वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 57
From जैनकोष
अप्पा जणिअउ केण णवि अप्पें जणिउ ण कोइ ।
दव्वसहावें णिच्चु मुणि पज्जउ विणसइ होइ ।।57।।
यह आत्मा किसी के द्वारा उत्पन्न नहीं किया गया है और न इस आत्मा ने किसी को उत्पन्न किया है । द्रव्य स्वभाव से इस आत्मा को नित्य समझो । यहाँ तो पर्याय ही उत्पन्न होती है और पर्याय ही नष्ट होती है । यह केवल आत्मा की ही बात नहीं है । यहाँ जो कुछ है वह उत्पाद व्यय ध्रौव्य करि सहित है । यह संसारी जीव शुद्ध आत्मा का संवेदन न करने के कारण उपार्जित कर्मों के द्वारा यह प्रतिक्षण उत्पन्न किया जा रहा है; अर्थात् नये-नये विकार इसमें उत्पन्न हो जाते हैं । तो शुद्ध आत्मा के संवेदन से हटकर यह जीव कर्मों को उत्पन्न करता है यह व्यवहारनय का कथन है । जीव एक अलग पदार्थ है और कर्म एक अलग पदार्थ है । एक पदार्थ दूसरे की परिणति करने में कभी भी समर्थ नहीं । वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है । अरे खुद परिणमन करे या दूसरे को परिणमाये पर ये पदार्थ तो स्वयं ही परिणमन कर रहे हैं ।
यद्यपि व्यवहारनय से यह जीव कर्मों को उत्पन्न करता है तो भी शुद्ध निश्चयनय से वह नर-नरकादिक पर्यायों के रूप से नहीं उत्पन्न होता है और न कर्म नोकर्म आदिक को उत्पन्न करता है । पदार्थ एक ही है । वह है और प्रतिक्षण परिणमता है । पदार्थ की ये दो ताराफें खास हैं कि वे हैं और परिणमते रहते हैं । ‘‘है’’ न हो तो परिणमन न हो सके और परिणमन न हो तो ‘‘है’’ न रह सके । द्रव्य में सर्व आठ गुण होते हैं । उनमें प्रथम के जो चार गुण हैं और परिणमन का संबंध रखते हैं । प्रदेशवत्व आधार जैसा है और प्रमेयत्व जानने में आ गया सो प्रमेय है । वस्तु है, यह अस्तित्व गुण से बताया है ।
यह अस्तित्वगुण यदि ऐसी उदंडता करने लगे कि मैं तो ‘है’ का काम करता हूँ, चाहे कुछ भी हो जाये । जैसे घड़ी को हाथ में लेकर नाम तो घड़ी न बोलें और बोलें यह पदार्थ, यह चौकी है, यह पुस्तक है आदि रूप से सभी है यों बन जाये तो क्या हर्ज है? हमें तो ‘है’ का अधिकार मिला है तो उसकी उद्दंडता रोकने के लिए वस्तुत्व गुण है । यह है किंतु अपने स्वरूप से है, पररूप से नहीं है तो इन दोनों गुणों ने ‘‘है’’ का काम किया और द्रव्यत्व गुण कहता है कि पदार्थ प्रत्येक समय परिणमते रहते हैं । तो परिणमन का आधार पाकर ये पदार्थ यदि ऐसी उद्दंडता करने लगें कि मैं तो परिणमन करूंगा किसी रूप परिणम जाऊं । मैं शेर बन जाऊं, चौकी बन जाऊं, कुछ भी बन जाऊं तो ऐसी उद्दंडता से तो सर्व शून्य हो जायेगा इस उद्दंडता को रोकने के लिए अगुरुलघुत्वगुण है कि हम परिणमेंगे जरूर और अपने स्वरूप में ही परिणमेंगे पर के स्वरूप से न परिणमेंगे । तो इन चारों गुणों ने यह सिद्ध किया कि प्रत्येक पदार्थ हैं और परिणमते रहते हैं ।
