वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 113
From जैनकोष
जाव ण भावइ तच्चं जाव ण चिंतेइ चिंतणीयाइं ।
ताव ण पावइ जीवो जरमरणविवज्जियं ठाणं ।।113।।
(427) परमार्थ तत्त्व की भावना न होने तक जरामरणविवर्जित स्थान का अलाभ― जब तक यह जीव जरा तत्त्व की भावना नही करता, चिंतनीय तथ्यों का चिंतन नहीं करता, तब तक यह जीव जरा मरण से रहित स्थान को नहीं प्राप्त कर पाता । ज्ञानी जीव तत्त्वकौतूहली होता । किंतु इन दृष्टियों से कब-कब क्या तत्त्व चिंतन में आते हैं यह उसके लिए कौतूहल सा बन गया है अर्थात् स्पष्ट एकदम समझ में आने वाला बन गया । जीवतत्त्व की भावना में यह अपने आपमें सहज सिद्ध शाश्वत चैतन्यमात्र निज को निरखता यह और जब कभी 7 तत्त्वों के प्रकरण से संबंधित ढंग से जीवतत्त्व को निरखता है तो जाना कि यह जीव अजीवोपाधि के संपर्क से आश्रय और बंध अवस्था को प्राप्त हुआ यह जीव अपने आपके सम्यक् स्वभाव के परिचय से संवररूप हुआ और वैराग्य के बल से कर्मनिर्जरा भी हुई और यहाँ स्वयं विभावों का निर्जरण हुआ । विभाव का तो निर्जरण होता ही है क्षण के बाद, किंतु उनका संस्कार निर्जीर्ण होने के बाद विभावों की निर्जीर्ण है, तो ऐसे ही निर्जीर्ण हो होकर मुक्त हो जाते हैं । मुक्त होनेपर क्या कुछ नवीन पदार्थ हुआ? जो वास्तव में परमार्थत: स्वरूप था वही मात्र केवल प्रकट हुआ । अब अन्य का संपर्क यहाँ कुछ न रहा । खालिस आत्मा ही आत्मा रहे, उसके साथ कुछ भी संबंध न रहे उसही का नाम है सिद्ध भगवान । तो सिद्ध भगवान बनने का उपाय क्या है कि यहाँ ही अपने विविक्त स्वरूप को निरखिये । जैसा होना है प्रकट, वैसा स्वरूप है यहां, अन्यथा सिद्ध हो नहीं सकते । तो उस स्वरूप की भावना जब तक नहीं करता है जीव, तब तक वह जरा मरण से रहित निज धाम को नहीं प्राप्त करता ।
(428) चिंतनीय तथ्यों में व्यक्त विकार होने की विधि का दिग्दर्शन―चिंतनीय तथ्यों का चिंतन ज्ञानी नाना प्रकार से करता है, पर परमार्थ तत्त्व भावना उसकी प्रतीति में, मूल में पड़ी हुई है । जीव में व्यक्त विकार होते हैं उसका ढंग भी जान रहा । उसका चिंतन भी कर रहा व्यक्त विकार के प्रसंग में बात क्या होती है कि कर्मविपाक उदित हुआ याने कर्म में उसका अनुभाग खिला, सो उसी क्षण उपयोग में प्रतिफलन हुआ और उसके प्रतिफलन की चपेट को न सहता हुआ वह बाह्य में विषयों की ओर उपयोग लगाने लगा, यह प्रक्रिया है विकार के व्यक्त होने की । इस प्रक्रिया ने उपादान कारण तो वह जीव है, जैसा वह योग्यता में है, अज्ञानमय अध्यवसाय के संयोग में है और निमित्त कारण हुआ कर्मप्रकृति का उदय और आश्रयभूत कारण हुआ इंद्रिय का विषयभूत पदार्थ । अपने स्पष्ट निर्णय के लिए यह बात ध्यान में