वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 114
From जैनकोष
पावं हवइ असेसं पुण्णमसेसं च हवइ परिणामा ।
परिणामादो बंधो मुक्खो जिणसासणे दिट्ठो ।।114।।
(435) भाव से पाप की निर्जीर्णता―भाव ही समस्त पापों को पचाता है अर्थात् विस्तीर्ण करता है । जिन शासन में भाव से ही बंध और भाव से ही मोक्ष कहा गया है । भाव उत्तम होने के लिए प्रारंभिक बातें तो होनी ही चाहिए जैसे विनय, भक्ति तथा देव, शास्त्र और गुरू के प्रति उमंग । यदि यह प्रसंग नहीं है तो उसका कारण प्राक᳭पदवी में अहंकार है । जहाँ अहंकार है वहाँ कुछ सिद्धि नहीं हो सकती । विनय दूसरों के एहसान के लिए नहीं है किंतु अपने आपकी पात्रता बनाने के लिए है । नम्रता, सरलतायें कुछ दूसरों पर एहसान धरने के लिए नहीं है किंतु ये अपने आपकी पात्रता बनाता है । तो जहाँ भाव विनययुक्त है, सरलता से सहित है, गुणीजनों के प्रति उमंग लिए हुए हैं चारित्र के प्रति जिनके उत्सुकता बनी रहती है तो ऐसे भाव आगे बढ़ते हैं और बढ़कर इतना विशुद्ध होते कि पापों को पचा डालते हैं, निर्जीर्ण करते हैं । सब लाभ अपनी संभाल से है ।
(436) भाव से पुण्य की विस्तीर्णता―भाव ही इस पुण्य को विस्तीर्ण करते हैं । जिसके सम्यक् बोध है उसके परिणामों में उज्ज्वलता के साथ राग भी बसा हुआ है तो उसके पुण्य विशेष बढ़ता है, यह एक मोक्ष मार्ग में चलने वाले की कथा ही ऐसी है कि जब तक संसार शेष है, उसका पुण्य विशेष चलता है और जब मोक्ष होता है तो सब खतम हो जाता है तो यह सब भावों से ही बंध और भावों से ही मोक्ष की व्यवस्था है । वह भाव क्या है जो मोक्ष का हेतुभूत है? वह है अपने सहज अपने ही सत्त्व के कारण जो कुछ इसका भवन है ज्ञानमात्र चैतन्यस्वरूप उसकी दृष्टि । यह एक आधार है कि जहाँ बंध हो तो पुण्य का विशेष बंध हो । और इन भावों में शुभ कर्मों में निर्जरा की बात तो है ही मूल में और उसमें भी पापकर्म की निर्जरा विशेष है । जब ऊंचे परिणाम होते हैं तो पाप का अनुभाग घटता है और पहले बंधे हुए पुण्यकर्म का अनुभागरस बढ़ता है पाप के चार दर्जे बताये गये । पाप के दर्जे हैं नीम, कांजी, विष और हलाहल । जैसे नीम कड़वी है, पर कम खतरनाक है और कांजीर उससे अधिक कड़वी चीज है, विष उससे अधिक खतरनाक है और हलाहल सबसे अधिक खतरनाक है । तो जब सम्यग्दृष्टि के चारित्र में वृद्धि चलती है तो वहाँ जो पहले के बंध हुए विष और हलाहल वाले पाप थे वे घटकर नीम और कांजीर जैसे रह जाते हैं । और पुण्य के भी चार विभाग हैं―गुड, खांड, शक्कर और अमृत, या ऐसे कुछ भी कहो । तो गुड और खांड वाले पुण्य बढ़कर शक्कर और अमृत के अनुभाग में पहुंचते हैं । पहले तो ये हुआ करते हैं और हो रहे ये सब स्वयं जीव के शुद्ध भावों का निमित्त पाकर और आगे जब बढ़ते हैं, ये पाप कर्म नहीं के बराबर रह जाते तो अब शुद्ध परिणति किस पर मिसमिसाये? पुण्य बचा सो उसको शुद्धभाव निर्जीर्ण करता है । तो यों भावों से ही बंध और भावों से ही मोक्ष की व्यवस्था है ।
