वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 104
From जैनकोष
हिंसाया: स्तेयस्य च नाव्याप्तिः सुघट एव सा यस्मात् ।
ग्रहणे प्रमत्तयोगो द्रव्यस्य स्वीकृतस्यान्यै: ।।104।।
चोरी में हिंसा की व्याप्ति―जहां चोरी है वहां हिंसा है, इस लक्षण में कोई दोष नही है, आध्यात्मिक दोष । भी नहीं आता, क्योंकि सर्वत्र देख लो―जो चोरी करता है उसके परिणामों में कषाय अवश्य है । शांति से निष्कषाय भाव से कोई चोरी नहीं कर सकता । तो जहां-जहां चोरी है वहां-वहां हिंसा है, इस लक्षण में अभीष्ट दोष नहीं है, क्योंकि कषाय योग के बिना चोरी होती ही नही है । दूसरा कोई पुरुष किसी का धन हर ले, धोखा दे-दे, ऐसी कषाय भरी वेग भरी प्रवृति कर डाले, और कषाय न हो चित्त में, तो यह बात तो नहीं हो सकती, इससे चोरी पापकर्म पाप नहीं है, वह हिंसा भी है और चोरी भी है, तो सारे के सारे पाप हिंसा दोष वाले हैं । हिंसा के सिवाय और दोष क्या कहलायेगा? अपने तथा दूसरे के प्राणों का पीड़ना यह तो हिंसा है और ये जो चार तरह के पाप और बताये―झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह । ये लोगों को समझाने के लिये बताये कि ये काम करने में भी हिंसा होती है । दूसरे का वध करने में भी हिंसा होती है और झूठ बोलना, चोरी करना, कुशील सेवन करना और परिग्रह जोड़ना, इनमें भी हिंसा है क्योंकि अपने स्वभाव की हिंसा है, अपने स्वभाव से वह विपरीत चला गया इससे उसने खुद की हिंसा कर दी ।