वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 58
From जैनकोष
त परियाणहि दव्वु तुहुँ जं गुणपज्जयजुत्तु ।
सहभुव जाणहि ताहं गुण कमभुव पज्जउ उत्तु ।।58।।
कल्याण के लिए जो ज्ञान चाहिए उस ज्ञान के अर्थ द्रव्य गुण-पर्याय का निर्णय कर लेना बड़े महत्त्व का विषय है । जगत के जीवों को मोह, राग और द्वेष सता रहे हैं । इसका कारण यह है कि उनको द्रव्य-गुण-पर्याय का यथार्थ निर्णय नहीं है । भला बतलावो तो सही कि किसी रस्सी को सर्प जान रहे हैं । इसे ही तो मिथ्याज्ञान कहते हैं । और एक सम्यग्दृष्टि पुरुष कदाचित् रस्सी को सांप समझ जाये तो क्या वह मिथ्याज्ञानी है या सम्यग्ज्ञानी? वह सम्यग्ज्ञानी ही रहता है । इसका क्या कारण है? इस अज्ञानी को द्रव्य, गुण पर्याय का निर्णय नहीं । अज्ञानी पुरुष इस चौकी को चौकी भले ही जाने, किंतु उसे यह पता नहीं कि इसमें द्रव्यत्व क्या है? गुण क्या है और पर्याय क्या है? उसे अपने निज स्वरूपास्तित्व का बोध नहीं है । इस कारण वह इसकी ओर झुकता रहता है । वह अज्ञानी हो बना रहता है । सम्यग्दृष्टि भले ही रस्सी को सांप जान ले, किंतु कुछ भी हो जो दृश्य में है वह पुद्गल द्रव्य है, अनेक पर्यायों का पिंड है । परमाणु अपने-अपने स्वरूपास्तित्व में है । वह सर्व द्रव्य तो मुझ से पृथक् है । उसका मुझ में प्रवेश नहीं । मेरा पर में प्रवेश नहीं । ऐसे स्वरूपास्तित्व का ज्ञान तब भी बना रहता है । इस कारण वह सम्यग्ज्ञानी है ।
उसी द्रव्य गुण, पर्याय के स्वरूप का यहाँ वर्णन कर रहे हैं, जिस ज्ञान के बिना यह जीव संसार में परिभ्रमण कर रहा है, अनेक जन्ममरण के क्लेश भोग रहा है । कुछ उपयोग लगाकर ध्यान से सुनो तो कठिन बात भी सरल हो सकती है । सभी बातें अच्छी तरह चित्त में रखकर श्रवण करना चाहिए । समस्त पदार्थों का यथार्थ स्वरूप जानना है । तो हम कब जान सकेंगे? उनका यथार्थ स्वरूप जब पहिले यह समझा जाये कि एक-एक पदार्थ कितना है क्या है? जैसे आपकी टोकरी में आम धरे हैं ! आप दूसरे से कहते है कि उसमें 20 आम रखे हैं, 5-7 आम ले आवो । तो वह एक आम कितना होता है यह उसकी समझ में है, तभी तो वह 5-7 समझेगा । एक-एक का ज्ञान हुए बिना पदार्थ जाना नहीं जा सकता । इसी प्रकार लोक में ये सब पदार्थ कितने हैं, यह पहिले जानो पदार्थ कितने हैं? यह समझने के लिये यह समझो कि एक कितना होता है? एक उतना होता है जिसका कभी भी दूसरा टुकड़ा (भाग) नहीं हो सकता । एक का कभी टुकड़ा नहीं होता, यह मूल सिद्धांत है । अगर टुकड़ा हो जाये तो वह एक नहीं । कपड़े के टुकड़े हो जाते हैं । इसका अर्थ यह है कि यह कपड़ा एक चीज नहीं है । अनेक चीजें हैं सो कुछ चीजें एक तरफ हो गयी, कुछ चीजें एक तरफ हो गयी । इसमें 10-5 हजार सूत तो होंगे ही । इस कपड़े में तो हजार चीजें हैं । हजार सूत हैं । सो वह कुछ सूत इस बगल हो गया, कुछ सूत उस बगल हो गया । एक होता तो दो टुकड़े न होते । यों अनेक हैं इसलिए बिखरे गये । इस चौकी के भी कई टुकड़े हो सकते हैं तो यह भी एक चीज नहीं है । यह अनेक चीजों का पिंड है । इसी से कुछ इस ओर हो गया और कुछ उस ओर हो गया । एक होता तो इसके टुकड़े न होते ।
भैया ! आपका जीव एक है कि अनेक? ‘‘जरा आध घंटे को अपना आधा जीव यहाँ कृपा करके बैठा दो और आधा जीव अपने घर पहुंचा दो’’ यह आपसे कहें तो क्या आप ऐसा कर सकते हैं ! नहीं । क्यों नहीं कर सकते? इसी कारण कि यह आप जीव एक हैं । उसके टुकड़े नहीं हो सकते हैं । इसी तरह दिखने वाले जो एक-एक परमाणु हैं, जो अविभाज्य हैं वे एक-एक चीजें हैं । एक परमाणु के दो हिस्से नहीं हो सकते । व अन्य पदार्थ देखो सब कितने पदार्थ हैं? किसी भी वस्तु की संख्या तब समझ में आ सकेगी जब यह जाने कि आखिर में एक-एक चीज कितनी है? बस, इस स्वरूपास्तित्व का सहारा लेकर देखते जावो कि दिखने में मनुष्य भी कितने आ रहे हैं फिर पशु पक्षीगण को देख लो और कोड़ों मकोड़ों को देख लो । ये सब असंख्यात हैं । फिर आगे नोचे बढ़कर चलो पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय व प्रत्येक वनस्पतिकाय जीव कितने हैं? सब असंख्यातासंख्यात हो गये । अब इन सब संसारी जीवों से भी कई गुणे ज्यादह मुक्त जीव हैं और उन अनंत मुक्त जीवों से अनंतगुणे निगोद जीव हैं । निगोद कुछ कम सब संसारीजीव हैं और सबमें निकृष्ट जीव है । यों अनंतानंत तो समस्त जीव हैं ।
समस्त जीवों से भी अनंत गुण जगत में पुद्गल हैं । आप एक जीव हैं । आपके साथ कितना भार लदा है? आप बतलावो आपके साथ जो यह शरीर लदा है यह पिंडोला लदा है, यह बिस्तर जैसा आपको दाबे हुए है । यह पिंडोला अनंत परमाणुओं का पिंड है । सो यह दिखने वाला पिंडोला अनंत परमाणुओं का पिंड है और इसके साथ इससे भी कई गुणा शरीर के ही परमाणु विस्रसोपचयरूप से साथ लगे हैं और उनसे भी अनंत गुणे कर्मपरमाणु साथ लगे हैं । और उनसे भी कई गुणे कर्मों के विस्रसोपचय साथ लगे हैं । कितना इन जीवों के साथ भार है? जितना यह जीव मालूम होता है वह तो है सब एक-एक और ये है सब अनंत ।
इन समस्त चेतन-अचेतन पदार्थों में जो एक-एक हैं वे तो द्रव्य हैं और उस एक-एक में अनंती शक्तियां हैं वे गुण हैं और जो शक्ति का परिणमन है वह उनकी पर्याय है । जैसे एक अपने जीव को देखा जाये तो यह जानन-देखन हार सत् पदार्थ है । वह तो जीवद्रव्य है और इस जीव में ज्ञानशक्ति, दर्शनशक्ति, चारित्रशक्ति, श्रद्धाशक्ति, आनंदशक्ति आदिक अनंत गुण हैं और इन गुणों का जिस समय जो परिणमन है वह परिणमन पर्याय है द्रव्य अनादि से अनंतकाल नक वही सब रहता है और इसके साथ गुण भी अनादि से अनंतकाल तक वही है । उस गुण की जो अवस्था होती है वह शुद्ध पर्याय है । मैं एक चेतनसत् हूँ और ज्ञानमय गुणमय हूँ और अपने उन गुणों का परिणमन करता हूँ । इसके आगे उसका किसी द्रव्य से कोई संबंध नहीं है । ऐसे स्वरूपास्तित्व का भान करके जो मोह को तोड़ देता है वह अपने आपमें प्रभुता के दर्शन पा लेता है ।
एक इस आत्मीय शक्ति के निर्णय के बिना इस जीव को जो कोई बहका देता है वह वहां ही बहक जाता है । किंतु ज्ञानी को कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु; कोई भी प्रसंग मिलें, उल्टा बहकाने वाले कितने ही कोई मिलें; किंतु अपनी श्रद्धा से ये डगमग नही हो सकते हैं । मैं हूँ और अपने आपमें परिणमता हूँ । इस मेरे का किसी पर पदार्थ से कोई संबंध नहीं है । यह मेरी प्रतीति इतनी निर्मल है कि इसको अपने उद्देश्य से चिगने में कोई सामर्थ्य नहीं है । किंतु जिसे अपना ही पता नहीं वह वहाँ जाकर टिकेगा । बाल पदार्थों में टिकने को चला, किंतु वह तो है अनित्य सो वहाँ यह उपयोग कब रहेगा? ठोकरें खाता फिरेगा । कभी किसी से प्रीति करो, कोई किसी से द्वेष करेगा यों राग-द्वेष की तरंगों को उत्पन्न करता हुआ घूमता रहता है । और परपदार्थों से मेरा कुछ हित-अहित है ऐसी श्रद्धा करके अनेक परद्रव्यों का संचय कर रहा है ।
भैया ! जिसको किसी वस्तु का विशद बोध है वह उसमें कभी गलती नहीं करेगा । जिसे गणित के सवालों को हल करने की युक्ति मालूम है उसे कभी भी कुछ भी सवाल बोला जाये, तुरंत हल कर लेता है । पर नकल करने वाले जिन्हें युक्ति ज्ञात नहीं है सो नकल कोई पूरी कर नहीं सकता है ना; क्योंकि नकल छुपकर की जाने वाली चीज है । कुछ देखा कुछ न देखा तो वह गली खा ही जाता है और जिसका यथार्थ निर्णय है वह कहीं चूक नहीं सकता । अदालत में झूठ बोलने वाले से जज वकील ऐसी-ऐसी अटपट बातें पूछते हैं कि झूठ साबित हो जाती है । पर जो सच्चाई पर दृढ़ है और सच्ची बात कह रहा है उससे कोई भी कहीं से पूछ ले वह चूकता नहीं है । सच बात है । झूठ को कहां तक सँभाला जाये? इसी तरह अपने आपके स्वरूप का जिनके शुद्ध निर्णय है वे कहीं चूकते नहीं है । जिसने अपने आप पर दृष्टि की उसे अनंत शांति का मूल मिल जाता है ।
एक मूरखचंद थे । वे बीमार हो गये, वैद्यजी के पास पहुंचे । उनको वैद्य जी ने दवाई दी और कह दिया कि तुम और कुछ नहीं खाना; सिर्फ खिचड़ी खाना । अब वह वहाँ से खिचड़ी-खिचड़ी रटता चला आया कि हम अपनी मां से कहेंगे खिचड़ी बनाने को भूल न जाये । सो वह रटते हुए चला आया । मां से कहा―मां! खिचड़ी खाने को बताया है । सो उसने कुछ टालमटूल किया, उसने सोचा कि मैं बहिन के यहाँ जाऊं वहाँ आदर होगा दवा भी करेंगे । बहिन के यहाँ चला । यहाँ से खिचड़ी रटते-रटते गया कि हमें बहिन से बनवाकर क्या खाना है? जिसे स्वरूप का बोध नहीं है उसे तो बहुत याद रखना पड़ता है सो चला गया । रास्ते में भूल गया, पैर में पत्थर लग जाने से जिसे उपटा कहते हैं । तो उपटा लगते ही खिचड़ी की जगह खाचिड़ी कह गया । आगे और बढ़ता है तो कहता है खाचिड़ी । किसान लोग रास्ते में खेत बो चुके थे । उस खेत में चिड़िया दाना खा रही थी और मूर्खचंद खाचिड़ी-खाचिड़ी कह रहा था । सो किसान गुस्से में आ गया और उसे बहुत पीटा तो उसने कहा क्या बोलें? कहा कि कहो फुर्र-फुर्र उड़ जावो । वह सोचता है कि हमें यही बहिन से जाकर कहना है । सो जब आगे फुर्र-फुर्र उड़ जावो रटता हुआ गया तो रास्ते में एक चिड़ीमार जाल लगाये बैठा था । चिड़ीमार ने उसे पीटा तब उसने पूछा क्या कहें? कहा―यह कहो कि आते जावो और फंसते जाओ । आगे बढ़ा तो चोर चोरी कर रहे थे । वह रटता जाता कि आते जाओ और फंसते जाओ । चोरों ने उसे खूब पीटा ।
