वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 57
From जैनकोष
हिंसाफलमपरस्य तु ददात्यहिंसा तु परिणामे ।
इतरस्य पुनर्हिंसा दिशत्यहिंसाफलं नान्यत् ꠰꠰57।।
हिंसा हो जाने पर भी आशयवश हिंसाफल व अहिंसाफल का अंतर―किसी को हिंसा उदयकाल में हिंसा का फल देती है और किसी को हिंसा अहिंसा का फल देती है । जैसे कोई जीव किसी का बुरा करने का यत्न करता हो और पुण्य के उदय से कदाचित बुरा होने की वजह से कदाचित् भला हो जाये । हो जाये भला, मगर उसको तो हिंसा का फल मिल ही गया । जैसे प्रद्यम्नकुमार जो कृष्ण जो के पुत्र थे, कालसंवर के यहाँ पले थे, तो कालसंवर के कुटुंबीजनों ने प्रद्यम्नकुमार को बार-बार मारा, पर सभी जगह उसे नये-नये रत्नों की प्राप्ति हुई । नये-नये रत्न मिले । इससे यह बात न हो जायेगी कि पिटने वाले का पुण्य ले जायेगा । धवल सेठ ने श्रीपाल को समुद्र में गिरा दिया पर वह बाहर निकलने पर राजा बनता है । कोई पुरुष किसी का करना चाहता है बुरा और हो जाता है उसका भला और कोई किसी का करना चाहता है भला पर हो जाता है बुरा । जैसे डाक्टर रोगी का आपरेशन करता है तो भले के लिए करता है पर आपरेशन में कदाचित् उस रोगी का मरण हो जाये तो डाक्टर हिंसक न माना जायेगा । यह सब बातें अंतरड्ग परिणामों पर निर्भर हैं । मां अपने बच्चे को डांटती है, मारती भी है, पर हिंसा नहीं लगती और कोई दूसरा पुरुष उस बच्चे को गुस्सा भरी आंख भी दिखा दे तो हिंसा लग जाती है । तो परिणामों से हिंसा और अहिंसा होती है ꠰ यह तो हुई दूसरों के संबंध की बात, पर कोई पुरुष अपने में अज्ञान भाव रखे, विषयकषायों का परिणाम रखे तो उसके हिंसा है ही । दूसरे को सताया नहीं लेकिन अपने मन में तो हिंसा का परिणाम रख रहा, अपने विषयों के साधनों में लीन है, अपनी मौज में आसक्त है तो उस जीवको उसकी हिंसा लगेगी और किसकी उसने हिंसा की? अपने परमात्मस्वरूप की हिंसा की । अपना जो स्वभाव है, स्वरूप है उस परमात्मतत्त्व की हिंसा की ।