भैया ! कोई सोचे कि मैं खबर अमुक की न लूं तो अमुक मिट जायेगा; यह भ्रम की बात है । हम खबर लें अथवा न लें । उनमें स्वयं परिणमन है । दूसरे जीव तो अपनी सत्ता से हैं और सदैव रहेंगे, परिणमते रहेंगे । यह आत्मा केवल शुद्ध निश्चयनय से ही कर्मों को नहीं उत्पन्न करता, इतनी बात नहीं है । व्यवहार से भी यह कर्मों को उत्पन्न नहीं करता किंतु निमित्तमात्र पाकर कर्म बनते हैं । इन कर्मों को बताने के लिए सीधे व्यवहारनय से कह दिया जाता है कि जीव कर्मों को उत्पन्न करता है । यह जीव द्रव्यार्थिकनय से तो नित्य है और पर्याय से उत्पन्न होता है और नष्ट होता है । निश्चय से तो यह नित्य है और व्यवहार से उत्पन्न होता है और नष्ट होता है ।
यहां कोई शिष्य पूछता है कि सब पदार्थों में बात तो घट जायेगी, क्योंकि देखते ही हैं कि अभी रोटी कच्ची है, अब पक्की हो गई । परिणमन सब नजर आता ही है अथवा यहाँ जीवों का परिणमन भी समझ में आ रहा है । अभी यहाँ अशांत थे, अब शांत हो गए । अभी क्रोध में जल भुन रहे थे, अब आराम से बैठे हैं । पर सिद्धदेव की आत्मा में उत्पाद-व्ययध्रौव्य कैसे होता है? सो तो समझाओ । तो उत्तर देते हैं कि वहाँ मुक्तजीवों का जो परिणमन है वह प्रतिक्षण का परिणमन सदृश है और सदृश में वह कुछ परिणमा है, यह भान नहीं हो पाता है । जैसे यह बिजली का लट्टू जल रहा है और जलते हुए आध घंटा हो गया होगा और पूछा जाये कि यह लट्टू क्या काम करता है? यदि यह उत्तर दो कि यह लट्टू पदार्थों को प्रकाशित करता है तो प्रति प्रश्न होगा कि लट्टू ने यह काम तो 8 बजे कर दिया था । अब यह क्या करता है? अरे ! वह अब भी प्रकाशित करने का ही नवीन-नवीन काम कर रहा है । फिर भी शंका खड़ी रहें कि इस लट्टू ने तो कुछ ज्यादह काम तो नहीं किया, वही काम किया जो 8 बजे किया था । तो क्या सही है कि इस लट्टू ने जो काम 8 बजे किया वही काम अब कर रहा है, सही नहीं है । 8 बजे की परिणति से 8 बजे कार्य हुआ और इस समय की परिणति से कार्य हुआ । एक-काम नहीं चल रहा है, किंतु प्रतिक्षण, प्रति सेकन्ड नये-नये काम हो रहे हैं । प्रतिक्षण न हो तो इस कार्य का अभाव हो जायेगा ।
जैसे कोई आदमी अपने हाथ पर 10 सेर का वजन लिए हुए 5 मिनट से खड़ा हुआ है, एकसा खड़ा हुआ है, न बैठता है न डुलता है, केवल खड़ा हुआ है । तो क्या वह जो 5 मिनट पहिले काम कर गया था, वही काम कर रहा है? नहीं प्रतिक्षण काम कर रहा है । आपको दिखता है कि वही वजन उठाये हुए खड़ा है, वही काम आध घंटे से कर रहा, पर प्रतिसमय उसकी शक्ति लग रही है और प्रतिसमय की शक्ति की वर्तना से वह वजनदार होने से साधने का काम कर रहा है । एक घंटे से कोई पुरुष कार्योत्सर्ग से खड़ा होकर ध्यान कर रहा है, न पैर डुला रहा, न हाथ डुला रहा । कोई पूछे कि यह मनुष्य क्या काम कर रहा है ? जो कार्य इसने आधा घंटा पहिले किया वही तो कर रहा है । यह तो लगातार घंटे भर से वही काम कर रहा है । क्या वही काम कर रहा है? नहीं, वह प्रति सेकन्ड और इससे भी जो कम समय होता है उन प्रति समयों में नया-नया काम कर रहा है । नई-नई शक्ति की परिणति से नया-नया वर्तन कर रहा है । वही काम करता होता तो यह पसीना क्यों आता? अभी जब आध घंटा पहिले खड़ा था, तब तो पसीना नहीं आ रहा था । अब क्यों इतना पसीना बह रहा है । कुछ थकान होती है, इससे यह सिद्ध है कि प्रतिसमय वह शक्ति अलग-अलग, नया-नया काम कर रही है ।
