वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 33
From जैनकोष
देहादेबलि जो वसइ देउ अणाइ अणंतु ।
केवलणाण फुरंत तणु सो परमप्पु णिभंतु ।।33।।
देहरूपी देवालय में जो अनादि अनंत देव बस रहा है वह ही तो केवल ज्ञानादि अनंत देवताओं का स्वामी परमात्मा है, ऐसा तुम भ्रमरहित होकर जानो । अपने आत्मा की शक्ति पर विश्वास हो और अपने आत्मा के सहजस्वरूप का परिचय होना यह बड़े उत्तम होनहार से मिलता है । यह व्यवहार से देहरूपी देवालय में बस रहा है फिर भी निश्चय से देर के तो यह देह से भिन्न है । देह तो मूर्तिक है देह तो अपवित्र है किंतु यह आत्मा न मूर्तिक है और न अपवित्र है । यद्यपि देह आराधने के योग्य नहीं है तो भी स्वयं परमात्मा आराध्यदेव है, पूज्य है । इस देह की और अपने आत्मा की विशेषता बतला रहे हैं कि देह तो बचने योग्य नहीं है किंतु यह आत्मा बचने योग्य है । यह जीव उपयोग को जब अपने स्वरूप में ले जाता है और अपने स्वरूप का चिंतन करता है तब वह आत्मा शांति का मार्ग पाता है और अपने आपके घर को छोड़कर, बाहरी पदार्थों में रुचि करता है तब यह जीव संसार में गोते खाता है । यद्यपि देह तो अंतकर सहित है ।
इस शरीर की उत्पत्ति है, इस शरीर का विनाश है । किंतु आत्मा का न आदि है और न अंत है । कारण आत्मा तो जो एक है वही एक है किंतु यह शरीर अनेक परमाणुओं के पिंड का बना हुआ है । देह और आत्मा में प्रकट बहुत अंतर है । शुद्ध द्रव्यदृष्टि से देखो तो आत्मा में न आदि है और न अंत है । यद्यपि यह देह जड़ है तो भी यह आत्मा केवलज्ञान शरीरी है । ज्ञान शरीर है । ज्ञान ही जिसका शरीर है, ज्ञान ही जिसका स्वरूप है । ऐसा यह अमूर्त आत्मा देह में है । पंचेंद्रिय को बस में करके इनका व्यापार बंद करके ज्ञानोपयोग से अपने आपको सोचो कि यह आत्मा जो देह से भिन्न है वह है किस रूप? तो ध्यान देकर निरखो तो निरखने में आयगा कि केवलज्ञान शरीर है इसका । ज्ञान ही स्वरूप है इसका । इसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं है । यह आत्मा पत्थर रोड़ों की तरह कोई पिंडरूप नहीं है किंतु यह मात्र केवलज्ञान शरीरी है । ऐसा लक्षण करके सहित यह परमात्मा होता है । यह निःसंदेह जानो जो देह में बसता हुआ भी अशुचि नहीं है, रूपवान् नहीं है, आदि अंतकर सहित नहीं है । देह के किसी पदार्थ को नहीं छूता है वह ही शुद्ध आत्मा है । हम किस पदार्थ को जाना करें कि हमारा कल्याण हो? इस लोक में यह धन वैभव परिवार, दुकान ये सब दृश्यमान मायामय चीजें हैं । इनकी चिंता में इनके चिंतन में इस आत्मा को लाभ कुछ नहीं है, प्रत्युत हानि है । कौनसा तत्त्व ऐसा है कि जिसके जानने से हम आप शांत हो सकते हैं? बहुत अनुभव किया होगा घर बार, मित्रजन इनके नेह में दृष्टि में आत्मा ने शांति नहीं पाई है । लाभ की बात नहीं पाई है । केवल अपनी कल्पना से मौज मान लिया, मैं इतने परिवार वाला हूँ, बच्चों वाला हूँ, स्त्री वाला हूँ, धन वाला हूँ, यह केवल कल्पना से मौज मानी जा रही है । श्रावकाचार में एक स्मृत नवनीत की कथा है । एक पुरुष गरीब भिखारी श्रावकों के यहाँ छाछ पीने गया । छाछ पीकर जो