रखना कि मेरे विभाव भाव के लिए कर्मातिरिक्त अन्य कोई भी पदार्थ निमित्त कारण नहीं होता । निमित्त कारण एक कर्मविपाक है । जगत के अन्य पदार्थ ये निमित्त कारण नहीं किंतु आश्रयभूत हैं । इसलिए इनको आरोपित कारण कहते हैं । हम इन विषयों में अपना उपयोग लगाते हैं, यही तो एक बात है । मेरे में विभाव जैसे बने उस तरह के व्यापार से परिणत नहीं हो रहे ये विषयभूत पदार्थ, किंतु ये जहाँ धरे हैं, जहाँ खड़े हैं सो धरे हैं । उनमें अज्ञानी उपयोग देता है सो विकार व्यक्त होते हैं, उपयोग न दें या अन्यत्र उपयोग रहे, आत्मस्वरूप में उपयोग रहे, विकार तो होगा कर्मविपाक के काल में, पर वह व्यक्त न हो पायगा, अव्यक्त रहेगा ।
(429) विकारविधिपरिचय से शिक्षा―अध्यात्मग्रंथों में बुद्धिपूर्वक कथनों का जिक्र हुआ करता है । अबुद्धिपूर्वक तथ्यों का विवेचन करणानुयोग में मिलता है । तो यहाँ निमित्त कारण और आश्रयभूत कारण में अंतर जानना । आश्रयभूत कारण के उदाहरण दे देकर उस ही कोटि में कर्मविपाक निमित्तकारण को नहीं रखा जा सकता, क्योंकि निमित्त कारण के साथ कार्य का, विभाव का अन्वयव्यतिरेक संबंध है, पर आश्रयभूत कारण का विभाव के साथ अन्वय व्यतिरेक संबंध नहीं । अभी ये कर्मविपाक हमारे ज्ञान में नहीं आ रहे, ज्ञान में आ रहे हैं रागद्वेष भाव, तो कार्य देख करके कारण का ज्ञान होना इसमें ज्ञप्ति मात्र से निमित्त कारण आरोपित न कहलायगा । वह मात्र ज्ञप्ति में आरोपित है, उत्पत्ति में आरोपित नहीं । जैसे धूम को देखकर अग्नि का ज्ञान हुआ अर्थात् धूम कार्य है, धूम कार्य को देखकर अग्नि ज्ञान हुआ, इससे अग्नि में कारणत्व का आरोप नहीं है, किंतु ज्ञप्ति के प्रसंग में आरोपित है । इससे शिक्षा क्या लेना कि ये आश्रयभूत कारण तब कारण कहलाते हैं जब इनमें हम उपयोग दें, हम इनका आश्रय करें । यदि उपयोग नहीं देते, इन विषयभूत पदार्थों का आश्रय नहीं करते तो ये कारण भी नहीं हैं । पड़े हैं जहाँ के तहां और कर्मविपाक यह निमित्तकारण है । जिस उदय क्षण में उदित हैं उस क्षण में ये प्रतिफलित होते ही हैं किंतु हम विषयभूत पदार्थों में उपयोग न दें तो ये विकार व्यक्त नहीं हो पाते । सो व्यक्त विकार को तो ज्ञानबल से दूर करना, फिर इसी उपाय से अपने समय पर अव्यक्त विकार भी दूर होते हैं । तो अपना उपयोग आत्मा के परमार्थस्वरूप पर लगाने का पौरुष करना, सारे हितापेक्षित काम स्वयं हो जायेंगे । अगर हम को आत्मस्वरूप में उपयोग लगाने में कोई बाह्य अड़चन आती है, जैसे घर का ख्याल, दूकान का ख्याल, अन्य-अन्य पदार्थों का ख्याल, तो इतने बड़े आत्मस्वरूप में मग्न होने के कार्य के लिए इन सबका त्याग करने में संकोच न करना चाहिए, यह अपने लिए शिक्षा है, और साथ जितना बन सके इस ही समय इन बाह्य पदार्थों का त्याग करना चाहिए ताकि जितना भी निशल्य हो सकें उतनी नि:शल्यता के साथ हम आत्मस्वरूप का ध्यान कर सके, यही है चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग का एक सहयोग । सो ऐसे सहज अंतस्तत्त्व की भावना जब तक नहीं जगती तब तक जरा मरण से रहित स्थान प्राप्त नहीं होता ।
