वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 85
From जैनकोष
कालु लहेविणु जोइया जिमु जिमु मोह गलेइ ।
तिमु तिमु दंसणु लहइ जिउ णिय में अप्पु मुणेई ।।85।।
समय पाकर हे योगी ! जैसे-जैसे मोह गलता है वैसे-वैसे ही यह जीव दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, और फिर नियम से अपने आत्मा को जानता है । जैसे कोई हाथ में ही स्वर्ण की डली लिए है, मुट्ठी बंद किए है और भूल जाये कि वह स्वर्ण की डली कहां है तो सब जगह ढूंढ लेता है और अपनी मुट्ठी खोलकर नहीं देखता है । ऐसी ही बुद्धि बन जाती है । इसी तरह मिथ्यात्व में ऐसा ही विषय बनता है कि खुद तो है आनंद का निधान । पर उसकी ओर तो दृष्टि ही नहीं करता है, और बाह्य अर्थों की ओर अपना झुकाव बनाता है । यह जो मनुष्यभव पाया है यह कितना दुर्लभ है? हम और आप पहले निगोद अवस्था में थे । ये जो भी जीव हैं इनमें ऐसा कोई नहीं है जो पहले निगोद न था । प्रत्येक जीव निगोद पर्याय में पहले था । निगोद जीव किसे कहते हैं? आपने देखा होगा आलू, उसमें एक सुई की नोक के बराबर हिस्से में अनंत निगोद जीव हैं । या जो कोमल पत्ते हैं उनके तिलभर हिस्से में अनंत निगोदिया जीव रहते हैं । यह तो आधार वाले निगोदिया जीवों की बात कह रहे हैं । पर निराधार जो निगोद जीव हैं वे इस पोल में सब जगह
ठसाठस भरे हैं। वे आंखों से नहीं दिखते, पानी से नहीं मरते, किसी से टक्कर नहीं होती । वे स्वयं ऐसे हैं कि एक सेकन्ड में 22-23 बार जन्म मरण करते हैं । ऐसा ही जन्म-मरण हम आपका भी था ।
ये निगोद वमन जीव हैं, वनस्पतिकाय जीव हैं । प्राय: वनस्पतिकाय इसी तरह के होते हैं । एक तो प्रत्येकवनस्पति और एक साधारणवनस्पति । तो प्रत्येकवनस्पति तो हरी का नाम है । भक्ष्य हो या अभक्ष्य हो, आलू हो, या सेम हो, मटर हो, सब प्रत्येकवनस्पति हैं । और साधारण वनस्पति वे हैं जिनका शरीर आंखों न दिखे । एक शरीर के आधार में अनंत निगोद जीव हैं, वे हैं सब साधारणवनस्पति । तो साधारणवनस्पति जिस समय जिस प्रत्येक में रहते हैं उस प्रत्येक का नाम साधारण-वनस्पति सहित प्रत्येक अर्थात् सप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पति है और जिस हरी में निगोद जीव नहीं रहते, जो खाने योग्य हरी है उसे कहते हैं साधारणहितप्रत्येक यानी अप्रतिष्ठितप्रत्येकवनस्पति ।
अनंतकाल से ये एकेंद्रिय जीव निगोद में रह रहे हैं । कुछ सुयोग अपने आप मिला, कर्मों की गति से अपने आप कुछ का कुछ परिवर्तन होता रहता है । उस निगोद जीव को सुयोग मिला तो वह एकेंद्रिय में उत्पन्न हो गया, पृथ्वी हो गया, जल हो गया, अग्नि हो गया, वायु बन गया और वनस्पति बन गया । एकेंद्रिय से छूटा, कुछ और सुयोग मिला तो यह जीव दो इंद्रिय हो गया । उसमें एक स्वाद की शक्ति आ गई । रसना और आ गई । जैसे केचुवा है, चावल में निकलने वाली लटें हैं । कर्मों का भार कम हुआ और सुयोग मिला तो दो इंद्रिय से बढ़कर तीन इंद्रिय