चोरों ने कहा हमारा असगुन कर दिया । उसने कहा और क्या कहें? कहा यह बोलो कि ले-ले आवो और धर-धर जावो ।
चोरों ने यही चाहा था ना । मूरखचंद सोचता है कि हमें बहिन से यही बताना है सो वह रटता जाता है । ले-ले आवो और धर-धर जावो । आगे किसी बड़े सेठ का लड़का गुजर गया था सो उसे मरघट लिए जा रहे थे जब उन्होंने यह सुना कि ले-ले आवो और धर-धर जावो तो उसे बहुत मारा । उसने कहा क्या कहें बतलावो । कहा, यह कहो कि ऐसा किसी के न हो । आगे हो रही थी कहीं विवाह शादी । यही रटता जाता कि ऐसा किसी के न हो । मार खाते-खाते वह थक गया । आगे एक उसे घोड़ा मिला । सो उस घोड़े पर यों चढ़ा कि घोड़े के मुंह की तरफ अपनी पीठ की और घोड़े की पूंछ की तरफ अपना मुंह किया और गठरिया को अपने सिर पर रख लिया । जब रास्ते में चला जा रहा था तो एक गांव से निकला । गांव के लोगों ने देखा तो कहा कि देखो, यह कितना बुद्धिमान पुरुष है । आगे से कोई दुश्मन आये तो घोड़ा मारेगा और पीछे से कोई आये तो यह खुद मारेगा और कदाचित् कोई आये और यह उस आदमी से लड़कर हार जाये, तो वह अपनी गठरिया को सर पर रखे हैं ताकि कोई ले नहीं जा पायेगा । सो उस गांव वाले लोगों ने सोचा कि इसे अपने गांव का मेयर बना दिया जाये । गांव के लोगों ने इसे सरपंच बना दिया । उसके पास बहुत फैसले गये । एक दो फैसले सुना दें । एक बार एक पुरुष पेड़ पर चढ़ गया । चढ़ने को तो चढ़ गया पर उतरने न पाये । तो लोगों ने कहा कि नायक को बुलाया जाये । अपन लोगों की तो बुद्धि नहीं चलती । नायक को बुलाया गया । नायक ने कहा ठीक है । एक रस्सा मंगावो, ऊपर फेंक दो । ऊपर फेंक दिया । कहा, कमर में बांध लो । अच्छी तरह से बांध लिया, अब लोगों से कहा जब एक दो तीन बोले तो झटका देना । झटका दिया तो वह नीचे गिर गया । हाथ-पैर टूट गये । कहा―क्या बात हो गई? हमारा हिसाब तो ठीक जंचता है इतनी ही दूरी पर एक आदमी कुए में गिर गया था । इसी तरह एक दो तीन कहकर निकाल लिया था । यहाँ क्या हो गया? उतनी ही दूर है । सारी बातें ज्यों की त्यों हैं । यहाँ क्या हिसाब गड़बड़ हो गया? खैर, समझा बुझा दिया । कुछ बात नहीं । कुछ टूट ही तो गया और क्या हो गया? आखिर ऊपर से नीचे चला तो आया । अब एक और मुकदमा आया । खलिहान में जहाँ अनाज लगा था । उसके किनारे-किनारे बाड़ी लगाई जा रही थी सो बाड़ी तो लगा दी, किंतु वह एक आदमी भीतर ही घुसा रह गया । अब वहाँ से निकलने की जगह नहीं, बड़ा घबड़ाया । कहा सब लोगों ने, मेयर साहब को बुलवावो । देखते-देखते खूब निगरानी करके मेयर बोले कि अभी ठीक हुआ जाता है । तब मेयर ने मजबूत एक रस्सा मंगाया रस्से को अंदर फेंक दिया । वह अंदर रो रहा था । कहा बेटा ! घबड़ा नहीं । तुम अपने गले में इसे बाँध लो । बांध लिया । और लोगों से कहा कि जब हम वन, टू, थ्री कहें तो झटका देना । उसने जब वन, टू, थ्री कहा तो वह वहीं रह गया और सिर बाहर हो गया । अब कुछ लोग दुःखी होने लगे । मेयर ने कहा, बेवकूफों ! अभी तो सारा का सारा अंदर था; अब कुछ तो बाहर आ गया । कम से कम सर तो बाहर आ गया । इसी प्रकार का एक और भयानक किस्सा आया । चार चोर चोरी करने गये थे तो दीवाल को खोदकर जाने लगे सो जिस बनिया के घर में ओड़ा किया उस बनिया का घर गिर गया । उस बुढ़िया ने बनिया पर मुकदमा चलाया कि बनिया ने ऐसी कच्ची भींट क्यों बनाई? बनिया ने मेयर से कहा कि मैंने तो पूरे दाम दिये, मेरी कोई गलती नहीं, कारीगर ने ऐसा भींट क्यों बनाया कि जरासी चोट में गिर गया । तब कारीगर ने कहा गीला गारा करने वाले का दोष है । गारे वाले ने कहा पानी डालने वाले का दोष है । फिर उस पानी वाले ने बताया कि मैं पानी डाल रहा था तब महाराज की उसी समय सवारी निकली तो मैं उनको देखने लगा । इतने में पानी ज्यादा हो गया सो उस मेयर ने फैसला लिख दिया कि राजा को फांसी दे दी जाये । उस बेवकूफ को यह पता नहीं था कि पानी ज्यादह गिर जायेगा तो गारा गीला हो जायेगा और भीत गिर जायेगी? तो देखो, फैसला तो राजा के पास जाता था और उस मेयर ने राजा को फांसी देने का फैसला किया ।
भैया ! जिसकी अपनी गांठ की बुद्धि नहीं है वह इसी तरह चक्कर काटता फिरता है । इसी तरह जिसको अपने आत्मा के स्वरूप का भान नहीं है । वह इसी तरह चक्कर काटता है । उसका यों नहीं हुआ । इसी तरह का चक्कर काटता रहता है । अपने द्रव्य-गुण-पर्याय के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हो तो वही मीरा है । उसका ही वर्णन आगे चलेगा ।
यदि एक सवाल कर दिया जाये तो नहीं जान सकते हो? चेतन का काम क्या है और अचेतन का काम क्या है? अचेतन में जानन देखन का काम नहीं उत्पन्न होता । ज्ञानवान् जानन देखनहार तो यह स्वरूप ही है, वही है आत्मा । अब अपने आत्मतत्त्व पर दृष्टि दीजिए कि यह मैं आत्मा हूँ कैसा? इस आत्मा में स्पर्शनादि नहीं; इस आत्मा का कोई रूप नहीं, रस नहीं, गंध नहीं । यह आत्मा किसी भी इंद्रिय द्वारा नहीं जाना जा सकता है । आत्मा रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित है आत्मा ज्ञान, दर्शन, शक्ति, सुख का अनुपम भंडार है । इसमें न किसी अन्य जीव का प्रवेश, न किसी कर्म का प्रवेश और न बाह्य वस्तुओं का प्रवेश है । इंद्रियों से यह अव्यक्त है, ज्ञान से यह स्वसंवेद्य है, प्रत्यक्ष व्यक्त है ।
यह आत्मा किसी जाति, कुल, मजहब आदि की अपेक्षा नहीं रखता । मेरा आत्मा तो ज्ञानमय है । ज्ञान से ही ज्ञानमय को जानते हैं । किसी बाह्य पदार्थ से नहीं जान सकते । शास्त्रों के पन्नों से भी आत्मा का ज्ञान नहीं होता । किंतु आत्मा के ज्ञानस्वभाव के परिणमन का ही आत्मा को ज्ञान होता है । कोई गुरु किसी को ज्ञान नहीं दे देता, किंतु शिष्य ही स्वयं अपने ज्ञानस्वभाव के परिणमन से अपना ज्ञान प्रकट कर लेता है । यदि गुरु ज्ञान देता होता तो दस-पांच शिष्यों को ज्ञान वितरण करने के बाद गुरु तो मूर्ख बन जाते । गुरु ज्ञान नहीं देता । कोई अचेतन पदार्थ भी ज्ञान नहीं देता, किंतु ज्ञान स्वयं ज्ञानस्वभाव के परिणमन से उत्पन्न होता है । श्रवण, वाचना, पृच्छना, शंका समाधान व अध्ययन; ये सब केवल बाह्य साधन हैं ।
ज्ञान तो ज्ञान की ही परिणति से उत्पन्न होता है । आत्मा को समझा जा सकता है तो आत्मा के उन्मुख होकर विषय-कषायों से पराङ्मुख होकर विश्राम से बैठने के बाद ही यह आत्मा समझा जा सकता है । जब किन्हीं बाह्य विषयों में प्रवृत्ति रहती है तो आत्मा का भान नहीं रहता है । आत्मा का ज्ञान आत्मा के ही उन्मुख होकर जाना जा सकता है । आत्मज्ञान ही समस्त विपत्तियों और बंधनों को दूर करने वाला है । समस्त कल्याणार्थियों को इस आत्मज्ञान का आदर करना चाहिए । यह आत्मा मोहवश बाह्य पदार्थों को अपना मानकर स्वीकार कर रहा है इसी प्रकार यदि बाह्य को अपना न मानकर केवल चैतन्यमूर्ति निज ध्रुव स्वभाव को आत्मा मानकर उसके प्रति सन्मुखता करे कि मैं तो यह ध्रुव चैतन्य हूँ, न ये परिणतियां मेरी हैं और न जगत् के बाह्य पदार्थ मेरे हैं एक बार स्वभाव की स्वीकृति दे तो इसके कितने ही कर्म कट सकते हैं । बड़े-बड़े व्रतों से, तपस्याओं से जो कर्म नहीं कटते, वे एक सरल, स्वाधीन आत्मतत्त्व के ज्ञान से क्षणमात्र में कट जाते हैं ।
गृहस्थ भी सम्यग्द्दष्टि हो तो निरंतर 41 कर्मप्रकृतियों के बध से रहित रहता है, चाहें वह अव्रती भी हो । सम्यग्दर्शन का बहुत बड़ा प्रताप है । सम्यग्दर्शन के होते ही बहुत बड़ी शांति और संतोष आ जाता है । जैसे एक भूला भटका मुसाफिर अंधेरी रात्रि के समय अपने को महान् अंधकार में डालकर रास्ता भूल गया । अब वह अटपटासा बन गया । सोचता है कहां बढ़ जाऊं? यदि....यदि उल्टे रास्ते पर चलूं तो जितना भटक जाऊंगा उतना ही फिर वापिस लौटकर आना पड़ेगा । तो यहाँ पर ठहर कर ही रात्रि व्यतीत करें । सुबह होते ही मार्ग दिखने लगेगा तो फिर चल देंगे । वह पथिक रात्रि को उसी जगह ठहर गया । थोड़ी ही देर के बाद में रात्रि में 12 बजे बिजली चमकी । उसने एक दृष्टि डाली तो पास में ही सड़क उसे दिखाई पड़ी । सोचा―अहो, यह मैं तो प्राय: करीब रास्ते पर ही हूँ । यह वही पगडंडी है जो सड़क को जाती है । इतने में फिर अंधेरा आ गया । फिर वह वहीं का वहीं बैठ गया । अंधेरे में बैठा हुआ भी वह भारी संतोष में है । अभी सवेरा होगा ही तब उस सड़क से निकल जायेंगे । अपने निर्दिष्ट स्थान पर पहुंच जायेंगे । वह संतोष से ठहर गया । यही हालत सम्यग्दृष्टि पुरुष की होती है ।
