वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 3
From जैनकोष
ते हउं वंदउं सिद्धगण अच्छहिं जेवि हवंत ।
परमसमाहिमहग्गिएं कम्मिंधणहं हुणंत ।।3।।
मैं उन सिद्धों को जो परमसमाधिरूप अग्नि से कर्मरूपी ईंधन को भस्म कर रहे हैं सिद्ध भक्ति द्वारा नमस्कार करता हूँ । पहिले भूतकाल व भविष्यकाल की अपेक्षा वर्णन किया जा चुका है अब यहाँ वर्तमान की अपेक्षा सिद्धों का वर्णन है । वे सिद्ध भगवान पारमार्थिक हैं अर्थात् निर्दोष परमात्मा हैं जो परम समताभाव का अविनाभावी है अर्थात् रागद्वेषरहित वीतराग, समताभाव युक्त है ज्ञान के अविनाभावी, समताभाव के बिना प्रभु की उपासना नहीं की जा सकती, अत: मैं समताभाव धारण करके सिद्धों की पूजा करता हूँ । जो से कल ज्ञान की कलाओं से रमणीक हैं ऐसे सिद्धों को मैं नमस्कार करता हूँ । जो समताभाव का पूरक ज्ञान है वह अपनी आत्मा में ही मिलेगा । सिद्धों की तरह मेरा भी स्वरूप अनादि अनंत एक स्वरूप सहज सिद्ध है । उसकी पूजा तो समतारस की धारके द्वारा ही हों सकती है । रागद्वेषयुक्त होते हुए सहजसिद्ध की पूजा नहीं की जा सकती । अत: मैं अपने मनरूपी भाजन में रखी हुई धारा के द्वारा सिद्धों की पूजा करता हूँ । सहजसिद्ध स्वरूप अनादिकाल से लगे कर्मकलंक का नाश करने वाला है । हम लोगों की तो सहजपरमात्मतत्त्व की महिमा की करने की क्या हस्ती । चार ज्ञान का धारी गणधर भी उनका वर्णन करने में अपनी जिह्वा को असमर्थ पाता है । अर्थात् गणधर भी उनकें गुणों का बखान करने में समर्थ नहीं है । मैं सहजसिद्ध प्रभु को पारमार्थिक शक्ति के द्वारा नमस्कार करता हूँ । इनकी महिमा अलौकिक है । जिसकी कोई उपमा नहीं, ऐसे ये सिद्ध भगवान हैं, अपने आपमें लीन हैं । ज्ञानज्योतिर्मय है इस प्रकार सिद्धों के दर्शन करने से जो तरंगें उठती हैं वे अलौकिक सुख की देने वाली हैं । मैं जैसा हो सकता हूँ, वैसा, हूँ अन्यथा नहीं; इस प्रकार विचार करना चाहिये ।
भैया ! धन का गर्व एवं ज्ञान का गर्व करने से अपने स्वभाव का, अपने आत्मा का ज्ञान नहीं हो सकता । बड़े 2 जनों को सहजप्रभुत्व के दर्शन न हों और मेंढक, पशु-पक्षी को हो जाये ऐसा भी हो जाता है । क्योंकि, अपने परिणामों के कारण जो अपनी आत्मा का स्वरूप जाना जा सकता है । जिस प्रकार कहा जाता है कि अधिक चतुर मनुष्य सब्जी लेने में ठगा जाता है, अर्थात् जो अधिक चतुर है उनसे कोई न कोई ऐसी भूल हो जाती है जिससे वह ठगा जाता है । ऐसे ही यह निश्चित नहीं कि जो बहुत बड़े पुरुष भी हैं उन्हें ही अपनी आत्मा का स्वरूप मालूम हो, इससे विपरीत भी हो जाता है । स्वानुभव के लिए ज्ञान की आवश्यकता के साथ-साथ सहजसिद्ध चरित्र की भी आवश्यकता है । अर्थात् अपने उपयोग को उसी रूप परिणमन कराना है मैं सहजज्ञान द्वारा सहजआनंद द्वारा सहजभाव की दृष्टि से सिद्धों को पूजता हूँ, ऐसा भाव होना चाहिए । समस्त दोषों को शुद्ध करने में समर्थ जो महत्वशाली अक्षय सहजज्ञान भाव है उसके द्वारा सुबोध के निधान सहजसिद्ध की मैं पूजा करता हूँ । सहजज्ञान किया हुआ ज्ञान नहीं अपितु सहजज्ञान, जो अपने आप बोध होता है वही सहजज्ञान है । सहजज्ञान द्वारा ही सहजसिद्ध के दर्शन होंगे । जिनकी अवधि नहीं है ऐसे प्रचुर गुणों से युक्त सिद्धों को मैं पूजता हूँ । सिद्धस्वरूप के स्मरण में आत्मीय सहज धर्मों का मिलन होता जा रहा है । यह साधर्म्यमिलन एक अपूर्व मिलन है । साधर्म्य वात्सल्य से भी अलौकिक सुख की प्राप्ति होती है ।