(430) घटना प्रसंगों में आदेयों का वैविध्य―एक बहुत ऊंचा लक्ष्य लेकर मुनि भी चला तो भी उसके अनेक घटित हेय उपादेय के परिणाम होते रहते हैं, तो गृहस्थों के तो और भी अधिक रूप से तथ्यों के हेय उपादेय के परिणाम होते रहते हैं । जगत में ये बाह्य कुटुंब समागम ये राग के नोकर्म हैं, शस्त्र, विष कंटक, शत्रु आदिक ये द्वेष के आश्रयभूतकारण हैं, तो ऐसे समागम हेय हैं, पर जैसे मुनि अनेक घटनाओं से गुजरता है तो उसके ध्यान में यह रहता ना कि शुद्ध विधि से चर्या से शुद्ध आहार करना यह उपादेय है और अध:कर्म दूषित आहार करना हेय है, ऐसी भी बातें बीच-बीच आती रहती हैं । पर मौलिक बात यह है कि चाहे शुभ हो चाहे अशुभ हो, सभी प्रसंग आत्महितार्थी के लिए हेय हैं । पर घटना तो सब पर नाना घट ही रही है । अगर घटनागत बातों में अच्छे बुरे का निर्णय न रखे तो भी काम आगे न बढ़ेगा । सो जैसे कोई भवन बनाने के लिए पुरुष भवन बनाता है तो यह उसका मूल लक्ष्य रहता है, पर रोज-रोज उसके अनेक उपलक्ष्य चलते रहते हैं, जैसे आज कारीगर से मिलना, आज इतने मजदूर तय करना, सीमेन्ट की परमिट पास कराना, लोहा, ईंटा आदि के संबंध में अमुक-अमुक जगह जाकर बात करना आदि? ये सब उसके उपलक्ष्य हैं । लक्ष्य के समीप पहुंचने के प्रयास में उसके ये लक्ष्य आते रहते हैं । ऐसी बहुत सी बातें घटित होती रहती हैं । तो जीवन पर जो घटित है उसमें जो हेय उपादेय का निर्णय न रख सका तो वह कहां से भूलकर कहां पहुंच सकेगा । बीत रही है; उसे संभालना तो बहुत आवश्यक है और उसकी मौलिक संभाल मूल लक्ष्य में होती है । भले ही जाना है 5 मील दूर के गांव पर, अब चलने वाले के भावों को देखिये―जहां से वह चल रहा है वहाँ से वह प्रत्येक कदम पर अपनी उमंग रखता चला जा रहा है । हां अब आ गए इतनी दूर, अब थोड़ी दूर और रह गया, अभी इतनी दूर और चलना है, मूल लक्ष्य तो उसका अंदर में है, पर उसके साथ घटनाओं को कहां छोड़े, वहाँ का भी चिंतन चलता है । तो जो चिंतनीय तथ्य हैं उनका जब तक चिंतन नहीं करता और जो परमार्थभूत भाव है उसकी भावना नहीं करता तब तक यह जीव जन्म जरा मरण से रहित स्थान को नहीं प्राप्त कर सकता ।