इस ज्ञानी के पहिले जब तक मिथ्यात्व था तब तक वह संसार में भूला भटका रहा । नाना आपत्तियों को सहता रहा । जब उसका मिथ्यात्व मंद हुआ, कुछ विवेक की क्रांति होने लगी तो उसने सोचा कि मुझे अब अधिक कुसंगति में न पड़कर, पापों में न पड़कर अच्छी जगह पर ठहर जाना चाहिए । धर्म का मार्ग मिल जायेगा तो मैं अपने कल्याण के मार्ग पर पहुंच जाऊंगा । वह कुछ विराग लेने लगता है । इतने में कुछ स्वानुभूति सी टिमटिमाहट चमकती है सो मानो मिथ्यात्व अवस्था में वह कुछ विवेक करने लगा । विषय कषायों की प्रवृत्ति मंद करने लगा और कुछ आत्मतत्त्व के अभ्यास से परिणमन करने लगा । अचानक ही उसके स्वानुभूति जगती है, वह समझता है कि अहो शांति का मार्ग तो बाह्य सकल त्याग के मार्ग में आभ्यंतर सकल त्याग करने वाला यह भाव है । ज्ञानभाव शांति का मार्ग है । केवल जानन देखन की स्थिति में रहना यही एक शांति का मार्ग है । इसी सड़क से पार होकर मोक्षमार्ग पर जा सकते हैं । दिख गया, स्वानुभूति से, कि यह निकट ही राजमार्ग है । देखकर बड़ी भारी शांति हुई ।
यद्यपि यह ज्ञानी अभी गृहस्थी में फंसा है व्रत भी धारण नहीं कर सका । फिर भी उसका प्रोग्राम बन चुका कि सब कुछ त्यागकर केवलज्ञान ध्यान बनाकर शांति एवं संतोष का मार्ग पाया जा सकता है । यह उसकी प्रतीति में आया । तो बड़ी शांति से, अनाकुलता से वह देवोपासना करने लगता है । साथ ही यह देखा कि इतनी बड़ी सड़क से जाने के लिए इन पगडंडियों का भी सहारा लेना पड़ेगा । ये पगडंडी ही व्यवहार धर्म है । अणुव्रत का साधन, सकल व्रत का साधन; इन पगडंडियों का भी सहारा बनाना पड़ता है । सुबह होते ही उन पगडंडियों से वह अपने शांति एवं संतोष के मार्ग पर पहुंच जाता है ।
इस जगत् के उपयोग में भटकते हुए बहुत समय हो गया, इस शरीर को ही अपना आत्मा माना, इन घर कुटुंबादिक को ही अपना सब कुछ माना । ये धन वैभव जो जड़ पदार्थ हैं उनसे ही अपना सुख माना, जो अपने से अत्यंत जुड़ा है उनको ही अपना माना है । पर भाई ! बाह्य पदार्थ जो कि अपने नहीं हो सकते और जबरदस्ती अपना मान लिया तो समझो यह चोरी है । जैसे जबरदस्ती अपना मान रखा है वैसे ही ये जबरदस्ती छूट जायेंगे । दूसरे की चीज को कोई अपना ले तो यह चोरी है । जो पर वस्तुएं हैं वे अपनी नहीं हो सकती है । उन परवस्तुओं को ही अपना लिया तो यह चोरी है । अध्यात्म में वही चोरी है । जो परवस्तु है अपनी नहीं हो सकती है, और उसे अपना लिया जाये । आपके घर में रखे हुए पदार्थ, जिसे आप व्यवहार से धन कहते हैं उसे आप यह समझो कि यह आपकी चोरी है । एक अणु को भी अपना समझ लेना यह चोरी है ।
भैया ! चोरी में पाये हुए धन का क्या हाल होगा? पता है कुछ? जैसे चोरी से आया है वैसे ही चोरी में चला जायेगा । इस प्रकार यह धन जबरदस्ती छूट जायेगा । आप नहीं छोड़ना चाहते तो भी यह जबरदस्ती छूट जायेगा । एक चोर था । वह कहीं से एक घोड़ा चुरा लाया । घोड़े को बिकने वाले बाजार में ले जाकर खड़ा कर दिया । अब कई ग्राहक घोड़ा लेने के लिए आये । था वह करीब 200) रु0 का । उसने सोचा कि लोग यह न समझें कि यह चोरी का है इसलिए शान में आकर बोला―इसका मूल्य 600) रु0 है । दो, चार, दस ने पूछा और लौट गये । एक बूढ़ा चोर आया । पूछा, इसका क्या दाम है? कहा 600) रु0 । उस बूढ़े चोर ने कहा कि आप बड़ा तेज बेचते हैं । इसकी क्या खूबी है जो इतना दाम बताते हो । कहा, घोड़े की चाल बड़ी सुंदर है । जब उचित से तेज आवाज हो जाती है तो समझो इसमें कुछ गड़बड़ घुटाला है । तो उस बूढ़े चोर ने समझ लिया कि यह घोड़ा चोरी का है । कहा अच्छा देखें । वह बूढ़ा चोर हाथ में एक मिट्टी का हुक्का लिए था सो उसे पकड़ा दिया और स्वयं घोड़े पर बैठ गया । पहिले तो घोड़े को देखा कि इसमें कितनी कला है । वह घोड़े को थोड़ा इधर-उधर देखता है । फिर एड लगाया और भगा ले गया । इतने में पुराने ग्राहक आते हैं । पूछा कि घोड़ा बिक गया । कहा, हां भाई ! बिक गया । तो कितनों में बिका? कहा जितने का लाये थे उतने में बिक गया । तो पूछा मुनाफे में क्या मिला? तो चोर ने कहा भाई ! मुनाफे में मिला है यह मिट्टी का हुक्का ।
इसी प्रकार इन जगत् के परपदार्थों को अपना मान लिया है सो ये सभी चीजें चोरी की है । परचीजों को अपनी मान लेना यही तो चोरी है । व्यवहार से जिन्हें चोर कहा जाता है वे डरपोक होते हैं और हम आप अध्यात्म में सब कुछ करते रहते, अपने शुद्धस्वरूप की परख नहीं करते और बाह्य पदार्थों में ही लगा करते हैं । ऐसे परमार्थ चोरी करते हैं और सीना तानकर चलते हैं । यही तो चोरी है । कामों में, धन-संग्रह में, तृष्णा में ही लगे रहते और अपने आत्मकल्याण की जरा भी फिकर नहीं करते, अपने आत्मस्वरूप में विश्राम नहीं लेते । धन-वैभव की ही निरंतर इच्छा बनी रहती है । हजार हो गये तो लाख की इच्छा, लाख हो गये तो करोड़ की इच्छा, निरंतर तृष्णाओं से ही भरे रहते हैं । कुछ तो सोचो भैया ! कि आखिर ये खोले भाव क्यों किए जा रहे हैं? इनके फल में क्या आयगा?
वर्तमान में तो सरकार इस धन को लेना चाहती है सब लोगों के उपकार के वास्ते । जिसकी वजह से सब लोगों पर टैक्स लगाए जा रहा है । ताकि समस्त गरीबों का अच्छी तरह से निर्वाह हो जाये । ऐसी स्थिति पाकर भी कुछ नहीं विचार करते । जीवित रहते हुए भी बड़ी फिक्र रखते जा रहे हैं कि हाय इसमें 50 हजार टैक्स लग गया । इसी प्रकार जीवन-मरण का संकल्प बनाए रहते हैं और पचास हजार ही अपना परिमाण रखो, चालीस पचास हजार से ज्यादह न रखो तो राज्य क्या लेगी? इस तरह से देखो, सरकार कितना कर लगा लेती है । पर धन कमाने में वे विराम नहीं लेते हैं । यह एक बड़े खेद की बात है ।
सब पदार्थ अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से सत् हैं । एक का दूसरे में प्रवेश नहीं होता ऐसी स्थिति होकर भी बाह्य पदार्थों को अपना रहे हैं । यही हुई चोरी । तो बाह्य पदार्थों को अपनाने से लाभ क्या होगा? कुछ भी तो लाभ न होगा, वे छूट जायेंगे । मरते समय तक भी कौन चाहता है कि धन छूट जाये । पर सब धन, वैभव छोड़ना ही पड़ता है । मरण हो ही जाता है । जगत में समस्त पदार्थों को असार जानकर सबका बंधन तोड़ना चाहिए । बंधन न रहे । यह मैं आत्मा अमूर्त दर्शन, ज्ञान, शक्ति, सुखमय समस्त पदार्थों से भिन्न अपने आपके अनंत आनंद शक्ति से तन्मय, अपने आपके परिणामों से ही परिणमने वाला समस्त पर्यायोंरूप होकर, किसी एक पर्यायरूप न रहने वाला एक आत्मा हूँ । मैं आत्मा सामान्य विशेषात्मक हूँ । जो सामान्य है वह ध्रुव है जो विशेष है वह क्षणिक है । यद्यपि सामान्य या विशेष पृथक्-पृथक् सत्ता वाले नहीं हैं; पर वही चीज जब सामान्यदृष्टि से देखते हैं तो ध्रुव और विशेष दृष्टि से देखते हैं तो अध्रुव दिखती है ।
वस्तुस्वरूप की पहिचान स्याद्वाद से होती है । जैनदर्शन में वस्तु स्वरूप की बातों को स्याद्वाद से बताया है । और जैन दर्शन में ही क्या सभी धर्मों में स्याद्वाद को अपनाया है । स्याद्वाद के बिना ज्ञान नहीं चल सकता, उपयोग नहीं चल सकता, काम नहीं चल, सकता, बनारस में कोई पंडित गंगाराम शास्त्री थे । किसी समय की बात है, अभी अधिक समय नहीं गुजरा, वे जैन ग्रंथों का अध्ययन करते थे । जैनदर्शन में कर्मसिद्धि, लोकसिद्धि, आत्मसिद्धि इतनी प्रबल युक्ति वाले हैं और यथार्थ हैं, कि एक बार भी यदि हृदयंगम हो जायें तो सब यथार्थ तैयारी हो जाती है । तो इस तरह से पढ़ते-पढ़ाते उन्हें जैन सिद्धांत का समस्त ज्ञान हो गया था और रोज-रोज इसी की चर्चा लोगों में किया करते थे । एक बार एक भाई आया । बोला―पंडित जी हम तुम्हारे स्याद्वाद को जानना चाहते हैं । तो कहा जरूर जानो । भाई बोला―हमारे पास अधिक समय तो नहीं है, यदि आप 15 मिनट में बता सकें तो बता दें, पंडित जी बोले स्याद्वाद को बताने के लिए 15 मिनट तो बहुत होते हैं, इसके बताने के लिए मात्र तीन मिनट का समय लगेगा ।
उनके यहाँ उनके मकान की चारों दिशाओं से ली हुई चार फोटो लगी हुई थी । एक फोटो उठाकर बोले बतलाओ यह क्या है? उसने कहा महाराज यह आपके मकान का चित्र है । दूसरा चित्र दिखाया उसे भी कहा यह आपके मकान का चित्र है । इसी प्रकार तीसरा और चौथा चित्र दिखाने पर भी उन्होंने वही उत्तर दिया । तो पंडित जी ने कहा तुम तो सबको ही मकान का चित्र बतला रहे हो, एक ही बात कह रहे हो । उसने कहा मैं ठीक तो कह रहा हूँ । यह आपके घर के उत्तर दिशा का चित्र है, यह पूरब दिशा का चित्र है । यह भी आपके मकान का चित्र है । पंडित जी ने कहा―बस यही तो स्याद्वाद है और किसे स्याद्वाद कहते हैं?
