वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 163
From जैनकोष
नवनीतं च त्याज्यं योनिस्थानं प्रभूतजीवानाम् ꠰
यद्वापि पिंडशुद्धौ विरुद्धमभिधीयते किंचित् ꠰꠰163꠰꠰
नवनीत की त्याज्यता―भोगोपभोग प्रमाणव्रत में प्रथम तो यह शिक्षा दी है कि जिन चीजों में अनंत स्थावर की हिंसा होती हो उन चीजों का सर्वथा त्याग करें, क्योंकि अनंत काय जीवों में अनंत जीवों की हिंसा होती है ꠰ अब कहते हैं कि ऐसी भी चीजों को त्याग देवें जो अनेक जीवों की योनि स्थान बन गए हों ꠰ यद्यपि उनमें प्रकट जीव नहीं दिखते हैं तो भी जो योनि स्थान हैं उनका त्याग करना चाहिए ꠰ जैसे मक्खन ꠰ मक्खन में अंतर्मुहूर्त बाद जीवों की उत्पत्ति हो जाती है और वैसे भी मक्खन एक कामवर्द्धक वस्तु है इसलिये उसका त्याग करना चाहिए पर कदाचित् यह संभव हो सकता है कि कोई विशेष बीमारी इस प्रकार की हो जिसमें मक्खन औषधि में लिया जाता हो तो तत्काल का मक्खन औषधिरूप में लिया जा सकता है ꠰ तो मक्खन त्यागने योग्य है और आहार की शुद्धता में जो वस्तु विरुद्धता जंचती हों वे सब त्यागने योग्य हैं ꠰ इस प्रकरण में सीधा स्पष्ट यों जानना चाहिए कि जो पदार्थ त्रसकायक हैं वे तो प्रकट हिंसा की चीज हैं, उनका तो त्याग करें ही करें, पर जो वस्तुवें जीवों का योनि स्थान हों उनका भी परित्याग करना चाहिए ꠰ फिर इसके बाद अनंत काय जीवों का त्याग करें ? अनंत काय जीव दो तरह के हैं, एक तो निराधार और एक साधार ꠰ जो निराधार निगोद जीव हैं उनकी ऐसी हिंसा अग्नि से भी नहीं हो सकती क्योंकि निराधार है, सूक्ष्म है, वायु से भी उनकी हिंसा नहीं हो सकती ꠰ वे तो अपने आप एक श्वास में 18 बार जन्मते और मरते रहते हैं ꠰ जो साधार हैं वे सप्रतिष्ठित प्रत्येक कहलाते हैं याने ‘प्रत्येक शरीर’ उन्हें कहते हैं जिनके एक शरीर का एक ही जीव स्वामी हो ꠰ जैसे हरी चीज में जो कि प्रत्येक तो है पर अनंत स्थावर जीव और उसके आधार रहते हैं, उन्हें अनंतकाय कहते हैं, वे सप्रतिष्ठित प्रत्येक हैं ꠰ जो निगोद से रहित हैं वे अप्रतिष्ठित प्रत्येक हैं ꠰ अप्रतिष्ठित प्रत्येक तो त्यागी खा सकता है, मगर सप्रतिष्ठित प्रत्येक को त्यागी नहीं खा सकता और भी चीजें जो त्यागने योग्य हों उनका परित्याग करना चाहिए ꠰ जैसे हींग आदिक ये कुछ चमड़े में रखकर आते हैं ꠰ कुछ यों ही गलाई सड़ाई जाती है तो उसका भी त्याग करें ꠰ दूध, दही, मट᳭ठा, अनछना पानी ये अगर चमड़े में रखे हों तो उनका परित्याग करें ꠰ क्योंकि उनमें भी त्रस जीवों की संभावना है ꠰ बिना जाने हुए फलों का भी त्याग करें ꠰ घुना बीझा हुआ अन्न, बाजार का आटा, अचार, मुरब्बा आदि चीजों का परित्याग करें ꠰ मूल स्रोत तो यों निकला कि ज्ञानी गृहस्थ जानता है कि यह जो बाह्य परिग्रह है, वैभव है यह विडंबना, विपत्ति है, परचीज है इसको छोड़ना चाहिये, ऐसा गृहस्थ का भाव रहता है । ऐसे गृहस्थ को योग्यपात्र सामने आ जायें तो धन के त्यागने में लगाने में उसे संकोच नहीं होता । तो त्याग में अपना और पर का उपकार के प्रयोजन से श्रावक अतिथियों को साधुवों को विशेष द्रव्य का दान करता है ।