(431) अखंड द्रव्यों के स्वरूप व प्रदेशों का चिंतन―कभी अखंड द्रव्य के अवयव के चिंतन में भी चलता है । जो द्रव्य बहुप्रदेशी है और अखंड है उसके अवयव अथवा अंश या कहो प्रदेश, उनपर जब यह दृष्टि रखकर ध्यान देता है तो वहाँ अनेक चिंतन चलते हैं । वे धर्मद्रव्य के प्रदेश उपादेय है जो निमित्त बने कि जीव उत्तम गति के स्थानपर पहुंच गया । अरे वे धर्मद्रव्य के प्रदेश हेय हैं, जो निमित्त रहे कि जीव नारकादिक दुर्गतियों के स्थान में पहुंच गया, ये सब उसके ज्ञान के कौतूहल चलते रहते हैं । धर्म अधर्म द्रव्य एक है मगर वह अखंड धर्मद्रव्य समग्र निमित्तभूत नहीं होता । प्रदेश उसके भिन्न नहीं हैं, अभिन्न हैं तो भी गति स्थिति आदिक में वे अवयव निमित्तभूत होते हैं । इसके आधार पर कुछ दार्शनिक ढंग से न्याय शास्त्रों के अनुसार भी चिंतन चलता है । अहो वह आकाश प्रदेश तत्त्व उपादेय है जहाँ सिद्ध भगवान का अवस्थान है, वे ठहरे हैं । और जो नारकादिक में है वे हेय है । चीज यह बिल्कुल बाह्य है, पर चिंतन ही तो चल रहा । यों कितनी प्रकार के तत्त्व कौतूहलों में रहते हुए यह परमार्थ तत्त्व को कभी नहीं भूलता । ये ज्ञान के विकास, ज्ञान की कलायें इन सब तथ्यों के कौतूहलों को बनाता है । तत्त्वचिंतन में भी युक्ति पूर्वक चल रहा सर्व अखंड द्रव्यों का जैसा स्वरूप है वहाँ ध्यान ला रहा । द्रव्य अखंड यों कहलाता कि कोई एक परिणमन हो तो वह समग्र में होता है । उस पर भी वह सांश है । आकाश सर्वव्यापक है, फिर भी सांश है । अनंत अवयव अनंत प्रदेश ये स्वक्षेत्र के अवयव हैं, इस कारण से अनेक द्रव्यों के संयोग से बने इन स्कंधों की तुलना नहीं होती, जहाँ के अवयव एक-एक द्रव्यरूप हैं, अखंड पदार्थ के अवयव एक-एक प्रदेशरूप है, परमाणु एक प्रदेश में रह रहा । यदि आकाश निरंश होता तो आकाश या तो परमाणु बराबर रहता या परमाणु आकाश बराबर हो जाता । जगत की इन व्यवस्थाओं को भी यह ज्ञानी अपने तत्त्व कौतूहलपने से जान रहा है । सब कुछ जानते हुए भी निज का जो परमार्थ स्वरूप है उसकी प्रतीति कभी नहीं हटती ।
(432) प्रायोजनिक अनुभूत तत्त्व के स्मरण की प्राकृतिकता―मैं स्वयं अपने ही सत्त्व से किस स्वरूप हूँ इसका परिचय अनुभव इस ज्ञानी को हुआ है । तो जो बात अनुभव में आ जाये वह कैसे भूली जा सकती? जो बात अनुभव में आ जाये और प्रयोजनभूत न हो वह तो कभी भूली भी जा सकती । और, भूलती ही है और जो प्रायोजनिक हैं और अनुभव में आयी हुई है वह बात कभी नहीं भूली जा सकती । यों तो रोज-रोज अनगिनते अनुभव बनते रहते हैं, भोजन किया, बात की, नफा है, नुकसान है, सम्मान है, अपमान है, यों अनेक अनुभव में आते, पर उनसे प्रयोजन कुछ नहीं, इसलिए उस काल में अनुभव आया, बाद में ख्याल नहीं रहता । पर ज्ञानी जीव को तो इस परमार्थ स्वरूप से प्रयोजन बना हुआ है । क्योंकि सार ही यही एक मात्र है । और इस अनुभव में ही वास्तविक शांति है । तो इस