वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 32
From जैनकोष
भवतणु भोयविरंतु मणु जो अप्पा झाएइ ।
तासु गुरुक्की वेल्लडी संसारिणि तुट्टेइ ।।32।।
जो आत्मा संसार शरीर और भोग से विरक्त चित्त रहता है वह संसार की बेल को तोड़ देता है । संसार क्या है ? अपने आपमें उत्पन्न होने वाली जो इच्छा है, विकार है वह सब संसार है । संसार से बाहर नहीं है किंतु अपने आपमें जो गड़बड़ी उत्पन्न होती है, स्वभाव से विपरीत स्वभाव रहता है उस भाव को संसार कहते हैं । अपने आपके विकार परिणामों से विरक्त होने को संसार से विरक्त कहा जाता है । सबसे बड़ी परेशानी जीव को यह हे कि जो इसमें विकार होते हैं उनको अपनाता तो है ही, पर साथ ही विकारों को अपनाने में अपनी बुद्धिमानी मानता है । ज्ञानीपुरुष तो अपने सभी विचारों से ज्ञान किया करता है । जो भी विचार उत्पन्न होते हैं वे सब अज्ञान की कोटि में हैं । ज्ञानी तो वह है जिसकी केवल ज्ञानीवृत्ति रहती है । उसके साथ रागद्वेषादिक भावों की तरंग नहीं उठती है किंतु अज्ञानी जो कुछ सोचता है उसे ही विवेक मानता है । अपनी गल्ती को गल्ती मान सकने की क्षमता अज्ञानी जीव में नहीं हुआ करती है, ज्ञानीपुरुष तो विनाशीक पदार्थों में कार्य करके भी सामायिक, स्वाध्याय, चर्चा, वंदना, पूजन सब कुछ करते हुए भी यह समझता है कि मेरे ज्ञान का शुद्धज्ञान नहीं है, इन सबसे भी छुटकारा हो और केवल ज्ञानस्वरूप के जानने में ही रहें ऐसी निर्विकल्प स्थिति होनी चाहिये । ज्ञानी को ये सारी बातें जिन्हें लोग विवेक कहते हैं अज्ञान जंचता हे और अज्ञानी को वे गलत बातें भी गलत नहीं जंचती हैं । उन सब बातों को अज्ञानी विवेक बनाता है । और परवस्तुवों के संबंध में बहुत सोच विचार करता है, बहुत विचार कर चुकने के बाद वह यह संतोष करता है कि मैं बहुत विचार कर चुकने के बाद यह काम कर रहा हूं । यह अवश्य बुद्धिमानी का काम है किंतु एक समता परिणाम वाले केवल जानने के काम को ज्ञान कहते हैं और बाकी जितने भी ख्याल हमारे रागद्वेष की कणिका में बसे हुए हैं वह सब अज्ञान कहा जाता है । अपने विकल्पों से विरक्त होना कहा जाता है । मैं जो सोचता हूं यह न सोचना पड़े । मैं जो विचारता हूं और समझता हूं कि मैं ठीक कर रहा हूं वह सब संसार का काम है, अज्ञान का काम है, मेरे स्वभाव की वृत्ति नहीं है । इस प्रकार यह ज्ञानी संत संसार शरीर में मूर्छित हुए चित्त को लौटाता है, अपने आपके जाननमात्र स्वरूप के ज्ञान से उत्पन्न हुआ जो वीतराग परमानंद स्वरूप है, इसके स्वाद से लिए होता है । यह ज्ञानी इस शरीर को भी नहीं चाहता है जिस शरीर में यह बस रहा है, यह एक बंधन है, शरीर मिलता रहे । यही तो संसार में रुलना कहा जाता है । शरीर में रहते हुए भी शरीर से न्यारा हूं । केवल निजज्ञान विरक्त रहता है । शरीर जड़ है, मैं चेतन हूँ, शरीर मुझसे भिन्न है, मैं अपने आपमें अभेद इस शरीर के कारण मेरा हित नहीं है बल्कि अहित हो रहा है। शरीर में बस रहा है सो शरीर का पालन भी