वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 51
From जैनकोष
अविधायापि हि हिंसा हिंसाफलभाजनं भवत्येक: ।
कृत्वाऽप्यपरो हिंसां हिंसाफलभाजनं न स्यात् ।।51।।
आशय के कारण हिंसा न करके भी हिंसा के फल का भोक्तृत्व―निश्चय से देखो कोई जीव हिंसा को तो नहीं करता और हिंसा के फल को भोगता है । जैसे किसी जीव ने दूसरे मनुष्य को मारने का इरादा किया किंतु वह उसे मार न सका तो हिंसा का बंध तो हो गया, थोड़े ही समय में उसे उस हिंसा का फल भी भोगने को मिल जायेगा ꠰ यहाँ बतला रहे हैं कि सारी बात परिणाम में है । अपने परिणाम में दूसरे को मारने की बात आये तो जिस समय बात आयी उस समय हिंसा से कर्म बंध गया और मान लो 2-3 वर्ष बाद उदय आ जायेगा तो दो तीन वर्ष बाद भोग लेगा क्योंकि कर्म बंधता है भावों से । तो वहाँ यह बात बतला रहे कि अपने खोटे परिणाम होने से हिंसा होती है । जब 10-12 वर्ष बाद और मारने के भाव करेगा तो दूसरा कर्म बंधेगा । तो यह तो है दूसरे के मारने की बात । पर जो मन में यह बात बनी रहती है कि मैं ऐसा धनिक बनूंगा, यों वैभव भोगूंगा, यों सुख भोगूंगा ऐसी कोई कल्पना करे तो उसमें भी हिंसा है । दूसरे के मारने का इरादा करे उसमें भी हिंसा है और अपने सुख के पुलावा बांधे तो वह भी हिंसा है क्योंकि आत्मा का जो स्वरूप है, स्वभाव है चैतन्यमात्र उसका तो घात कर दिया । ईर्ष्या करे उसमें भी हिंसा है और किसी से राग करे, स्नेह बढ़ाये उसमें भी हिंसा है दूसरे की हिंसा नहीं बल्कि ऐसे ही दूसरे से स्नेह किया तो उसमें भी अपनी हिंसा हुई । तो यह हिंसा की बात अनादिकाल से चालू है और अनादिकाल से पहिले के बंधे हुए कर्म जिस समय उदय में आते हैं उस समय परिणाम खराब होते हैं । अब परिणाम खराब हुए तो इस जीवन में और नयी हिंसा और कर्म का बंध कर लिया तो उससे यह परंपरा चल रही है तो इससे हमें छूटना है । जितनी हमारे पास सुबुद्धि है उतने का भी उपयोग न करके जैसा हमारा ज्ञान है उसका हम और जगह तो उपयोग करते हैं पर एक वस्तुस्वरूप के जानने में उपयोग नहीं करते । तो केवल एक मुख बदलना है । क्षयोपशम हम आपका काफी अधिक है, अब उसको बदलें और आत्मा की ओर उपयोग ले जाये तो उससे हित हो सकता है । कितने बड़े-बड़े व्यापारी लोग है कितने-कितने लेन देन, कैसी-कैसी समस्याओं का हल करना, कितना क्षयोपशम है, उस ज्ञान को हम बाह्य पदार्थों, के परिणमन में तो लगाते हैं पर अपने आपके चिंतन में नहीं लगाते ꠰ थोड़ा मुख मोड़ना है तो वह परंपरा हमारी टूट जायेगी । तो यहाँ यह बतला रहे हैं कि हिंसा लगती हैं अपने परिणामों से जीव हिंसा का फल भोगेगा ।
आशयवश हिंसा करके भी हिंसा के फल की अभाजनता―जिस जीव के शरीर से किसी कारण हिंसा तो हो गयी पर आत्मा में हिंसारूप नहीं आया तो हिंसा करने का वह भागी भी नहीं हैं, जैसे साधु बड़ी समता के पुंज होते हैं, समितिपूर्वक चल रहे हैं, कदाचित कोई छोटा जीव पैर के नीचे दबकर मर जाये तो चूंकि रंच भी उनके प्रमाद नहीं है इस कारण हिंसा का दोष उनके नहीं लगता । साधु का स्वरूप बहुत उत्कृष्ट होता है । साधु जहाँ कहीं हों उनके कारण वातावरण अशांत नहीं होता है । अगर किसी साधु के रहने पर वातावरण अशांत हो जाये, उसके कारण उसके व्यवहार से विषमता आ जाये तो वह साधुता क्या? साधु पुरुष और अरहंत भगवान् जहाँ विराजे हों वहाँ से चारों तरफ 400 कोश तक दुर्भिक्ष नहीं पड़ता और जहाँ साधु हो वहाँ अशांत वातावरण नहीं होता, क्योंकि वह साधु समता के पुंज हैं, रागद्वेष भाव उनमें अत्यंत मंद है, किमी के पक्ष की बात नहीं, किंतु आत्मा की धुन में लगना यह साधु का स्वरूप है । ज्ञान ध्यान और तप ये तीन चीजें साधु में हैं । मुख्य तो ज्ञान है । वह ज्ञानोपयोगी रहे, केवल ज्ञाताद्रष्टा रहे ꠰ जब ऐसी स्थिति न हो तो तत्त्व का चिंतन करें, ध्यान बनायें और जब ध्यान भी न बन सके तो अपनी तपस्या में लग जायें ꠰ साधु के तीन ही नाम हैं ज्ञान, ध्यान और तप ꠰ तो साधुता बड़ी उत्कृष्ट चीज है । साधु के गुणों का स्मरण करना यही साधु की उपासना है । तो जब परिणामों का कोई परिणमन निर्मल चलता है तो उस समय देव शास्त्र गुरु के प्रति प्रीति जगती है । यदि विषय कषाय के परिणाम तीव्र हो रहे हों तो देव शास्त्रगुरु की ओर रुचि नहीं जगती, सबसे बड़ी विपदा इस निज परमात्मा पर है तो मोह विषय और कषाय परिणामों की है ।