मूछ पर हाथ फेरा तो देखा कि घी सा गाढ़ा लग गया है । उसने सोचा कि ऐसी छाछ बीसों जगह यदि हम घर-घर पीवें और मूछ पर हाथ फेरे तो घी जुड़ता रहे । कुछ वर्षा में बहुत घी जुड़ जायगा । सो जगह-जगह वही श्रावकों के यहाँ मट्ठा पीवें और मूल्यों पर हाथ फेरे और डबलिया में जोड़ता जाय । दो तीन वर्ष में डेढ़ सेर घी तैयार हो गया । वह भिखारी अपने फूस की झोपड़ी में जाड़े के दिनों में आग ताप रहा था, ऊपर डबली लटकती थी । वह कल्पना करता है कल के दिन यह 1।। सेर घी बेचूंगा । आठ, दस रुपये का हो जायगा । फिर इससे खोम्चा की सामग्री खरीदूंगा । जब बीस, पचास रुपया हो जायेंगे तब बकरी ले लूँगा, फिर गाय, भैंस ले लूँगा, बैल ले लूँगा, फिर खेती करूँगा, फिर जमीन खरीद गंगा, फिर मैं पूँजीपति कहलाऊंगा, शादी कर लूँगा, बच्चे होंगे, बच्चे आकर कहेंगे कि दहा रोटी खाने चलो तो कहेंगे कि अभी नहीं चलते हैं, दूसरी बार फिर बच्चा आयेगा कहेगा कि दद्दा चलो, मां ने रोटी खाने को बुलाया है तो कहेंगे कि अभी नहीं जायेंगे । तीसरी बार सोचा कि बच्चा कह रहा है । चलो दद्दा रोटी खाने, अम्मा ने बुलाया है तो लात फटकार बोला कि अबे कह दिया कि अभी नहीं जायेंगे । ऊपर जो डबलिया रखी थी उसमें लात लग जाने से वह आग में गिर गई, घी जल गया झोपड़ी जल गई । अब बाहर निकलकर वह कहता है कि अरे दौड़ो मेरा मकान जल गया, मेरी स्त्री जल गई, मेरे पुत्र जल गये, मेरे गाय, बैल, भैंस जल गये, मेरी सारी संपत्ति जल गई । बाहर के लोग सोचते हैं कि कल तक तो इसके पास कुछ न था, भीख मांगता था आज यह कहता है कि मेरा मकान जल गया, मेरी संपत्ति जल गई, मेरी स्त्री पुत्र जल गये । सब लोग उसे समझाते हैं । एक सेठजी समझाने लगे, अरे तेरे पास कुछ था तो नहीं, क्यों बक रहा है? उसने अपना किस्सा सुनाया । सेठ ने कहा कि तूने केवल कल्पना ही तो किया था, आया गया तो कुछ नहीं । सो एक पंडितजी खड़े थे वह बोला सेठजी ऐसे ही तो कल्पनाएं आप भी कर रहे हैं । तुम्हारी आत्मा में कुछ आता जाता तो नहीं । कल्पना कर लिया कि लाखों का वैभव है । तुम्हारा आत्मा तो अकेला है कि नहीं है? उस आत्मा में एक नया पैसा भी तो नहीं आता है । इस आत्मा का कोई मित्र नहीं है, कोई साथी नहीं है । मोह एक प्रबल संकट है । यह मोह न होता तो यह आत्मा शुद्ध आनंद का भोक्ता होता । सर्वविश्व का ज्ञाता बनता, परमात्मा हो जाता । इस जीव के धैर्य नहीं है । जहाँ समागम है वहाँ नियम से वियोग जरूर होगा । अज्ञान में क्या तत्त्व रखा है? मोह में क्या बात लूट लोगे? यह मोह ही प्रबल संकट है । यह मोह ही एक विकार ऐसा है जो इस जीव को अपवित्र बनाए हुए है । संसार में रुलाने वाले इस मोह को हटाओ और अपने आपके अंतर में अपने शुद्धस्वरूप को देखो । यह सहजपरमात्मा आपमें अनादि अनंत विराजमान है । इस मेरे आत्मा को कोई कमी नहीं है । इसमें ज्ञान की कमी है, न आनंद की कमी है । इसका तो स्वरूप ही ज्ञान ओर आनंद है । आत्मा और क्या है ? जिसे लोग कहते हैं कि यह तो एक हवा है, रहे रहे न रहे न रहे । यह हवा भी नहीं है । यह हवा से भी सूक्ष्म है । यह है ज्ञान और आनंद भाव है, जिस ज्ञान और