वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 114
From जैनकोष
एवमतिव्याप्ति: स्यात्परिग्रहस्येति चेद्भवेनैवम् ।
यस्मादकषायाणां कर्मग्रहणे न मूर्छाऽस्ति ।।114।।
परिग्रह के मूर्छालक्षण में अतिव्याप्ति दोष का अभाव―कोई ऐसा प्रश्न करे कि बाह्य पदार्थों को अगर द्रव्य परिग्रह मान लिया जाये तो वीतराग अरहंत भगवान जिनके समवशरण की इतनी बड़ी विभूति है उन्हें भी परिग्रही कहना चाहिये । क्योंकि बाह्य परिग्रह में भी कारण में कार्य का उपचार करने से परिग्रह नामक दोष लगता है, वह द्रव्यपरिग्रह है, तो द्रव्यपरिग्रह तो अरहंत भगवान के लग रहा है, फिर उन्हें परिग्रही कहना चाहिये । उसके उत्तर में यह कह रहे हैं कि वे कषायरहित पुरुष हैं, निर्दोष हैं । निर्दोष ऋषिजनों को किसी कारण से कर्मवर्गणाओं का ग्रहण हो भी रहा है तो भी उनमें मूर्छा नहीं है । जहा-जहां मूर्छा है वहां-वहां नियम से परिग्रह है, तो वीतराग पुरुषों के जो आस्रव चलता है यह ईर्यापथ कहलाता है । अर्थात् आया और निकल गया । आत्मा में ठहरता नहीं है इसलिए बंध नहीं है और उसी समय आया, उसी समय निकल गया, मायने एक समय लगा तो उसे बंध नहीं कहते हैं । तो ऐसी व्याप्ति घटाना कि जहां-जहां मूर्छा नहीं है वहां-वहां परिग्रह नहीं है और जहां-जहां परिग्रह है वहां-वहां मूर्छा अवश्य है । कोई कहे कि हमने तो ज्ञान कर लिया, हम जानते हैं कि पुद्गल पुद्गल है, आत्मा आत्मा है, बाह्य पदार्थ बाह्य है, मैं उनसे न्यारा हूँ, बाह्य पदार्थ मेरे कुछ नहीं लगते, मेरे परिग्रह का दोष नहीं है, ऐसा कोई कहे तो उसकी बात यों असत्य है कि फिर किस परिणाम की प्रेरणा से ये धन, घर, वस्त्र आदिक लाद रखा है? अगर मूर्छा रहित हों तो परिग्रह का संचय नहीं कर सकते हैं । जहाँ जहां बाह्य परिग्रह रखे जा रहे हैं वहाँ-वहाँ नियम से मूर्छा है । और जहाँ मूर्छा नहीं हैं वहाँ परिग्रह नहीं है । वीतराग सर्वज्ञदेव के जो भी समवशरण आदिक होते हैं उनकी रचना इंद्रादिक देव करते हैं, वे खुशियां भी मनाते, सारे कार्य करते तो उनके क्या वह परिग्रह लग जायेगा? कभी नहीं, वीतराग सर्वज्ञ के उसका परिग्रह नहीं लग सकता । इसलिए यह सिद्ध है कि जहाँ मूर्छा है वहां नियम से परिग्रह है । मूर्छा परिणाम पशुवों के भी हैं । एकेंद्रिय दो एकेंद्रिय जीवों के भी है । तो जहाँ मूर्छा है वहाँ परिग्रह है । यह बताया था अभी कि समवशरण आदिक जो रचे जाते हैं उसका परिग्रह दोष किसे लगता है? आखिर चीज तो बाहर है बाह्यपरिग्रह है । समवसरण आदिक की विभूति में जिसका मूर्छा का परिणाम जगता है उसका परिग्रह है । ये समवशरण इंद्र कुबेर आदिक द्वारा चौथे काल में रचे जाते थे, आज पंचमकाल में तो नहीं रचे जाते, आज कल तीर्थंकर भगवान नहीं होते तो उनका समवशरण भी नहीं है, लेकिन वे देव इंद्र कुबेर आदिक अब निवृत्तकार्य नहीं हैं कि चलो उनका यह काम समाप्त हो गया, वे आराम से रहें । उन्हें तो प्रभु सेवा में रहकर बड़ा आराम मिलता है । ढाई द्वीप में जन्म कल्याणक, तप कल्याणक, गर्भकल्याणक मनाना आदिक चलता रहता है । भरत ऐरावत क्षेत्र में तो एक समय में थोड़े ही तीर्थंकर होते हैं । जैसे ढाई द्वीप में 5 भरत क्षेत्र हैं, 5 ऐरावत क्षेत्र हैं तो अधिक से अधिक 10 तीर्थंकर होते हैं, किंतु विदेह क्षेत्र में 160 नगरी हैं, वहाँ एक-एक तीर्थंकर हो तो 160 तीर्थंकर एक समय में ही सकते हैं, तो उन देवों को भगवान की सेवा करने का अवसर मिल जाता है, तो बे देव धर्मकार्य में लगे रहते हैं, समवशरण की रचना किया करते हैं । जैसे यहाँ के 5 कल्याणक के धारी तीर्थंकर होते हैं, विदेह क्षेत्र में भी 5 कल्याणक के धारी होते हैं प्राय: करके । किसी ने गृहस्थावस्था में तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया तो उसको गर्भ व जन्म कल्याणक नहीं मिला । उनके तप कल्याणक, ज्ञान कल्याणक और निर्वाण कल्याणक होते हैं । किसी ने मुनिपद में तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया तो उसके सिर्फ ज्ञान व निर्वाण―ये 2 कल्याणक होते हैं । ऐसे कम कल्याणक वाले तीर्थंकर कम ही होते हैं । अधिकतर 5 कल्याणक के धारी तीर्थकर होते हैं । 160 तीर्थंकर वहाँ एक समय में हो सकते हैं, पर कम से कम 20 सदा रहते हैं, उसका कारण है कि विदेहक्षेत्र 5 हैं और उनके दो-दो भाग हो गए-―एक पूरब और एक पश्चिम । पूरब में 16 नगरी, पश्चिम में 16 नगरी, यों प्रत्येक विदेह में 32 नगरी हैं, यों 5 विदेह के 160 नगरी होती हैं । तो कहा यह गया कि जहाँ मूर्छा है उसके परिग्रह है । समवशरण रचने वाले देव तो चाहे परिग्रही हौ जायें, परंतु वीतराग सर्वज्ञदेव के मूर्छा नहीं है इस कारण उनके परिग्रह का दोष नहीं है ।