वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 84
From जैनकोष
दुक्खहं कारणि जे विसय ते सुहहेउ रमेइ ।
मिच्छादिट्ठिउ जीवडउ इत्थु ण काइं करेइ ।।84।।
दुःखों का कारणभूत जो विषय हैं उनसे सुख पाने के लिए यह मिथ्यादृष्टि जीव उनमें रमता है । विषय सुख के लिए है, ऐसी कल्पना कर ली गई । सो दुःखों के कारणभूत जो विषय है उन विषयों को सुख के हेतुभूत मानकर वह उनमें रमता है । कौन रमता है? मिथ्यादृष्टि जीव । इंद्रियों के विषयभूत जो पदार्थ हैं उन्हें देखो―परखो । वे क्लेश के ही कारण सिद्ध होंगे । बहुत बढ़िया राग सुना । जब सुन रहे हैं, सुहा रहा है तो मन में एक हर्ष की उछल पैदा होती है । वह हर्ष की उछल आनंद नहीं है, वह दुःख है । दुःख होता है तब यह जीव उछलता है । और शांति हो तो यह जीव विश्राम पाता है । तो चाहे राग सुनने में बढ़िया बन जाय और उसमें उछलकूद होने लगे तो भी यह प्रवृत्ति शांति से होती है या दुःख के कारण होती है? दुःख के कारण होती है । पर यह मोही जीव उस दुःख का अंदाज नहीं करता ।
भैया ! विषयों में जितनी प्रवृत्ति होती है वह वेदना न सह सकने के कारण होती है । इच्छा हुई कि मैं बढ़िया गाना सुनूं, बढ़िया गाना गाऊँ । तो इस इच्छा की ऐसी वेदना हुई कि उस वेदना को वह बरदाश्त न कर सका । स्वयं गाना सुनाना शुरू कर दिया या सुनना शुरु कर दिया । अगर विश्राम में होता तो न गाने की प्रवृत्ति करता और न सुनने की प्रवृत्ति करता । चक्षुरिंद्रिय का विषय देखो । इच्छा कुछ हो गई, सिनेमा देखना या अमुक खेल देखना या अमुक रूप देखना । तो देखने की इच्छा से एक वेदना उत्पन्न हुई । उस वेदना को बरदाश्त नहीं कर सका, सो वह देखने लगता है । तो शांति से कोई देखता है क्या? नहीं, वेदना उत्पन्न होता है तब देखता है । तो ये सब कार्य वेदना से होते हैं ।
अब एक व्यर्थ की बात और देख लो―बढ़िया इत्र सूंघ लिया । इत्र सूंघने में कुछ अटका था क्या? यदि नाक में इत्र की सुगंध न जाती तो वह दुर्बल हो जाता क्या? कोई वेदना बन रही थी सो इत्र को सूंघे बना यह विश्राम नहीं लेता । बढ़िया चाहिए, इससे बढ़िया सेन्ट गुलाब चाहिए । अरे ! नाक में इनकी सुगंध डाले बिना कुछ अटका तो नहीं था । मगर वेदना जो उत्पन्न हुई उसको बरदाश्त नहीं कर सका । सुखी कौन है? जो दुःखी है वह तो दुःखी ही है, किंतु जिसको आराम है
वह आराम में सौ 20 इच्छाएँ पैदा किया करता है । नाना मन जो चलते मैं वे आराम में ही तो चलते हैं । यह जो मन चला वह वेदना के कारण ही तो चला, अगर मलार में वेदना न जगती तो इन विषयों में मन क्यों लगता?