में आ गया । नाक और मिल गई । इसमें चींटी-चींटे अपनी नाक लिए फिरते हैं । कर्मों का और क्षयोपशम हुआ तो तीसरी इंद्रिय से छूटकर चारइंद्रिय बन गया । इसमें मक्खी मच्छर आ गए । इन काटने वाले मच्छरों के आखें हैं । इनकी आखें कितनी बड़ी होंगी सो अंदाज कर लो । मच्छरों से बड़ी होंगी? (हँसी) अरे ! बहुत छोटी होती होगी । एक बहुत छोटा बूंद हो, या कोई बहुत पतली चीज हो तो वह भी बहुत बड़ी है, उसकी आंखों के सामने । इतनी आंख हैं फिर भी जितना हाथी देखता है उतना ही तो वे मच्छर देखते हैं । कुछ और सुयोग मिला तो यह जीव पांच इंद्रिय वाला हो गया; मन भी मिल गया, असंज्ञी पंचेंद्रिय हो गया । इसके इंद्रियां तो पांचों हैं, किंतु मन नहीं है । फिर सुयोग मिला तो संज्ञी जीव हुआ ।
भैया ! अपने पर घटाओ कि किस-किस गति से हम-आप खिंचकर आये हैं? यह जीव संज्ञी भी बन जाय तो अपर्याप्तक मनुष्य हो जाता तो भी क्या करता । ये कहां पैदा होते हैं? स्त्री के शरीर में जगह-जगह जैसे कांख इत्यादि में ये पैदा होते हैं । जो आंखों नहीं दिख सकते, पकड़ नहीं सकते कि लो यह रखा है । कीड़ों जैसा रखा है । निगोद जैसी जिंदगी है । संज्ञी भी हो गये, पर अपर्याप्तक भी हो गए तो उससे फिर क्या सिद्धि होगी? सजी होने के बाद फिर विशेष मौ का मिला तो फिर पर्याप्त बन गया । पर्याप्त और संज्ञी तो बहुत से पशु हैं, पक्षी हैं । ऐसे ही बन गए तो भी वहाँ धर्मलाभ उत्कृष्ट नहीं है । पर्याप्त होने पर भी मनुष्यभव पा लेना और कठिन है । मनुष्य भी हो गए और देश मिल गया खोटा । खोले देश में जन्म हो गया तो क्या करोगे? बन गए मनुष्य और ठंडे मुल्क में, समुद्र के भीतर ऐसे टापू में, जहाँ कि कुछ उत्पन्न नहीं होता । ऐसे कुछ मनुष्य होते तो क्या सिद्धि थी? मनुष्य भी हो गये, पर उत्तम देश न मिला तो क्या ठोक रहा? और जिसे उत्तम देश भी मिल गया, उसे अब भी चैन नहीं रहती है । खोटे-खोटे जीव अपनी पर्यायों में आत्मबुद्धि करके चैन माना करते हैं, पर सम्यग्दृष्टि पुरुष वस्तु के यथार्थस्वरूप को जानता है । वह तुच्छ जनों से प्रीति नहीं करता । उत्तमदेश में उत्पन्न हो, वहाँ भी उत्तम कुल में उत्पन्न हों; इतनी तक की बातें बेकार हो सकती हैं, यदि शुद्ध उपदेश न मिला तो ।
भैया ! शुद्ध आत्मा का उपदेश मिलना यह सबसे कठिन बात है । सब मिल जाय पर शुद्ध आत्मा का उपदेश मिलना कठिन है । सो उत्तरोत्तर दुर्लभता के क्रम से यह अवसर मिला है । यह शुद्ध मानवजीवन मिला है, और इसे यों ही विषयों में गँवा दें तो यह तो रत्न पाकर खो देने के बराबर है । सो न्याय से उस काललब्धि को पा लो तो जैसा आगम में बताया है उस विधि से चलकर मोह को गलाओ । इस मोह से ही जीव पर संकट हैं । इस समय में हम आपने जो भव पाया है उसे दृष्टि देकर निरखों । मनुष्य हुए, उत्तम देश मिला । यदि समुद्र के किनारे उत्पन्न हुए होते या अन्य स्थान पर जहाँ केवल मांस से ही मनुष्य पेट भरा करते हैं; तो धर्म की बुद्धि कहां से आती? उत्तम देश पाया, उत्तम कुल पाया, पर मांस-मदिरा का जहाँ रिवाज है वहाँ यदि उत्पन्न होते तो यह आनंद कहां से आता? धर्म का आनंद अलौकिक आनंद है, सो इतना अलौकिक लाभ पाकर भैया ! धर्मधारण कर जीवन सफल करो ।