आनंद के लिये यह ज्ञानानंदी तरस रहा है, बाहर में खोज रहा है, दर-दर भटक रहा है वह ज्ञानानंदी यह स्वयं है । पर स्वयं का विश्वास नहीं है इसलिये बाहर भटकता है । अपने आपमें अपने आपको नहीं देखना चाहता है । जैसे किसी से कोई कह दे कि तेरा कान कौवा ले गया है, वह जो उड़ रहा है । वह कौवा की ओर दौड़ता है । वह लड़का रोने लगता है और बेहतास दौड़ता है । रोता है, चिल्लाता है, मेरा कान कौवा लिये जा रहा है । कोई कहे अरे कहां दौड़ रहा है? तो कहेगा अरे बातें करने की फुरसत नहीं है । मेरा कान कौवा लिये जा रहा है, उसे छुड़ाना है । अरे सुन तो जरा, अपना कान टटोल तेरे पास है कि नहीं । अरे क्या टटोले,
हमसे बड़े आदमी ने कहा है कि तेरा कान कौवा लिये जा रहा है । अरे कहां ले गया? तेरे हाथ है, तू कान टटोल ले, कान भी तेरे निकट ही है । तू देख तो सही । जब हाथ से टटोलता है तो देखता है अरे कान मिल गया, कौवा नहीं ले गया है । इसी प्रकार से ये जीवज्ञान और आनंद के लिये विषयों में पड़े हुए हैं, बाह्यपदार्थों में दौड़ लगा रहे हैं, ऋषि संत समझाते है, अरे कहां दौड़ लगाते हो? कहां बाहर में अपना ज्ञान और आनंद ढूंढ़ते हो?
विषयों में, परिवार में, मित्रजनों में कहीं ज्ञान और आनंद नहीं है । नहीं नहीं हमारे पिता दादा बता गए, समझा गये हैं, कैसे नहीं है भोगों में परिवार में आनंद? फिर बार-बार ऋषि संत समझाते, अरे देख लो ना, बाहर में कहीं भी तो आनंद नहीं है । एक पाव सेकेन्ड तो इन सबको भुलाकर अपने आपको देखो तो सही कि तेरे ज्ञान और आनंद है कि नहीं? तेरा ज्ञान और आनंद तेरे पास है, तेरे ज्ञान और आनंद तुझ में ही तो बतला रहे है । अपने ज्ञान और आनंदस्वरूप को टटोलने में सेकेन्ड का हजारवां हिस्सा भी तो नहीं लगता । देखो तो सही । कुछ समझ में आ जाय और एक साथ सबको भूल जाओ तो कुछ क्षण के लिये ओरों को छोड़कर अपने आपके ज्ञानानंदस्वरूप को निहारो तो वह ज्ञान और आनंद मिल जायगा । और वह अब सोचता है कि किस ज्ञानानंद की तलाश में अब तक भटकता चला आया हूँ । वह मिलता है अपने ही पास । जैसे कोई सर्राफ अपने दाहिने हाथ की मुट्ठी में कोई सोने की मुदरी रख ले और लोगों से बातों में लग, जाय तो कुछ देर में उसे ध्यान होता है, कि सब चीजें तो सम्हालकर रख ली है पर एक मुदरी नहीं मिलती है । वह सब जगह ढूंढ़ता फिरता है । यद्यपि मनुष्य का दाहिना हाथ ज्यादह चला करता है, मगर ऐसी बुद्धि मारी गई कि मुदरी की ममता में दरी उठाता है तो बांये हाथ से, इसके नीचे तो मुदरी नहीं है, संदूक खोलता है तो बांये हाथ से, कहीं बंदूक में तो नहीं रख दिया? तड़फता था, विह्वल होता था, ख्याल आ गया, यह मुट्ठी क्यों बंधी है? खोलकर देखें तो । जब खोलकर देखा तो वह मुदरी मिल गई । कहां-कहां खुद को भूलकर खोजा, यही तो अपना शरण है, अपने आपमें है । और खोजता कहां है? दुनियां भर के विषयसाधनों में । धन पाया है लाखों की संपदा पाई है, उसी को ही अपना सब कुछ मान लिया और अपने आपको न कुछ मान लिया । अकिंचन मान लो अपने को, हो भी तो अकिंचन । आपकी आत्मा में तो भींत का चूना तक भी नहीं लगा है और न एक नया पैसा भी