वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 50
From जैनकोष
निश्चयमबुद्धयमानो यो निश्चयतस्तमेव संश्रयते ।
नाशयति करणचरणं स बहिःकरण लसो बाल: ।।50।।
निश्चयस्वरूप के अपरिचय में अंतर्बाह्य आचरण का विनाश―निश्चय से हिंसा अपने परिणाम से ही है । अपना जो खोटा परिणाम है उससे हिंसा हुई । बाहर में दूसरे जीव को पीट दिया तो उससे हिंसा नहीं हुई, अगर परिणाम खोटा न करता तो काहे को वह मारता पिटता । वह तो भला है मगर परिणाम खोटा हुआ उससे हिंसा हुई । आप देखें कि जिसके ममता बसी है वह रात दिन अपनी हिंसा कर रहा है । जिस पुरुष के मोह लगा है, ममता बसी है रात दिन हिंसा हो रही है । अपने आत्मा की हिंसा है, अपने परमात्मा भगवान को दबाया जा रहा है । मोह के द्वारा इसकी प्रगति नहीं हो सकती । आत्मा में जो कषायभाव उत्पन्न होता है उसमें आत्मा की हिंसा है । जिससे अपनी हिंसा इष्ट नहीं है उसे चाहिये कि वह कषायें न करे । विषय कषाय और मोह ये तीन चीजें दुखदायी हैं, हर जगह देख लो जब भी कोई दु:ख होता हो तो यह समझ ले कि दूसरे के कारण हमें दु:ख नहीं होता है किंतु इसमें विषयकषाय या मोह भाव होता है उससे दुःख होता है । भगवान में और अपने में कोई अंतर है क्या? चीज तो एक है । आत्मा आत्मा एक है, जो आत्मा प्रभु का है वही आत्मा अपना है । स्वरूप में कोई अंतर नहीं है । प्रभु वीतराग हो गए इसी कारण सर्वज्ञ हो गए और यहाँं रागद्वेष मोह विषय कषाय बसे हुए है, परिचय बनाया है, लोगों में हमारी इज्जत न खराब हो, नाम बढ़े, लोग हमें अच्छा कहें ये व्यर्थ की बातें जो खूद की हैं इनसे भगवान परमात्मा का घात हो रहा है । तो विषय कषाय और मोह, इन तीन के कारण अपनी बरबादी है, जीव समझता तो यह है कि हम बड़े अच्छे हैं, लड़के अच्छे है, धन वैभव खूब है, बड़ा आराम है । पर इस परिणाम में रहने से अपने आपका घात हो रहा है, कोई एक इस ही भव में नहीं पूरा पड़ता है । यह तो मर के भी जायेगा, तो आगे की भी सोचना चाहिए । राजा भी मरकर कीड़ा बन जाता है, देव भी मर कर एकेंद्रिय हो जाता है तब फिर इतने मौज से क्या सार निकलेगा? समझना चाहिये कि हम में रागादिक भाव आये तो उसका नाम हिंसा है और रागभाव न आये तो यह अहिंसा है । सो रागभाव के न आने का यत्न होना चाहिये । जितना हमारा बाह्य समागम बढ़ेगा उतना अपने को संक्लेश मिलेगा । तो निश्चय से हिंसा क्या है? आत्मा में मोह विषयकषाय के परिणाम जगें उसका नाम हिंसा है, जीव मर गया उसका नाम हिंसा नहीं है, पर अंदर में जो मोह पड़ा है, विषय है, ममता है वह हिंसा है, तभी तो जीव को मारा, किसी जीव को सताया तो यह राग रहा, मोह रहा, प्रमाद रहा तब जीव सताया गया । परिणाम गंदा हुआ उससे हिंसा लगी । परिणाम विशुद्ध रखें तो इस जीव का भव सुधरे । तो जो जीव यथार्थ निश्चय में स्वरूप को नहीं जानता और व्यवहार को ही निश्चयरूप से अंगीकार करता है वह अज्ञानी जीव है । जैसे हिंसा तो हुई रागभाव करने से, दुःख तो हुआ दूसरे से राग रखने का और माना यह कि इसने मुझे दुःखी किया तो यह मिथ्यापरिणाम हुआ । किसी जीव का कोई दूसरा न घात कर सकता, न बिगाड़ कर सकता । तो जो जीव यथार्थ निश्चय के स्वरूप को न जानकर व्यवहार को ही निश्चय रूप से श्रद्धान करता है वह मूढ़ है और फिर भी बाह्य क्रियाओं में आलसी है, बाह्य क्रियावों के आचरण को नष्ट करता है और कोई पुरुष यह कहे कि मेरा परिणाम अंतरंग में स्वच्छ होना चाहिये, बाह्य परिग्रह रखें या कोई आचरण करें उससे मुझमें दोष नहीं आ सकता तो वह पुरुष अहिंसा के आचरण को नष्ट करता है क्योंकि जब बाहरी पदार्थ मौजूद है तो उसका निमित्त पाकर अंतरंग में परिणाम विशुद्ध नहीं होगा । अपने निश्चयधर्म की रक्षा के लिये बाह्य चरणानुयोग को भी पालें । हिंसा और अहिंसा का यह मर्म जैन शास्त्रों में बताया है कि अपने परिणामों में अज्ञान आये, रागद्वेष भाव आये तो उससे हिंसा होती है और अपने परिणामों में निर्मलता जगे तो उससे अहिंसा होती है ।