एक आदमी जिसके बारे में पूछा जाये कि बतलाओ कौन है? तो कहते हैं कि यह अमुक का पिता है, अमुक का पुत्र है । अमुक का मामा है । इतनी बातें कैसे बोली गई? कितनी बातें एक मनुष्य को कही गई हैं? जो व्यवहार से रोज देखते हैं । कितने धर्म मान डाले? पिता है, पुत्र है, मामा है, ये सब क्यों कहा? एक बात क्यों नहीं कहा? अपेक्षा से धर्म पाये जाते हैं, इसलिए कहा जाता है ।
देखो धर्म के काम पर सब लोग परस्पर विवाद बनाते हैं, पर जैन शासन यह कहता है कि अरे भाइयों ! परस्पर में क्यों लड़ते हो? जितने तुम हो सब सच्चे हो; पर जिस दृष्टि से जो बात है उसे मान लो । दर्शन को लेकर सब धर्म सच्चे हैं । सांख्य बौद्ध आदि जितने भी दर्शन हैं यदि उनकी दृष्टि रखी जायेगी कि किस दृष्टि से ऐसा कहा जा रहा है उसे समझलो और उस दृष्टि से ऐसा मान लो तो कोई विवाद की बात नहीं कह रहे हैं यह बात सिद्ध हो जायेगी । जैन सिद्धांत अनेकांत मानता है । यथार्थ में वस्तु ऐसी ही है कि कोई मना नहीं कर सकता । एक-एक धर्म को कहें, यह तो हुआ एकांत धर्म और सर्वधर्मों के विशिष्ट सार को समझ लेना, यह है अनेकांत धर्म । इसकी परख स्याद्वाद से होती है ।
एकांत में और अनेकांत में यह अंतर है कि जहाँ हठवाद आत्मा के एक धर्म में हट करता है आत्मा ध्रुव ही है या आत्मा अध्रुव है । वहाँ स्याद्वाद यह बतलाया है कि वह आत्मा स्वभाव से, सामान्य से सदा ध्रुव है । पर परिणमन के बिना कोई वस्तु नहीं रहती है । सो जो वह परिणमन है वह अध्रुव है । तो संक्षेप में कहा जाये कि वस्तु वह है, जो बनता है, बिगड़ता है फिर भी बना रहता है । ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो सदा बना रहता हो । न बनता हो, न बिगड़ता हो । कोई ऐसा भी पदार्थ नहीं है जो बन नहीं रहा है और बिगड़ नहीं रहा है । फिर भी बना रहता हो, जो है, उसका परिणमन सदा होता रहता है । जो परिणमन है, दशा है उसकी वह भी बिल्कुल क्षणिक ही है । इसी पर्याय को लेकर बौद्धों ने यह माना है कि समस्त पदार्थ क्षणिक हैं । फिर भी बनकर बिगड़कर वस्तु स्वरूप काल सदा बना रहता है ।
अब आत्मा के विषय में ज्ञान करो कि यह कैसा है? आत्मा सदा रहने वाला है क्योंकि वह स्वयं सत् है । जो सत् है वह कभी नष्ट नहीं होता और यह आत्मा अपने पर्यायों से परिणमता है । तो जो स्वरूप इस आत्मा का रहता है वह सदा वैसा नहीं रहता । वह क्षण में दी मिट जाता और दूसरी क्षण उसकी दूसरी अवस्था हो जाती है । इस आत्मा की अवस्था का ही नाम पर्याय है । जो सबमें रहकर किस । एक पर्यायरूप नहीं रहता, बल्कि सदाकाल अपने स्वभाव से ध्रुव रहता है । यह मैं आत्मा समता आनंदभाव मात्र हूँ । अपने आपके आत्मा के विषय में जैसा वह है वैसा अनुभव करे तो इसके संसार का बंधन नहीं रह सकता है । ये जितने भी जगत् के पदार्थ हैं, सभी को परस्पर अत्यंत भिन्न समझो । इनसे किसी का कोई संबंध नहीं है । न मैं इनके साथ आया हूँ और न ये मरने पर साथ जायेंगे । फिर भी अचानक क्यों ऐसा मोह आ गया? क्यों ऐसा संबंध बन गया कि अपने आत्मा को सुख देने के लिए, शांति देने के लिए इसे कोई अवसर ही न प्राप्त हुआ । इस बंधन में बड़ी विकट परिस्थिति हो रही है ।
लोक में हम जितने भी जीव हैं उनकी इच्छा दो प्रकार की हुआ करती है । एक तो यह कि मैं सब कुछ जान जाऊं और एक आनंद पाऊं । जानने की उत्सुकता भी सबमें पायी जाती है और आनंद पाने की भी उत्सुकता सबमें देखी जाती है । चाहिए क्या? ज्ञान और आनंद जानने का हम प्रयत्न करते हैं वह हमारा प्रयत्न ज्ञान और आनंद को पाने के लिए होता है । किया खूब प्रयत्न ! किंतु आज अपने-अपने को विचारें तो ज्ञान से भी दूर हैं और आनंद से भी दूर हैं यदि ज्ञान होता तो कुछ जानने की आकांक्षा क्यों होती? और आनंद होता तो भिन्न-भिन्न विषयों को छोड़ नवीन-नवीन विषयों में क्यों लगते? न ज्ञान है और न आनंद है और साथ ही एक ज्ञान का भूत भी सवार है भूल का, भ्रम का । ज्ञान और आनंद का मिलना तो दूर रहा; एक भ्रम का भूत भी सवार है । मुझे स्त्री-पुत्रों से आनंद मिलेगा, मुझे धन वैभव से आनंद मिलेगा, यह मेरा है ।
देखो, इस चिदानंद स्वरूप भगवान् आत्मा ने ऐसे ही सब आत्माओं में से एक दो जीवों को छांट लिया है कि ये मेरे हैं, यह अंधकार है या नहीं? गृहस्थावस्था में करना कुछ भी पड़ रहा है मगर करते होंगे, किंतु सच्चे ज्ञान की रुकावट क्यों हो रही है? सर्वत्र यथार्थ तो समझ लो । जैसे भिन्न जगत् की अन्य सब आत्मा है उतने ही भिन्न आपकी कल्याण में बसे हुए वे दो चार जीव हैं । ऐसा नहीं है कि घर के दो-चार जीव तो कुछ निकट संबंध में हों और बाकी गैर हों सो एक यह भ्रम का पिशाच भी हमारे साथ लगा हुआ है । ज्ञान भी नहीं है, आनंद भी नहीं है, और भ्रम की बेहोशी इस लोक में मदिरापायी की तरह से किया करते हैं जिससे संकटों से बच जाएं । सब लोग सोचिए, गंभीर समस्या है । यों ही नहीं कि एक कान से सुनो और दूसरे कान से निकाल दो, ऐसी बात नहीं है । आप अपने आपमें अपनी बात विचारो । क्या पूरा पड़ेगा धन संचय से? क्या वह समय न आयेगा जबकि बड़े प्रेमी, रिश्तेदार, परिवार के लोग व मित्रजन इस शरीर को बहुत ही जल्दी जला देंगे? फिर इस मुझको कहां जाना होगा? दुनिया के किसी कोने में फिक जायेंगे । वहाँ कुछ साथ न होगा । कौनसी पर्याय मिलेगी? किसी पहाड़ पर पेड़-पौधे बन गये, मेंढक बन गये । अब कहां का आगरा कहां का भारत, कहां की कांग्रेस; उस समय कुछ भी साथ न रहेगा । इस जीव का कोई साथी नहीं है । यह अकेला ही संसार में रुलता है और संसार से मुक्त होने का उपाय बनाता है और अकेले ही यह मुक्त हो जाता है ।
रामचंद्र भगवान् के अंदर कितनी प्रीति थी गृहस्थावस्था में लक्ष्मण से और सीता से उनके अधिकार की यह बात न थी कि हम मुक्त तो हो जायेंगे, किंतु इनको भी साथ मोक्ष में ले जायेंगे । क्या हर्ज? ले जाते भगवान् हमारा क्या जाता था? कैसे ले जाते? यह उनके बस की बात न थी ।
पिता पुत्र की बड़ी महिमा देखना चाहता है और जहाँ तक बस चलता है पुत्र को बहुत पढ़ाते, ऊंचा बनाते, यह सब कुछ करते हैं; पर पुत्र कपूत हो जाये, दुराचारी हो जाये तो बाप का कुछ बस नहीं चल पाता कि मैं इन्हें सुखी तो कर दूं पर उसकी उद्दंडता के कारण पड़ोसियों के उलाहने आने लगते हैं । अब बाप कहां तक पुत्र की आत्मा को रखे? बस नहीं चलता है । एक जीव का दूसरे जीव पर रंच भी अधिकार नहीं । जैसी कषाय आपके है वैसी ही कषाय स्त्री के है तो आपका और पत्नि का क्यों प्रेम हो गया? क्यों मेल जोल हो गया? क्यों मित्रता हो गई? आपकी पत्नि से मित्रता नहीं है; कषाय की कषाय से रुचिपना है । आपका जीव तो अब भी अलग है । स्त्री की आत्मा भी अलग है । आप अपने आपमें लेखा-जोखा लगाते वह जीव अपने आपमें लेखा-जोखा लगाता है । कोई किसी का चाहने वाला नहीं है । सब अपने-अपने कषाय भावों के अनुसार अपना-अपना परिणमन करते हैं । संसार का ऐसा नंगा नाच है । फिर हम किसकी शरण जाएं कि हम को सच्चा सहारा मिले । शरण उसकी जाओ जो कम से कम खुद तो कुछ स्वरक्षित हो । जो स्वयं ही स्वरक्षित नहीं है उसकी शरण लेने से क्या शरण मिल जायेगी? जो खुद मर मिट रहा है उससे शरण की क्या आशा की जा सकती है? जो खुद स्वरक्षित हो कभी न मिटे और सदा एक रूप हो उसकी शरण जाओ । क्यों जी, कोई स्वरक्षित हो वह कभी मिटेगा नहीं? किंतु एक रूप नहीं रहता । कभी परेशान हो जाये, कभी नाराज हो जाये तो उसकी शरण भी तो सही नहीं है । ऐसा कौन है जो स्वरक्षित है, अविनाशी है, एक रूप है? खोजो, जरा दुनियां में । कौन है ऐसा? कुछ मन में नाम लेकर तो बोल लो । अच्छा तो शरण किसकी हो सकती है? जो अविनाशी हो? स्वरक्षित हो, एकरूप हो और स्वयं से अलग न हो । वही तो शरण हो सकता है । अब खोज लो दुनियां में ऐसा कौन है? घर के लोगों में तो होगा नहीं? हो शायद कोई छोटा मुन्ना? नहीं है, क्योंकि वह स्वरक्षित नहीं है । अविनाशी नहीं है, एकरूप नहीं है और अपना नहीं है । तो कोई तीर्थंकर तो होंगे ! हां, वह स्वरक्षित तो हैं, अविनाशी हैं, एकरूप भी हैं, मगर हमारे नहीं हैं । वे तो आनंद में मग्न हैं । हम इतना चिल्लाते हैं सुबह शाम, वे जरा भी हमारी नहीं सुनते । रात-दिन चिल्लाते तीन-तीन बार सिर रगड़ते, उनका ख्याल करते हैं; आरती करते, पूजा करते हैं । पर वे कभी हमारी नहीं सुनते और किसी की सुनते हों तो हमें बतला दो? नहीं सुनते किसी की । अब हम किसकी शरण जायें? जो सबसे महान् है, भगवान् है, प्रभु है, सर्वज्ञ है, वीतराग है वह तक मुझे शरण नहीं दे रहा है तब क्या करें? कहां जायें? कहां ज्ञान और आनंद पायें? विचारो तो सही । बड़ा विचित्र खेल है, शरण तो खुद में बसा हुआ प्रभु है और उस ओर दृष्टि नहीं है, बाहर की ओर दृष्टि है, खुद को भूले हैं, इसी से दुःख है । भगवान की पूजा, उपासना, ध्यान अपने स्वरूप के अनुभव करने के लिए है । हम अपने स्वरूप का अनुभव करने का यत्न करें, ध्यान दें, स्वयं में रमें और बाह्य में दृष्टि न करके अपने प्रभु का ख्याल रखें तो हममें ज्ञान और आनंद का विकास हो सकेगा । है कोई ऐसी अद्भुत चीज आपकी आपमें है, मगर देखना तो हमें चाहिए । वह शरणतत्त्व-परमात्मतत्त्व कानों से नहीं जाना जायेगा । वह आंख, नाक, जीभ, आदि से तथा बातों से भी नहीं जाना जायेगा । इंद्रियों का व्यापार जब सब बंद हो जाता है तो स्वयं ही आगे यह प्रभु उपस्थित हो जाता है, दर्शन दे देता है । यह आत्मा और आनंदस्वरूप खुद है । कहीं से कुछ लाना नहीं, पर इसको भूले है तो यह प्रकट कैसे हो? अपने को भूलकर जगह-जगह पर डोलते हैं और दुःखी होते हैं यह मोक्षमार्ग की बात कह रहे हैं । जिससे सदा के लिए संकट छूट जाये, वहाँ जाओ । अपने आपमें गहरे भीतर उतरते जाइए, जहाँ बाहर में कुछ भी विकल्प न रहे ऐसी अलौकिक दुनियां में पहुंचने पर वह विलक्षण आनंद मिलता है कि उसके बाद जगत् के वैभव व विषय कुछ भी नहीं सुहाते ।