एक राजा के दरबार में नर्तकी का नृत्य हो रहा था, नृत्य देखने आये हुओं में एक अंधा भी था । अब जो संगीत को जानते थे वे भी गर्दन हिलाते जाते थे और जो नहीं जानते थे वे भी गर्दन हिलाते जाते थे, क्योंकि नहीं तो वे संगीत कला में मूर्ख समझे जाते । अंधा नृत्यगान के समय बोला कि यह जो तबला बजा रहा है उसका अंगूठा मोम का है, देखने पर मालूम हुआ कि वास्तव में बात सत्य है । यह देखकर नर्तकी बहुत प्रसन्न हुई कि कोई तो संगीत के नृत्य का समझने वाला इस सभा में है । थोड़ी देर में ऐसे ही नाचते-नाचते नर्तकी के चारों ओर एक भ्रमर आकर रमने लगा तथा वह चक्कर लगाते हुए नर्तकी के वक्षस्थल पर बैठ गया । अब नर्तकी हाथ से इसलिये नहीं उड़ाती कि हाथ से उड़ाने पर नृत्य में कहीं भंग न पड़ जावे । अत: उसने नाचते-नाचते ही इस तरह से एक प्रकार का श्वास लिया कि भौंरा उड़ गया, उस घटना के अनुभव से आनंदित होते हुए अंधे ने अपना दुपट्टा नर्तकी के ऊपर फेंक दिया क्योंकि गरीबी के कारण और कुछ तो उसके पास था नहीं । नर्तकी उसी दुपट्टे को सिर पर रखकर खुश होती हुई चारों ओर नाचने लगी । यह संगीत गुणानुराग का प्रेम है । इसी प्रकार धर्मात्माओं में जो वात्सल्य होता है वह भी निरूपम होता है । मैं इन सहजरत्नमय सिद्धों को सहजरत्न की रुचियों से पूजता हूँ । सहजरत्न उसे कहते हैं जो कि गुणों में प्रकाश करने वाला होता है । आत्मा का विकास करने वाला जो निरवधि सहजरत्न है उसके द्वारा मैं सहजसिद्ध की पूजा करता हूँ । जो परमसमाधिरूपी अग्नि से कर्मरूपी ईंधन को जला रहा है ऐसा निर्दोष परमात्मा स्वभावरूप जो परमात्मा है, मैं निर्विकल्प स्वसंवेदन द्वारा उसकी पूजा व भक्ति करता हूँ ।
भैया ! सच जानो, यह मानव पर्याय मिलना अति कठिन है, उसमें भी जैनधर्म का समागम पाना महा दुर्लभ है और उसको पाकर भी यों ही विषय कषायों में खो देना बुद्धिमानी का कार्य नहीं है । अत: इन विषय कषायों को छोड़कर वात्सल्यभाव जगाओ तथा सहजज्ञान द्वारा सिद्धों की पूजा करो । इन कषायों को जला डालो । भैया ! जो आनंद वात्सल्य में है वह विषय-कषायों में कहां है । अत: जब हमने मानवपर्याय पायी तो कम से कम इतना तो लाभ पाते जायें कि सिद्धभगवान के दर्शन हो जावें । इस समय भी अनेकों आत्मा पांच महाविदेहों से सिद्ध हो रहे हैं वे वीतराग निर्विकल्प समतापरिणाम के अविनाभावी निर्दोष परमात्मतत्त्व के सम्यक् श्रद्धान ज्ञान अनुचरणरूप अभेद रत्नत्रयात्मक समाधिरूप अग्नि में कर्मेंधन की आहुतियों से होम करते हुए कर्म मुक्त होकर सिद्ध हो रहे हैं ऐसे सर्व वर्तमान सिद्धों को निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञानरूप पारमार्थिक सिद्धभक्ति से नमस्कार करता हूँ । इस गाथा में यह भावार्थ प्रसिद्ध हुआ कि उपादेयभूत शुद्ध आत्मद्रव्य की प्राप्ति का उपायभूत निर्विकल्प समाधि ही उपादेय है ।