जैसे किसी पुरुष के गुण मरने के बाद या वियोग के बाद समझ में आते हैं । जब तक वह घर में रह रहा है तब तक उसके गुण समझ में नहीं आते हैं । इसी प्रकार धर्म का महत्व तब समझ में आता है जब संकटों से परेशान हो जायें । बिरला ही ज्ञानी पुरुष ऐसा होता है जो संकटों के पहले ही व्यवस्था बना ले । खैर ! तब भी धर्म में रुचि जगे सो भी भला है । मनुष्य का शरण एक धर्मधारण है । सब कुछ अनित्य है, विनाशीक है, मिट जाने वाला है, इससे आत्मा को कुछ लाभ न होगा । किन में अच्छा कहलवाने के लिए धन के संचय का परिश्रम किया जाय? आत्मशांति सबसे बड़ी चीज है । कदाचित् परिवार की जरूरी परेशानियों के कारण आत्मशांति को खोना पड़ रहा है तो विवेक यह कहता है कि उसको समझाओ । तुम आवश्यकताओं को कम कर दो । तत्त्व जरूरतें बढ़ाने में नहीं है । शौक, शान बढ़ाने में तत्त्व नहीं है । अपने धर्म को ओर रुचि करो । क्या गरीब पुरुष, छोटे पुरुष धर्मात्मा हों तो अपना गुजारा नहीं चलाते? बड़ी प्रसन्नता से चलाते हैं । किंतु जरूरत बढ़ाने के कारण बड़े-बड़े संक्लेश करने पड़ते हैं। परिवार को समझाओ यदि तुम्हारी जरूरतों की मनमानी के कारण हैरानी हुई तो समझलो कि यदि विरक्ति आ जायगी तो तुम सबको अकेले रहना पड़ेगा । सबको समझाओ, व्यवस्था ठीक करो, पर किसी प्रसंग में अपनी शांति भंग न करो ।
यदि शुद्ध आनंद रहेगा तो पुण्य तुरंत आगे आ जायगा और यदि अशांति ही रहती है तो उस बड़े वैभव से प्रयोजन क्या मिला? चाहते तो सब शांति के लिए ही हैं, मगर समागम से हो गई अशांति । अशांति का जीवन कोई सारभूत नहीं है । किस बात की परेशानी है? धर्म के लिए तुम्हारा ज्यादा समय क्यों नहीं लगता? धर्म में तुम्हारा चित्त क्यों अधिक नहीं लगता? सत्संगति में, गोष्ठी में अधिक चित्त क्यों नहीं लगता? क्या परेशानी है? विचार तो करो । परेशानी तो केवल एक ही सबको है कि मैं इन लोगों के बीच कुछ अच्छा पोजीशन वाला कहलाऊँ । सिवाय इसके और क्या परेशानी है? केवल एक की चर्चा नहीं है, इस रोग के रोगी 99 प्रतिशत हैं । जिनकी धुन है कि मैं सबके बीच अच्छी पोजीशन वाला कहलाऊँ । अपनी बात है, विचार करलो, पर यह तो बतलाओ कि किन लोगों में अच्छा कहलाने के लिए ऐसी धुन बनायी है कि जिसमें कष्ट और परेशानी रहा करती है? इसका उत्तर दो । किन लोगों में भला कहलाऊँ? ये दिखने वाले जितने हैं उनमें भला कहलाने के लिये? ये दिखने वाले सब क्या हैं? ये क्या सदा रहेंगे? ये यदि अच्छा कह दें तो क्या संकटों से पार हो जायेंगे? कौनसी बात उनसे भले की मिल जायगी? ये तो प्राय: हम आप से भी अधिक मलिन व अधिक दुःखी हैं । ये जितनी भी दृश्यमान चीजें हैं ऐसी ही सब समझो । समता भी कर लो तो यह सारा लोकसमूह [मनुष्यवर्ग] हम-आपसे भी अधिक मलिन एवं दुःखमय जीवन वाला है ।
