वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 58
From जैनकोष
इति विविधभंगगहने सुदुस्तरे मार्गमूढदृष्टीनाम् ।
गुरुवो भवंति शरणं प्रबुद्धनयचक्रसंचारा: ꠰꠰58꠰।
गुरुकृपा से तत्त्व का यथार्थ बोध―इस प्रकार अत्यंत कठिन यह नाना नयोंरूपी मन का गहन वन है । जैसे कोई महाभयंकर वन में प्रवेश कर जाये तो उसका बचना, निकलना बहुत कठिन है, इसी तरह से यह नयों के जो भंग हैं वह भयंकर वन की तरह हैं । उसमें जो पुरुष मार्ग भूल जाते हैं उन पुरुषों को यदि कुछ शरण है तो ऐसे गुरु लोग ही शरण हैं जो अनेक प्रकार के नय समूहों को जानते हैं । वह नय दृष्टि बताकर उसको नय का विवरण कर देते हैं । वहाँ कोई सीधे सुने तो कहेगा कि यह क्या बात कह रहे हैं, कभी कहा कि जीव नित्य है कभी अनित्य तो सुनने वाले सोचेंगे कि यह तो स्थिर चित्त वाला नहीं है तो उनको समझाने के लिये गुरुजन नयदृष्टि लगाकर बोलेंगे, देखो द्रव्यदृष्टि से जीव नित्य है जो कभी अनंतकाल तक नष्ट नहीं हो सकता, पर्यायदृष्टि से जीव अनित्य है, क्योंकि जीव का जो-जो कुछ भी परिणमन होता है वह परिणमन अगले क्षण नहीं रहता, इसलिए परिणमन की दृष्टि से जीव अनित्य है, बदलता रहता और द्रव्य की अरि से देखें तो जीव कभी नहीं बदलता, जीव जीव ही रहता है । तो अनेक नय भंग हैं इस प्रकार हिंसा के प्रसंग में भी आशयवश अनेक भंग हो जाते हैं ।