कर रहा हूँ । शरीर का पोषण भी करता है, शरीर की सफाई भी कर लेता है फिर इन सबमें अनुराग ज्ञानी जीव को नहीं है जैसे पड़ोसी के घर में आग लगी हो तो वह दूसरा पड़ौसी पुरुष सर्व प्रयत्न करके पड़ौसी के घर की आग बुझाता है । इस वास्ते अंतर में यह आशय पड़ा हुआ है कि इसके घर की आग बढ़कर मेरे घर में लगी तो मेरा घर नष्ट हो जायगा । इसी प्रकार शरीर एक पड़ोसी है शरीर में आग लग गई, क्षुधा की वेदना के रोग में आपत्तियां आ गयीं, तो यह आत्मा पड़ौसी शरीर की वेदना को मिटाता है किसलिए कि कहीं शरीर की वेदना बढ़ करके मेरे आत्मा में अज्ञानभाव का कारण न बन जाय । कहीं मैं इस शरीर की पड़ी हुई वेदना से विह्वल होकर अपने ज्ञान को न खो दूं इस कारण जब पड़ौस में आग लगी है तो इसको बुझा लूँ इस कारण आहार करता है पर फिर भी शरीर से विरक्त है । और यह ज्ञानी संत भोगों से भी विरक्त है । भोग पंचेंद्रिय के विषय कहलाते है, कर्णेंद्रिय का विषय है राग रागनीयुक्त गायन का सुनना । सुहावने शब्दों का सुनना कर्णेंद्रिय का विषय है, खूब सुनो राग रागिनी की तान पर । इन सब कर्णेंद्रिय के विषय के भोगों से इस मुझ आत्मा को लाभ क्या मिलेगा? यह दुर्लभ नरजीवन ही गंवाया जा रहा है ।
एक कवि ने एक सभा का चित्र खींचा । लोग बैठे हैं, सभा भरी है, उसमें गाने वाले वेश्या है । तबला बजाने वाले भी अच्छा तबला बजा रहे हैं, मजीरा बजाने वाले भी अच्छा बजा रहे हैं । वेश्या भी हाथ पसार-पसार कर गाना गा रही है । ऐसी स्थिति का एक पद्य बनाया है । मिर्दंग कहता है धिक है, धिक है । धिक बोलता है ना, मंजीरा कहता है किनको किनको तो वेश्या हाथ पसार कर कहती इनको, इनको, इनको । यह एक कवि का खींचा हुआ चित्र है । तो क्या है कर्णेंद्रिय के विषयभोग में केवल समय गंवाया जा रहा है । नेत्रइंद्रिय का विषय है सुंदर रूप देखना, खेल तमाशे देखना । जो सुहा जाय ऐसे पदार्थों को देखना । कितने ही दफे हवाई जहाज देखा हो और उसमें कितनी ही बार बैठा हो और ऊपर से उड़ता हुआ जाय तो निगाह कर ही आती है । यह नेत्रइंद्रिय का विषय है । सामने से कोई निकल रहा हो, कुछ प्रयोजन नहीं है, फिर भी उत्सुकता होती है । क्या है? कौन है । नेत्रइंद्रिय के विषय के साधने में आत्मा को मिलता क्या है? बल्कि उपयोग बढ़ाने में प्रबल इंद्रिय है तो यह नेत्रइंद्रिय है । पहिले नेत्रेंद्रिय से देखा जाता है । विकार की शुरुआत देखने से होती है । पहिले देखा फिर सुना, विचारा मन में एक शल्य बना ली और आगे बड़े तो इंद्रियों में विकार प्रारंभ कराने वाला नेत्रेंद्रिय है और झगड़े को बढ़ाने वाला यह मुख है । झगड़ा मुख से ही बढ़ता है । अदृष्ट बोल दिया तो कलह होने लगी । तो ये दो इंद्रियां बड़ी आफत जन्य रहती हैं और इनका काम इसका स्वाद लेना है । खाने के लिये यह कैसा विकल्प मचाता है । यह तो है रसना इंद्रिय और नेत्रेंद्रिय बड़ी कठिन इंद्रिय है । लेकिन घबड़ाने की बात नहीं है कर्मों ने तो दोनों इंद्रियों के ढक्कन लगा दिया । मुख का ढक्कन