वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 122
From जैनकोष
झायहि पंच वि गुरवे मंगलचउसरणलोयपरियरिए ।
णरसुरखेयरमहिए आराहणणायगे वीरे ।।122।।
(483) अर्हत्सिद्धसाधुधर्म की उपास्यता―हे आत्मन् ! पंचपरमेष्ठियों का ध्यान कर ꠰ दर्शन करने में सर्वप्रथम णमोकार मंत्र और चत्तारिदंडक बोलने का एक रिवाज है, और वह होना भी चाहिए । इसके बाद फिर कोई भी स्तुति पढ़े । चत्तारि दंडक में चार को मंगल कहा, लोकोत्तम कहा और शरण कहा । उन चार में अरहंत, सिद्ध और साधु कहने से परमेष्ठी बनता है । साधु में आचार्य उपाध्याय और साधु तीनों आते हैं और अरहंतसिद्ध ये अलग से कहे ही गए हैं । और चौथी बात है केवली के द्वारा कहा गया धर्म । इसमें अपने करने योग्य कार्य क्या है यह सब लक्ष्य में आ जाता है । धर्म है आत्मस्वभाव । आत्मा का स्वभाव है मात्र जानन, चेतना, और सदा उसकी वृत्ति चलती ही रहती है, चाहे उपाधि के संबंधवश कुछ विभावरूप चले, पर चलना यह है ज्ञान की परिणति । जैसे क्रोध, मान, माया, लोभ इनमें से कोई भी कषाय निरंतर नहीं रहती, यह बतला रहे हैं । देखो क्रोध के समय मान, माया, लोभ होता ही नहीं उदय में, ऐसे ही मान के समय तीन बातें नहीं होती, माया और लोभ में भी शेष बातें नहीं होतीं । जिस जीव के अज्ञानभाव है और क्रोध में लग रहा है तो उस समय उसके 16 कषायें नहीं हैं विपाक के अनुभव में किंतु चार क्रोध हैं-अनंतानुबंधी क्रोध, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, प्रत्याख्यानावरण क्रोध और संज्वलन क्रोध । जब वही जीव मान में आया तो चार मान हैं, शेष 12 बातें नहीं हैं । तो ऐसी ये कषायें सबकी सब एक साथ नहीं चल पातीं । पर ज्ञान कैसा ही जाने, ज्ञान की वृत्ति चलती ही रहती है ।
(484) सर्व परिणमनों का ज्ञानपरिणमन में अंतर्भूतता―भैया ! अंत: निरखें तो सब कुछ ज्ञान में भी बात आती है । ज्ञान का इस तरह प्रवर्ताना यह ही दुःख है, यह ही सुख है, यह ही कषाय है मूल चीज तो वह एकरूप है । उस ज्ञान के ही इस प्रकार के परिणमन होते हैं संपर्क में कि वे ही इन सब रूप कहलाते हैं । अभेद से देखें उस अशुद्ध परिणति को तो वह ज्ञान ही इन रूप परिणम रहा है । जिस ज्ञान ने सोचा कि यह मेरे को बड़ा इष्ट है तो वह समागम होनेपर यह द्वेषरूप परिणमता है । इन परिणमनों से हुआ क्या? ज्ञान की ही इस ढंग से परिणति हुई कि उसने सुख दुःख माना । मान लो किसी के घर कलकत्ते से तार आया कि इस बार अमुक व्यापार में 1 लाख रुपये का फायदा हुआ, अब यही तार पढ़ने में मानो ऐसा आया कि 1 लाख रुपये का नुक्सान हुआ तो अब उसकी हालत देख लो कैसी हो जाती है । कहां तो आया सुखद समाचार, पर उसकी समझ में आयी उससे उल्टी बात तो झट वह बड़ा दुःखी हो जाता । अब देख लो बाह्य पदार्थों के होने से सुख दुःख कुछ नहीं होता, किंतु उन परपदार्थ के विषय में जैसा ज्ञान बनता है सुखरूप अथवा दुःखरूप, उस प्रकार की उसकी परिणति हो जाती है । यदि बाह्यपदार्थ से सुख मिलता होता तब तो चाहे वह तार आता या न आता, पर इसे सुखी हो हीं जाना चाहिये था, पर ऐसा तो नही होता ।
(485) विकारोपपत्तिविधान व उसके न्यक्कार का साधन―यहां एक बात खूब ध्यान से समझना कि हमारे विकार के व्यक्त होने में तीन कारण होते है―(1) उपादान (2) निमित्त और (3) आश्रयभूत । उपादान तो है यह स्वयं योग्यता वाला जीव और निमित्त कारण हुआ उस प्रकार का कर्मोदय और शेष इंद्रिय मन के विषय ये सब आश्रयभूत कारण हैं । इनमें हम उपयोग फंसायें तो विकार व्यक्त होते हैं । यदि हम उपयोग को जितनी हममें सामर्थ्य है ज्ञानबल से, उसे अपने आत्मस्वरूप की ओर ले जायें और उसी में ही ध्यान