स्वभाव का स्वरूप का अनुभव करने पर इसको कभी नहीं भूल पाता, और कभी अन्य प्रसंग में लग जाये उपयोग तो वह अनुभवरूप भूल रहा है । पर उस कार्य के निपटते ही प्रतीति इसकी निरंतर बनी रहती है । अपने स्वरूप की और अभिमुख होना, पर की ओर लग कर भी अपनी ओर खिंचने का योग रहना यह प्रतीति को जाहिर करता है । तो ज्ञानी के निरंतर अपने सहज चैतन्यस्वभाव की प्रतीति रहती है । मैं हूँ यह, अन्य रूप नहीं ।
(433) पर्यायबुद्धि में आत्महितभावना का घात―पर्यायबुद्धि से यह घर में रहे तो वहाँ मोह करता है । कहीं बाहर रहे, यात्रा में रहे, सफर में रहे तो वहाँ भी यह अपने अज्ञानमय भाव का विस्तार करता है और कभी माने गए धर्म के प्रसंग में रहे तो वहाँ भी अज्ञानमय अव्यवसान का ही प्रसार करता है । आत्महित की सच्ची लगन नहीं बन पाती । जैसे कहीं भी गृहस्थ रहें तो वे अपने कुटुंब की वासना को नहीं छोड़ते, ऐसे ही किसी भी प्रसंग में रहें पर्यायबुद्धि वाले जीव, तो वे अपने संग की, सोहबत की, पक्ष की, पार्टी की बात को भीतर से भूला नहीं पाते । और जिनको केवल आत्मा से ही नाता है उनके इन बातों का कुसंग नहीं आता । केवल एक स्वतंत्र निःशल्य अपने आपके स्वरूप की ओर अभिमुख रहते हैं । तो जब तक इस परमार्थ चैतन्यमात्र अंतस्तत्त्व की भावना नहीं बनती तब तक यह जन्मजरामरणरहित परम पद को प्राप्त नहीं होता ।
(434) आत्मा का परमपद व उसकी प्राप्ति का उपाय―वह परमपद क्या है ? ज्ञान से ज्ञान में ज्ञान ही हो, यह स्थिति बनना परम पद है और इसका परिणाम क्या होता है कि कर्म नोकर्म के बंधन से रहित हो जाता है और तीन काल वर्ती समस्त पदार्थों का जाननहार केवलज्ञान प्रकट हो जाता । कल्याण के लिए केवल एक ही कार्य करना है, सहज ज्ञानस्वभावरूप अपने आपको मानना और ऐसा ही उपयोग बनाना कि जिसमें सहज ज्ञानस्वरूप ही स्वयं अनुभव में रहे ꠰ कठिन भी बात बराबर के अभ्यास से सहज हो जाती है और कठिन जानकर उससे अलग रहने का निर्णय रखने वाले उस तत्त्व को कभी प्राप्त कर ही नहीं सकते । निज की निज में दुविधा ही क्या? मैं हूँ, ज्ञानस्वरूप हूँ, जानन का निरंतर कार्य करता रहता हूँ सो सदा निज को ही जानने का कार्य करता रहता हूँ । चाहे मिथ्यात्व में रहा कोई जीव चाहे सम्यक्त्व में रहा, सभी जीव निज को ही जानने का काम करते हैं, पर अंतर यों बन गया कि निज को पर रूप से जानने का काम तो हुआ मिथ्यात्व में और निज को निज रूप से जानने का काम हुआ सम्यक्त्व में इतना ही तो अंतर तोड़ना है । कोई अधिक दुविधा की बात नहीं है । तो निज ज्ञानस्वरूप मात्र अपने आपको अपने ज्ञान में अनुभवना, यह ही एक वह कार्य है कि जिसके प्रताप से परमकल्याण में पहुंचने के लिए जो होना है सो हो जाता है ।