दोनों ओठ हैं और आंखों का ढक्कन है पलक और इंद्रियों में ढक्कन न मिलेगा । कान में क्या है किसी समय तेज आवाज आ रही है चाहें कि कानों को ढक लें और आवाज न मिले सो नहीं हो सकता है । नाक के ढक्कन कहां है? इस शरीर के ढक्कन कहां है । दो इंद्रियों के ढक्कन लगा है । हम लोगों पर दया करके इन नाम कर्मों ने ढक्कन बना दिया । मुख हम ढक लें, ओठ चिपका लें फिर क्या रस लेंगे और क्या बात बोलेंगे? सब झगड़ा मिट गया । तो नेत्रेंद्रिय के विषय में इस जीव को क्या लाभ मिलता है? ये सब व्यर्थ के विषय हैं । सिनेमा देख लिया, कौतूहल देख लिया । लोक लड़ाई हो रही है तो उसको भी देखने की इच्छा हो जाती है । कैसे लड़ाई करते हैं? उनमें लड़ाई कम होने लगे तो क्यों कम होने लगी? जब लड़ाई तेज होती है तो बोलते हैं हो ठीक है । क्यों क्या देखने को मन चाहता है? इससे इस जीव को लाभ क्या मिलता है? घ्राणेंद्रिय के विषय से क्या फायदा मिलता है? सूँघ लिया इत्र तो क्या परिणाम निकलता है ? इत्रों के सूंघने के फल में कितने ही नासिका के रोग हो जाते हैं । और क्या है? सूँघ लिया तो क्या है? दुर्गंध आती है तो आये । बचाव करता है । नाक को जबरदस्ती बंद करता है । जोर-जोर से दौड़ता है, यह गंध का वातावरण यह सब क्या है? घ्राणेंद्रिय का विषय । इसमें समता नहीं है । सुगंध आती हो तो हर्ष न मानो । यह सुगंध एक पुद्गल चीज है । दुर्गंध होना कोई अशुचिपदार्थ दिखता हो तो भी विशाद न मानो । यह जगह ऐसी है, इस पदार्थ का स्वरूप ऐसा है केवल जान जाय, यह धैर्य नहीं हो पाता क्योंकि भोगों में रुचि है । उसी प्रकार रसनाइंद्रिय की बात है । स्वाद लेकर खाना खा लिया । स्वादिष्ट चीज को छिपकर खाना, चोरी से खाना उसका निरंतर ध्यान रखना । और जैसा रखना चाहता है वैसा साधन न मिले तो खेद हो जाता है । यह सब क्या है? यह रसनाइंद्रिय का विषय है किंतु घाटी नीचे माटी । एक खुली घाटी है, उसके नीचे जो उतरें तो क्या स्वाद आता है? माटी हो गई । रस का सुख क्षणिक है । एक सेकेन्ड का भी तो रसना का सुख नहीं है । इस पर विजय प्राप्त कर पाते हैं तो बड़ा आडंबर करना पड़ता है ।
बड़े का बड़प्पन इसी में है कि सर्वसाधन मिले हैं फिर भी सात्विक रहन सहन और सात्विक भोजन करो । स्वादिष्ट भोजन क्या लड्डू पेड़ा, बर्फी, रबड़ी आदि है? इनके खाने से तो स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता है, रोग बढ़ता है, वायु बढ़ती है । यह मनुष्य स्वाद का प्यासा है । कितनी तरह के भोजन बनाता है और खाता है, समय गवाता है । स्पर्शन का सुख । उसके संबंध में भी ये हीं सब बातें जान लो । इन इंद्रियों के सुख को जितना बढ़ाकर मनुष्य भोगता है उतना बढ़ाकर पशु भी नहीं भोगते हैं । यद्यपि पशुओं के भी 5 इंद्रियां हैं । मगर मनुष्य के भोगने की पद्धति विशेष है । पशुओं को जैसी घास मिल गई खा लिया पर यह तो जो चीजें खाने की हैं ही नहीं ऐसी चीजों को भी खूब मसाले डालकर, हींग तेल डालकर मीठा डालकर खाता है । उसमें खुद स्वाद नहीं