एक बार 10 कोरी थे कपड़ा बुनने वाले । वे परस्पर में मित्र थे । सो पास के गांवों में कपड़े बेचने गए । रास्ते में पड़ती थी नदी । वे वस्त्र बेचकर वापिस आए और उस नदी में से निकले । निकलने पर उन्होंने सोचा कि हम लोग 10 दोस्त थे, जरा गिन तो लें, कोई कम तो नहीं हो गया । गिनने बैठे तो खड़े हुए को देखते जाएं । एक, दो, तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ अरे ! एक को गवाँ आए कहीं । तो एक ने कहा भाई, तुम भूल रहे होंगे । दूसरा आदमी यह सोचकर कि यह भूलता होगा । स्वयं गिनता है और उसने भी उन सबको गिन डाला ओर बोला हां, एक खो आए । 10 गये थे 9 रह गए, सभी गिनवा दिया । दसों लोगों ने गिना, पर निकले 9 ही । वे थे बड़े हार्दिक मित्र, सो रोने लगे । सिर पर पत्थर मारे; यहाँ तक कि खून निकल आया । हाय, देखो तो 2 रुपया की आमदनी को गये थे और एक दोस्त खो आए । एक मुसाफिर निकल रहा था तो उसने सिर पर पत्थर मारते हुए को देखा । कहा―क्यों भाई ! क्यों रोते हो? उसने अपनी सारी कहानी सुना दी कि हम 10 साथी थे सो 9 रह गये । एक निगाह से उसने देखा और मन में सोचने लगा कि ये क्या कह रहे हैं । ये दस तो दिखते हैं । मुसाफिर ने कहा―सब खड़े हो जाओ, गिने तो जरा । जब गिना तो पता पड़ गया कि ये सब अपने-अपने को भूले हुए थे । बोला, अच्छा हम तुम्हें 10वां बता देंगे । यह सुनकर सब चरणों में गिर पड़े । सबने कहा―हम आजीवन तुम्हारा आभार मानेंगे । अच्छा खडे हो जाओ । एक बेंत लिया । पहले धीरे-धीरे मारा । एक, दो, तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ और फिर 10वें के कस के दिया । त्वम्एव दशम एष: । इसी प्रकार बारी-बारी से सब गिन-गिनकर दसों को बता दिया । अच्छा बेंत लगने पर खबर लग गई कि हम ही तो दसवें हैं । सब खुश हो गए । भीतर में जो कल्पना बनी थी वह सब खतम हो गई, मगर सिर में जो मार रखा था उसका दर्द तो अभी बना है । भीतर की वेदना खतम हो गई, पर शारीरिक पीड़ा है । इसी प्रकार यदि अपना सच्चा ज्ञान बनाए रहें तो गृहस्थी के और झंझटों में रहते हुए भी भीतर में व्याकुलता न होगी । ऊपर के जो चेंचें-पेंपें हैं, बच्चे हैं, कंपनी है, नौकर चाकर हैं, झंझट है । उससे दर्द यों रह जाये तो वह भी कब तक, जब तक कि घर से संबंध हो, अगर शुद्ध ज्ञान हो तो भीतर से व्याकुलता नहीं हों सकती; चाहे कैसी भी अवस्था हो ।
एक चुटकुला ही कि लेवा मरे कि हवा । बल्देवा करे कलेवा । एक बल्देवा नाम का आढ़तिया था । इधर का माल उधर दिया लिया करता था । तो वह कह रहा है कि भाव के घट बढ़ में या तो माल का लेने वाला मरेगा या देने वाला मरेगा । पर बल्देवा तो कलेवा ही करेगा । तो लेवा मरे या देवा, बल्देवा करे कलेवा । बल्देवा तो अपने खाने में ही मस्त था । इस प्रकार इस गृहस्थ को पचासों झंझट हैं । नौकरों के, दुकान के, सरकार के, घर के, लोगों के, मिलों के, समाज के, धर्मादि के, उसको अनेक झंझट हैं । अब दसलाक्षणी आ गई तो यह करना, वह करना; यह भी एक बात लग गई है । साधुओं को क्या है? उनकी तो बारहों महीने दसलाक्षणी है । तो इतने झंझटों के रहते हुए भी ज्ञानी गृहस्थ को इतना साहस रहता है कि यह इतना मिटता है तो मिटने दो, इतना गया, जाने दो । जगत में इससे बड़े भी अनर्थ हुआ करते हैं इतना घटा, घटने दो; इष्ट वियोग हो गया तो होने दो; उसके हम ज्ञाता हैं । सदा तो कोई रहता नहीं । यद्यपि कार्य में लगे रहते हैं, किंतु स्थिति ऐसी आवे कि उससे अलग हटना हुआ तो हट जाते हैं । उपयोग हटता हो तो हटा लेते हैं । यही है गृहस्थ में ज्ञान का बल ।
हमारा आपका रक्षक शुद्ध ज्ञान है । शुद्ध ज्ञान वह कहलाता है जो शरण भूत ज्ञान स्वरूप को जान ले । ऐसा यह परमात्मतत्त्व सर्व जीवों के अंतर में समाया हुआ है । उसकी ओर दृष्टि न करें सो लालच विषयों में पैदा होता है । लालच का क्या अर्थ है । लालच माने ला अर्थात लावो । लच अर्थात जितने लायेगा उतना ही वह लच जायेगा । लचना मायने झुकना, गिरना, बर्बाद होना । यह लालच ही सर्व पापों की बला है । यहाँ लालच बना है इस आनंदमय, ज्ञानधन-परिपूर्ण सदाशिव के दर्शन न होने से । इस ज्ञायकस्वरूप आत्मतत्त्व के दर्शन न होने से लालच उत्पन्न हो जाता है । यह काम बड़ा सरस ही और बड़ा नीरस भी है । जिस बात के सुनने में ऐसा लालच आ रहा है जिस बात की चर्चा भी बहुत बढ़ाई नहीं जा सकती, ऐसा तो यह नीरस है और जब इस ज्ञान स्वरूप का अनुभव हो जाये तो उसमें अलौकिक अनाकुलता उत्पन्न होती है । तो इसमें ऐसे रस की अनुभूति हो जाती है कि फिर इस ज्ञानी को और कुछ नहीं सुहाता । अज्ञानी जन तो ज्ञानियों को कुछ मूढ़ समझते हैं । कैसा है यह? अपने धन को भी अच्छी तरह से नहीं रख पाता । लो, इसने घर को ही छोड़ कर चल दिया । इसके दिमाग में कुछ फितूर तो नहीं है । बहुत सी शंकाएं होने लगती हैं । जैसे कंजूस आदमी को दानी लोगों की प्रवृत्ति पर ऐसा लगता है कि इसका दिमाग तो नहीं खराब है । देखो तो, लुटाये जा रहे हैं धन, जो चाहो खाओ-पियो, खूब रक्खो, खूब पहिनो ।
एक कथानक है कि एक कंजूस सड़क से जा रहा था तो एक बड़ा सेठ खूब भिखारियों को कपड़े बांट रहा था, यह कह कर कि जो चाहे सो ले जाओ । कंजूस ने जब यह देखा कि यह खूब धन लुट रहा है तो वह बस, अपने घर चला गया और सिर में दर्द भी हो गया स्त्री कहती है ‘‘नारी बोली सूम से क्यों चित्तभयो मलिन । क्या तेरा कछु गिर गया या काहू को दीन’’ ।। पतिदेव आपका मुख क्यों मलीन है । क्या कुछ तुम्हारा गिर गया है । या किसी को कुछ दे दिया है । तो पतिदेव क्या कहते हैं―‘‘ना मेरा कुछ गिर गयो, ना काहु को दीन देतन देखा और को तासौ बदन मलीन ।’’ मैंने दूसरों को धन देते हुए देख लिया इसलिए मेरा दिल बदल गया । इस प्रकार अज्ञानी मोहीजनों को ज्ञानियों की वृत्तियों पर अचंभा होता है । कैसे छोड़ दिया छोटी अवस्था में घर इस वीर तीर्थंकर प्रभु ने, 30 वर्ष की उमर में, कुमार अवस्था में, जिनको सुख भी था, इंद्र सेवा करते थे, प्रजा सेवा करती थी? तीर्थंकर प्रभु से बढ़कर किसका सन्मान है । इतने पर भी घर में मन न लगा और घर छोड़ दिया । प्रभु वीर आत्मध्यान में रत हुए, कर्मों का क्षय किया और निर्वाण पधारे । इस प्रकार आज वे सबके आराध्यदेव बने । यह उनकी महिमा नहीं है; किंतु वे निर्दोष और अनंत चतुष्टयमय हो गये हैं, यही उनकी महिमा है । हम आपके पास बहुत बड़ी निधि है और बड़ी क्या सर्वस्व निधि है । इंद्रियां तो कुछ निधि है नहीं, पर अपने आपको नहीं संभालते । राग द्वेष के परिणामों से इसको पोषते हैं तो उसका फल संसार का चक्र है, आकुलताएँ हैं व अशांति है ।
अब देखो भाई ! सभी लोगों में अशांति पायीं जा रही है । वह इसलिये कि वे कल्पनाओं में कुछ लाभ मान रहे हैं । और वह लाभ होता नजर नहीं आता । इस कारण उसे दुःख है । किसी ने कुछ लाभ माना, किसी ढंग से नापा और उतना लाभ हुआ नहीं, सो क्लेश है । क्लेश मिटाना है तो उस लाभ की आशा छोड़ दो । और देखो, अभी सुख होता है कि नहीं । यह क्या मामला है कि जब गरीबी थी तब तो बड़े सुख से रहते थे और ज्यों-ज्यों धन आता जाता है त्यों-त्यों कष्ट बढ़ता जाता है? यह क्या ढंग बना है । होना तो यह चाहिए था कि जब सब साधन मिलते जा रहे हैं तो जरा सुखी रहना चाहिए । जब पहिले कोई पूछता न था, इज्जत न थी तब तो आनंद से रहते थे । उन्हें चाहिये भी क्या? केवल बनाया, खाया और खुश हैं । अब जब लोग पूछने लगे, इज्जत बढ़ने लगी तो दुःख बढ़ गया । बताओ बड़े-बड़े नेता मिनिस्टर कोई तो सुखी नजर नहीं आता । यह क्या चक्र हो गया? बस वह एक ही चक्र है और कुछ नहीं कि अपने आपके आत्म-स्वरूप को नहीं पहिचाना । ज्ञान और आनंद हम चाहते हैं तो ऐसा उपाय करें कि एक बार सब कुछ भूलकर अपने को अकेले निरखें, और इस ढंग से निरखें कि यह मैं एक जाननमात्र हूँ जितना जानन है, शुद्ध प्रतिभास है उतना ही मैं हूँ । अहो ! यह प्रतिभास तो बढ़ता ही चला जा रहा है । हां, प्रतिभास मात्र मैं हूँ । मैं अन्य कुछ नहीं हूँ ऐसा केवल जानन के रूप में अपने आपको निरखें तो वह ज्योति मिलेगी जिससे ज्ञान भी बढ़ेगा और आनंद भी बढ़ेगा । बाह्य दृष्टि में तो न अपना ज्ञान मिलेगा और न आनंद । उसी परमात्मतत्त्व का वर्णन इस परमात्म प्रकाश ग्रंथ में है कि जिसके दर्शन अपने आपमें एक बार भी कहीं हो जाये तो सदा के लिए संकट दूर हो जायेंगे सो सब प्रयत्न करके इस निज प्रभु के दर्शन करने का उद्यम करे और वह उद्यम भी है ज्ञानार्जन । अत: ज्ञान में अपना अधिक समय व्यतीत करें और ज्ञान का आनंद लें ।