जो स्वयं पापी हैं, मलिन हैं, जन्ममरण के चक्र में फंसे हैं, अज्ञानी हैं; ऐसे पुरुषों में अपना बड़प्पन रखने से क्या लाभ है? इनकी अपेक्षा तो एक ज्ञानी पुरुष की दृष्टि में बड़े बन जाओ तो वह ज्यादा लाभदायक है । हजारों लाखों अज्ञानियों की दृष्टि में हम बड़े बन जायें इसकी अपेक्षा एक-दो ज्ञानियों की दृष्टि में हम अच्छे कहला सकें यह ज्यादा लाभप्रद बात है । फिर देखिये, एक दो ज्ञानियों की बात क्या, यदि रत्नत्रयरूप परिणति रहेगी, ज्ञान व्यवस्थित रहेगा, निर्मल परिणमन होगा तो मैं अनंतज्ञानियों की दृष्टि में भला होऊँगा । हजारों मोही अज्ञानी, दुःखी पापी पुरुषों में भला दिख जाने से फायदा क्या है? भला दिखें तो उन अनंतज्ञानियों की दृष्टि में भला दिखें तब तो बड़प्पन है । जो स्वयं मोही हैं; मलिन हैं उनकी निगाह में भला कहलाने से कुछ बड़प्पन नहीं है ।
तो भैया ! आपने उत्तम कुल पाया और शुद्ध आत्मा का उपदेश पाया, कोई सा भी ग्रंथ उठा लो, छोटा या बडा कोई ग्रंथ ले लो, हर जगह वीतरागता का ही उपदेश है, पदार्थों के सम्यग्ज्ञान का ही उपदेश है । ये सब बातें पानी बड़ी कठिन हैं । काकतालीय न्याय की बात है । काकतालीय न्याय क्या कहलाता है? एक ताड़ का पेड़ था । ताड़ का फल जो है वह बड़ी मजबूत डंठल का होता है । उसका गिरना बहुत देर में होता है । दो-चार पत्थरों की चोट भी लग जाय तो मुश्किल से गिरता है, ऐसा है ताड़ का फल । उस पेड़ के ऊपर से एक कौवा निकला और जिस समय कौवा निकला उसी समय वह फल गिरा । लोगों ने कहा―देखो, कौवे के निकलने के कारण फल गिर गया । अरे ! ऐसे हजारों कौवे निकल जायें तो उनका क्या असर? दो बार पत्थर की चोट भी लगे तो भी कठिनता से गिरने वाला फल उस कौवे से गिर जाय यह बात नहीं हो सकती । 10, 20, 50 वर्ष में किसी जगह शायद ऐसी घटना हो जाय । उसी समय तो निकले कौवा और उसी समय फल गिर जाय । यह भी बहुत कठिन बात है ।
अपनी इस स्थिति की दुर्लभता समझने के लिये और दृष्टांत ले लो । बैलों के गर्दन पर जो जुवां रखते हैं उसमें चार छेद होते हैं । दो बैल जुटते हैं । दोनों तरफ उस जुवा में छेद होते हैं । उसमें लकड़ी फंसा देते हैं ताकि बैल कहीं निकल न जाय । एक बड़ी विशाल नदी के एक तरफ के किनारे पर जुवां फेंक दिया जाय और दूसरी तरफ के किनारे पर वह डंडा फेंक दिया जाय, जुवां में जो लगा रहता है और कदाचित् बहते-बहते उस जुवें में वह लकड़ी अपने आप फंस जाय तो ऐसी बात होना क्या सरल है? कितनी कठिन बात है? एक किनारे है जुवां और एक किनारे है डंडा और कहीं अपने आप बहकर उसमें लग जाय तो यह कितनी कठिन बात है? इससे भी कठिन बात है मनुष्यभव पाना ।