चिपका है । केवलज्ञान और आनंदस्वरूप हूँ, और रूप मैं नहीं हूँ, अपने ही स्वरूप हूँ । यदि ऐसी ही अपनी दृष्टि जगह तो यह आपका सच्चा बड़प्पन है । और वैभव की ओर दृष्टि जाय, तृष्णा में चित्त बसे, असार प्रकटे जड़ वैभव की रुचि करे तो यह बड़े का बड़प्पन नहीं है । यह तो एक सिनेमा है, लोग चलते हैं, फिरते हैं, परस्पर बोलते हैं, चिल्लाते हैं, हँसते हैं । यह गया, वह गया कहां गया? इन समागमों में विश्वास न रखकर अपने आपको अकिचन मानो । मेरे पास कुछ भी नहीं है, मेरे पास कहीं कुछ भी नहीं है । मैं तो एक अकेला ही हूँ । रही सुख दुःख की बात । सुख धन से नहीं होता है । धन बढ़ जाने से विकल्प बढ़ जाता है । और कोई कल्पना बना ली जाती है कि कभी तो बड़ा टोटा पड़ जाय तो टोटे को सम्हालना कठिन हो जाता है, कभी कल्पना के अनुसार लाभ न मिले तो विह्वलता हो जाती है । आप चाहे सैकड़ों मन चांदी खरीदकर रख लें और यह कहीं सुन लिया कि इस खरीद के ऊपर 10 रुपया सैकड़ा चांदी का भाव तेज हो गया है तो इसमें हजारों लाखों का मुनाफा सोच लिया । खुश हो रहे हैं । और दो तीन दिन के बाद में सुनने में आ जाय कि दाम 15 रुपया सैकड़ा घट गये हैं तो फिर दुःखों का क्या ठिकाना? वह सोच रहा है कि 25 रुपया सैकड़ा का टोटा पड़ गया है, चीज तो रखी है, खैर व्यापार की चीज को तो जाने दो । जो गहनें घर में बनवा रखे हैं, जिनका कभी बेचने का विचार न होगा, रखे हैं किंतु भाव तेज सुनकर तो कुछ ऐसा गौरव मानते हैं कि अब क्या है? अब तो लखपति हो गये । अभी तक 50 हजार थे अब लाख हो गये । और अगर साढ़े बासठ का हुकुम आ जाय तो गणित लग जायगी कि अब तो 25 हजार ही रह गये हैं । गहना बेचना है नहीं, किंतु शान शौकत के लिये रखे हैं । उसमें भी नफा टोटे का हिसाब लगाकर हर्ष विशाद, माना करते हैं । धन पाकर कोई शांत हुआ हो तो बतलावो? धन पाकर कोई शांत नहीं हुआ है । इसका दृष्टांत हम बता सकते हैं, पर धन पाकर कोई शांत हो गया हो तो इसका एक भी दृष्टांत नहीं । क्यों न रहेगा कि आखिर धन पाया है तो उसमें आगे की इच्छा होती है व जो धन पाया है उसकी ही रक्षा करने का यत्न होता है और यह सब अपने अधिकार की बात है नहीं । होना होता है तो होता है और नहीं होना होता है तो नहीं होता है । तो धन पाकर शांति का मार्ग नहीं मिलता है । इस परिस्थिति में भी अपने को ऐसा ध्यान में लावो कि मैं अकिंचन हूँ । मेरा कहीं कुछ नहीं है, मैं तो केवल ज्ञानस्वरूप हूँ, अमूर्त हूँ । इस ध्यान से शांति का मार्ग मिलेगा । और इतना उच्च धर्म ध्यान करने वाला पुरुष पुण्य का हीन नहीं हुआ करता है । यह वैभव पुण्य का फल है । यह जोड़े से नहीं जुड़ता, यह हटाने से नहीं हटता । उदय है तो पास में है, उदय नहीं है तो नहीं है । एक लौकिक कथानक है कि ब्रह्माजी एक लड़के की तकदीर बना रहे थे । तकदीर में लिख रहे थे इसकी तकदीर में 5 रुपया और एक काला घोड़ा रहेगा और लड़के को करोड़पति के घर में पैदा किया । एक साधु निकला बोला महाराज क्या कर रहे हो? कहा तकदीर बना रहे हैं? कितनी बना रहे हो? 