(437) योग्य भावों में सुवासित होने का कर्तव्य―वर्तमान में सर्व जीवों से मित्रता का भाव बढ़ाकर, गुणीजनों से प्रमोदभाव बढ़ाकर अपने अहंकार भाव को उखाड़कर दयालुचित्त होकर अपने आपकी पात्रता बनाना चाहिए । यह मनुष्यभव बड़ी कठिनाई से प्राप्त हुआ और संयम की संभावना इसी मनुष्यभव में बतायी, सो कोई कर्मोदय आया तीव्र पाप का उदय आया तो उसे विवश होकर सहना पड़ता है सो जबर्दस्ती का संयम बन जाता (हंसी) । पाप का उदय है, कष्ट आ ही पड़ा है, भोगोपभोग की सामग्री में ही साधनाविहीन है तो वह सह लेगा, सहना ही पड़ेगा, पर स्ववश कुछ थोड़ा संयम में भी चले तो यह कठिन पड़ता है । सोचने की बात है । जिसको आजकल लोग बोलते―क्या रखा है संयम में? बस भाव ठीक हों तो सब ठीक हो जायेगा । परिणाम यह देखते हैं कि न भावों में निर्मलता है और न कुछ संयम के भाव बनते हैं । तो मनुष्यभव एक संयमका धाम है । अन्य गतियों में संयम नहीं होता । तिर्यंच गति में संयमासंयम होता तो वह न के बराबर है । कैसे? जैसे मानो संयमासंयम की साधना 50 से लेकर 50 करोड़ तक की डिग्री की है तो मनुष्यों में 50 नंबर का भी संयमासंयम रह लेगा और 50 करोड़ डिग्री का भी संयमासंयम रह लेगा, पर तिर्यंचों मे यों समझिये कि जैसे मानो 100 से लेकर 200 तक की डिग्री का संयमासंयम है, तिर्यंच के जघन्य संयमासंयम नहीं होता, उत्कृष्ट तो हो ही नहीं सकता । उसके संयमासंयम होता है तो जघन्य से कुछ आगे का अंश ही चलता है, और थोड़ा ही ऊंचा चलता है फिर समाप्त हो जाता है ।
(438) संयमासंयम भी न ले सकने की मनुष्यभव में बड़ी भूल―संयम विशिष्ट संयमासंयम इस मनुष्यभव में ही है । तो ऐसा मनुष्यभव पाकर संयम की दृष्टि न हो और संयम की खिल्ली उड़ाये तो यह योग्य नहीं । प्राय: आज का नवयुवक वर्ग संयमी जनों की दिल्लगी करता है । जैसे देखा होगा कि किसी शादी बारात में कोई रात्रिभोजन का त्यागी पहुंच गया तो उसके लिए कुछ नवयुवक लोग दिल्लगी से शब्द बोल उठते । जैसे थे देखो बड़े धर्मात्मा महाराज आ गए । अब आप देखिये ऐसे लोगों में कितनी तीव्रकषाय है । वे तो यह भी कह देते कि इस संयम में धरा क्या है वह तो एक मामूली सी बात है, सिर्फ ज्ञान बढ़ाये । सो होता क्या कि न तो ज्ञान बढ़ पाता और न संयम धारण कर पाते । अरे इस मनुष्यभव को पाकर तो इस संयम में लगना चाहिये था । पर वह मामूली लगने वाली चीज भी उनसे क्यों नहीं बन पाती? इस ओर जरूर कुछ ध्यान देना चाहिए और इसकी बाट न जोहना चाहिए कि जब मेरे को सम्यग्दर्शन होगा तब संयम में लगूंगा अरे इस जिंदगी का कुछ भरोसा नहीं, पता नहीं फिर कभी संयम धारण किया जा सकेगा या