है इसलिये मसाले मीठा आदि डालकर खाने लगे । मांस कोई खाने की चीज है क्या? देखने से ग्लानि लगे, कच्चा खा न सके, स्वाद भी उसमें कोई नहीं? यदि स्वाद होता तो तेल मसालों की उसमें अधिकता क्यों करते? तो रसना का विषय इतना बढ़ गया है और इंद्रियों को देख लो घ्राण को देख लो । किसी गाय, बैल, भैंस, घोड़ी आदि को देखा है ना, वे क्या कोई सुगंध की चीज बनाते हैं? ये कलायें मनुष्य ही करता है? कितनी ही तरह के सेन्ट बनाये, कितनी ही तरह के सुगंधित इत्रादि बनाये ये घ्राणेंद्रिय के विषय हैं । सुंदर चित्र बनाना, रूप बनाना और उसको निहारना यह कला पशुओं में है क्या? पक्षियों में है क्या? इसमें भी मनुष्य बढ़ा चढ़ा है । ऐसी ही शब्द राग रागनियों की बात है । इन सब भोगों में यह मनुष्य बहुत बढ़ा है किंतु इस मनुष्य में ही ऐसी शक्ति है कि उन भोगों से बिल्कुल विरक्त हो सकते हैं । यों संसार शरीर और भोगों से विरक्त हुए, जो पुरुष शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है अर्थात् केवल, खालिस, प्योर, मात्र ओनली, निज सत्व का ही ध्यान करता है उस पुरुष के संसार की बेल चूर्ण-चूर्ण हो जाती है । संसार उसका नष्ट हो जाता है । हम किसको देखे, किसे जानें? किसकी शरण गहें? किसके निकट बसें कि हम पूर्ण सुखी हो जाएं? मेरे सर्वसंकट टलना । ऐसा है कुछ? वह है अपने साए में । अपनी सत्ता के कारण जो अकृत्रिम शुद्ध स्वरूप है, वह ही परमात्म तत्त्व है कि जिसके देखने से, जिसका आश्रय लेने से ये कर्म स्वयमेव सब टर जाते हैं । देखो अपने उद्धार का उपाय और अपने आपका परमशरण खुद में ही विराजमान यह ज्ञानमय प्रभु है जिसके देखने से सारे संकट टल जाते हैं, सारे संकटों से मुक्ति हो जाती है और जिससे न देखते बना उसे सारे संसार में रुलना ही बना रहेगा । अपने आप में बसा हुआ यह सहजचैतन्यस्वरूप परमात्मदेव यह वत लिये हुए है कि रे उपयोग तेरा भला करने के लिये अनादिकाल से लगा हुआ हूँ तू मेरी ओर तनिक तो देख ले फिर तेरा उद्धार करने के लिये मेरा बस चल सकेगा । यदि तू रंच भी मेरी ओर नहीं देखता तो तेरे उद्धार के लिये मेरा बस नहीं है । ऐसा इस शुद्धआत्मा का जो ध्यान करता है उसकी संसाररूपी बेल सब टूट जाती है । सत्-सत् चूर्ण हो जाता, तब जिस निज परमात्मा के ध्यान से यह संसार की बेल नहीं होती है वह निज परमात्मा ही उपादेय है । इस परमात्मतत्व की भावना करना चाहिये । यही सर्व उपदेशों का सार है । जैसे कलेवा साथ हो तो मुसाफिरी करने में जब भूख लगी पल्ला खोला और खा लिया, कोई देर नहीं । इस प्रकार इस निज परमात्मतत्त्व का परिचय पास हो तो जब आपको संकट आयें, कोई विपदा सताए झट इंद्रियों को बंद करके भीतर के ज्ञान पटल को खोलकर दर्शन करले तो झट संकट टल जायेंगे । हमारा शरण आत्मा है उसको देख जरूर लेना चाहिये । इसही निजपरमात्मा का वर्णन परमात्मप्रकाश ग्रंथ में है । अब इस देह देवालय में जो परमात्मा बसता है वह ही शुद्ध निश्चयनय से परमात्मा है इस बात का निरूपण करते हैं ।