सम्यग्ज्ञान करने के लिए द्रव्य, गुण, पर्याय का सही-सही बोध करना चाहिए । जैनसिद्धांत के तत्त्वज्ञान में सबसे बड़ा तत्त्वज्ञान द्रव्य, गुण, पर्याय का निर्णय है । जगत् में द्रव्य कितने हैं? किसी ने कहा 6 हैं । भाई वे तो छह जातियां है, द्रव्य छह नहीं हैं, किंतु द्रव्य की जातियां 6 हैं । द्रव्य अनंतानंत हैं । अनंतानंत तो जीव हैं और जीवों से भी अनंतगुणे पुद्गल हैं । एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और असंख्यातकाल द्रव्य; इतने सब लोकों में द्रव्य हैं । जीव अनंत हैं । जैसे हम और आप सब न्यारे-न्यारे जीव हैं, हमारा अनुभव हममें है, आपका अनुभव आपमें है । ऐसे ही कितने तो मनुष्य होंगे, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े कितने ही हैं । एक बेथा भर जगह में चींटियां निकल आती हैं तो वे ही हजारों-लाखों की संख्या में हो जाती हैं और किसी जगह ऐसा बड़ा बिल हो जाये तो एक करोड़ ऐसी अधिक तो 10-20 हाथ जगह में ही मिल सकती हैं । ऐसे ही और तरह के जीव हैं । अब वनस्पति पेड़ों को देखो कितने तरह के पेड़ हैं, कितने पौधे हैं, कितने वृक्ष हैं? एक-एक पौधे में असंख्यात वनस्पति के जीव हैं । ज्यादा हो जायें तो अनंत हो जायें । जल के जीव एक-एक बूंद में जीव, आग में जीव, हवा में जीव, पृथ्वी में अगणित जीव और एक जीव उनमें से ऐसा है जिसे निगोद कहते हैं वे तो अनंतानंत जीव हैं । तो कितने जीव हो गये? अनंतानंत । लोग शंका करने लगते हैं कि यह जीव तो मोक्ष प्राप्त करता चला जा रहा है और नये जीव क्या बनते नहीं? किंतु नया सत् कौन बना दे? ऐसे सत् जाते-जाते तो यह संसार खाली हो जायेगा, ऐसा प्रश्न करते हैं । तो उसका मोटा उत्तर तो यह है कि अब से पहले कितने काल व्यतीत हो गये? अनंत काल व्यतीत हो गये । और अनंत कालों से यह जीव मोक्ष प्राप्त कर रहा है और अब तक तो खाली नहीं हुआ । यह तत्त्व बड़े प्रमाण का है कि जीव अनंत कालों के बाद भी खतम नहीं होता । जीवों की संख्या इतनी है कि उनमें अनंतजीव मोक्ष को जायें तो भी ये अनंत रहते हैं । सो अनंत तो जीव हैं और अनंत पुद्गल परमाणु हैं ।
एक जीव के पीछे कितने परमाणु लगे हैं? देखो तो जरा, एक तुम्हीं जीव हो । तुम्हारे साथ यह शरीर लगा है तो शरीर में अनंत परमाणु हैं । परमाणु तो बहुत छोटे होते हैं जो आंखों से नहीं दिख सकते । जिसका दूसरा टुकड़ा नहीं हो सकता ऐसे अनंत परमाणुओं का पिंड यह देह है । सो यह शरीर अनंत परमाणुओं का पिंड है । यहाँ एक जीव के पीछे अनंतपरमाणु लगे हैं और इस शरीर के साथ शरीर के विस्रसोपचय लगे हैं । वे भी उतने हीं हैं और फिर इस शरीर के साथ तैजस वर्गणायें लगी हैं । वे इनसे अनंत गुणी होगी और इनके साथ कर्मों का शरीर लगा है वह उनसे भी अनंतगुणा है । अनंत-अनंत पुद्गल परमाणु जीव के साथ लगे हैं और अनंते जीवों का अंदाज लगाओ कि लोक में कितने पुद्गल परमाणु हैं? और फिर जीव के द्वारा छोड़े गये, छूट गया यह शरीर काय किवाड़ है, भींत है और जितने सब हैं जिसमें जीव न परमाणु देखे, पर इन अनंत परमाणुओं में प्रत्येक परमाणु एक-एक अलग-अलग स्वतंत्र है । सो इस द्रव्य के संबंध में अधिक ज्ञान करना हो तो हमें इसके गुण और पर्याय भी जानना चाहिये । प्रत्येक द्रव्य में अनंत शक्ति है, अनंत गुण हैं । जैसे एक जीव को ही ले लो । इसमें श्रद्धा का गुण है कि नहीं, यह जानना है । श्रद्धा गुण है । प्रत्येक जीव में चाहें किसी और तरह की श्रद्धा लगी हो, क्योंकि श्रद्धा लगाए बिना यह जीव न रह सकेगा चाहे घर में, परिवार में लगाये, चाहे आत्म-परिणाम में लगाये चाहे बुनियादी प्रतिष्ठा में लगाये । इस प्रकार से वह कहीं न कहीं विश्वास लायेगा कि यह मेरा है । इस तरह श्रद्धा गुण है । एक चारित्रगुण है । यह जीव कहीं न कहीं लगा रहेगा । चाहे विषयों में लगे, चाहे कषायों में लगे, चाहे भक्ति में लगे, चाहे ज्ञान के उपयोग में लगे; पर कहीं न कहीं यह लगा रहेगा, तो यह हुआ चारित्र गुण ।
ज्ञान कितना है दुनिया में, जिस शक्ति के कारण यह जानता रहता है? दर्शन गुण है । जिसके कारण जानते हुए आत्मा को प्रतिभासता रहता है अनंत गुण हैं जिसके कारण यह जीव आनंद में, सुख में, दुःख में लगा रहता है । ऐसे-ऐसे आत्मा में अनंत गुण हैं । देखो, जो चीज आपमें है उसे तो कोई लूट नहीं सकता और जो चीज आपमें नहीं हैं; उसे लाख यत्न करें आपमें आ नहीं सकती । प्रत्येक पदार्थ का स्वरूप ऐसा ही दृढ़ है कि उसमें दूसरी चीज आ ही नहीं सकती और उसकी चीज जा नहीं सकती । आत्मा का स्वरूपज्ञान, दर्शन, श्रद्धा, चारित्र है; इसे कौन लूट सकेगा? घर, परिवार, धन, संपदादि ये आत्मा की चीजें नहीं हैं । तो कितना ही यह विकल्प कर लें, पर वह चीज आत्मा में आ नहीं सकती । जीव का उद्धार मोह का त्याग किए बिना नहीं हो सकता । मोह का त्याग भेदविज्ञान किए बिना नहीं हो सकता और भेदविज्ञान पदार्थों का सही स्वरूप जाने बिना नहीं हो सकता । इस कारण धर्म के लिए बहुत काम करना है । पर उन सबका श्रद्धान और मूल काम भेदविज्ञान का है । जैसे भोजन परोसते हैं खिलाते हैं, भोजन वही का वही और मीठे शब्द कह कर खिला दें तो उसका मूल्य हो जाता है और कटु शब्द कहकर खिला दे तो उसका मूल्य नहीं रहता है, याने अच्छा व्यवहार नहीं रहता है । बहुत बढ़िया भी खिला दिया और पीछे से कहा―कहो जी, आज अच्छा बना
ना खाना? हां, बना क्यों न लो ऐसा तो आपके बाप ने भी न खाया होगा । अरे खिलाया, धन खर्च किया, श्रम किया और ऐसी बात कह दी कि पेट में रखना मुश्किल हो गया । बस चले तो कम कर दो ऐसी इच्छा हो जायेगी । इसी तरह धर्म के काम तो हम करते हैं, पर एक ज्ञान जो और साथ में रखकर करें तो इन सब प्राणियों का मूल्य भी हो जायेगा ।
इतना तो रहे सबके मोह में, पर मिला क्या अब तक, सो बताओ? यह बात जवान लोग चाहे देर में बता पायेंगे, पर जो वृद्ध हो गये हैं वे ही सोचें कि अब तक तो मोह किया पर हाथ क्या आया? हाथ आने की बात तो दूर रही, बिगाड़ बढ़ते गए । मान लो आप अपने घर में 60, 70, 80 वर्ष से रह रहे हैं पर इकट्ठे रहने में कोई न कोई बात ऐसी आ ही जाती है कि जो बिगाड़ कर देती है । सो धीरे-धीरे बात बिगड़ते-बिगड़ते इतना हो गया कि पोता भी कहना न माने लड़का भी कहना न माने । इस पर भी शरीर की अवस्था भी निर्बल हो गई । बड़ा श्रम किया, बड़ा मोह किया, बड़ी दूसरों की फिक्र की, पर अंत में हाथ कुछ न लगा । और यदि कोई आपकी सेवा भी करता है तो वह सेवा आपके पुण्य से ही हो रही है । कुछ मोह किया प्रेम किया, लोगों के काम आये, इस कारण सेवा हो रही है सो बात नहीं है । कुछ पुण्य पल्ले हैं अभी इसलिए दूसरे पूछ रहे हैं । वह पुण्य भी विनश्वर है । वस्तुत: इस जीव का शरण है ज्ञान । कैसे ही संकट हो, ज्ञान को उपयोग में लाओ तो संकट मिट जाते हैं । आज कई पुरुष उपवास से हैं ये जो बूढ़े बाबा हैं, उपवास से हैं और ये जो बूढ़ी बऊ बैठी है ये भी उपवास से हैं । बुंदेलखंड में दऊ बूढ़ी को कहते हैं । बताओ कोई आकुलता है? नहीं । क्योंकि ज्ञान को उपयोग में लिया है और जब ज्ञान का उपयोग न किया जाये तो एक टाइम भी भोजन नहीं छोड़ सकते हैं । एक समय भी भोजन छोड़ना कठिन हो जाता है । तो भूख का संकट तो बड़ा संकट कहलाता है । कोई-कोई तो तीन-चार दिन का उपवास करते हैं, कोई-कोई करीब-करीब पांच-पांच दिन का उपवास करता है, पर उसमें ज्ञान का उपयोग है सो वह कष्ट नहीं मानता । इसी प्रकार से यदि हम ज्ञान का उपयोग न करे तो जरा-जरासी बातों में कष्ट का अनुभव करते हैं ।
बाह्य में दृष्टि डालो तो सर्वत्र कष्ट ही कष्ट है । अभी छोटे बच्चे पास में बैठे हों और उनकी इच्छा हो जाये कि यह मां इस तरह बैठी है । कुछ तनिक इधर मुख करके बैठ जाये । ऐसा भाव यदि बच्चे के मन में आ जाये तो वह संक्लेश कर करके अपनी इच्छा के अनुकूल बैठाने का यत्न करता है और न बैठे तो वह बड़े कष्ट का अनुभव करता है, रोने लगता है । बतलाओ तो क्या कष्ट है? अरे ! यों बैठा है तो बैठा नहीं रह सकता है । चार अंगुल सरक न आये मां, तो रोने लगता है । अरे ! बाह्य दृष्टि है तो जो सोचा उसके अनुकूल नहीं हुआ सो रोने लगा । जब घर जाने की इच्छा होती है तो मां से तुतली बोली में कहता है ‘‘घर’’; मां देर करती है तो रोने लगता है । अरे ! क्या तकलीफ है, मन की इच्छा के अनुकूल काम नहीं होता सो बच्चे भी दुःखी हो रहे हैं । आपकी बात जाने दो । बाहर में दृष्टि दो तो सब जगह कष्ट ही कष्ट मिलेगा और अंतर में स्वरूप पर दृष्टि दो तो एक भी कष्ट न रहेगा । इन भैया को बड़ा क्लेश हुआ सो यह जानकर दुःखी हो रहे हैं । बाह्य दृष्टि हुई ना और अब अंतर में दृष्टि दो तो यह भैया तो मेरे कुछ नहीं है । इनका स्वरूप तो जुदा है । लो, यों अपने निर्मल ज्ञानस्वरूप का अनुभव हो गया तो सब संकट मिट गये । तो यह संकट मिटता है भेद विज्ञान से और भेद विज्ञान होगा तो वस्तु के सही ज्ञान से और वस्तु का सही ज्ञान तब होता है जब द्रव्य-गुण-पर्याय का सही निर्णय कर लो ।
भैया ! वस्तुस्वरूप में अब तक क्या बताया ? द्रव्य और गुण । अब पर्याय देखो । जीव की पर्यायों का मतलब है गुण की दशाएँ । जीव में ज्ञान की शक्ति है ना? जो जानना बना है वह है ज्ञान की पर्याय । आनंद एक गुण है ना जीव में? इस आनंदगुण का कैसा-कैसा परिणमन बन रहा है? किसी को सुख हो रहा है, किसी को दुःख हो रहा है, कोई आनंद में मग्न है । तो यह है आनंद की पर्याय । सो जीव की पर्याय में कोई पर्याय तो शुद्ध है और कोई पर्याय अशुद्ध है । जैसे केवलज्ञान होना शुद्ध पर्याय है और हमारे आपके रागद्वेष ये अशुद्ध पर्यायें हैं । रागद्वेषों से कुछ सिद्धि नहीं होती । मगर रागद्वेष की ऐसी बात आ गई है जीव में, कि रागद्वेष इसमें अवश्य हो जाते हैं । सिद्धि कुछ नहीं, बल्कि असिद्धि है । रागद्वेष न रहे तो मेरे केवलज्ञान होने में विलंब नहीं है । किंतु खेद की बात है कि ‘‘माया मरी न मन मरा, मर मर गयो शरीर । आशा तृष्णा ना मरी, कहि गये दास कबीर ।।’’ देखो शरीर भी मर गया और सब कुछ भी मर गया, सब कुछ मिट गया पर यह माया और तृष्णा नहीं मिटी ।