लगायें तो विपाक उदय होने पर विकार तो प्रतिफलित हो गए मगर व्यक्त रूप न बन पायेगा, वह अबुद्धिपूर्वक कहलायेगा । तो अपना कर्तव्य क्या होता हैकि इन बाह्य आश्रयों को उपयोग में न लें और इनके लिए करना क्या चाहिए कि इन बाह्य आश्रयभूत पदार्थों को परिहार करें, त्याग दें, इस ही बुनियाद पर चरणानुयोग में त्याग बताया है । न रहेगा सामने तो उसका ख्याल भी न होगा । यद्यपि यह नियम नहीं कि बाह्य त्याग का ख्याल ही न रहेगा । मगर प्राय: यह होता कि जब दूर रहते, त्याग दिया, अलग हैं तो उसका ख्याल नहीं होता । और, उपयोग दूसरी ओर चलने लगता । तो आश्रयभूत पदार्थों में उपयोग न जाये, यह एक बड़ा पौरुष है । इसके फल में विकार व्यक्त नहीं होते और इस ही के बल से अपने आप सहज ही अव्यक्त विकार भी दूर होते तो विपाक भी दूर होने लगता है । तो करने का काम एक यही है, परंतु इस काम के करने में बाधायें बहुत आती हैं तो उन बाधाओं को दूर करें । उसका उपाय है ये ग्यारह प्रतिमा, मुनिव्रत, ये प्रक्रियायें बनायें । इन प्रक्रियावों से उन बाधाओं को दूर करें, जिससे हम निःशल्य होकर इस सहज अंतस्तत्त्व के ध्यान में अधिकाधिक प्रगति कर सकें । तो अपने कल्याण के अर्थ करने योग्य कार्य एक यह ही है कि निज को निज जान लें ।
(486) परत्वविज्ञान से वैराग्यवृद्धि होने योग्य पद्धति का प्रयोग―भैया ! पर को पर जानना भी आवश्यक है ताकि हम निज को निज भली भांति समझ सकें । मैं यह हूँ और इस पर ध्यान जमे एतदर्थ अन्य ज्ञान विज्ञान भी आवश्यक बनते हैं । लोकरचना जानें । इतना बड़ा लोक जिसके समक्ष यह आज की परिचित दुनिया एक बूंद बराबर है । इतने से क्षेत्र में यदि कुछ अपना रोब जमाया, शान बनायी तो बाकी क्षेत्र में तो कुछ नहीं हुआ इतने की ही तृष्णा क्यों करते? थोड़े से लोगों में शान, प्रभाव बनाना यह विकार व्यर्थ है । पर जीव तो सब अनंत हैं । सबने तो आपकी महिमा नहीं जान पायी । उन अनंत जीवों में से अगर 10-20 हजार या कुछ अधिक लोगों को जानकारी करायी तो यह तो बिंदु बराबर भी गिनती नहीं है । तो यह समस्त लोक काल जीव का जितना विज्ञान है वह विज्ञान हमें सहयोग देता है वैराग्य की मुद्रा में । तो जिस तरह से हम बाह्य पदार्थों से, आश्रयभूतों से हटे और अपने सहज अंतस्तत्त्व में लगें तो यह ही हमारा एक कल्याण का उपाय है । इसके लिए चाहिये स्वाध्याय और सत्संग । मात्र स्वाध्याय से भी हमारी वृत्ति आगे नहीं चलती । संसार, शरीर और भोगों से विरक्त आत्मध्यान की धुन रखने वाले संत पुरुषों का समागम यह भी एक प्रेरक वातावरण है । तो सत्संग में रहते हुए, स्वाध्याय में विशेष उपयोग देते हुए आत्ममनन करें, यह ही एक ऐसा उपाय है कि हम इस संसार के संकटों से दूर हो सकेंगे ।
चत्तारिदंडक में जितने पद हैं वे सब एक-एक रूप हैं । यदि पद के पूर्व ॐ ऐसा बीजाक्षर लिखा जाये अथवा ह्रीं साथ में लगाया जाये तो यह पूरा मंत्र का रूप हो जाता है । (1) पहला पद है अरहंता मंगलं, याने अरहंत भगवान मंगल हैं । मंगल का अर्थ है जो पापों को गलाये और सुख उत्पन्न करे । अरहंत भगवान का ध्यान करने से पापों का क्षय होता है और सुख उत्पन्न होता है । ध्यान उपयोगी की स्थिरता का नाम है । इस देह में उपयोग किस जगह समाया जाये तो ध्यान में सहयोग मिले? इसके लिए कई साधन बताये हैं । जैसे दोनों नेत्रों के बीच में चित्त को संलग्न करें और ध्यान करें । दोनों कर्णों में या उनकी संधियों में ध्यान लगायें । नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि लायें । ध्यान की एकाग्रता के लिए ये साधन बताये जा रहे हैं । पूर्व में कोई सहारा लिया जाये उसका यह कथन है । ललाट में चित को रोक कर ध्यान करें, इसी प्रकार मुख, नाभि, सिर, हृदय, तालू और इन भौंहों के बीच में चित्त को स्थिर करें । जिसे कहते हैं कि यहाँ उपयोग लगायें और फिर तत्त्व का ध्यान बनायें, और बीच-बीच एक स्थान से हटाकर शरीरके अंगों में से दूसरे स्थानपर ध्यान करें ।