5 रुपया और एक घोड़ा । पैदा किसके यहाँ करोगे? करोड़पति के यहाँ, मान लो बिड़ला के यहां अथवा का टाटा के यहां । कहां अरे अन्याय न करो, करोड़पति के यहाँ पैदा कर रहे हो और केवलं 5 रुपया व एक काला घोड़ा । अरे इतनी ही तकदीर बनाना हो तो किसी गरीब के घर पैदा करना था । बोले तुम्हें क्या मतलब? हमें जो करना होगा करेंगे । साधु बोला जो लिखते हो लिखो, पर हम तुम्हारे लिखे को मेट देंगे । अब दोनों की ठन, गई ब्रह्मा की और साधु की । ब्रह्मा ने तकदीर लिखकर करोड़पति के यहां पैदा कर दिया । उस करोड़पति का सारा वैभव नष्ट हो गया बिक गया, तितर-बितर हो गया, और एक झौंपड़ी में रहने लगे । केवल 5 रुपया और एक काला घोड़ा उसके पास रह गया । जब 12-14 वर्ष का हुआ तब साधु को याद आया । उसकी तलाश में निकला । गरीब का कौन पता बतलाये। चला पता, लगाते-लगाते पता लग गया वहाँ पहुंच गया, उस लड़के ने साधु का सत्कार किया । साधु बोला, बेटा ! जो हम कहेंगे सो तुम करोगे? बोला हां महाराज हम करेंगे । साधु बोले तुम्हारे पास क्या है ? बोला ये 5 रुपये और एक काला घोड़ा । अच्छा इस घोड़े को बेच दो । 100 रुपये में बिक गया । अब 105 रुपये हो गये । इतने में आटा, शक्कर, घी मंगावो, मंगा लिया, बटिया बन गई । गांव भर को जिमा दो, जिमा दिया । दिन गुजर गया । रात्रि में ब्रह्मा फिर चिंता करते हैं कि 5 रुपये और एक काले घोड़े का वचन दिया है वह तो देना ही होगा । दूसरे दिन 5 रुपये और काला घोड़ा भेज दिया । दूसरे दिन फिर साधु ने कहा बेटा तुम्हारे पास क्या है? बोला 5 रुपये और एक काला घोड़ा । अच्छा तो घोड़े को बेच दो । 100 रुपये में बिक गया । 105 रुपये हो गये । वही काम किया । सामान खरीदा और गांव भर को खिलाया । इस तरह से कई दिन गुजर गये । अब ब्रह्मा सोचते हैं कि बड़ी आफत आयी । 5 रुपये तो जहाँ से चाहें दे देंगे पर काला घोड़ा रोज-रोज कहां से भेजेंगे? अब ब्रह्मा साधु से हाथ जोड़कर कहने लगे, महाराज अब कष्ट न दो । जो कहोगे करूंगा । हमने इसकी तकदीर में वही करोड़पति का वैभव फिर लिखा तो प्रयोजन यह है कि जिस क्षण पदार्थों की चिंता में रात, दिन रहते है और इस अपने चैतन्य प्रभु की सुधि खो बैठते हैं ऐसी जिंदगी बिताकर लाभ क्या मिलेगा सो बतलावो? इस जिंदगी में कोई सार नहीं है । धन वैभव को तो पुष्य में भरोसे पर छोड़ दो । उदय ठीक है तो आपका थोड़े से ही काम बन जायगा और यदि उदय ठीक नहीं है तो आप कितने ही बहाने करें, कितनी ही चिंताएं करें, कितना ही आत्मकल्याण का प्रयत्न करें, काम न बनेगा । इसी से ही पुण्यवानों की शोभा है । जड़ वैभव की तृष्णा बनी रहती है तो इससे पुण्यवानों की शोभा नहीं है । देखा होगा आपने बड़े-बड़े पुण्यवानों को । उनका कामे उनके ही पुण्य से चल रहा है । और ये पुण्यवंत सेठ किसी सत्संग में बैठे हैं और किसी की सेवा कर रहे हैं । अपने ही धर्म कार्यों में दत्तचित्त हैं । सब लोग देख रहे हैं । ऐसी स्थिति में पुण्यवानों की कितनी शोभा बढ़ता है? शोभा तो धर्म से है, तृष्णाओं से शोभा नहीं है । इस कारण बाह्यपदार्थों में तृष्णा को त्यागकर उदय के अनुकूल जो कुछ मिला है उसको भी अपनी जरूरत से कई गुना मानकर उस ओर से निर्विकल्प हो और