भैया, आशा का गड्ढा इतना बड़ा है कि और गड्ढा में कूड़ा डाल दें तो भर जायेगा मगर आशा में कितनी ही संपत्ति डाल दें तो और गड्ढा भरने के बजाये गहरा होता जायेगा । ऐसा आपने कोई गड्ढा सुना है कि उसमें कुछ डालते जायें तो फिर भी गहरा होता जाये? है कहीं ऐसा? और गड्ढों में कुछ डालो तो गड्ढा भरेगा ही, गहरा न होगा । मगर आशा का गड्ढा ऐसा विलक्षण है कि जितना आता जाये उतनी ही तृष्णा बनती है सो यह आशा मरेगी तब, जबकि यह ज्ञान हो जायेगा कि मेरा हित करने वाला अन्य कोई पदार्थ है ही नहीं । मेरा हित तो मैं हूँ । सो मैं अपने वास्तविक सहजस्वरूप को जान लूं ।
अच्छा अब प्रकरण पर आईये । पर्याय दो प्रकार की हैं एक स्वभाव पर्याय और दूसरी विभाव पर्याय । केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंत आनंद, अनंतशक्ति व सम्यक्त्व यह तो स्वभाव पर्याय है और रागद्वेष कषाय ये सब विभाव पर्यायें हैं । मनुष्य हो गये, तिर्यंच हो गये, नारकी हो गए; ये सब विभावद्रव्यपर्यायें हैं । यह एक मोटी सी बात है कि यदि आपको यह विश्वास है कि मैं पुरुष हूँ तो सम्यग्दर्शन नहीं है । क्या आपका आत्मा पुरुष है । और इन स्त्रियों को यह विश्वास हो जाये कि मैं स्त्री हूँ तो इनके सम्यक्त्व नहीं है । न ये पुरुष हैं और न ये स्त्री हैं, सब अपने-अपने मन से सोचें । मैं पुरुष हूं क्या? मैं एक ज्ञानचमत्कारमय चेतनद्रव्य हूँ । पुरुष नहीं हूँ । मैं तो वह हूँ जो अनादि से हूँ और अनंत काल तक रहूंगा । पर यह पुरुष पर्याय अनादि से नहीं है और अनंतकाल तक नहीं है । यह तो भिन्न है । पुद्गल है । मैं पुरुष नहीं हूँ, मैं तो एक चेतन द्रव्य हूँ ऐसा ही ये सब स्त्री-पुरुष समझे । मैं एक चेतन द्रव्य हूँ ।
भैया ! आज पंचमकाल के समय में तो स्त्री और पुरुष दोनों एक हैं । न मोक्ष पुरुषों को है और न स्त्रियों को है । आज के समय पुरुष वर्ग अधिक व्यस्त है । सो पुरुष की अपेक्षा स्त्रियों को धर्म करने का अवसर ज्यादा है और इसी कारण हर जगह स्त्रियों की संख्या भी अधिक रहती है । यहाँ तो पुरुषों की संख्या ज्यादह रहती है । हमसे उनके पास धर्म करने का अधिक अवसर है । वे दंद-फंद में अधिक नहीं रहती हैं कमाई में अधिक दंद, फंद है । स्त्रियों को घर का काम है तो उनका धर्म बताया है शुद्ध भोजन बनाना, किसी को पड़गाह कर या प्रतीक्षा कर बाद में अपना भोजन करें । ऐसा भाव हो तो रसोई बनाते हुए भी स्त्रियां धर्म कर रही हैं । तो स्त्रियों को अवसर अधिक है ।
धर्म वास्तविक मायने में तब है जब भेदविज्ञान जगता है । मैं केवल ज्ञानमात्र हूँ । मैं स्त्री नहीं हूँ । मैं पुरुष नहीं हूँ । गुस्सा जितना आती है वह पर्याय को आत्मा मानने के कारण आता है । इसने मुझे यों कह दिया, मेरी कुछ भी नहीं रही, गुस्सा आ गया । अभी अकेले में किसी ने अपमान कर दिया, मार पीट दिया तो बुरा न मानेगा; परंतु कष्ट का तो बुरा मानेगा, अपमान की अपेक्षा और यदि कोई दूसरा-तीसरा देख रहा है ऐसे में पीट दिया तो वह अपमान महसूस कर लेगा । यदि उसे यह विश्वास में आये कि मैं चेतनद्रव्य हूँ, मैं पुरुष नहीं, मैं स्त्री नहीं, मैं धनी नहीं, मैं त्यागी नहीं, मैं साधु नहीं । मैं तो एक चेतन सत् हूँ, तो उसे विषय-कषाय नहीं होते । यह चीज कठिन है, पर इस कठिनाई को प्राप्त करना ही होगा, नहीं तो काम न बनेगा । इस संसार में मुक्ति का रास्ता न मिलेगा । सरल-सरल ही बातों में मौज बनाए रहे तो आगे का मार्ग न मिलेगा । इस तरह कुछ पुरुषार्थ करके ज्ञानार्जन में बढ़ना चाहिए ।
भैया ! ऐसा ज्ञान हो कि यह स्पष्ट हो जाये कि मुझसे सब पदार्थ अत्यंत जुदे हैं । भगवान की पूजा करने से तो केवल पुण्य बढ़ेगा पर मोह न मिटेगा । हां, मोह भी मिट सकता है, पूजा के साथ-साथ यदि ज्ञान का उपयोग हो रहा हो तो । इसलिए प्रधान बात तो ज्ञान के उपयोग की है । पूजा करने में भी तो ज्ञान का प्रयोग हो तो मोह मिट सकता है । यदि पूजा के साथ ही साथ केवली के अनुराग का रस है तो विशेष पुण्य बनेगा; मोह तो केवल ज्ञान से मिटता है, क्योंकि मोह कहते ही अज्ञान को हैं । यह मेरा है―इस प्रकार के भाव का नाम मोह है । अब देखना है कि मोह मिटता कैसे है? यह मेरा नहीं हैं―ऐसा ज्ञान आ जाने का ही नाम मोह का मिटना है । ज्ञान बिना किसी का निस्तारा नहीं हो सकता । देखते जाओ सच, मगर सही देखते जाओ । जैसे अजायब घर होता है तो जहां, अजायब घर हो, चीजों को देखने को टिकट मिल जाता है । कहीं मुक्त मिल जाता है, कहीं पैसा देकर । चले जाओ, देखते जाओ । बस, वहाँ देखने भर का अधिकार है । यदि किसी चीज को छूने लगें तो चौकीदार हटा देगा और गिरफ्तार करके मालिक के पास ले जायेगा । अजायबघर में किसी चीज को छूने का हुक्म नहीं, देखने का हुक्म है । यह संसार क्या कम अजायबघर है? अजीब-अजीब चीजें हैं । ऐसी-ऐसी घटनाएं होती है कि जिनका आप स्वप्न में भी ख्याल नहीं रखते हैं । इस प्रकार से अजायबघर में इससे अजीब और बात है ही क्या? सिवाय इसके कि ऐसे-ऐसे रूप हैं, पशु-पक्षियों के वृक्षों के अनेक प्रकार के जानवरों के कैसे-कैसे रूप हैं । तो क्या यह संसार अजायबघर से कम है? नहीं । इस सच्चे अजायबघर में से एक-एक दो-दो चीजें मिल गई, और इन्हें इकट्ठा कर लिया एक जगह तो अजायबघर बन गया । तो यह अजायबघर है संसार । इसमें केवल देखने का अधिकार जानो । यह जीव ऐसा है ! यह इस प्रकार चलता है, केवल देख लो पर इनको छुओ नहीं । इनमें लगो मत, इनमें प्रीति मत करो ।
भैया ! अपना उद्देश्य बना लों कि आखिर हमें इस जीवन में असली बात क्या करना है और फिर उसकी असली प्रवृत्ति करो । जीवनभर यही काम किया करते हैं कि मुझे एक करोड़ का मालिक बनना है । यदि यही मन में है तो इससे पूरा न पड़ेगा । मुझे देश का मिनिस्टर बनना है, उससे भी न पूरा पड़ेगा । कुछ तो बतलाओ कि तुम्हें बनना भी क्या है? एक दर्जन बाल बच्चों का बाप बनना है, उससे भी पूरा न पड़ेगा । क्या बनना है सो तो बतलाओ? शरीर से कर्मों से मुक्त होना है यह लक्ष्य अपने जीवन का बनाओ और इस योग्य मार्ग में लगे इससे ही पूरा पड़ेगा । यदि कोई इस प्रकार का लक्ष्य न बना लिया तो ‘‘कुछ यहाँ कुछ वहां,’’ बस, भटकना ही बना रहेगा शांति नहीं होगी । यह तो होगी ज्ञान से ।
अब जो पदार्थ है उसके क्या गुण हैं, उसकी क्या परिणतियां हैं? इसका ज्ञान हो तो उससे भेदविज्ञान बनता है । भेदविज्ञान हो तो अपने आपका ज्ञान होता है और उसमें ही सफलता है ।
एक कथानक है कि एक शिष्य गुरु के पास गया? बोला, महाराज मुझे आत्मा का ज्ञान दे दो, मेरा ज्ञान मुझे दे दो । तो गुरु बोला―जाओ फलानी नदी में एक बहुत बड़ी मछली रहती है उससे तुम अपना ज्ञान पूछो । वह ज्ञान बता देगी । वह गया । बहुत बड़ी मछली मिली । कहा―मछली रानी मेरे आत्मा का ज्ञान बता दो, मेरा ज्ञान बता दो । तो वह बोली―ठहरो, ठहरो बताती हूँ । पहिले मेरा एक काम कर दो । मैं कई दिन की प्यासी हूँ । तुम्हारे हाथ में लोटा डोर है सो सड़क पर कुआं है ना, वहाँ से पानी ला दो । एक आधसेर पानी पी लूं, प्यास बुझ जाये । फिर बोलने का बल आ जायेगा । तब जिज्ञासु बोलता है कि पानी के बीच में तो तू पड़ी है और कहती है कि मैं प्यासी हूँ, तू तो बड़ी मूर्ख निकली । मुझे तो बड़े आचार्य ने भेजा था । मछली बोली―ऐसे ही तो तुम मूर्ख हो । तुम ज्ञान से लबालब भरे हो, तुम्हारा ज्ञान ही स्वरूप है और तुम ज्ञान दूसरी जगह ढूंढ़ते हो । अपने को जानो कि मैं ज्ञानमात्र हूँ, जाननमात्र हूँ, ऐसी जो झलक है उसकी ही पकड़ हो कि यह मैं हूँ और इस झलक से ही बेड़ा पार होगा ।
कल भैया यह बात बताई गई थी कि जीवद्रव्य है और जीव में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनंद आदि अनंत शक्ति है और जितनी शक्ति है उनका कोई न कोई परिणमन चलता है । ऐसे जीव को अपने द्रव्य गुण पर्याय के रूप से निरखो । उसी प्रकार पुद्गल द्रव्य भी होते हैं । ये जो दिख रहे हैं चौकी काठ आदि में सभी पुद्गल द्रव्य नहीं है । ये अनंतपुद्गल द्रव्यों का मेल है । उसमें शुद्ध केवल एक परमाणु रूप से रहे तो वह पुद्गल का स्वभाव पर्याय है या उस एक परमाणु में अपने आप जो रूप, रस, गंध, स्पर्श बदलते रहते हैं वह स्वभावपर्याय है और जो मिल करके स्कंध बन गये यह है विभाव परिणमन । तो अब उन पुद्गलों को पुद्गलों में देखो, शरीर को शरीर में देखो और आत्मा को आत्मा में देखो । तब तो है ज्ञान की बात और शरीर को ही माना कि यह मैं हूँ तो यह है मिथ्यात्व की बात ।
सो भैया पुद्गलों में ममता करने से अपना पूरा न पड़ेगा । आपको अनुभव भी सब हो गया होगा । और कितना जोड़ लेने से पूरा पड़ जायेगा, इसका भी तो कोई लेखा नहीं है । फिर काहे के लिये श्रम करते हो? जैसे-जैसे जगत के सब लोग हैं तैसे ही घर के लोग हैं । केवल एक लोकव्यवस्था की बात है । सो बच्चों का यदि पुण्य है तो कमाने की क्या जरूरत? और पुण्य का यदि उदय नहीं है तो कमाने की क्या जरूरत? पूत कुपूत हो तो क्यों धन संचै, पुत्र सपूत है तो क्यों धन संचै । मन में धन की रटन न रखो, क्योंकि धन की रटन से धन नहीं आया करता है । धन भी पुण्य का सेवक है । अभी देखो, अपनी दुकान है । आप चार दिन तक दुकान न जायें, घर में रहें, साधु सत्संग में रहें, रिश्तेदारों की सेवा करें, तो भी कमाई बराबर चलती रहती है । और कोई पुरुष सुबह होते ही दुकान खोले और बराबर शाम तक दुकान खोले रहे, चारों तरफ दृष्टि लगाये रहे फिर भी फल नहीं पाता । तो यह सब पुण्य का ठाठ है । हिम्मत इतनी रखना चाहिए कि ये जड़ वैभव बहुत भी आये तो इस अमूर्त आत्मा को उससे कुछ नहीं मिलता और न भी रहे तो इस अमूर्त आत्मा की गांठ से कुछ भी जाता नहीं । यह तो पूरा ज्ञानमय और आनंदधन है । इन पुद्गलों के ज्ञाताद्रष्टा रहो । है ये तो ठीक है कहीं कैसे हों, तो ठीक हैं । आत्महित का अपने को ध्यान करना चाहिये, भगवान के दर्शन करना चाहिए तथा गुणों का स्मरणकरना चाहिए कि प्रभु का स्वरूप क्या है?
