वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 2
From जैनकोष
वे वंदे खिरि सिद्धगण होसोंहि जे वि अगंत ।
सिवमय निरुवमणाणमय परमसमाधि भजंत ।।2।।
अपने में जो अनंत विपत्तियां लगी हुई हैं उन्हें दूर करने के लिए अपनी आत्मा में अनंत सिद्धों की उपासना करो । मैं समस्त सिद्धों को नमस्कार करता हूँ । अहो अनादिकाल से मोहमाया में फंसे रहने से मुझमें इतना मल चढ़ गया है कि उसे धोने के लिए अनंतसिेद्धों की अपने में उपासना करना आवश्यक हो गया है । अलंकार में कहा जाता है कि मुक्तिलक्ष्मी का वर बनो । सो मुक्ति को बनाया लक्ष्मी (स्त्रीलिंग) तो दूल्हा बनने के लिए 12 भावना को बनाओ वाहन तथा सर्वसिद्धों को बनाओ बराती व परीषहजय को बनाओ शृंगार इस प्रकार इनसे सजकर दूल्हा बन, लक्ष्मी का वरण करो । फिर भी विषय, कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ आदि बाधा डालने वाले होते हैं सो उसके लिए अपने बराती इतने शक्तिशाली रखो उनकी अधिक उपासना करो कि कोई बाधा न डाल सके । जिनको बराती बनाया वे ही हुए अनंतेसिद्ध । उनको उपासना से फिर कोई आत्महित में बाधा न डाल सकेगा ।
सिद्ध भगवान परम कल्याणमय हैं । ज्ञानानंदरस से लबालब भरे हैं जैसे मिश्री की डली में सर्वत्र मधुराई भरी है । ये सिद्ध सब प्रदेशों में ज्ञानानंद से परिपूर्ण हैं । तथा वे अनुपम हैं । कोई सोचे कि क्या वे इंद्र की तरह आनंद वाले हैं नहीं भैय्या ! इंद्र तो माया विषयवासना में रत है किंतु सिद्ध भगवान इन सबसे परे हैं । अत: वे सर्व इंद्रों से भी अधिक सुख वाले हैं । उनका ज्ञान आनंदमय हुए व आनंद निरूपम है । उनकी ज्योतिस्वरूप आत्मा है ऐसा ही अपना स्वरूप है कभी भी इस भ्रम में मत पड़ो कि ज्ञान व आचरण को छोड़कर मेरा अन्य कोई सहायक है । सोचो ! यदि ज्ञान व आचरण बिगड़ गया तो जितने भी ये अपने अंतरंग मित्र देखते हो, भले-भले साथी देखते हो, सबके सब मुंह फेर लेंगे ! कोई भी सहायक न होगा । ज्ञान व चरित्र ही आत्मबल देने वाले हैं अन्य कोई नहीं । मेरा ज्ञान सर्वदा निर्विकार बना रहे ऐसी कोशिश करनी चाहिए ।
मैं उन सिद्धों को नमस्कार करता हूँ जो ज्ञानमय हैं व निरूपम हैं । और जो आगे सिद्ध होंगे उन्हें भी मैं नमस्कार करता हूँ । सिद्धों के सिद्धत्व प्रकट कैसे हुआ । जिन साधुसंतों ने संसारसमुद्र से तिराने वाली समाधि नौका का आश्रय लिया उन्होंने चतुर्गति के दुःखरूपी क्षार जल से परिपूर्ण संसारसमुद्र से पार होकर सिद्धत्व प्राप्त किया। इस समाधिभाव में अमूल्य रत्नत्रय अंतर्निहित है । विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभावात्मक निज शुद्ध आत्मतत्त्व का यथार्थ श्रद्धान यथार्थ ज्ञान व तदनुरूप आचरण ही मोक्षमार्ग है; रत्नत्रय है । यह रत्नत्रय परिपूर्ण समाधि है । इसमें विषय कषाय आदिक किसी भी विभाव के प्रवेश पाने को छिद्र नहीं है । इस समाधिबल से ही शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न बहल आनंदामृत का सेवन होता है सो साधु परमेष्ठियों ने इस परम पावन समाधिभाव के अवलंबन से सिद्धत्व की प्रभुता प्रकट की है ।
