वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 117
From जैनकोष
णाणावरणदीहिं य अट्ठविं कम्मेहिं वेढिओ य अहं ।
डहिऊण इण्हिं पयडमि अणंतणाणाइगुणचित्तां ।।117।।
(462) कर्म भस्मसात् करने का ज्ञानी का चिंतन―जिस वचन के अनुसार चिंतन और परिणति रखने वाला सम्यग्दृष्टि ज्ञानी चिंतन करता है कि ज्ञानावरणादिक अष्ट कर्मों से मैं वेष्टित हो रहा हूँ सो अब इन्हें भस्म कर अनंत ज्ञानादि गुणरूप चेतना को प्रकट करता हूँ । किसी भी पदार्थ की बुरी दशा नहीं हो सकती यदि वह केवल हो । परप्रसंग से ही पदार्थ की बिगड़ी दशा हुआ करती है । सत्त्व सबका अपने आपमें है और अपने ही द्रव्यत्वगुण के परिणाम से अपनी ही परिणति से सब परिणमते हैं । किंतु परिणमने वाले पदार्थों में यह कला है कि वे इस प्रकार के निमित्तसन्निधान में विकाररूप परिणम जायें । तो यहाँ चिंतन चल रहा है कि मैं ज्ञानावरणादिक अष्टकर्मों से बिगड़ा हुआ हूँ, ऐसा ही योग चलता रहता है । जीव के साथ कर्मउपाधि लग रही है जिसका फल है संसारभ्रमण । ये कर्म मूलत: 8 हैं, इनके उत्तर भेद 148 हैं । और उनके भी भेद किए जायें तो असंख्यात हैं । इन असंख्यात अनगिनते कर्मप्रकृतियों से मैं वेष्टित चला आ रहा हूँ अब इन्हें भस्म करके, नष्ट करके अपनी अनंत ज्ञानचेतना को प्राप्त करूंगा ।
(463) कर्मों को नष्ट करने का उपाय―कर्मों को नष्ट करने का उपाय क्या है ? जो बंधने का उपाय है उससे उल्टा चलें तो उनसे छूटने का उपाय बनेगा । बंधने का उपाय क्या था? अपने स्वरूप को भूलकर उन कर्मविपाकों को अपना लेना । तो इससे उल्टा कहा जा रहा कि अपने स्वरूप की सुध करके उन कर्मविपाकों से उपेक्षा कर लेना और अपने आपके ज्ञानस्वरूप में उपयोग रखना, ये कर्म अपने आप दूर हो जायेंगे । किसी से मित्रता तोड़ना हो, किसी महिमान को हटाना हो तो उसका अस्त्र है उपेक्षा और अपने आप से काम रखना । जब यह कर्मों का भी प्रसंग चला है तो इनसे दूर होने का अस्त्र है उनकी उपेक्षा और अपने स्वभाव का आश्रय । तो अपने स्वरूप का आश्रय करके मैं अनंत ज्ञानादिक परिणामों को पाऊंगा ऐसा ज्ञानी का भीतर में उत्साह और चिंतन चल रहा ।