वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 103
From जैनकोष
अर्था नाम य एते प्राणा एते वहिश्चरा: पुंसाम् ।
हरति स तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हरत्यर्थान् ।।103।।
चोरी में हिंसा का दोष लगने का कारण―जो पुरुष किसी दूसरे के पदार्थ को हरता है वह उस जीव के प्राण हरता है क्योंकि धनादिक वैभव इस पुरुष के बाह्य प्राण हैं । यद्यपि धन द्रव्य प्राणों में कोई भी प्राण नहीं है । प्राण 10 हैं―5 इंद्रिय, 3 बल, आयु और श्वासोच्छ᳭वास । लोग धन को भी प्राणों से प्यारा समझते हैं । उस धन के कारण प्राण तक चले जाते हैं । एक पंजाब की घटना है, एक आदमी गेहूँ बेचकर हजार रुपये लाया, उन हजार रुपयों की गड्डी बनी थी । जाड़े के दिन । सो आग के किनारे जा बैठा ताप रहा था । बच्चे के हाथ में वह गड्डी खेलने को दे दी । उस बच्चे ने नासमझी के कारण उस गड्डी को आग में डाल दिया । उसे इतना क्रोध आया कि उस बच्चे को भी आग की भट्टी में पटक दिया । वह बच्चा मर गया । तो यह धन इस मनुष्य को प्राणों से प्यारा है । जिसने किसी दूसरे का धन हरा, उसने दूसरे का प्राण हरा, यों समझना चाहिये । संसारी जीव के जैसे जीने के कारणभूत इंद्रियां हैं इसी तरह धन संपत्ति मंदिर पृथ्वी आदिक ये जितने पदार्थ पाये जाते हैं ये भी उनके प्राण के कारण भूत हैं । इनमें मे कोई एक भी चीज पुरा ले तो इससे उन जीवों के प्राणघात की तरह दुःख होता है । जैसे कोई मर्म छेदकर उसमें जो पीड़ा होती है उतनी ही पीड़ा धन के वियोग में होती है । ऐसे बाह्यभूत धन को कोई ग्रहण करे तो वह चोरी है और वह अपनी और दूसरे की हिंसा करता है ।