भैया ! संसार के जीवों पर दृष्टिपात तो करो । कितनी किस्म के जीव हैं? कैसी-कैसी पर्यायें हैं? कभी बिजली की रोशनी में ऐसा छोटा हरा कीड़ा होता है, इतना छोटा होता है कि जितना छोटा बताया नहीं जा सकता है । सूई के छेद से निकल जाय इतना छोटा कीड़ा होता है । कहीं बैठ जाए तो मालूम पड़ता है, कहीं दिखेगा नहीं । बस, काट लिया तौ दिखेगा कि यह है कीड़ा । इतना छोटा वह कीड़ा होता है । इससे बड़ी-बड़ी अवगाहना के बड़े समुद्रों में देखिए, पर्वतों पर देखिए । यह तो तिर्यन्चों की बात है । फिर और जो एकेंद्रिय हैं । किसकी हम कहानी कहें उन सब जीवों की अपेक्षा आप-हम कितनी महान् पदवी पर हैं, कुछ गौर तो करो । इतना श्रेष्ठ तन पाया है तो कल्याण के लिए है ।
और भी सोचो भैया ! आज 40-50-60 वर्ष के हम-आप हो गए, पर हम आपने अपने इस जीवन में ही कितनी बार जन्ममरण की दशा पाई होगी? कोई 50 वर्ष में, कोई 10 वर्ष में, कोई बीमारी में पड़ गया, कोई हिंदु-मुस्लिम दंगे में फंस गया, कोई पानी में डूबते बचा, कोई अग्नि में जलते बचा । कितनी-कितनी घटनाओं में मरण से बचकर आज यहाँ बैठे हैं । यदि उन दशाओं में किसी भी अवस्था में मरण हो गया होता तो हम और आपके लिए कहां का यह मंदिर और कहां का यह गांव और कहां का यह मोहल्ला होता? न जाने कहाँ पैदा हुए होते? तब तो यह समागम अपने लिये कुछ नहीं था । सो ऐसा मानकर भी कुछ समय पहले चेत जाओ ।
अहो ! इस जीव को सत्संग न मिलने के कारण, ज्ञानाभ्यास न किया जाने के कारण ऐसा मोह पड़ा हुआ है कि मरते दम तक भी यह मोह से छुटकारा नहीं पा सकता । कभी ये कोरा कपड़ा बुनते हैं ना? थान बनाते हैं । कभी किसी जुलाहे को ऐसा सुना है कि वह कपड़ा अंत तक बुन दे । वह उस कपड़े में अंत के चार अंगुल तक नहीं बुनता । उसमें चार अंगुल तक सूत बाहर निकला रहता है । कोरी भी चार अंगुल सूत को ताने में से अंत में छोड़ देता है । पर यह मोही जीव चार मिनट को भी मोह नहीं छोड़ सकता । मृत्यु का समय निकट है, फिर भी 10-5 मिनट को भी यह मोह नहीं छोड़ सकता । अच्छा, भाई ! न मोह छोड़ो, मगर इसका फल तो भव-भव में भटकना ही बना रहेगा । यदि इस मोह को यह नहीं छोड़ सकता तो संसार में इसे दुःख ही मिलते रहेंगे । अगर मर कर सूवर जैसे हो गये तो जिंदगीभर दु:ख ही रहेगा ।
भैया ! बड़ी गंभीर समस्या है इस जीवन को सफल बनाने की । इस मनुष्यजीवन को सफल बनाने के लिए यह कोई साधारण समस्या नहीं है । एक मन को संयत करने का भाव चाहिए । क्या कम खर्च से चले तो जिंदगी नहीं रह सकती है? जिंदगी तो बाह्य आडंबरों से ठीक नहीं चल सकती ।
जिंदगी तो ठीक चलेगी मनुष्य के लोकोपकार से । अच्छा तुलना कर लो । एक मनुष्य ऐसा है कि रेशम के बहुत बढ़िया कीमती कपड़े पहिनता है, पान से मुख रंगे रहता है, मोटर पर या मोटर साइकल पर घूमता है, अपने विषय साधनों में बड़ा चतुर है, पर वह किसी के काम नहीं आता है । एक पुरुष तो ऐसा सामने रखे लो और एक पुरुष ऐसा सामने रख लो कि जो अपना जीवन एक मध्यम पुरुष ने जीवन की तरह व्यतीत करता है । जैसे कि एक गरीब कर सकता है । मोटा खाना, मोटा पहिनना, साफ कपड़े पहिने । जिसके घर का खर्च बिल्कुल कम है और पुण्य से संपदा जो मिलती है उसका सदुपयोग करे । धर्म के लिए और उपकार के लिए, गरीबों की मदद के लिए और गुप्त सहायता के लिए । तो इन दोनों पुरुषों को सामने रख लो या ये सभा में दोनों पुरुष आ जायें तो भीतर से लोगों का आकर्षण किस पर होगा? दिल की बात बता दो । शान-शौक वाले, रेशमी कपड़े वाले पर आकर्षण तो क्या, भीतर में अनादर बुद्धि जगेगी? आ गया यह खुदगर्जी का पुतला । उसने काकतालीय न्याय से ऐसी काललब्धि पा ली है तो इसे पाकर जैसा पवित्र शासन में कहा गया है उसके अनुसार मिथ्यात्व, अविरति आदि के निकल जाने से जिस प्रकार परमात्मतत्त्व की उपलब्धि हो, मोह गले; उस प्रकार का काम करना चाहिए ।
एक, पुरुष का चित्रण मर्म में कीजिए । साधारण धनिक पुरुष है । उसके लड़के ने बड़े योग से विद्याभ्यास किया । कौनसी विद्या? लौकिक विद्या; बी0 ए0, एम0 ए0 पास हो गए । पहले इच्छा जगी कि मैं अमुक परीक्षा पास हो जाऊँ । केवल परीक्षा की धुन बन गई, ग्रेजुएट की उपाधि मिल गई । अब उसके बाद इच्छा होती है कि मुझे कोई अच्छा काम मिले । तो मालूम होता है कि विद्या से बढ़कर सुख, कोई बढ़िया काम मिलने में है । जब पहले सालभर का था, 6 माह का था तो उसे अपनी माता की गोद प्यारी थी । जब कोई भय हो तो झट वह अपनी माँ की गोद में छिपा रहता तो उसे पहले अपनी माँ की गोद भी उसे प्यारी होती थी । जब ढाई तीन वर्ष का होता है तो अब मां की गोद भी उसे प्यारी नहीं रही । जब 6-7 वर्ष का बालक हुआ तो विद्या पढ़ने की उसे इच्छा होती है । जब नई-नई बातें मालूम होती है तो उसे शौक होता है । अब उसका खेलने के खिलौने से भी प्यार नहीं रहता है । अब उसका चित्त लग गया विद्या में । जब 16-17 वर्ष का हुआ तब वह परीक्षा के लिए विद्या पड़ता है । अब उसे विद्या नहीं प्यारी रही, अब तो उसे परीक्षा प्यारी हो गई । उसका पढ़ने से मतलब नहीं है । उसका मतलब केवल परीक्षा में पास होने से है । एम0 ए0 की परीक्षा पास कर ली, अब उसे यह इच्छा होती है कि कोई अच्छी सर्विस मिले । अब सर्विस भी प्यारी नहीं रही । अब तो उसे कोई बढ़िया सर्विस प्यारी है । सर्विस के 2-4 साल बीते । उसके स्त्री की चाह हो गई । अब उसकी शादी हो गई, स्त्री प्रिय हो गई, फिर बच्चे हो गए । अब उसके पुत्र प्यारे हो गए, सर्विस भी प्यारी नहीं रही । क्योंजी ! काम-काज करते हुए दफ्तर में फोन आया । जल्दी घर आ जाओ । क्या हो गया सो अभी बताएँगे । बस, काम-काज छोड़कर घर चल दिया । अब उसे काम-काज प्यारा नहीं रहा । अब उसे ईंटों का पत्थर प्यारा हो गया । रास्ते में रोज बड़े पुरुष मिला करते थे और उनसे 2 मिनट बातें करके ही जाता था; पर उस समय बड़े पुरुषों से मिलना तो दूर रहा, उस तरफ दृष्टि भी नहीं करता है, तेजी से भागा जाता है । फोन आया कि घर में आग लग गई । अब वह क्या कहता है? निकालो सब धन, जल्दी निकालो । पहले नोटों की खबर लेगा । यही कहेगा कि जल्दी