वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 164
From जैनकोष
संग्रहमुच्चस्थानं पादोदकमर्चनं प्रमाणं च ।
वाक्कायमन:शुद्धिरेषणशुद्धिश्च विधिमाहु: ।।164।।
पात्रों को नवधाभक्तिपूर्वक आहारदान करने का उपदेश―अतिथि सम्विभागव्रत को शिक्षाव्रत में लिया है ꠰ शिक्षाव्रत उसे कहते हैं जिससे मुनिधर्म की शिक्षा मिले । तो विधिपूर्वक जो साधुवों को दान देगा वह श्रावकों से आहारदान लेने की विधि अच्छी जान जायेगा और वह निर्दोष उसे ग्रहण कर लेगा । तो उससे मुनिधर्म की शिक्षा मिली ना ? जो मुनियों को आहारदान देता है वह जब मुनि बनेगा तो आहार दान लेने की निर्दोषविधि उसे खुब याद रहेगी । दूसरे बीच-बीच में उनकी मुद्रा प्रक्रिया को निरखकर साथ ही उस आहार क्रिया के भीतर भी कब 7वां गुणस्थान में आया, कब छठें गुणस्थान में आ गया, इन बातों का भी अनुमान उनके संकेत से निरख लेता है तो उसके बहुत उत्कृष्ट गुणानुराग होता है । भोजन करने में कम से कम 20-25 मिनट तो लगते ही हैं । और छठे गुणस्थान का समय 20-25 मिनट का नहीं है । उसका तो सेकेंडों का ही समय है । 7वें गुणस्थान के बाद छठा गुणस्थान और छठे के बाद 7वां गुणस्थान यह बराबर चलता रहता है । तो इतने 20-25 मिनट के भीतर वह कैसे प्रमत्तदशा में और कैसे अप्रमत्त दशा में पहुंचता है? यह सब एक धर्मलीला भी श्रावक निरखता रहता है और उसके पहिले उत्कृष्ट गुणानुराग में पहुंचता है विधि में बताया है कि सबसे पहिले प्रतिग्रहण करे । पहिले तो साधु को बुलाये अब प्रतिग्रहण में जो विधि है किस तरह बुलाना, किस तरह बुलाकर भीतर ले जाना यह सब प्रतिग्रहण कहलाता है । भीतर ले जाने के बाद फिर उच्च स्थान देना, इसके बाद फिर पैर धोना, पादप्रक्षालन करना इसके बाद अर्चन पूजन गुणस्तवन, इसके पश्चात् प्रणाम नमस्कार करे, फिर मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और आहारशुद्धि बोले । इस प्रकार यह नवधाभक्ति हुई । अब जरा एक साधारण दृष्टि से विचारों तो मामूली गृहस्थ को भी किसी रिश्तेदार को आप खिलाते हैं तो इन 9 बातों की झलक उसमें भी आ जाती है । थोड़े रूप में आप बोलेंगे चलिये साहब भोजन करने के लिए । वहाँ ले जाकर ऊंचे आसन पर भी बिठायेंगे, चाहे पलंग हो चाहे गद᳭दा हो अथवा कुर्सी हो । फिर आप जब उसे भोजनशाला में ले जायेंगे तो पैर धुलायेंगे अथवा खुद धो देंगे । भोजन करते के समय बीच-बीच में आप अच्छे शब्द बोलते ही हैं । प्रमाण की तरह उसके साथ झुकने व्यवहार करने की बात भी आप करते हैं । यदि इस प्रकार का आदर आप नहीं करते तो वह महिमान भोजन करने की चाह भी मन में नहीं रखता । उसे यदि पता पड़ जाये कि बिना मन के खिला रहे हैं तो उससे रोटी नहीं चलती । फिर शरीर शुद्धि भी उसके अनुकूल है जैसा कि वह महिमान है । कुछ ढंग से रहे, कुछ और और काम करता हुआ न खिलाये । तो कम से कम इतनी शरीर की शुद्धि तो हर एक महिमान के लिए करनी होती है कि आहार कराते समय और काम न करे, वहाँ ध्यान रखे और साधारण रूप से इन 9 बातों की झलक करीब-करीब सबमें आती है, लेकिन यह धर्मात्मा गुरुवों का प्रकरण है । उनके लिए इत बातों की बड़ी विशेषता होनी चाहिये । उत्तम पात्र को 9 प्रकार की भक्ति से दान देना चाहिए और सामान्य पात्र को अपने और उनके गुणों को विचारकर यथोचित विधि से दान देना चाहिए ।
अपात्र पापीजनों के आदर का अर्थ पाप का आदर―जो अपात्र हैं, मिथ्यादृष्टि जन हैं उनके लिये ये कुछ भी क्रियायें न करना चाहिए । अगर पापी पुरुष का आदर किया तो उसके मायने यह हो गये कि पाप में आदर बुद्धि हुई । तो उसमें एक तरह से पाप का दोष लगता है । जैसे जो लोग उपदेश करते हैं कि भाई गोहत्या बंद हो तो सबसे पहिले उनके लिए यह कहना पड़ता है कि तुम भी चमड़े की चीजों का त्याग करो । अगर चमड़े की चीजों का त्याग नहीं करते तो उसका अर्थ है कि गोहत्या में वे सहायक हैं । इसी तरह पापी जीवों का आदर करने में पाप को प्रश्रय दिया है और लोग देखने वाले उससे प्रभावित होंगे । वे अपनी पाप में परिणति बनायेंगे । इस कारण से जो पापरूप है, पाप के आश्रय हैं, मिथ्यादृष्टिजन हैं, अज्ञानी हैं, उनका आदर करने से और आदर करके दान करने से पहिले पाप में अनुराग होता है, पाप का बंध होता है । उन्हें भूखा देखकर दयाभाव आये तो उसे भोजन करा देवे, मगर वह पात्र आदरबुद्धि का पात्र नहीं होता है । ज्ञानी का आदेय तो विरक्त ज्ञानी संत है ।