रसना इंद्रिय की बात देखो । मीठा खाने को मिल गया । उस काल में खाने की वेदना को नहीं सह सका, उस इच्छा को नहीं सह सका, इसलिए कमाने की प्रवृत्ति का पर परिणाम क्या निकला? पहली बात तो यह है कि खर्चा अधिक बढ़ा तो कमाने की चिंता बढ़ी । नाना प्रकार का भोजन किया, स्वाद लिया तो उसमें तो खर्चा ही बढ़ता है । खर्चा बढ़ा तो शल्य हुआ, कमाने की और चिंता बढ़ी । फिरें खर्च करने पर भी चीजें नहीं मिला करती हैं । मीठा एवं स्वाद वाला भोजन करने में शांति भी नही मिलती है । खूब सटक-सटक कर खा रहे हैं, खाने में भी बड़ी वेदना हुआ करती है । शांतिपूर्वक धीरे-धीरे नहीं खा सकते हैं । बिना वेदना के कोई भोजन करने में सड़फ-सड़फ करेगा क्या? तो खाने की जो धुन बनती है वह वेदना के कारण बनती है । और खा लिया मीठा, पी लिया मीठा, मीठा दूध, मीठा रस पी लिया, पकवान का स्वाद ले लिया । आसक्ति में मात्रा से अधिक ले लिया जाता है तो अंत में वह अवगुण करता है, बीमार बनाता है, आलसी बनाता है और उसका फल कुछ अच्छा नहीं निकलता है ।
ऐसी ही स्पर्शन इंद्रिय की बात है । इन सब इंद्रियों और मन के जो विषय हैं ये वेदना के कारण भोगे जाते हैं । कुछ बड़प्पन के कारण नहीं भोगे जाते हैं । दुःखी हैं इसलिए इंद्रियों में लगते हैं । जैसे किसी को बुखार हो तो वह चाहता है कि मैं पसीना लूं और जिसे बुखार नहीं है वह पसीना लेने का उद्यम करता है क्या? नहीं । जिसके फोड़ा या घाव हो वही मलहम पट्टी बांधता है । और जिसका हाथ साफ है वह क्या मलहम पट्टी बांधेगा? नहीं । जिसकी आंखों में जरा कम रोशनी होगी वही अंजन लगायेगा । जिसके कान बहिरे होंगे वही बकरे का मूत्र कान में डालेगा । और जिसको कोई रोग नहीं है वह कोई इलाज नहीं चाहेगा । तो जैसे वेदना बिना ये उपचार नहीं बनते हैं इसी तरह विषयों की वेदना के बिना विषय भोगते नहीं बनते ।
वह जीव धन्य हैं जिनको अल्पायु में ही विषयों में उपेक्षा―बुद्धि होती है और त्याग, व्रत, संयमपूर्वक अपना जीवन निभाते हैं । सारभूत मार्ग यही है । जो जब चेते तभी भला है । तो दु:खों के कारणभूत जो ये विषय हैं उन विषयों के सुख के अर्थ बहिरात्मा ही प्राप्त करते हैं और उनमें रमते हैं तथा उन दुःखों के स्वरूप वाली बुद्धि को वे निश्चय से सुखरूप ही मानते हैं । मिथ्यादृष्टि जीव अपने विषयों की पूर्ति के लिए कौन-कौन से पापों को नहीं करता है? अर्थात् वह सभी पापों को करता है । अब यहाँ तात्पर्य यह मानो कि यह मिथ्यादृष्टि जीव अपने आत्मा के असली सुख का अंत नहीं पा सकता । जिस सुख से परम समता का रस झरता है, रागद्वेषरहित, विकल्परहित शुद्ध ज्ञानमात्र आत्मस्वभाव की भावना से एक अलौकिक आनंद प्रकट होता है, उस आनंद को तो मिथ्यादृष्टि ने जाना नहीं अत: वे दुःखरूप जो विषय हैं उनको सुख का कारण मानते हैं ।
जैसे एक छोटा बालक बड़े बालक को गाली देता है और बड़ा बालक उसके चांटे रसीद कर देगा । तो चाहे वह दुःख न सह सके पर यही उपाय करेगा कि और गाली दे दें । तो गाली तो उसके लिए दुःख का कारण है, पर वह गाली देने को सुख का कारण मानता है । पिटने के बाद जो दुःख उत्पन्न हुआ उस दु:ख का इलाज वह गाली देना ही समझता है । तो फिर गाली देता है और पिटता है । फिर पिटने की वेदना नहीं सह सका तो पिटने की वेदना का दुःख दूर करने का उपाय उसने गाली देना समझा तो फिर गाली दी । इसी तरह जीव के विषयों की इच्छा से तो दुःख उत्पन्न हुआ और उस दुःख को मेटने के लिए विषयों की वांछा करता है तो यों यह मिथ्यादृष्टि जीव विषयों को भोगता है । तीन प्रकार की आत्मा का प्रतिपादन करने वाले इस महाधिकार में मिथ्यादृष्टि जीव की परिणति का व्याख्यान किया । मिथ्यादृष्टि की कैसी चर्या है? कैसा विचार है? कैसा लक्ष्य है? इन सब बातों का यहाँ वर्णन किया जा चुका है ।
अब सम्यग्दृष्टि जीव की कैसी भावना होती है? इसके व्याख्यान की मुख्यता करके अब आगे 8 सही में सम्यग्दृष्टि की चर्या बतायेंगे ।