दान की विशेषतायें―विधिविशेष हो तो दान में विशेषता होती है । एक यों ही पड़गाह दिया तो उसमें दान का महत्त्व घट जाता है । विधि की विशेषता से दान में विशेषता होती हैं । इसी प्रकार दाता की विशेषता से दान में विशेषता है । दाता निर्लोभ हो, गुणों में अनुरक्त हो, अपना अहोभाग्य समझे । तो दाता में विशेषता होने से भी दान की विशेषता है, पात्र में विशेषता होने से भी दान की विशेषता है, योग्य पात्र है, योग्य मुनि है तो उससे भी विशेषता बनी और द्रव्य जो हैं योग्य उपकारी उनके अनुकूल पड़े, उनके संयम में साधक हो ऐसी चीजों को दान करें तो उससे भी दान की विशेषता होती है, यह श्रावक का आवश्यक कर्तव्य है ꠰ वैसे श्रावक की चर्या यदि शुद्ध भोजन की हो तो उसमें अतिथि सम्विभाग व्रत सहज पलता है । शुद्ध भोजन बनाया, भोजन करने से पहिले प्रतीक्षा कर ली, दुबारा भी प्रतीक्षा कर ली, फिर किसी त्यागी व्रती को आहार देकर अपना अहोभाग्य समझकर फिर खुद आहार करे ꠰ इस व्रत का संबंध अहिंसा से है अहिंसा से परिणामों में विशुद्धि, संयम में अनुराग, ज्ञानवैराग्य में वृद्धि, ये सब बातें होती हैं । तो सम्यग्दृष्टि ज्ञानी साधुजनों का प्रसंग हों तो ऐसा विशुद्ध वातावरण होता है कि अपने को सद्गुणों की प्रेरणा मिलती है । श्रावकों का अतिथिसम्विभाग व्रत चलता रहता हैं और जितना आवश्यक अहिंसा व्रत का पालन है उतना ही आवश्यक श्रावक पदवी में रहकर अतिथिसम्विभाग व्रत का पालन है । मान लो कि जितने बारह व्रत लेने वाले ब्रह्मचारीजन गृहस्थजन श्रावकजन हैं वे तो अपने में यह भाव भर ले कि हमने तो प्रतीक्षा कर ली है अब और श्रावकों का काम है कि हमें बुलायें खिलाये और स्वयं कुछ न करें तो क्या परिस्थिति हो गयी कि बस मुनिदान की परंपरा अतिथियों से चली । दो प्रकार के गृहस्थश्रावक होते हैं―एक गृहविरत और एक गृहनिरत । अब सब प्रतिमाधारी गृहविरत का रूप रखते हैं लेकिन गृहविरत का अर्थ है घर व्यापार आरंभ उल्झन आदिक से दूर रहे । उसका इतना उच्च अर्थ नहीं है कि परिग्रह त्यागी साधु की तरह दूसरों पर निर्भर रहे या अपना कुछ कर्तव्य न समझे । अगर ऐसा वह करता है तो अतिथिसम्विभाग व्रत न पालने से इस बारहवें व्रत में उसके कमी रहती है और कमी रहने से उसके उस प्रतिमा का पालन नहीं है । अब दान स्वरूप की विधि में नवधाभक्ति की बात बतलाते है―