वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 124
From जैनकोष
तत्त्वार्थाश्रद्धाने निर्युक्तं प्रथममेव मिथ्यात्वम् ।
सम्यग्दर्शनचौरा: प्रथमकषायाश्च चत्वार: ।।124।।
मिथ्यात्व व अनंतानुबंधी क्रोध मान माया लोभ परिग्रह की सम्यक्त्वघातकता―अब देखिये धर्मपालन की विधि यह है कि पहिले तो सम्यक्त्व उत्पन्न हो, बाद में चारित्र परिणाम होता है । पर ऐसा न सोचकर कोई कहे कि मुझे सम्यग्दर्शन तो तब होगा जब मैं चरित्र धारण करूंगा, क्योंकि प्रथम तो सम्यग्दर्शन होने न होने का कोई यथार्थ निर्णय नहीं कर सकता, क्योंकि सम्यग्दर्शन होने पर भी अपनी गल्तियां नजर आती हैं और किसी के सम्यक्त्व न भी हो, और बुद्धि में आ रहा हो कि मैं तो सम्यग्दृष्टि हूँ, मैंने तो शुद्ध बुद्ध, निरंजन आत्मा को जान लिया है । सम्यक्त्व नहीं भी हुआ और चरित्र पालन करे तो कुछ मंद कषाय तो हुई तभी तो उसने चारित्रपालन किया है । जब कषाय मंद है तभी तो परिग्रह कम रखा है, अनशन व्रत आदिक करता है, खाने पीने की चीजों की भी बड़ी छोड़छाड़ करता है । तो सम्यक्त्व न भी हो और चारित्र कोई पालन करे तो बिल्कुल व्यर्थ तो जाता नहीं मंद कषाय का लाभ तो मिलता ही है और उसी सिलसिले में गुरुजनों का उपदेश चित्त में बैठ जाये तो सम्यक्त्व की प्राप्ति भी हो सकती है । पहिले सम्यक्त्व धारण करना चाहिए, सम्यक्त्व होगा तो कषायें मंद होंगी, पुण्य समागम मिलेंगे, धर्मात्मावों का समागम मिलेगा । अत: चरित्र संयम धारण करना अच्छा ही है किंतु मोक्षमार्ग की जो विधि है वह इस प्रकार कि पहिले तो तत्त्वार्थ का श्रद्धान हो, फिर चारित्र का ग्रहण हो । सम्यक्त्व के न होने में तत्त्वार्थ का श्रद्धान न होने में मिथ्यात्व कारण है । इस कारण मिथ्यात्व सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में बाधक है । सम्यग्दर्शन को चुराने में क्रोध, मान, माया, लोभ ये चारों कषायें कारण हैं । अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ ये कषायें सम्यग्दर्शन को चुराने वाली हैं । अर्थात ये 7 प्रकृतियां सम्यग्दर्शन का घात करने वाली हैं । तो कोशिश यह करें कि अपना परिणाम विशुद्ध करें, तत्त्वज्ञान की बात करें, देह और आत्मा में भेद विज्ञान रखें, परवस्तुओं का त्याग करें, आत्मस्वरूप का ग्रहण करें तो ये मिथ्यात्व और कषायें जहाँ दूर होती हैं वहाँ सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है । साथ ही यह भी जानना कि इन 7 प्रकृतियों का क्षय हो इस पथ में आने में किसी प्रकार के विशुद्ध परिणाम भी निमित्त होते हैं सो किन्हीं विशुद्ध परिणामों से सप्त प्रकृतियों का क्षय होता व क्षय से सम्यक्त्वरूप विशुद्ध परिणाम होता । दोनों तरफ से यही बात जानना चाहिए । अब भैया ! कर्मों का क्षय अक्षय हम तो कर नहीं सकते, उसे कोई देखते भी नहीं, वे पर पदार्थ हैं, सो करना चाहिए अपना परिणाम ही विशुद्ध । विशुद्ध परिणाम किये हुए जब जो बाह्य होता है हो जायेगा । मगर कोई यह सोचे कि मैं अष्टकर्मों का नाश कर डालूं, मैं अमुक विधान न करूंगा तो यों 8 कर्मों को देखने निरखने, सोचने से कहीं उनका नाश नहीं होता । अपने परिणाम विशुद्ध बने, परवस्तुवों का परित्याग रखें अपने ज्ञानस्वरूप में ही अपनी आत्मीयता जगे तो अष्टकर्म ध्वस्त हो सकते हैं । तो अपने आपकी संभाल करने की जरूरत है । अपने आपकी संभाल में लगे बाकी जों होना हो, हौं । किसी साधु को नहीं भी पता है कि 8वें तथा 10वें गुणस्थान में कैसे क्षय होता है, तो नहीं पता है, न सही, लेकिन जो साधु अपना परिणाम निर्मल रखेगा उसका वह काम जरूर होगा । अपने परिणाम विशुद्ध रखें, अहिंसामयी परिणाम रखें तो कर्मप्रकृतियाँ नष्ट होंगी, सम्यक्त्व का लाभ होगा और मोक्षमार्ग मिलेगा ।