वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 116
From जैनकोष
तव्विवरीओ बंधइ सुहकम्मं भावसुद्धिभावण्णो ।
दुविहपयारं बंधइ संखेपेणेव बज्जरियं ।।116।।
(460) भावशुद्धिप्राप्त ज्ञानी के शुभकर्म का बंध सबका अबंध―जो मिथ्यादृष्टि से उल्टा है अर्थात् सम्यग्दृष्टि हैं, जो जिन वचन का आदर रखता है वह ज्ञानी जीव भावशुद्धि को प्राप्त होता हुआ शुभ कर्म का बंध करता है । सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव के कर्मबंध हो तो पुण्य की विशेषता चलती है और जो रत नही नाही विरत है ऐसे अंतस्तत्त्व की लीनता में हो, उसके अभिमुख हो तो वह दोनों प्रकार के बंधों को टाल देता है । यह मैं आत्मा स्वयं सहज सिद्ध अपनी सत्तामात्र, बस ज्ञानमात्र स्वयं जो है परसंपर्क बिना, जिसकी परिणति है शुद्ध ज्ञान तरंग, शुद्ध जानन, मोटे रूप से यह कहो कि कुछ जाना नहीं जाता है वह है शुद्ध जीव । जान रहा, पर आदत प्राणियों को ऐसी पड़ी है कि जिसमें कुछ विकल्प सा बने, वह जानन कहलाता है । चीज क्या आयी जानन में, यह बात ठीक करके बताओ, यदि बता सकते हो तो जानन कहलायेगा । जहां करके बताने का विकल्प है उसे लोग जानना कहते । किंतु शुद्ध जानन सहज विभक्त तत्त्व है ऐसे ज्ञान का शुद्ध तरंग जो अपने ही अगुरुलघुत्व गुण के परिणाम से होना रहता है वह है मेरा रोजगार और वह है मेरा सर्वस्व और इतना हीं मैं वास्तविक हूँ, इसका जिसे परिचय है उसके पाप और पुण्य दोनों ही नाश को प्राप्त हो जाते हैं याने वह मोक्ष के निकट पहुंचा और मुक्त हो जायेगा ।
(461) तेरह गुणस्थानों की आस्रवहेतुता की दृष्टि―बंधन 10वें गुणस्थान तक है और कर्मों का आस्रव 13वें गुणस्थान तक है सयोग केवली अरहंत भगवान, वहाँ तक आस्रव है परंतु वह ईर्यापथास्रव है, जहाँ बंध है वहाँ सांपरायिकास्रव है । वह आस्रव है, तो इसके मायने हैं कि वह गुणस्थान आस्रव का हेतुभूत है । तब इसका अर्थ क्या निकला कि वह गुणस्थान कभी से बना हुआ है, तब इसके आगे और क्या बात आयी कि उस प्रकार का वहाँ विपाक उदय है । जब आस्रव के ख्याल से निगरानी कर गुणस्थानों की तब वहाँ दोष मिलेंगे और जब गुणों के विकास की भक्ति करेंगे तब सम्यग्दृष्टि के उन दोष पर भी उसकी निगाह न होगी, जो रह गए हैं दोष । यह तो दृष्टि से निर्णय चला । अब उन्हीं निर्णयों में एक दृष्टि का हठ कोई कर ले, बस विवाद हो गया । जैनशासन में विवाद रंच भी नहीं है, न कहीं भी शंका है, क्योंकि यहाँ स्याद्वाद का आश्रय है । एक बार किसी राजा ने अपने मंत्री से पूछा कि हमारे राज्य में अच्छे लोग अधिक हैं कि बुरे लोग? सो मंत्री ने कहा―महाराज सभी बहुत अच्छे हैं और सभी बुरे है । तो यह बात राजा की समझ में ठीक-ठीक न आयी । तो राजा को समझाने के लिए उसने दो फोटो बनवायी एक जैसी, और उनमें से एक फोटो किसी ऐसी जगह टंगवा दिया कि जहाँ से अनेकों लोगों का आना जाना बराबर बना रहता था । उस फोटों में नोट में लिख दिया कि कृपया इस फोटो में जिसको जो अंग बुरा जंचे उस पर निशान लगा दीजिए । तो हुआ क्या कि जो भी उसे देखता और उस फोटो में बने अंगों में बुरा देखने की दृष्टि बनाता तो उसे हर एक अंग बुरा दिखता । यों हर एक अंग निशान से भर गए मतलब यह हुआ कि लोगों को हर एक अंग बुरे जचे । दूसरे दिन दूसरी फोटो टंगवा दिया और नोट में लिख दिया कि कृपया इस फोटो में आपको जो अंग भले लगें उनमें निशान लगा दीजिए सो हुआ क्या कि देखने वाले लोगों ने उसको भली दृष्टि से देखा तो उसके सारे अंग निशान से भर गए । मंत्री ने जब राजा को दोनों ही फोटो दिखाये तो राजा देखकर दंग रह गया और समझ लिया कि मंत्री ठीक ही कह रहा था कि सब अच्छे और सब बुरे हैं । तो ऐसी ही सर्वत्र दृष्टि है । अध्यात्म में बताया है कि 13 गुणस्थान आस्रव के हेतुभूत है तो यह बात सुनकर लोग चौकन्ना हो जाते कि क्या बात कही जा रही है । 13वां गुणस्थान तो अरहंत भगवान का है, इसमें आस्रव कैसे कहा? पर बताया गया है कि चौथे गुणस्थान से गुणों का विकास चला तो अनेक गुणों का विकास हो जाता । कैसे शुद्धोपयोग होता जाता, यह भी वर्णन है । पर इसकी दृष्टि इससे अलग बन गई । एक ने गुणविकास की दृष्टि ली । एक ने विपाकोदय और कमी की दृष्टि ली, तो ऐसे ही सर्वत्र दोनों नयों से, दोनों दृष्टियों से दोनों ही तथ्य नजर आते हैं, अब रही अपनाने की बात, तो जिसके अपनाने में इस सहज सत्त्व की लीनता बन सकें उसे प्रधान करके अपना लीजिए । तो इस तरह अंतस्तत्त्व के जानने से भक्ति में लीनता से ये समस्त उपाधियां दूर हो जाती है । और यह मोक्षमार्ग में वेग से गमन करने लगता है ।