आत्महित के लिये अपने आत्म स्वरूप का श्रद्धान करो, ज्ञान करो और अपने आपके आत्मा का ही रमण करो । यह विधि अपने उद्धार की है बाकी तो इन भोगों की तृष्णा में लाभ की आशा तो दूर है किंतु हानि ही हानि पावोगे । इस जीवन में क्लेश, मरने पर क्लेश और जिस जीवन को पावोगे उसमें भी क्लेश, सो यह होता है इसे की ज्ञानदृष्टि रहे और अपने आत्महित की कोशिश करो । यह होगा ज्ञानार्जन से । सो ज्ञानी पुरुष की सेवा सत्संग में रहते हुए अपने ही शुद्धज्ञान का अर्जन कर लो तो साथी और शरण यही सत्यज्ञान होगा । अन्य को शरण सोचना धोखा है । उससे कोई लाभ न होगा । किसकी शरण देखो? अपने आपमें बसे हुए अनादि अनंत शुद्ध चैतन्य धन जो निज प्रभु हैं उसकी शरण गहो, वहां ही तुम्हें आत्महित मिलेगा, शांति मिलेगी । इस मोह पर दृढ़ प्रहार करो कि यह टूट जाय और अपने आत्मा के ज्ञानप्रकाश का अनुभव हो जाय ।
बहिरात्मा उसे कहते हैं जो बाहरी पदार्थों को अपना आत्मा समझे । बहिरात्मा कहो या मिथ्यादृष्टि कहो सारा संसार बहिरात्मा से भरा हुआ है । मनुष्य की संख्या बहुत बड़ी है और सबकी छोटी है । मनुष्यगति से ज्यादा हैं नरकगति के जीव, और नरकगति से ज्यादा हैं जीव देवगति में और देवगति से भी ज्यादा जीव है तिर्यंच गति में और उन तिर्यंचों में भी 5 है ना । एकेंद्रिय, दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय और पंचेंद्रिय जितने पंचेंद्रिय तिर्यंच हैं उससे ज्यादा चारइंद्रिय में हैं, उससे ज्यादा तीनइंद्रिय में, उससे ज्यादा दो इंद्रिय में और उसमें ज्यादा एकेंद्रिय में और एकेंद्रिय में भी 5 भेद हैं पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति । इनमें सबसे ज्यादा अग्नि, उससे ज्यादा पृथ्वी, फिर जल, फिर वायु और सबसे अधिक है वनस्पति । वनस्पति जीव भी दो तरह के होते हैं । एक प्रत्येक और एक साधारण । प्रत्येक से अनंतगुणा साधारण में जीव होते हैं । चाहे साधारण कहो, चाहे निगोद कहो दोनों का एक अर्थ होता है । तो कितने हैं निगोदिया जीव? जैसे आलू, मूली रतालू कंद आदि होते हैं तो एक सूई के अग्रभाग पर जितना कूद आया उतने टुकड़े में अनंते निगोदिया जीव होते हैं । फिर समूचा देख लो । ये तो हैं निगोदिया जीव जो वनस्पति के सहारे रहते हैं और सूक्ष्म निगोदिया जीव उससे भी अधिक हैं । वे कहां रहते हैं? सब जगह । लोक में जितना आकाश है सर्वत्र भरे हुए हैं । वे सब जीव बहिरात्मा हैं, अंतरात्मा की क्या गिनती । अंतरात्मा किसे कहते हैं? जो अंतर में अपने आपके स्वरूप में आत्मा का अनुभव करे कि यह मैं हूँ । केवल ज्ञानदर्शन मात्र चैतन्यस्वभावी यह मैं हूँ । ऐसा अंतर में जिसने आत्मा को माना है उन्हें कहते हैं अंतरात्मा । और परमात्मा किसे कहें? जो अंतरात्मा साधना के बल से चार घातिया कर्मों का नाश कर चुकते हैं, केवलज्ञानदर्शन अनंतआनंद, अनंतशक्ति का जिनके पूर्णविकास हो जाता है ऐसे सर्वज्ञदेव को परमात्मा कहते है । सो बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा इन तीनों का जानना सुगम है पर आत्मा का जानना कठिन है । आत्मा का वह सामान्यस्वरूप जो बहिरात्मा में