वैसी ही पहले की तरह अरहर की दाल और रोटी खाते होंगे । वही अब भी खाते हों तो यह काम नया आपने किया या वही काम किया? नया काम कर रहे हो । नई उत्सुकता, नई भूख, नये प्रकार का आनंद, सब नया-नया ही काम कर रहे हो । नया काम है, यह बाहिरी वस्तु की दृष्टि से चाहे समझ में न आयें, किंतु पदार्थों में प्रतिसमय नया-नया परिणमन हुआ करता ही है । वे मुक्त जीव तीन लोक और अलोक और त्रिकालवर्ती सर्वपर्यायों को स्पष्ट जान चुके और जैसा जानन केवलज्ञान के प्रथम क्षण में जाना गया वैसा ही जानन मात्र अनंतकाल तक होता रहता है । उसमें तो इतना भी भेद नहीं है कि लो, अभी भगवान जिस पर्याय को वर्तमान रूप से जान रहा था लो अब उस पदार्थ को भूतकाल के रूप से जानता होगा, तो परिवर्तन तो ज्ञान का हुआ? कुछ नई बात तो आई । इसमें कोई विचित्रपना नहीं है । सर्व पर्यायें, सर्व पदार्थ जिस अवस्था में हैं वैसा सब ज्ञान में आ गया । पर उनके पूर्वापरवर्तिता का विकल्प नहीं है । इतना निश्चल शुद्ध ज्ञान लगातार अनंत काल तक चलता रहता है । फिर भी प्रतिक्षण नया-नया परिणमन होता है ।
हां, तो प्रभु का उत्पादव्यय किस प्रकार है यह वर्णन चल रहा है । स्पष्ट और प्रामाणिक प्रथम बात तो यह है कि आगम में अगुरुलघुत्वगुण से प्रसिद्धि उत्पाद-व्यय के होने की है । अगुरुलघुत्व की हानिवृद्धि अपेक्षा मुक्त जीवों में उत्पादव्यय है । जैसा कि धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य आदिक द्रव्यों में अगुरुलघुत्व की हानि-वृद्धि की अपेक्षा परिणमन चला करता है और प्रतिसमय जो परिणमन का काम चल रहा है चलता रहता है, वैसा का ही वैसा; क्योंकि समस्त सत् जो ज्ञात होगा वह ही समस्त सत् दूसरे क्षण में ज्ञात होता है पर जानन तो प्रतिसमय होता रहता है । बस; यह प्रतिसमय का जानन परिणमन ही उत्पाद और व्यय की सिद्धि करता है, अपने ज्ञानाकार रूप से तो नया-नया ज्ञानाकार रूप नहीं रहता है, किंतु अर्थग्रहण क्रिया से उत्पाद व्यय होता जाता है और स्थूल रूप से यह कहा जायेगा कि मुक्त होने पर संसारी पर्याय का तो विनाश होगा और शुद्धपर्याय का उत्पाद हो गया और शुद्धजीव द्रव्य जो है वह ध्रौव्य की अपेक्षा से बराबर वही बना हुआ है । इस प्रकार शुद्ध में उत्पाद व्यय समझना चाहिए ।
यह वस्तु स्वरूप का ज्ञान मोह हटाने के लिए है । जगत् में क्लेश केवल मोह का है और यह मोह एक किस्म का नहीं है कि धन का ही मोह हो । किसी को परिवार का मोह है, किसी को इज्जत का मोह है । सबके कुछ न कुछ मोह लगा है । पर यह सब मोह हम आपके दुःख का ही कारण है । ऐसी हिम्मत ज्ञानी पुरुष में ही होती है कि वह यह समझ जायेगा कि मुझे संसार में कोई भी जीव नहीं जानता तो उससे हानि नहीं है और यदि सभी लोग एक स्वर से तारीफ कर दें तो भी इससे मेरा लाभ नहीं है । मेरा लाभ तो मेरे स्वरूप की प्राप्ति में है । मैं अपनी दृष्टि में अपने आत्मस्वरूप को तकता रहूं तो वहाँ कोई विकल्प नहीं है । वहाँ खेद नहीं, वहाँ संकट नहीं जहाँ अपने स्वरूप की दृष्टि से हटे, वहाँ बाह्य में दृष्टि आ गई और देखा । इस बाह्य दृष्टि में रहते हुए भले-भले भी काम कर डालो, देश का उपकार, समाज का उपकार, लोगों को उपदेश देकर मार्ग दिखाकर उनको भले आचरण में लगाना; ये सर्व भले काम भी कर डालें; लेकिन मूल में ही यह महाविष बैठा हुआ है कि इस लोक में मैं कोई ऐसा काम कर लूं जिससे कि और लोग समझें कि हां, यह भी कुछ है । इतना जो गुप्त महाविष आशय पड़ा हुआ है इसके कारण परोपकार के और देश सेवा के ये बड़े श्रम भी खोटे, फल को उत्पन्न करते हैं ।