नहीं? चाहे पूर्ण संयम न बन पावे फिर भी संयम की ओर दृष्टि रहे । चाहे वह द्रव्य संयम है । भले ही वह मोक्षमार्ग में न बढ़ पाये फिर भी असंयम से तो अच्छा ही है, मिथ्यात्व में ही सही, पर दोनों में अंतर तो देखो, जैसे कोई दो आदमी प्रतीक्षा करते हों रास्ते में तो एक तो धूप में बैठा हुआ प्रतीक्षा कर रहा और एक वृक्ष की छाया में बैठा हुआ प्रतीक्षा कर रहा तो प्रतीक्षा तो दोनों ही कर रहे, पर कुछ बाहरी घटना में उनमें अंतर तो है । ऐसे ही असंयमी और संयमी दोनों की बाहरी घटनाओं में अंतर मिलेगा । तो संयम की ओर हमारी वृत्ति रहनी चाहिए और संयम की ओर लगने की भावना रहना चाहिये । मिथ्यात्व व सम्यक्त्व का लेखा तो कोई लगा सकता नहीं, पर कर्तव्य है ज्ञानाराधना का, उसमें चलना है । जो होता है वह भीतर चलता रहता है पर ऐसे इस अशुचि शरीर को पाकर जो मरण के बाद जला दिया जाता है और कुछ कठिनाई की बात भी नहीं है, तो साधारण संयम से भी नहीं रह सकते तो फिर यह मनुष्यभव पाने से लाभ क्या मिला?
(439) मनुष्यभव का शृंगार संयम―सम्यक्त्व तो चारों गतियों में होता, पर सम्यक् चारित्र या विशिष्ट ज्ञान संयम केवल मनुष्यभव में होता । जैनधर्म में व्रत की, परंपरा त्याग की जरूर चलती आयी है, उसको चलाइए, खुद भी कीजिए । और, कुछ नहीं तो मंदकषाय का लाभ तो है । अन्यथा फिर जैन धर्म की मुद्रा ही क्या है? यह भी समझ में न रहेगा । तो इस मनुष्यभव को पाकर भीतर तत्त्वज्ञान को बढ़ाइये । ऐसा इसमें प्रमाद न करना कि जब हमको कोई जनता के लोग जान ले कि अब हुआ इसको सम्यक्त्व तब लें हम कुछ नियम संयम, ऐसी प्रतीक्षा न करें । अपने आप पर दयालु बनें और यथायोग्य चूंकि मनुष्य हुए हैं तो अपनी यथाशक्ति संयम की प्रवृत्ति करते हुए भीतर में अंत: ज्ञान प्रकाश का भी भाव रखें, उसका भी पौरुष करें । तो भाव ही सर्व अपने भविष्य का मूल है । हम क्या बनेंगे, क्या होंगे, क्या हमारा भविष्य होगा? इन सबका उत्तर भाव है । और, भावों की पहिचान खुद करना चाहें तो खूब कर सकते हैं । दूसरे की पहिचान करना तो कठिन है, हम कुछ समझ भी न सकेंगे । कोई मायाचारी ऐसी भी हो सकती कि अपनी वचन कला पर अपने को बहुत शुद्ध साबित कर सके, पर हम भीतर की बात नहीं कह सकते कि क्या है । कोई नहीं कह सकता । भले कोई न कह सके, पर अपने-अपने परिणाम तो अपने ध्यान में सबके हैं । थोड़ा अहंकारभाव छोड़कर, देहात्मबुद्धि छोड़कर अंतरंग में निरखने चलें तो अपने परिणामों को बराबर निरख सकता है । सो अपने आप पर करुणा करने की बात है । कोई किसी पर एहसान रखने की बात नहीं है ।
