुर्जे का निमित्त पाकर दूसरा पुर्जा क्रियाशील हो जाता है ।
लोग कहते हैं कि यह गाड़ी ड्राइवर चला रहा है । अरे रेलगाड़ी को ड्राइवर नहीं चला रहा है । वह तो हैंडिल तक को नहीं पकड़े हुए है । वह तो केवल इच्छा कर रहा है, उसकी इच्छा से योग हो रहा है, उस योग से देह वायु चली, फिर उसके अंग का निमित्त पाकर स्टेरियल चला, फिर उसके निमित्त से और कुछ चला । इसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ का भिन्न-भिन्न काम हो रहा है ऐसे होते हुए काम को देखकर अज्ञानी कह उठते हैं कि इसने अमुक को यों परिणमाया है, पर ज्ञानी जिसके प्रत्येक पदार्थ का स्वरूप नजर में है वह कहता है कि कोई पदार्थ किसी पदार्थ का कुछ नहीं करता है । वस्तुस्वरूप की स्वतंत्रता की यह दृष्टि संसार के संकटों से उबारने में समर्थ है । अपने लोग रोज चर्चा कर लेते हैं, सुनते हैं संभव है कि इसको प्रभाव में न लायें पर कोई समझदार अन्य जन इस चर्चा को सुनकर एक नई दृष्टि प्राप्त करते व आनंद पाया करते हैं । हमारा यह कहना और सुनना तोते के आदत की भांति न रहे और उसको अपने विचार में कुछ क्षण उतारें, कुछ क्षण सबको भूल जायें तो आपको सुख होगा । पाप के उदय में कौन दूसरा मदद कर देगा? कोई कठिन रोग हो जायतो घर के सब लोग क्या दर्द को बांट लेंगे? अपनी दया करके कुछ क्षण तो सर्व संकल्पविकल्प को छोड़कर केवल ज्ञानमात्र अपने स्वरूप को निहारो । ऐसा काम इस जीवन में करो कि यह नरजीवन व्यर्थ न जाय । जो जानन है सो मैं हूँ इतना ही सोचकर रह जायें और उस जाननस्वरूप के चिंतन में लग जायें तो उस जाननस्वरूप के अनुभव में विलक्षण आनंद का अनुभव होगा । जैसे अपने को विचारते हो ना कि मैं बच्चों वाला हूँ, मैं मुनीम का काम करने वाला हूँ तो कुछ तो अपने को मानने की आदत है ना? अपने को केवल जाननमात्र मानने लगो । जिस क्षण ऐसा जाननमात्र मैं हूँ इतना ही दृष्टि में रहेगा उस क्षण ज्ञान का अनुभव है, आनंद का अनुभव है, आत्मा का अनुभव है । इस आत्मा को ज्ञानमात्र स्वरूप की दृष्टि से सोचो तो यह आत्मा ग्रहण में आ सकता है, अन्य उपायों से यह आत्मा ग्रहण में नहीं आ सकता है । एक सत्य का आग्रह करना है, अन्य को नहीं जानना है । इस आग्रह से इस ज्ञान का अनुभव अवश्य होगा पर इतना करने की भावना ही न हो तो भाव कैसे बनेगा? एक गृहस्थ पुरुष था तो एक दिन शास्त्रसभा में बाहर से आया । पंडितजी बोले आज शास्त्र में देर से आये हो तो कहा, पंडितजी हमारा एक छोटा मुन्ना है 12 वर्ष का सो आज अड़ पकड़ गया कि हम भी शास्त्र सुनने चलेंगे तो न आने दिया । फिर क्या किया? हमने समझा बुझाकर पैसा देकर उसको सिनेमा भेज दिया, तब मैं आया । अरे बच्चे को आने देते, उससे भला होता । बोले हम तो शास्त्रों के पक्के श्रोता हैं, कहीं ऐसा न हो कि बच्चे शास्त्र सुनें और घर से चल दें । संभव है कि शास्त्र सुनने से वे बच्चे घर छोड़ दें । तो हम आप निरंतर अपने रंग में रंगे रहते हैं, उन घर के बच्चों पर दया नहीं किया करते हैं । आप धन वैभव में बड़े होना चाहते हैं तो उससे लाभ क्या है? कुछ भी तो लाभ नहीं है । लाभ तो इसमें है कि सब कुछ छोड़ दें । सब कुछ त्याग कर दे, केवल अपने जाननस्वरूप के चिंतन में रह जायें, इस ही उपाय से आत्मा का दर्शन होगा ।
