वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 60
From जैनकोष
अवबुध्य हिंस्यहिंसकहिंसाहिंसाफलानि तत्त्वेन ।
नित्यभवगूहमानैः निजशक्त्या त्यज्यतां हिंसा ꠰꠰60।।
हिंसाप्रसंग की जानकारी करके हिंसापरिहार करने का अनुरोध―आचार्यदेव कहते हैं कि अब तो निरंतर कर्मों के संवर करने में उद्यमी होना चाहिये और यथार्थता से इन चार बातों को समझ लेना चाहिये कि हिंस्य क्या है, हिंसा क्या है और हिंसा का फल क्या है? तो जिसकी हिंसा की गई उसे कहते हैं हिंस्य । हिंसा वास्तव में खुद की हुई सो खुद ही हिंस्य हुए । जो प्राणों का घात हुआ वह हिंसा हुई । निश्चय से खुद के ही प्राणों का घात हुआ सो खुद की हिंसा हुई । जो हिंसा करे वह हिंसक है । अपने आपकी इससे खुद हिंसा की इसलिए यह ही खुद हिंसक हुआ । अपना जो खुद का प्राण है ज्ञान दर्शन चैतन्यभाव तो ज्ञान दर्शन को बरबाद किया तो खुद ही हिंसक बने । हिंसा का फल क्या है कि हिंसा से जो फल मिला उसे भोगे तो निश्चय से हिंसा के परिणाम में तत्काल ही जो व्याकुलता हुई वह हिंसा का फल हुआ और अब व्यवहार दृष्टि से देखे तो हिंस्य मायने जिस जीव की हिंसा की गई । अब निश्चय से देखो कि इस जीव ने अपने आपकी हिंसा की, अपनी ही हिंसा की, अपनी ही परिणति से हिंसा की और अपनी ही हिंसा के फल में खोटी पर्याय भोगेगा, यह फल हुआ । तो निश्चय से मैं खुद की ही हिंसा करता हूँ और खुद की ही हिंसा का फल भोगता हूँ, हिंसारूप परिणमन करता हूँ, जिसका फल नारक निगोद आदिक है तो उस हिंसा से बचने के लिये अपने आपमें यह निर्णय करके कि मैं खुद ही खुद के परिणाम खोटे करके खुद की बरबादी करता हूँ । सो खोटा परिणाम छोड़ देना चाहिये और बाहरी आचरण ऐसा हो कि जिसमें हिंसा का दोष हो उसको त्यागना चाहिये ।