(440) कीर्तिचाह की असारता―जगत में जीव अनंत हैं । कुछ लोगों में अपनी शान, अपनी प्रतिष्ठा । अपना प्रभाव डालने की चाह रखने वाले पुरुष यह तो सोचें कि जब अनंतानंत जीवों को मैं अपनी शान नहीं बता सकता, प्रथम तो सभी मनुष्यों में हमारी शान नहीं फैल सकती, कुछ में ही फैल पाती है । पशु पक्षियों की तो बात छोड़ो, सभी मनुष्यों में ही शान नहीं फैल सकती ꠰ जीव अनंतानंत है । इन अनंतानंत जीवों ने जब मेरी शान न समझ पायी तो दो चार दस को अपनी शान दिखाकर क्यों व्यर्थ में कलुषता बढ़ायी जा रही है? अनंत काल व्यतीत हो गया तो शान पर कमर कसने वाले व्यक्ति कितने काल तक क्या बता पायेंगे? उस अनंत काल के समक्ष यह 2, 4, 10, 20, 50, 100 वर्ष का काल समुद्र के बराबर में एक बिंदु बराबर भी नहीं है । तो जब सारे समयों में हम अपनी शान न फैला सके तो फिर इस थोड़े से जीवन के लिए कमर कस कर क्यों अपनी जिंदगी बिगाड़ी जा रहीं? यह लोक 343 घनराजू प्रमाण है । एक राजू का विस्तार बहुत बड़ा है और अंदाज यों करलो कि जहाँ हम रह रहे इसका नाम है जंबूद्वीप । यह गोल है । और इसकी सूची अर्थात् आमने सामने का नाप एक लाख योजन प्रमाण है । दो हजार कोश का एक योजन होता है । और ऐसे-ऐसे एक लाख योजन प्रमाण लंबा है और उस जंबूद्वीप को घेर कर लवणसमुद्र है, और एक तरफ दो लाख योजन विस्तार का है । इतना ही सब ओर दूसरी तरफ भी है । जैसे कहते तो हैं ऐसा कि, जंबूद्वीप से दुगुना है और उतकी जगह अगर क्षेत्रफल निकालें तो कई गुना बैठेगा । उससे दूने विस्तार वाला दूसरा द्वीप उससे दूने विस्तार का दूसरा समुद्र, इस तरह उसके बाद द्वीप, उसके बाद समुद्र यों अनगिनते हैं करोड़ अरब शंख नहीं, असंख्याते हैं । तो अब समझिये आखिरी समुद्र का विस्तार कितना है और सारा विस्तार यह कितना हुआ? यह सब मिलकर भी पूरा एक राजू नहीं कहलाता है । यह हुआ एक आमने सामने का राजू । उतना बड़ा हो और फिर उतना ही चौड़ा हो, उतना ही मोटा हो, घनराजू जिसे कहते घन फुट जैसा, ऐसा 343 घनराजू प्रमाण लोक है, इस सारे क्षेत्र के आगे आपका यह नगर, या आपका यह थोड़ा सा परिचित क्षेत्र कौनसी गिनती रखता है । इतने से क्षेत्र में अपनी शान बनाना अपना प्रभाव बनाना और नाना प्रकार की कल्पनायें बनाना इन थोथी बातों को करके क्यों जिंदगी बिगाड़ी जा रही है ।
(441) संयत जीवन से उन्नति के मार्ग का लाभ―अपने भावों को तो संभालें । आत्मा का नाता रखकर सर्व बातों का अध्ययन करें तो भावविशुद्धि का मार्ग मिलता है । तो ये भाव ही बंध के कारण हैं, भाव ही मोक्ष के कारण हैं । वर्तमान समय में अपने आपको किस तरह बनाना चाहिए, ढालना चाहिए सो वह करतूत सोचो तो सही । दया भक्ति आदिक के परिणाम जहाँ न हो सकें वहाँ शुक्ल ध्यान की बात सोचना यह तो अपने आप को ठगना है, भैया, प्रभुभक्ति रखते हुए, रत्नत्रय की प्रीति रखते हुए, 5 प्रकार के विनय में चलते हुए आत्मा के स्वभाव की सुध रखते जाइये । नीरस, शुष्क बात से, गप्प से अपना काम न बनेगा, उद्धार न होगा । आचार्यजन बताते हैं कि परमात्मा के नाम