उस शुद्ध आत्मा का यहाँ वर्णन हो रहा है जिस शुद्ध आत्मा की दृष्टि में सम्यक्त्व होता है । जिस शुद्ध आत्मा की दृष्टि की स्थिरता में चारित्र परिपूर्ण होता है और सहजानंद प्रकट होता है उस शुद्ध आत्मा की बात यहाँ कही जा रही है । यह शुद्ध आत्मा कहीं अन्यत्र न दिखे किंतु अपने आपको ही इस रूप में विचारे कि यह मैं सबसे निराला केवल चैतन्यस्वभाव मात्र हूँ । इस प्रकार अपने को निरखे तो उस निरख से खुद समझ में आये कि यह कितना शुद्ध आत्मा है यह ज्ञान से रचा हुआ है अर्थात् केवल ज्ञान का जो पिंड है वह आत्मा है । यह स्पर्श, रस, गंध, वर्ण वाली मूर्ति से रहित है, यह अमूर्त है । अमूर्त जितने भी पदार्थ होते हैं उनमें स्पर्श, रूप, रस, गंध नहीं हुआ कुरता है इस मूर्ति से रहित होने के कारण यह आत्ममूर्ति विपरीत है और केवल शुद्ध चेतना में तन्मय है । जो शुद्ध चेतना में तन्मय है, जो शुद्ध चेतना अन्य किसी द्रव्य में नहीं पाई जाती, केवल आत्मपदार्थ में ही होती है, ऐसी शुद्धचेतना से निष्पन्न होने के कारण यह आत्मा चिन्मात्र है । यह अपने आत्मा का वर्णन है । यह मैं आत्मा मन से परे हूँ और इंद्रियों से भी परे हूँ । केवल ज्ञानस्वरूप कर रचा हुआ हूँ, मैं आत्मा अमूर्त हूँ, चैतन्यमात्र हूँ, यह इंद्रियों के विषय में नहीं आता । वीतराग स्वसम्वेदनज्ञान से ही ग्रहण में आता है । किसी भी इंद्रिय या मन की गति में हम आत्मा को जान सकें ऐसा नहीं होता । इंद्रियों के द्वारा तो यह आत्मा किसी भी प्रकार जानने में नहीं आता । हां मन के द्वारा इस आत्मा की चर्चा हो सकती है । मगर यथार्थ शुद्ध जैसा आत्मस्वरूप है वैसा ग्रहण केवल वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान से ही होता है, यह निश्चय है । इस गाथा से हमें यह शिक्षा मिलती है कि यद्यपि यह मैं विकार में हूँ, बिगाड़ में हूँ, शुद्ध हूँ, उपाधि सहित हूँ, । कर्म सहित हूँ, नाना प्रकार के वैभव भी उमड़ते हैं किंतु इस मुझ आत्मा का जो सहजस्वभाव है वह भी मुझमें अनादि से अनंतकाल तक एक स्वरूप रहने वाला नित्य है । हम न तो उपाधि पर दृष्टि दें, न शरीर पर दृष्टि दें । हैं ये सब चीजें, रहें किंतु इनकी दृष्टि से मेरी आत्मा का हित नहीं है । इस कारण न शरीर पर दृष्टि दें, न कर्मों पर दृष्टि दें और कर्मों के कारण होने वाले रागादिक विकारों पर भी दृष्टि न दें, किंतु अपने आपमें नित्यप्रकाशमान जो एक चैतन्यशक्ति है, जिस शक्ति के आधार पर शुद्ध अशुद्ध सभी काम चल रहे हैं उस शक्ति पर दृष्टि देकर, मैं इस चैतन्य शक्तिमात्र हूं ऐसी रुचि करो, यही शुद्ध आत्मतत्त्व उपादेय है । अब यह बतलाते हैं कि जो संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है उसकी संसार बेल नष्ट हो जाती है ।