मैं उन सिद्धों को नमस्कार करता हूँ जो सिद्ध हो रहे हैं सिद्ध होते हुए ठहर रहे हैं । एक बड़ा होम करते हुए सिद्ध हो रहे हैं । होम में अग्नि की आहुति दी जाती है । यहाँ होम में निर्विकल्परूप समाधि हुई अग्नि तथा कर्म हुए ईंधन अर्थात् निर्विकल्प समाधिरूपी अग्नि में कर्मरूपी ईधनों को होम कर रहे हैं । अत: वे निर्विकल्परूपसमाधि अग्नि में कर्मरूपी आहुतियों के द्वारा होमकर समाधि में ठहर रहे हैं । भैया ! सदा, समताभाव का आदर करना चाहिये । यहाँ पर कोई कहे कि यह तो मायाचार हुआ । यह शंका निर्मूल है । मायाचार तो उसे कहते हैं कि स्वार्थ की बुद्धि से या ठगने की बुद्धि से मन में कुछ रखना, बताना कुछ और, व्यक्त कुछ और करना । देखो ! असंयतसम्यग्दृष्टि के चारित्र व्रत, तप, संयम नहीं केवल श्रद्धा उसके है । तो श्रद्धा है स्वभाव और पद प्रवृत्ति विषेयक, यह तो मायाचार नहीं है? क्योंकि यहाँ अंतरंग तो वैसा ही समताभावना का है अत: मायाचार नहीं हुआ । मैं सिद्ध समान हूँ । अत: चैतन्यभाव का ही उपयोगी रहूं ऐसी भावना वाले के इस विवेकी मन में यदि क्रोध होता है तो वह इसलिये कि क्रोधादि का उदय लगा हुआ है, हो जाता है, इसे मायाचारी नहीं कहते । वैसे तो जो उसकी भावना है उसे वह वैसा ही व्यक्त कर रहा है । धन्य हैं उस निर्विकल्प समाधिरूपी अग्नि को जिसमें योगीजन कर्मरूपी ईंधन को जलाते रहे हैं । ऐसी निर्मल श्रद्धा बनाओ कि सब आत्मा भगवान के स्वभाव वाले हैं । ऐसा श्रद्धान हो गया तो समझना चाहिये कि हमने बहुत बड़ी वस्तु प्राप्त कर ली है अन्यथा ये बाह्य उपकरण तो सब नष्ट हो ही जावेंगे । भैया ! सब जीव भगवान के स्वभाव की तरह चैतन्य स्वभाव वाले हैं, तथा मुझसे भिन्न हैं । फिर उन जीवों में छटनी करना कि यह मेरा है, यह तेरा है, यह सब मोह है, अन्य कुछ नहीं । सब पर क्षमा करने का भाव बनाये रहो ऐसा करने से वात्सल्य भाव जागृत रहेगा । उन जीवों में छटनी मत करो । राग-द्वेष की भावना मत भावो । मेरा तो केवल मैं ही हूँ मेरा कुटुंब मेरे गुण हैं । मेरा सहाय मैं हूँ । मेरा वैभव उन गुणों का विकास है । इससे अन्य मेरा क्या है कुछ भी तो नहीं । जैसे कोई बहुत बड़ा अफसर है वह जब तबादले पर कहीं जाता है तो प्राय: उसको कुछ भी दुःख नहीं होता, क्योंकि जाने के लिए उसका मुफ्त प्रबंध हो जाता है । एक दो डिब्बे रेल्वे के फ्री मिलते है । काम के लिए सरकारी नौकर मिल जाते हैं । फिर जहाँ जावेगा वहीं उसको आदर प्राप्त होगा, यहाँ का आदर तो बल्कि अब उतना है भी नहीं क्योंकि रहते हुए काफी दिन हो गये फिर बड़े अफसरों का प्राय: जनसमूह से प्रेम नहीं रहता । अत: इन सब परिस्थितियों में जब कि वह अपना चूल्हा चक्की तक सब साथ में ले जा सकता है क्या उसे जाते हुए क्लेश होगा? बिल्कुल नहीं । उसीप्रकार ये ज्ञानी जीव भी इस पर्याय को छोड़कर अन्य पर्याय धारण करे तो क्या दुःख है । जिसमें मैं बस रहा हूँ, वे मेरे गुण तथा वही कुटुंब है । गुणों का जो विकास है वही मेरी इज्जत है । ज्ञानी होने के कारण मैं यहाँ के लोगों से अंतरंग में मोह बढ़ाता नहीं