मात्र की कथा से ही भवभव के संचित पापों का क्षय होता है । तो जहाँ प्रभु की भक्ति है वहाँ प्रभु के स्वरूप का भी तो स्मरण है और अपने आपके स्वरूप का भी तो कुछ संस्पर्श है । वहाँ ही शुद्ध भक्ति बने अपने आप में जैसी कि अपनी परंपरा में चली आयी हुई बात है―देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप, दान और जैसा जो कुछ चला गया, गुणीजनों को देखकर हृदय में प्रमोद होना, उनकी सेवा का परिणाम होना । उस प्रकार की जिंदगी रहेगी तो भीतर अंतस्तत्त्व की साधना का अधिकार भी है और यदि जीवन को ऐसा नीरस बनाया, भक्तिविहीन, दयाविहीन लोगों के नाम ले लेकर यदि जीवन को ऐसा बनाया गया तो यह तो अपने आपको ठगना है, यों समझो कि फिर तो यह जीवन व्यर्थ ही गमाया जा रहा है ।
(442) जीवन को मर्यादित रखने की आवश्यकता―भैया, ऐसे गाड़ी न चलेगी कि जैसे गाड़ी के एक तरफ जुआ में ऊंट को जोत दें और दूसरी ओर बिल्ली को जोत दिया जाये । एक तरफ तो व्यापार करके, सर्विस करके ग्राहकों से अनेक तरह के खूब मौज करके ये सब बातें भी करते रहे और देव, शास्त्र गुरु चूंकि ये पर द्रव्य हैं, ऐसा सुन रखा, इनको हेय समझना और अपने आपको ऐसा समझना कि मैंने तो सब कुछ खूब पाया, ऐसी भीतर में श्रद्धा रखकर ऐसी बेतुकी जिंदगी बिताना यह अपने लिए कार्यकारी नहीं है । तो जो परंपरा आधार चला आया उसमें बहुत बल है । बहुत कुछ समझने की बातें हैं । कानून आज बना है तो वह आज ही से सिद्ध नहीं हो जाता । धीरे-धीरे कुछ वर्षों में वह कानून सिद्ध हो पाता है । तो ऐसे ही हमारे आचार्य परंपरा से हमारे महापुरुषों से जो कुछ हमने पाया है व्यवहार रत्नत्रय के रूप में व उसके साधन के रूप में, वैयक्तिक अपनी चर्चाओं के रूप में उन सबमें उस मूल आधार में उस प्रकार से जीवन व्यतीत करते हुए फिर तत्त्वज्ञान में बढ़े तो इसमें धोखा न मिलेगा । जैसे तलवार और ढालसहित सजकर तलवार लेकर संग्राम में उतरियेगा तो धोखा न रहेगा ऐसे ही अपने संयम सहित जो कुछ आवश्यक कार्य हैं उन कर्तव्योंसहित रहकर फिर तत्त्वज्ञान में बढ़ियेगा और अंत: आराधना चले तो धोखा न रहेगा । और अंत: आत्मा की आराधना चले तो धोखा न रहेगा । इस प्रकार की हमारी जिंदगी बन जाये और हम एक सही रूप से ज्ञानवासित होकर जीवन बितायें तो यह इस मनुष्य भव की बहुत बड़ी देन होगी अन्यथा यों ही जीवन खो दिया ।
(443) मनुष्यभव की दुर्लभता जानकर भावों की सम्हाल का अनुरोध―भैया, क्या पता कि इस त्रस पर्याय के बीच अवकाश होगा या न होगा । कुछ अधिक दो हजार सागर प्रमाण त्रस का काल रहता है । यदि यह ही पूरा कर रहे हों तो एकेंद्रिय ही होना निश्चित है । संयम की बात हर जगह संभव नहीं, चाहे वह द्रव्यलिंग ही हो, ज्ञान का तो किसीने ठेका नहीं लिया ना? पर थोड़ा ज्ञान तो सभी को है । आत्मा के बारे में बोध