अब भगवान अरहंतदेव का चित्रण तो करिये । आकाश में 5 हजार धनुष ऊपर एक बड़ा समवशरण रचा हुआ है । पाषाण कितने नीचे पड़े हुए हैं । इतना बड़ा समवशरण जमीन में कहां बनाया जाये । पहाड़, नदिया पड़ती, गांव पड़ते । आठ-आठ, दस-दस, कोस के समवशरण को इतना मैदान कहां मिलता? कहीं मैदान नहीं है, कोई बस्ती नहीं है, जंगल है तो वहाँ कैसे समवशरण साधेंगे । भगवान विहार करके कहीं जाकर रुक जाते हैं । अब वहां समवशरण कब बनेगा? सो समवशरण जमीन पर नहीं बनता । समवशरण आकाश में बनता है और यहाँ से 5 हजार धनुष करीब ऊपर बनता है । लगभग 5, 6 मील की ऊंचाई पर समवशरण बनता है । उसमें अनेक अद्भुत रचनाएं होती हैं जो मनुष्य से नहीं की जा सकती हैं । ऐसी रचना विक्रिया शरीर वाले देव और इंद्र ही कर सकते हैं । कैसा है मानस्तंभ ! दस, बारह प्रकार की गोल-गोल रचनाएं उनके बीच में गंधकुटी, तीन पीठिका, उसके ऊपर कमल, फिर कमल से चार अंगुल ऊपर भगवान विराजमान हैं । चारों ओर से देवी-देवता नृत्यगान करते हुए बड़े सुंदर संगीत के साथ झूम-झूम कर आ रहे हैं । इस जमीन से बड़े-बड़े राजा, महाराजा, प्रजा, हाथी, शेर, नेवला, बंदर, सर्प सभी समवशरण के लिए जाते हैं व आराम से बिना थके वहाँ पहुंच जाते हैं ।
भैया ! देखो प्रभुभक्ति का अतिशय, यहाँ शिखरजी की ही वंदना करने जाते हो तो ऐसा अतिशय है कि 18 मील की वंदना करके खुशी-खुशी आ जाते हो और शरीर वैसा का ही वैसा है और सात आठ घंटे वंदना करने में लगते हैं । किंतु, यहाँ से अगर आगरा फोर्ट जाना चाहो तो बिना रिक्शा के न चला जायेगा । पर जब शिखरजी क्षेत्र पर पहुंचो तो कितना बड़ा दम हो जाता है, वंदना करके आ जाते हो । तो जहाँ साक्षात् अरहंतभगवान् मौजूद हों तो उससे बढ़कर और बात क्या है? सब जीव शीघ्र वहाँ पहुंच जाते हैं । देखो, इस प्रकार से भगवान अरहंतदेव समवशरण में विराजमान हैं । वे राग की चेष्टा करके किसी को नहीं निहारते कि ये राजा महाराजा आए हैं; उन्हें निहार लें । ऐसा कुछ नहीं है । जो निराकुल हैं वे पर में प्रवृत्ति कैसे करेंगे? वे वीतराग सर्वज्ञदेव अपने अनंतचतुष्टय में मग्न हैं । चारों ओर से देवी-देवता गानतान करते हैं, नृत्य करते हैं । सब खिंचे चले आ रहे हैं । यह प्रभो ! किसका प्रताप है? यह केवल आत्मा की निर्मलता का प्रताप है, चारों ओर से देवी-देवता खिंचे चले आ रहे हैं । यह प्रताप धन-वैभव में क्या हो सकता है? नहीं । तिर्यंच भी खिंचे चले आये और देव भी खिंचे चले आए । यह प्रताप है आत्मा की निर्मलता का । जो अरहंतप्रभु में आत्मा है । स्वरूप को देखो, वही आत्मा तो हम और आपकी है । किंतु भीतर से मोह का कचरा लगा रखा, इसी कारण अपने को झंझटों में फंसा लेता है । दो-दस वर्ष का यह जीवन, इस जीवन को बिगाड़ लिया और कहीं कीड़े-मकोड़े की पर्याय मिल गई तो क्या करेंगे वहां? यहाँ तो शान के लिए मरे जा रहे हैं और मरकर पेड़-पौधे हो गए तो । कर लो बच्चू अब शान । क्या करोगे तब शान वहां? धर्म का शरण ही वास्तविक शरण है ।
बहुत देखा सो जीवन व्यतीत हो गया, अब थोड़ासा जीवन है । इस जीवन में जल्दी धर्मसंग्रह का, ज्ञानसंचय का, शुद्ध परिणाम बनाने का काम करलो तो अपनी भलाई है और मन को ढीला रखा, स्वच्छंद रखा, जिन विषयों में मन चाहा, उनके लिए दौड़े तो यह जीवन रूपी दीपक बुझ जायेगा । फिर आगे की गति भली न होगी । एक नट नटनी थे । उन्होंने सोचा कि चलो राजा के आंगन में अपनी कला, नृत्य दिखायेंगे । बड़े के पास जायेंगे तो बड़ा ही इनाम मिलेगा । सो वे दोनों राजा के पास पहुंचे । निवेदन किया, महाराज हम लोगों का नृत्य आज देखिए । अच्छा भाई, सब लोग जुड़े । रात्रि 8 बजे से नृत्य प्रारंभ हुआ । बड़ा सुंदर नृत्य हुआ, सुबह के चार बज गए नृत्य करते-करते और राजा ने कोई इनाम न दिया । नट नटनी सोचते हैं कि अब तक भी कोई इनाम न मिला । जब कुछ न मिलता हो तो थक जरूर जाते हैं और कुछ मिलता जाये तो थकान नहीं मालूम होती । जैसे नाचने वाले पर न्योछावर करते जावो तो देखो तबला वाला भी आसमान से बातें करेगा तो नटनी कहती है कि अब बहुत समय हो गया और यह पीजड़ा थक गया सो अब ढोलकी ताल धीमी करके बजाओ । अगर ढोलक जोर से बजे तो नाचने वाले से रहा नहीं जाता । तो नट बोलता है कि ‘‘गई बहुत थोड़ी रही, थोड़ी हूँ तो जात । अब मत चू को नटनी, फल मिलने की बात ।’’ अरे अब सारी रात व्यतीत कर दिया अब मत चूको । अर्थ उसका यह था, पर सुनने वालों ने अपनी-अपनी मंशा के माफिक अर्थ लगा लिया ।
उक्त दोहे को सुनकर राजा के पुत्र ने अपने गले से एक लाख रुपये का हार निकालकर दे दिया । अब राजा सोचता है, हाय ! मैं इनाम देता तो सौ-सवासौ रुपये दे देता और लड़के ने तो एक लाख रुपये का हार उतार कर दे दिया । फिर देखा कि लड़की ने एक लाख रुपये का हार उतार कर दे दिया । फिर देखा कि एक साधु संन्यासी 500 रुपया का एक नया दुशाला ओढ़े था सो उसने दे दिया । राजा ने सोचा कि क्या गजब हो गया? यह साधु भी बेवकूफ हो गया । खैर नट-नटनी चले गये । उसने राजा से एक कौड़ी भी नहीं मांगी । अब राजा लड़के को बुलाता है । क्यों बेटा ! ऐसा नटने कौनसा काम किया था जिसमें रीझकर तुमने एक लाख रुपये का हार दे दिया? कहा, सुनो पिताजी ! तुम्हारी उमर हो गई है 82 वर्ष की और तुम मुझे राज्य नहीं देना चाहते । बहुत दिनों से मैं सोच रहा था कि पिता को ऐसी क्या तृष्णा सूझी है कि राज्य नहीं देते । अरे ! अपने जीते-जीते तो हमारा राज्य देख लें । पर आपके ऐसी तृष्णा लगी है कि मरते दम तक अपना राज्य नहीं देना चाहते । सो कल के लिए हमने एक प्रोग्राम बनाया था कि राजा को विष दे दो भोजन में, परंतु इस दोहे ने हमें चेता दिया, हमने आपको विष देने का प्रोग्राम स्थगित कर दिया । तो बतलाओ एक लाख रुपये क्या बहुत बड़ी चीज है? समझ में आ गया कि मेरे प्राण बच गये । एक लाख क्या है? हां, तो ‘‘तुम्हें कैसे समझ में आया?’’ यों मैंने सोचा, कि 82 वर्ष तो हो गये । अब तो मरण के दिन हैं साल 6 माह तक और रहेंगे । तो गम खावें । गई बहुत थोड़ी रही और थोड़ी हूँ तो जात । अब मत चूको, पितृहत्या मत करो, वह समय आने ही तो वाला है जब राजा बन जाऊंगा ।
राजा ने अब लड़की को बुलाया और पूछा कि तूने किस बात पर रीझकर 1 लाख रुपये का हार दे दिया? पुत्री ने कहा सुनो पिताजी ! हमारी हो गई जवान उमर 20,22 साल की और हम मंत्री के लड़के से शादी करना चाहती हैं । वह गरीब है सो आप करना नहीं चाहते थे, क्योंकि उसे 10-20 गांव देने पड़ेंगे । सो मैंने यह सोचा था कि कल की रात मंत्री के पुत्र के साथ यहाँ से भाग जाऊं । सो मुझे इस दोहे ने ज्ञान दिया और मैंने वह भागने का प्रोग्राम स्थगित कर दिया । अगर हम भाग जाती तो पिताजी आपके कुल को कलंक लगता । बहुत ठीक । लाख रुपया कोई बड़ी बात नहीं । पर किस बात से ज्ञान आया सो बताओ? मैंने सोचा कि पिताजी 82 साल की उमर के हैं । साल 6 साह में गुजरने वाले हैं । शरीर भी रोगी चल रहा है हमारा भाई राजा बनेगा । हमारा भैया तो हम पर स्नेह करता है तो जैसा हम कहेगी वैसा हमारा भैया करेगा । अत: सोचा कि और साल 6 माह की बात है । तो मैंने कुल कलंक की बात स्थगित कर दिया ।
अब राजा ने साधु से पूछा कि साधु महाराज तुम तो बताओ तुमने किस बात पर रीझकर अपना नया 500 रु0 का दुशाला नट को दे दिया? बोला―महाराज ! मेरा जीवन उस दोहे ने सुधार दिया । मैं भी 75 वर्ष का हो रहा हूँ । गई बहुत, थोड़ी रही और वह थोड़ी उमर भी जाने वाली है । अब क्या बढ़िया कपड़े से अनुराग करें? और क्या महंतशाही करें? तो सबका परित्याग करके मैं अपने कल्याण में लगूंगा ! यह बुद्धि जगी, सो मैंने वह दुशाला दे दिया । एवं आगे रखूंगा भी नहीं ।
सो भैया, आप सब यहाँ 100-50 लोग बैठे है; अपना-अपना हिसाब लगाओ । बहुत गई थोड़ी रही थोड़ी हूँ तो जात । अब न चूके, धर्म कार्यों में लगें । सच्चे देव, शास्त्र, गुरू, जीव,आदिक 7 तत्वों के स्वरूप की और सर्व से निराला चैतन्यस्वरूप यह मैं आत्मा हूँ । इस निजस्वरूप की सच्ची श्रद्धा तो रखो और घर के बच्चों पर कितना अनुराग रखते हो, दूसरे जीवों पर भी तो कुछ दृष्टि दो । सारा तन, मन, धन, कुटुंब के लिए ही न्योछावर मत करो । जगत् के और जीवों के स्वरूप को भी तो देखो । मोह-ममता से लाभ कुछ न मिलेगा, सारी हानियां ही होंगी । सो इन पुद्गल द्रव्यों का यथार्थस्वरूप जानने से क्या शिक्षा हमें लेना चाहिए कि ममता को छोड़े, सही जानें कि मैं जानन मात्र हूं?
इस तरह द्रव्य गुण पर्याय के संबंध में सामान्यतया कुछ वर्णन करके अब केवल जीव द्रव्य के स्वरूप का व विशेष रूप से द्रव्य, गुण और पर्याय का वर्णन करते हैं ।