हूँ फिर मुझे क्लेश क्यों, दुःख क्यों । यह भीतो सोचो छोटी-सी बात की जितनी खुशी व पूछ उस समय थी जब कि तुम पैदा हुए थे, क्या उतनी ही आज भी है? आज तो तुम कमाते भी हो जबकि उस समय कमाते नहीं थे । आज वह पूछ वह इज्जत नहीं जो जन्म के समय थी । खैर ! जो मेरा गुण है उसे तो मैं साथ ही ले जा रहा हूँ । गुणों के विकास को भी साथ ही लिये जा रहा हूँ । अत: मुझे तो इस पर्याय को छोड़ते हुए कोई कष्ट नहीं होना चाहिए ।
समता ही एक ऐसी अग्नि है जिसमें कर्म ईंधन जलते हैं, अत: जीवों पर समता का भाव पैदा करो । अपने व्यवहार में हमेशा समता ही प्रगट करो । अंतरंग में चाहे थोड़ी कमी हो किंतु व्यवहार में बराबर समता का भाव बनाये रखो । मेरे अंतरंग में भीतो समता की भावना ही है बीच में जो व्यग्रता आ गयी है उसे मैं मिटा लूंगा । व्यवहार में असमता लाने से शल्य बढ़ता है । अपने में जो भूल मल है उसे ज्ञानरूपी जल में नष्ट करना चाहिए । इससे इस लोक में भी सुखी होवोगे तथा परलोक में भी सुखी होवोगे । अभेदरत्नत्रय को समाधि कहते हैं । अनादि अनंत निर्दोष जो परमात्मतत्त्व उसका ही अभेदरूप दर्शन-ज्ञान, वह हुआ समाधि उसमें ही योगीजन ठहरा करते हैं ।
ज्ञानी का लक्ष्य बिंदु सहज परमात्मतत्त्व ही होता है । ज्ञानी श्रावक पूजक की भी अंतर की आवाज यह है कि हे प्रभो ! यह मंदिर का शुद्ध स्थान है, ये पुष्पादि आठों द्रव्य शुद्ध हैं ये आपकी मुद्रा भी शुद्ध है, मैं भी शुद्ध हूँ ये सब कुछ होते हुए भी मेरे लिये सब चीजें एक ही हैं । जैसे―द्रोणाचार्य ने मोम की चिड़िया पर निशाना लगाने के लिए अपने शिष्यों को परीक्षा ली उन्हें कहा गया कि चिड़िया की आंख में तीर मारना है । धनुष ताने हुए सबको पूछा कि क्या दिखता है? पूछने पर किसी ने कहा कि मुझे सब कुछ दिख रहा है आदि-आदि किंतु अर्जुन ने कहा कि मुझे तो आँख के सिवाय कुछ नजर नहीं आता । अत: द्रोणाचार्य की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए । उसी प्रकार ये पुजारी भी उसी दशा में उत्तीर्ण हैं जबकि वे समझे कि मैं एक ही हूँ । यह सब वही एक है, हम लोग तो पूजा करते समय बाह्य में इतना ध्यान देते हैं कि कुछ हमसे छू तक न जाये । ऐसी दशा में यह भाव कैसे आ सकता है? हां अभिषेक के समय पूर्ण शुद्धता का भाव रखना चाहिये तथा ध्यान रखना चाहिए । अब बाद में यदि कोई छू जाय तो उसमें हम क्या कर सकते हैं हमारे भाव तो पूर्ण शुद्धि के हैं ।
पूजा करते समय चैतन्यमात्र परमात्व ही दिखना चाहिए । इस जाज्वल्यमान केवलज्ञानरूपी अग्नि में मैं एक मन होकर सारी पुण्य सामग्री को स्वाहा करता हूँ । अलंकार में एक चर्चा है मानो भगवान बोले―हे प्राणी ! तू दस या ग्यारह आने की सामग्री स्वाहा करके हो ऐसा बोलता है कि समग्र पुण्य को स्वाहा करता हूँ तब पुजारी बोला कि नहीं, मैं अपना सब ऐश्वर्य आदि भी स्वाहा करता हूँ । भगवान बोले कि बाह्य वस्तु को त्यागकर क्या उदारता दिखाई? तब पुजारी ने कहा कि मैं एकक्षेत्रावगाह की तिजोरी में रखे हुए पुण्यकर्म को भी स्वाहा करता हूँ । वह भी जड़ है ऐसा रोकने पर फिर बोला कि मैं भाव पुण्य को भी स्वाहा करता हूं ।