वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 123
From जैनकोष
माधुर्यप्रीति: किल दुग्धे मंदैव मंदमाधुर्ये ।
सैवात्कटमाधुर्ये खंडे व्यपदिश्यते तीव्रा ।।123꠰।
कारणविशेष से कार्यविशेष होने का एक उदाहरणरूप में विवरण―जो मंद मिठास वाली चीज है उसकी मिठास में रुचि थोड़ी होती है और जिसमें मिठास अधिक है उसमें मीठा खाने की रुचि विशेष होती है । इस बात में दृष्टांत देते हैं दूध और खांड का । दूध में कम मिठास है और खांड में अधिक मिठास है । तो दूध की अपेक्षा खांड खाने की रुचि ज्यादा होगी क्योंकि उसमें मिठास अधिक है । मिठाई जैसी चीज के सामने यह परिणाम रहता है कि मैं अधिक से अधिक खाऊं । तो जैसे मीठा रस के लोलुपी पुरुष को दूध की अपेक्षा शक्कर में अधिक प्रीति होती है ऐसे ही समझो कि बाह्य परिग्रह में जो अल्प रुचि वाले पुरुष हैं उनका परिणाम अल्प होता है और जो विशेष रुचि वाले हैं उनमें विशेष रुचि होती है । तो जैसी रुचि होती है वैसा ही परिग्रह का पाप लगता है । अंतरंग में रुचि कम है बाल के प्रति तो परिग्रह का दोष कम बताया है । जैसे कोई बड़ा साफ कपड़े पहिने है तो वह किसी भी जगह हो, बिना कोई कपड़ा बिछाये बैठने की इच्छा न करेगा उसे उस साफ कीमती कपड़े से बड़ी प्रीति है ना, और यदि सीधे सादे कम कीमत के कपड़े कोई पहिने है तो वह जहाँ चाहे बैठ जाता हे, उसे उन वस्त्रों से प्रीति नहीं है । तो ऐसे ही समझिये कि अगर बाह्य में बहुत आरंभ, बहुत परिग्रह, बहुत व्यापार हो रहा है तो उसमें ममत्व अधिक होता है और यदि परिग्रह अल्प हो रहा तो ममत्व भी अल्प हो रहा है । किसी-किसी पुरुष के परिग्रह के अल्प होते हुए भी अभिलाषा ज्यादा हो सकती है । कोई यह कहे कि परिग्रह तो थोड़ा है और इच्छा ज्यादा लग रही है तो वह इच्छा अगले परिग्रह की कर रहा है । वर्तमान में जो भी परिग्रह उसके पास है उसकी इच्छा वह नहीं कर रहा है । भविष्य में हमें अधिक परिग्रह मिले, इसकी इच्छा होती है । जिसके पास वर्तमान में ज्यादा परिग्रह नहीं है मगर इच्छा है तो देख लो कितना परिग्रह लदा है? जहाँ बहुत परिग्रह है, आरंभ अधिक है, मूर्छा अधिक है ꠰ जो परिग्रह कम हो तो मूर्छा भी कम होती है । जिसके परिग्रह के प्रति मूर्छा है उसे उस परिग्रह का पाप लगता है । तो परिग्रह में भी हिंसा होती है क्योंकि परिग्रह में बेहोशी रहती है, बेसुधी रहती है । जो बेसुध पुरुष है उसे नियम से हिंसा लगती है ।