सामान निकालो । अब उसे पर से प्रेम नहीं रहा, क्योंकि जान रहा है कि सब जलकर खाक हो जायगा । अब उसे धन प्यारा हो गया । फिर बच्चों की खबर हुई तो धन छोड़ा, बच्चे निकालने लगा । धन का प्यार गया, कोई बच्चा घर के अंदर ही रह गया । आग तेजी से बढ़ रही है तो वह तड़फता है, चिल्लाता है, हाय सिपाहियों ! उसे छोटे बच्चे को जल्दी से निकाल दो । हम तुम्हें 25 हजार रुपया देंगे । और अगर वे कहें अरे भाई ! तुम्हें बच्चा प्यारा है तो तुम्हीं क्यों नहीं निकाल लाते हो ? सो देखो । अब उसे अपना शरीर प्यारा हो गया । और वही पुरुष कदाचित् वैराग्य पाकर साधु संत बन जाय और उसे शेरनी, स्यालनी खा रही हो तो उस समय वह किसकी रक्षा करता है? वह रक्षा करता है अपने ज्ञान की । मेरे ज्ञान में किसी प्रकार का विकल्प न जगे, मेरा ज्ञान केवल ज्ञाता दृष्टा रहे ऐसा उद्यम वह करता रहता है । अब उसके लिए शरीर से भी प्यारा क्या हो गया? ज्ञान ।
भैया ! अब ज्ञान से अधिक प्यारा क्या होगा सो आप बतलाओ । यहाँ तक तो हम ले आए । अब ज्ञान से बढ़कर कोई चीज हो तो बतलाओ । सभी हमीं हम तो न कहें ।
एक सेठ जी गुजर गए, सो घर में हो गई सेठानी विधवा । अब सभी लोग समझाने आए । देखो जो हुआ सो हुआ, अब चिंता मत करो । सेठानी ने मुखिया से कहा कि देखो ये 50 दुकानें हैं । इनका किराया कौन वसूल करेगा? मुखिया बोला, इसकी चिंता मत करो हम सब संभाल लेंगे । यह हजार गाय-भैंसों की डेयरी है इसका काम कौन संभाले? कोई घबराने की बात नहीं है, सब संभाल लेंगे । यह हजार एकड़ जमीन है, इसकी कौन व्यवस्था करेगा? कुछ घबड़ाओ मत, सब संभाल लेंगे । यह चार लाख का कर्जा देना है । सकी कौन व्यवस्था करेगा? तो वह मुखिया बोलता है, भैया ! सभी बातें तो हमीं कहते जायें, अब कोई दूसरा कहे । दूसरा कोई कुछ नहीं कहता । तो ज्ञान तक तो हम ले आए कि सबसे अधिक प्यारा है ज्ञान । अब ऐसी चीज और बतलाओ कि जिसके लिए लोग ज्ञान को भी अलाभकर समझते हैं । ऐसी कोई चीज नहीं है ते सबसे अधिक प्रिय चीज होती है ‘‘ज्ञान’’ । इसे छोड़ा, उसे छोड़ा, अंत में प्रिय मिला क्या? ‘‘ज्ञान’’ । तो ज्ञान सबसे अधिक प्रिय है ।
भैया ! जिन किन्हीं उपायों से यह मोह गले, गलो ! फिर इस प्रकार से जो शुद्धआत्मतत्त्व रह जाता है वह ही उपादेय है । ऐसी रुचि बने । इसी को कहते हैं सम्यक्त्व । सम्यक्त्व है या नहीं इसकी परीक्षा अपने आपकी आत्मा से कर लो । अंततोगत्वा आपकी अंतिम और प्रारंभिक मौलिक रुचि तो शुद्ध ज्ञानस्वभावरूप में रह जाने की जगती है तो सम्यक्त्व में कोई संदेह नहीं है । सोच लो, यदि इसमें कमी है तो अभी सब कमी है । यदि सम्यक्त्व नहीं है तो समझो सब व्यर्थ है । कौन क्या भला कर देगा? घर के लोग, मित्रजन ये सब बने-बने के साथी हैं । यह कोई गाली की बात नहीं कही जा रही है । स्वरूप ही ऐसा है । कौन आत्मा अपने प्रदेशों में होने वाले परिणमन को छोड़कर दूसरी आत्मा का परिणमन कर देगा? ऐसा है