वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 62
From जैनकोष
मद्यं मोहयति मनो मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्मम् ।
विस्मृतधर्मा जीवो हिंसामविशंकमाचरति ꠰꠰62꠰।
मद्यपान के अनर्थ―मद्य मन को मोहित करता है । शराब पीने से मन बेहोश हो जाता है और जिसका चित्त बेहोश हो गया वह धर्म को भूल जाता है और जो धर्म को भूल गया ऐसा जीव निशंक होकर हिंसा का आचरण करने लगता है । तो मद्य एक तो बेहोश करने वाला है, दूसरे मद्य निकृष्ट वस्तु है, मद्य पीने वाला मनमानी हिंसा करने लगता है, क्योंकि वह अपने को भूल गया । एक बात और मद्य पर्यायों में पायी जाती है कि उनके बल नहीं रहता । थोड़ा बहुत नशा करें तो भले ही कुछ शक्ति रहे, पर ज्यादा नशा करने वाले के शरीर में शक्ति नहीं रहती । इसका हमने परिचय भी एक बार किया है । एक बार हम और गुरु जी जा रहे थे, एक मद्य पायी आया और गुरु जी का कमंडल लेकर भागने लगा । अब हमारा कर्तव्य हो गया कि उससे भिड़ें । सो हमने दौड़कर उसे पकड़ा और कमंडल छीन लिया । यद्यपि यह बहुत मोटा था पर उसके शरीर में शक्ति न थी । मद्यपान से सभी ऐब आ जाते हैं और सभी बरबादी हो जाती है तो यों मद्यपान का निषेध है ।
मद्य में पूर्वापर हिंसा―शराब महुवा की भी बनती है । महुवा का तैल भी होता है । तैल बनता है महुवा के फल से और शराब बनती है फूल से । तो उसे विवेकी लोग नहीं खाते । शराब में रस से उत्पन्न हुए बहुत से जीव हैं ही । वे योनिभूत हैं और उत्पन्न होते रहते हैं इस कारण मदिरा के सेवन करने में जीवों का भी घात है । मद्यपायी मद्यपान में धर्म को भूल जाता है सो हिंसा में वह निःशंक होकर प्रवृत्ति भी करने लगता है । यह मद्य हिंसा की चीज है और उसे त्यागे बिना अहिंसा नहीं होती । इसलिये श्रावकों को इस मद्य का त्याग अवश्य करना चाहिये । देखो सबसे पहिले मद्य शब्द दिया है । यह अन्य चीजों से भी अधिक बुरी चीज है क्योंकि मद्यपान करने से जीव बेहोश हो जाता है ।