जैन सिद्धांत उन्नति के महल की मजबूत नींव बनाकर खड़ा करना चाहता है । उत्कर्ष रूपी पेड़ की फूल, पत्ती, डाली को यह नहीं सींचना चाहता है, यह पेड़ की जड़ को सींचता है । यह पहिले मिथ्यात्व विष को दूर करता है । प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र हैं । किसी पदार्थ में न हम कुछ कर भोग सकते हैं और न दूसरे कोई पदार्थ मेरा कुछ कर भोग सकते हैं । तो इस अज्ञान भाव को टालो कि मैं दूसरों की दृष्टि में कुछ कहला, यह आशय बिल्कुल चूर हो जाये और अपने को सब जीवों में घोल दिया जाये अर्थात् अपने उस सामान्य स्वरूप को निरखकर व्यक्तित्व का गौरव न आये । सब जीवों में अपने को घोल दो तो इसमें आत्मकल्याण का रास्ता मिलता है । यह काम जैन सिद्धांत द्रव्यदृष्टि कराके कराता है । किंतु अन्य बंधु इसी काम को सर्वथा ऐसा ही मानकर करना चाहते है । ‘‘सब जीव एक हैं । जो मैं हूँ, जो और हैं; ये सब केवल एक हैं । संख्या में एक है किंतु मन साथ लगा है सो इस मन से इसको अलग मान रखा है । ये अपने को अलग मानना छोड़ दें और उस एक जीव में ही घुल मिल जायें तो उससे कल्याण है । इस प्रकार का पथ बताया है । जब कि जैनदर्शन यह कहता है कि परमार्थ से तो समस्त जीव अपनी-अपनी अलग-अलग सत्ता लिए हुए हैं, किंतु इन सबके स्वरूप को देखो तो एक स्वरूप हैं ।
आपका निर्माण किन्हीं अन्य तत्त्वों से नहीं है । मेरा निर्माण किन्हीं अन्य तत्त्वों से नहीं है । चैतन्य भाव से ही आप रचे हुए हैं, मैं रचा हुआ हूँ, भगवान रचे हुए हैं । समस्त जीव द्रव्य एक स्वभाव कर ही रचे हुए हैं । तो हे मुमुक्षजनों ! जब तक पर्याय बुद्धि करके अपना व्यक्तित्व मानते रहोगे तब तक तुम क्लेशों में ही रहोगे और द्रव्य दृष्टि करके अपने व्यक्तित्व को भूल जावोगे और एक चैतन्य सामान्य अनुभव में आयेगा तो अभी भी आनंद आयगा, कर्मों का क्षय करके भविष्य में भी आनंदमय रहोगे । सो द्रव्य दृष्टि के द्वार से अपने को सब जीवों में घुला मिला बना डालो तो इससे सर्व संकट समाप्त हो जाते हैं ।
हमें सुख के लिए एक ही काम करना है―जिस किसी प्रकार मोह हट जाये । मोह हटाने के लिये काम वस्तुस्वरूप का यथार्थ दर्शन है । सभी लोग पूरा यत्न करके पूरी तरह से मोह को हटा दें । मोह के हटाने में आपको कौनसी असुविधा है? राग हटाने की बात नहीं कह रहे हैं, वे तो रहेंगे; पर इतना मान लो कि इस जीव का सत्व अन्य सबसे बिल्कुल पृथक् है और मैं बिल्कुल सबसे पृथक् हूँ । जैसे दो कपड़े की पट्टियां न्यारी-न्यारी पड़ी हुई हैं, अलग-अलग है, कोई संबंध नहीं, तो ऐसा जानते रहने में तुम्हें कुछ कष्ट है क्या? यह भींट और वह भींट बिल्कुल अलग-अलग है । इस भींट में वह भींट जुड़ी हुई