भी है, अंतरात्मा में भी है और परमात्मा में भी है, तीनों में जो आत्मा का सहजचैतन्यस्वरूप है उस स्वरूप का नाम है आत्मा । इसी को कहते हैं कारणपरमात्मा । इस ही का नाम है समयसार । इस जीव में बहिरात्मा का तो खूब परिचय किया और कुछ चर्चा से अंतरात्मा को भी जाना और परमात्मा को भी जाना, पर परमात्मा स्वरूप जो तीनों अवस्थाओं में रहता है उस परमात्मस्वरूप को न जाना । जब तक आत्मस्वरूप जानने में न आयगा तब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता । एक दृष्टांत लो, जिस दृष्टांत से यह सुगमतया समझ में आयगा कि सर्व आत्माओं में सामान्यस्वरूप का नाम आता है कारणपरमात्मा है । जैसे मनुष्यत्व कोई ब्राह्मण है, कोई क्षत्रिय है, कोई वैश्य है और कोई शूद्र है । मान लो 4 प्रकार की जातियों में बटे हुए मनुष्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इनसे बढ़कर चलें तो प्रत्येक मनुष्य एक-एक व्यक्ति है । उन सब व्यक्तियों में जो मनुष्यत्व पाया जाता है वह सब एक स्वरूप है । जैसे कभी बुलाओ कि ब्राह्मण आए तो ब्राह्मण ही आ गया । क्षत्रिय को बुलाओ तो क्षत्रिय आ गया । परंतु मनुष्य आये तो कोई आ सकता है । उसमें विशेषता नहीं की जा सकती है कि तुम आये तुम क्यों न आये? जैसे हजारों मनुष्य हुए, पर उन हजारों मनुष्यों में पाया जाने वाला जौ मनुष्यत्व है, मनुष्य है, वह एकस्वरूप है । और भी दृष्टांत लो । बालक जवान और बूढ़ा, तीन दशाएँ होती हैं । तो आपने बालक बहुत देखे होंगे? क्यों ना? जवान भी देखे होंगे और बूढ़े भी देखे होंगे, पर मनुष्य न देखा होगा । आप कहेंगे देखा तो है । नाम लेकर बता दोगे । यह फलाने भाई है, ये फलाने हैं । यह जवान है, यह बूढ़ा है । पर मनुष्य देखा हो तो बतलाओ । तुमने तो बालक को बताया, जवान को बताया और बूढ़े को बताया पर मनुष्य तो नहीं बताया । बालक, जवान और बूढ़े देखने में आये पर मनुष्य नहीं देखने में आये । मनुष्य जाने जाते हैं ज्ञानबल से । यह मनुष्य सामान्य जो बालक बना, वही जवान बना और वही बूढ़ा बना । तो सब अवस्थाओं का जो आधारभूत है, जिसकी ये तीन परिणतियां होती हैं ऐसा जो कुछ ज्ञान में जंचा इसका नाम मनुष्य है । इसी तरह बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा तीनों का खूब स्वरूप समझो तो आत्मा परिचय में आये । परमात्मा कौन है तो जो आत्मस्वरूप, जो चैतन्यस्वभाव बहिरात्मा का जो नाटक करता था, कभी अंतरात्मा बना और कभी परमात्मा बना । जिस स्वरूप के आधार में अनेक परिणतियां होती हैं वह मनुष्य ही आत्मा कहलाता है । उसको ही परमात्मा कहते हैं । उसको ही कारणपरमात्मा कहते हैं । कारणपरमात्मा को लक्ष्य में लेने के लिये आचार्य महाराज ग्रंथों में उपदेश देते हैं । ये मायामय समागम सब कुछ मिल गए, परिवार मिल गया, धन मिल गया, मोहीजन मिल गये, सब कुछ मिल गया मगर शरण सहाई कोई न हो सका इस आत्मा का । स्वरूप इजाजत ही नहीं देता कि एक आत्मा का कोई दूसरा आत्मा शरण बन जाय ऐसा कोई स्वरूप इजाजत हीं नहीं देता । ऐसा हो ही नहीं सकता है । सबका जुदा-जुदा परिणमन है और अपने-अपने परिणमन से परिणमते रहते हैं कोई