तो है ही । सो संयम में प्रमाद न करना चाहिए । जिसको लोग तुच्छ समझते हैं, मामूली समझते हैं वह क्यों नहीं रुचता है? क्यों उसके करने में कष्ट माना जाता? तो वह सब विधिपूर्वक है । बल्कि श्रावक की तो जो परंपरा है, नियम से रहना, शुद्धभोजन करना, दूसरों से पूछना, भक्ति, विनय व्यवहार करना, वह ढंग से रहकर फिर तत्त्वज्ञान में बढ़े तो कोई शल्य न रहेगी उसे । और निःशल्य हो वह अपनी साधना में बढ़ेगा । सो यहाँ यह बता रहे कि भाव ही आपका सर्वस्व है, भाव से ही आप विजय पायेंगे, इसलिए भावों की सम्हाल यत्न पूर्वक होनी चाहिए ।
(444) प्रभुभक्ति से भावविशुद्धि―प्रकरण यह चल रहा है कि भावों से पाप का नाश है, भावों से पुण्य का विस्तार है और भावों से कर्मों का क्षय है । पाप के नाश करने में मुख्य तो अंतर्दृष्टि रही, पर प्रयोग व घटना अपने जीवन से संबंधित प्रोग्राम है तो उनमें सर्वोपरि है प्रभुभक्ति । प्रभुभक्ति में नाममात्र की कथा से ही जन्मजन्मकृत पाप नष्ट होना बताया है, फिर परमात्मा संबंधी ज्ञान और चारित्र व श्रद्धान हो इस मनुष्य को, तो यह जीव निष्पाप तो बनता ही है, वह तीन लोक का नाथ भी बन जाता है । ऐसे ही जिन भावों से पुण्य का विशेष आस्रव होता है उनमें भी मुख्य है जिनभक्ति । यह जिनभक्ति ही एक दुर्गति का निवारण करने में समर्थ है और पुण्य को करने में समर्थ है और जिनभक्ति इस सद᳭मनुष्य को मोक्ष लक्ष्मी प्रदान करने में समर्थ है, ऐसा स्तोत्रों में कहा गया है । परमात्मा के उस शुद्ध निर्मल स्वरूप को सोचने से चूंकि यह शुद्ध निश्चयनय का विषय है सो अभेद विधि से निश्चयनय की गति होती है । तो जहाँ परमात्मा के निर्मल परिणमन को निहारा, वहाँ केवल अब दो ही बातें दृष्टि में रहीं । एक तो वह स्वरूप जिसकी उपासना करके यह स्वभावपरिणमन चल रहा और एक यह स्वभावपरिणमन । और, इस ही का चिंतन करते-करते स्वभावपरिणमन और स्वभाव ये परस्पर अपनी बुद्धि में विलीन होकर केवल एक स्वभावदृष्टि रहती है और स्वभावाश्रयण में स्वभाव चिंतन में विषय व्यक्त नहीं रहता है और इस विधि से अपने स्वभाव का स्पर्श हो जाता है । क्योंकि स्वभाव के चिंतन करने में पर जीव तो विषय होता नहीं, और स्वयं कहीं जाता नहीं । पारिशेष्य न्याय से स्वयं उसका विषय बन जाता है और इस तरह जिनभक्ति के प्रसाद से यह अपने आपके स्वरूप में उतर जाता है और यही मोक्षमार्ग में बढ़ाने वाला है । तो भावों से पुण्य का विस्तार है और भावों से ही मोक्षमार्ग में वृद्धि है । तो वह मोक्ष का कारणभूत भाव क्या है? आत्मा का भाव तो है आत्मस्वरूप अपने आपके एकत्व में लीन होना । ज्ञान से ज्ञान में ज्ञान ही हो । तो इस तरह हमारा उद्धार कल्याण हमारे भाव पर है । ऐसा जानकर परभावों को आदर न दें और स्वक्षेत्र को आदेय मानें और लीन होने का पौरुष करें ।