नहीं है । ऐसा तुझे जानने में कुछ तकलीफ हो रही है क्या? यथार्थ बात समझने में तुझे तकलीफ क्यों हो रही है? तू सर्व जीवों का स्वरूप न्यारा तो समझ । किसी जीव से तेरा कुछ भी संबंध नहीं है । ऐसी मान्यता में तुझे मोक्षमार्ग मिलेगा । अब रहा शेष राग । जो जब मोह हट गया तब राग भी नहीं रहता । ज्ञानी जन भी राग करते हैं; किंतु राग करना पड़ रहा है, ऐसा ख्याल रखते हुए करते हैं । किसी कोतवाल या सिपाही के हुक्म से कैदी को बोझ रखकर खड़े रहना पड़ रहा है तो वह कैदी समझ रहा है कि मुझे यह बोझ रखना पड़ रहा है । वह प्रसन्नता से नहीं रखता है ।
एक बनिया था । वह एक गांव में ज्वार खरीदने के लिए गया । सो वहाँ मिलती थी एक रुपया की एक मन और जिस गांव में वह था वहाँ बिकती थी एक रुपया की 20 सेर । उसने सोचा कि 1 रुपया की ज्वार ले लें तो 20 सेर तो 1 रुपया की बिक जायेगी और 20 सेर खा लेंगे । सो 1 मन ज्वार की गठरी सिर पर रख कर चल रहा है । वहाँ से गांव उसका था समझो 10 मील की दूरी पर । तो 1 मील चलने के बाद ही उसके गर्दन में बड़ा दर्द हुआ । सोचा, इतना बोझ तो न चल सकेगा । उसने 10, 15 सेर ज्वार जंगल में डाल दिया । फिर वह सिर पर उस गठरी को लेकर चलता है । तो बड़ा बोझ होने के कारण एक बार दर्द हो जाता है तो थोड़ा भी बोझ हो तो वह दर्द करता है । अब उसके 25 सेर का बोझ भी दर्द करता है । सो अब 10 सेर आगे और निकाल दिया । अब 15 सेर बोझ लिए जा रहा है । उसका दर्द और भी बढ़ गया । उसने 10 सेर ज्वार और निकाल कर फेंक दिया । अब रह गया केवल 5 सेर बोझ । दर्द तो दर्द ही है । वह 5 सेर भी बड़ा बोझ मालूम हुआ । अब 1 मील और जाकर वह 5 सेर भी फेंक दिया । सोचा, जान तो बचे और आगे चला तो दर्द तो हो ही गया था । दर्द न मिटा और आगे जाकर वह सिर पर टटोलता है कि एक आध दाना रह तो नहीं गया है । अब दानों को टटोलता है, तब तो मन भर रख लिया था ।
इस मोह में यह जीव क्या नहीं कर डालता है । पक्षपात करे, अपने बच्चों की ओर दृष्टि से देखे, घर के और बच्चों को, भाई के अथवा अन्य किसी के या पड़ोसी के बच्चों को ओर दृष्टि से देखे । यह वस्तुस्वरूप की बात कह रहे हैं । आप प्रश्न करने लगें तो क्या करें? बतलावो । अरे ! करने को तो जो बीत रही है सो करो, पर स्वरूप की बात तो समझलो कि मोह का कैसा विचित्र कार्य है कि दो जीवों को और तरह से मान लिया, चार जीवों को और ढंग से मान लिया । किसी के आत्मीयता है, किसी के आत्मीयता नहीं है । मोह हटाने की बात कही जा रही है । सच तो मानते रहो और जो आ पड़े उसे भुगतते रहो । राग भोगों, द्वेष भोगों, लड़ाई भोगों, झूठ भोगों मगर यथार्थ बात जानते रहो तो अंतरंग में विह्वलता न होगी । कितनी सुगम चिकित्सा है । यथार्थ ज्ञान करो और अंतर में निराकुल रहो । इतना भी न करते बने तो फिर और इलाज नहीं है । इस दोहा में यह बतला रहे हैं कि वह सिद्ध स्वरूप उपादेय है । जैसी सिद्ध की व्यक्ति है तैसी इसमें शक्ति है । इस शक्तिमय निज प्रभु को अपनी दृष्टि में रखो और सदा, प्रसन्न रहो, सदा निर्मल परिणाम बनाये रहो । अब द्रव्य, गुण और पर्याय के स्वरूप को बताते हैं ।