दूसरा साथी नहीं है । मान लो कभी कोई गुजर गया तो घर के लोग रोते हैं ना? और बाहरी रिश्तेदार फेरा करने आते हैं । तो रिश्तेदार भी स्टेशन से उतर कर रोते हुए आते हैं । महिलाएँ तो विशेषकर । चाहे रेल में बैठे हुए ताश खेलते हुए गप्पें करते हुए आये हों मगर घर रोते हुए आयेंगे । जब उनका रोना सुना तो घर के लोग और तेज रोने लगे । तो बतलाओ रिश्तेदार क्या उसके दुख के साथी हो गये । अगर कोई रिश्तेदार अंतरंग से दुःखी होवे तो भी दुःख नहीं बूटा लेंगे किंतु रिश्तेदारों ने भी एक दुःख मोल ले लिया । उसका दुःख तो ज्यों का त्यों है उसके दुःख को कोई बांट नहीं सकता । पर रिश्तेदारों ने अगर दुःख किया तो और दुःख मोल ले लिया । जैसे किसी इष्ट पुत्र की कठिन बीमारी को देखकर मां भी बीमार हो जाय तो मां को पुत्र की बीमारी ने नहीं बीमार बनाया किंतु मां ने स्वयं मोह करके बीमारी मोल ले लिया । दूसरों का दुःख कोई बांटता नहीं है । गुरुजी सुनाते थे कि खुरई में श्रीमंत सेठ रहते थे, वे बड़े तेज पुरुष थे । दो शादियां शायद हो गई थीं तीसरी फिर हुई । बहुओं ने, नौकरानियों ने सेठानी को समझा दिया कि सेठानीजी सेठजी बड़े तेज मिजाज हैं सो बड़ा ध्यान रखना । उनका आर्डर तुरंत निभाना । एक बार सेठजी का सिर दर्द हुआ । सेठ ने खबर दी कि सेठानी को भेजो दवा दारु करे । सेठानी दवा देने गई । दुःखी होने का रोग बनाकर सेठानी गई, विह्वल होने लगी और अपने पलंग पर पड़ गई और बड़ा कष्ट बताने लगी । सेठानी तो सेठ की नई बहु थी, अपने सिर दर्द को भूलकर खुद सेठानी के पास पहुंचे । सेठ ने पूछा क्या तबीयत खराब है? क्या दर्द करता है? सेठानी ने कहा कि जब से मैंने आपके सिर में दर्द का समाचार सुना तब से मैं विह्वल हो रही थी । इस समय मेरी तबीयत खराब है, बात न करो । यह एक लटका सेठानी ने सेठ को दिखाया । तब से सेठ ने फिर कभी मिजाज नहीं दिखाया । तो कोई किसी के सुख दुःख को नहीं बांट लेता है । घर के दस आदमी सुख से रहते हैं तो कोई किसी के सुख को नहीं बांट लेता है । सब जीव अकेले हैं, किसी जीव का कोई साथी नहीं है, अकेले ही सब कर्म भोगते हैं, अकेले ही सब कषाय करते हैं । कर्म बंध होता है तो अकेले ही होता है । कोई किसी का साथी नहीं है । साथी होना तो दूर रहा, बिगाड़ न हो उनके निमित्त से तो यह ही गनीमत है, पर ऐसा होता नहीं है । बतलाओ संसार में अनंते जीव हैं उनमें से इन चार घर के आदमियों का कौनसा ऐसा स्वरूप है जिससे आप यह निरख सकें कि ये मेरे कुछ लगते हैं । कोई डिस्टिकंशन भी नहीं है, न कोई विशेषता है, सब जीव एक प्रकार के हैं, फिर उन घर के चार जीवों में जो मोह किया राग बना इसका फल कौन भोगेगा ? सो सत्य तो वे ऋषि संत ही बतला रहे हैं कि तुम अपने सहजस्वरूप को निरखो । बहिरात्मा की अवस्था में भी रही है अंतरात्मा की अवस्था में भी वही है और परमात्मा की अवस्था में भी वही है । तो उस अपने आत्मस्वरूप को पहिचानों । ऐसा ही परमात्मा, शुद्धात्मा, निजआत्मा या परम ब्रह्मदेह में बसता हुआ भी देह को छूता नहीं है । और देह से यह आत्मा छुवा जाता नहीं है, इसका वर्णन 34 वीं गाथा में कहा है ।