ये सिद्ध भगवान लक्ष्मी और विभूति से युक्त हैं । यह लक्ष्मी शब्द स्त्रीलिंग है इसका अर्थ भी लक्षण है तथा नपुंसक लिंग में जो लक्ष्मी का लक्ष्म बनेगा उसका अर्थ भी लक्षण है । अर्थात् लक्ष्मी और लक्ष्म दोनों शब्द एक ही अर्थ के द्योतक है । मेरा लक्षण ज्ञान दर्शन है ज्योतिर्मय है यही लक्ष्मी का तात्पर्य है । लेकिन मोही लोगों के प्रयोजन से लक्ष्मी का आजकल रूप बिगड़ गया है । लक्ष्मी उसको समझते हैं जो धन बरसाती हो उसे एक प्रकार से देवी मान लिया है । पहिले तो मनुष्य जानते थे कि मेरा ज्ञान लक्ष्मी है । इसी से भला होता है । वैभव-विभव से बनता है । वि=विशेषरूप से भव=होना ! अर्थात् विशेषरूप से होने के परिणम का नाम वैभव है । मुझमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ये ही विशेषरूप से मुझमें होंगे । यदि बुरे होंगे तो विकृत हो सकते हैं; विशिष्ट होंगे तो निर्मलपने को प्राप्त हो जावेंगे । उत्कृष्ट सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, सिद्धों में हैं । अत: मैं उन सब सिद्धों को नमस्कार करता हूँ ।
भैया ! विचार करो कि हम भी वीतराग द्वारा बताये हुए मार्ग के अनुसार इस दुर्लभ रत्नत्रय को प्राप्त कर मुक्त होंगे, सिद्ध होंगे । जो निर्दोष, ज्ञानघन व आनंदमय हैं उन्हें सिद्ध कहते हैं ।
रागद्वेष जब तक है तब तक यह जीव भटकता रहता है, रागद्वेष वश होकर इतनी कषाय रखते हैं प्राणी, कि अपने दुःख के शमन के लिए दूसरों के प्राण तक भी नष्ट कर सकते हैं । एक जगह एक सेठानी अपनी पड़ोसिन गरीब औरत से झगड़ रही थी । सेठानी ने गरीब औरत के बालक को पीट दिया तो उस बालक की मां को इतना अधिक क्रोध आया कि तीन दिन तक खाना-पीना कुछ नहीं लिया तथा क्रोध के कारण चेहरा भी विकृत रहा । एक दिन उसको सेठानी का लड़का मिल गया । उसने उसे किसी प्रकार फुसलाकर टुकड़े 2 काटकर गाड़ दिया । अदालत में मुकदमा पहुंचने पर उसने बयान दिया कि मैं तीन दिन तक क्रोध के कारण खाना नहीं खा सकी । जब इसके लड़के को काट कर दाब दिया तब मुझे शांति मिली । बताओ कितनी तीव्रकषाय है यह? अत: हे भाइयों ! रागद्वेष जब तक साथ में है तब तक आत्मा को आनंद प्राप्त नहीं हो सकता अत: रागद्वेष से दूर होओ, वीतरागपने को ही सिद्धि कहते हैं, इसी वीतरागपने को प्राप्त करने के लिए मंदिर जाते हैं तथा सामायिक आदि पुण्य के काम करते हैं । इनसे हमारे खोटा उपयोग नहीं होता । निज आत्मा की पुष्टि ज्ञान से होगी । तभी तो ज्ञानदान से बढ़कर दुनियां में कोई महत्त्व का कार्य नहीं है । निजस्वरूप का ज्ञान प्राप्त हो जाने पर सब कल्पनाएं नष्ट हो जाती हैं तथा अलौकिक सुख प्राप्त होता है । अत: ऐसे ज्ञान का दान भी करो तथा दूसरों द्वारा ग्रहण भी करो ! जिन्होंने अपने स्वभाव को पहिचान लिया है तथा आत्मा के आनंद में विभोर हैं ऐसे सिद्धों को मेरा नमस्कार है । यह ग्रंथ परमात्मप्रकाश है इसमें स्वयं का ही वर्णन है । स्वयं-स्वयं के सहज आनंद को जैसे प्राप्त कर सके जिसे से सहजानंदमय रह सके ऐसा पुरुषार्थ करना ही एक मात्र कर्तव्य है । गृहस्थ हैं तो क्या हुआ उनके दो ही तो कार्य हैं―1. अपना उद्धार करना व अपनी आजीविका करना । अपनी आजीविका न्यायपूर्वक करनी चाहिए तथा धर्म का पालन करना चाहिए । इन दो बातों को छोड़कर और सब धंधों में व्यर्थ ही चिंता मत करो? दूसरों का भला बुरा सोचने से इस जीव को क्या फायदा है? परोपकार करना भी यदि लक्ष्य शुद्ध हो तो धर्मपालन में ही शामिल है । अब कर्मविमुक्त सिद्धों को पुन: नमस्कार किया जा रहा हैं ।