कोई? स्वयं ही वस्तु का यह स्वरूप है । जब यह फेक्ट है कि प्रत्येक पदार्थ केवल अपने परिणमन का स्वामी है तब तुम्हें अन्य पदार्थों में रुचि करने से लाभ क्या है? अपनी आंतरिक रुचि जगे बिना आत्मतत्त्व का श्रद्धान नहीं होता । घर बिगड़ता है और श्रद्धान बिगड़ता है तो दोनों बातें सामने आने पर घर के बिगड़ जाने का साहस तो कर लो, मगर अपना श्रद्धान और ज्ञान बिगड़ने की बात न आने दो तो समझो कि अब मुझे यह ज्ञान और श्रद्धान ही प्यारा है । प्रियपने की बात मुकाबले से देखी जाती है । ऐसे शुद्ध ज्ञानस्वरूप को जब यह ज्ञानी पुरुष मानता है, शुद्ध आत्मा में, कर्मों में और वैभव में भेदविज्ञान करता है तो समझ लीजिए कि सर्वसारभूत चीज मैंने ही प्राप्त की ।
यहाँ यह भावार्थ बतलाया है कि जिस उपादेयभूत शुद्ध आत्मतत्त्व की रुचि करने के परिणाम से यह जीव निश्चय सम्यग्दृष्टि हो जाता है वही शुद्ध आत्मा उपादेय है । आप सुन रहे हैं और सुनते हुए में कोई विचित्रताओं को लिए आनंद भी आता होगा तो वह आनंद इन शब्दों से नहीं आ रहा है । वे शब्द आपके ही ज्ञान, आपके ही अनुभव में उतर रहे हैं, उसका आनंद आपको होंता है, शब्दों का नहीं, वचनों का नहीं । यह आनंद तो आपकी अलौकिक कला का आनंद है । ऐसा अद्भुत परमार्थ आत्मीय आनंद जब प्राप्त होता है तब परमात्मा का मर्म साक्षात् स्पष्ट समझ में आ जाता है । अहो ! यह है परमात्मतत्त्व । अपने जीवन में किसी भी क्षण यदि उस अलौकिक आत्मज्योति के कभी दर्शन हो जाएँ तो समझो कि हमारा जन्म सफल है । विकल्पों से आत्मा की अनाकुलता का फल नहीं मिल सकता । इसको लौकिक फल तो स्वानुभव होता है । कोई बाधक नहीं है अपने आनंद में जीव खुद ही अपने आनंद में बाधा डाल लेता है ।
यदि परिवार की अड़चन मालूम करते हो तो जो घर में चार लोग हैं उनको भी धर्ममार्ग में लगा लिया जाय । फिर आनंद में बाधा ही न, आयेगी और कदाचित् घर के लोग उल्टे हों तो आप उपेक्षा कर जाये ना? और अपनी धुन में रहने लगें तो कौनसा कष्ट है? कौनसी परेशानी है? अपने आपको तो संभाल नहीं, सकते और दूसरों पर बात डालते हैं कि इन्होंने मुझे जकड़ लिया, है, पकड़ लिया है; दुःखी कर दिया है । अरे ! कोई जीव, किसी दूसरे जीव को दुःखी नहीं कर सकता । खुद ही की कल्पना से यह खुद दुःखी हो जाता है । ऐसा वस्तु का स्वरूप जानकर बाह्यपदार्थों का विकल्प छोड़ो, उन पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है । यदि उदय अच्छा है तो बाह्यपदार्थ आपके पास आवेंगे और यदि उदय अच्छा नहीं है तो संभाली हुई चीजें भी चली जावेंगी । उन बाह्यपदार्थों की क्या चिंता करते हो? ऐसा शुद्ध यदि ज्ञान है तो वही मुझे उपादेय है ।
कोई जीव केवल अपने शुद्धस्वभाव में दृष्टि करो तो वह सम्यग्दृष्टि होता है । वह सम्यग्दृष्टि पुरुष किस भेदभावना को करता है जिस भेदभावना के प्रसाद से मिथ्यात्व गल गया है, गल जाता है, उस भावना का इन दोहों में वर्णन है ।