(487) अरहंतध्यानपद―पहला ध्यान बना अरहंता मंगलं अरहंत भगवान मंगल हैं दूसरा ध्यान है―अरहंता लोगुत्तमा, याने अरहंत भगवान लोक में उत्तम है । लोग लोक में बड़ा आदमी ढूंढ़ते हैं तो किसी को धनी विदित होता है, किसी को नेता, किसी को कोई उच्च पदाधिकारी, पर वस्तुत: महान वह पद है जिसके बाद पद से नीचे न गिरना पड़े । मान लो आज कोई बड़ा धनिक है और इसी जिंदगी में वह हो गया अत्यंत गरीब तो काहे का बड़प्पन, और मान लो आज कोई बड़ा ऊंचा अधिकारी है और कुछ दिनों में वह उस पद से हट गया तो कहा रहा उसका बड़प्पन ? तो ये कुछ बड़प्पन नहीं हैं, पर जो आत्मा ज्ञानी हुए, अरहंत हुए, उनका पद अब घट नहीं सकता, वे सिद्ध ही होंगे । तो अरहंत भगवान लोक में उत्तम हैं । तीसरा ध्यान पद हैं अरहंता सरणं याने अरहंत भगवान शरण हैं । कहां उपयोग जाये, कहां चित्त बसाया जाये कि कुछ अपने को ऐसा महसूस हो कि मुझ को कुछ शरण मिला है, कुछ परवाह नहीं है । अब आनंद का विस्तार बनाया जा सकता है, ऐसा कोई शरण है क्या लोक में? केवल एक शुद्ध आत्मदेव । उसका ध्यान ही एक शरण है ।
(488) सिद्धध्यान पद―चौथा पद है―सिद्धा मंगलं याने सिद्ध भगवान मंगल हैं । सिद्ध स्वरूप आत्मा का सर्वोत्कृष्ट स्वरूप है । बाहरी मलो से रहित, अंतरंग दोषों से रहित जैसा आत्मा का सहज स्वरूप है वैसा ही जहाँ प्रकट है वे सिद्ध भगवान मंगल हैं, उनका ध्यान करने से पापों का क्षय होता है और सुख की प्राप्ति होती है । 5वां पद है सिद्धा लोगुत्तमा, याने सिद्ध भगवान लोक में उत्तम हैं । लोक वहाँ तक है जहाँ तक सिद्ध पाये जा रहे । लोक का अंतिम प्रदेश और सिद्ध भगवान की आत्मा के आखिरी प्रदेश ये एक जगह हैं । उसके आगे लोक नहीं है । तो वह लोक है स्वयं । उसमें वे विराजे हैं तो वे उत्तम हैं । छठा पद है सिद्ध सरणं । सिद्ध भगवान शरण हैं । सिद्धभगवान का स्वरूप अत्यंत विशुद्ध है, स्वभाव के अनुरूप, परसंपर्क भी जहाँ नहीं है ऐसे उस स्वभाव विकास पर दृष्टि देने से चूंकि स्वभाव और स्वभावविकास ये अनुरूप हैं तो अभेद होकर स्वभाव में दृष्टि रहती है । तो स्वभाव में दृष्टि रहती है । तो स्वभाव में दृष्टि पहुंचने पर फिर अन्य व्यक्ति लक्ष्य में नहीं रहता, किंतु वह स्वयं निज स्वरूप में अनुभूत होता है और यही दृष्टि वास्तविक शरण है, अपना परिणाम निर्मल करने के लिए सिद्ध भगवंतों का सदा ध्यान रखना चाहिए उससे यह बल मिलता है और आत्मा को एक सन्मार्ग प्राप्त होता है ।
(489) साधुध्यानपद―7 वां पद है साहू मंगलं याने साधु मंगल हैं, देव और गुरु इनमें देव तो होते हैं आदर्श, हमको भी यही बनना है और गुरु होते हैं तत्काल एक प्रतिबोध कर सकने वाले पुरुष । सो दोनों के बिना बात नहीं बनती । लक्ष्य और ध्यान किसका बने और तत्काल हमें प्रेरणा कौन दे? दोनों ही आवश्यक हैं, जैसे कोई संगीतकला सीखता है तो सीखने वाले के चित्त में उसके भावानुरूप कोई पुरुष रहता है लक्ष्य में कि मुझको तो ऐसा बनना है । किसी भी प्रसिद्ध व्यक्ति का नाम ले लिया जो कि संगीतकला में सर्वनिपुण है । अब वह मिलेगा कहां सिखाने को? सो वह अपने ही गांव का, मौहल्ले का कोई उस्ताद जो कि संगीत कला का जानकार हो उसे अपना उस्ताद बनाता है । तो अब देखो उस संगीत कला का देव तो उसे समझो जिसका जैसा बनने का लक्ष्य बना और गुरु वह हुआ जिसके द्वारा संगीत सीखा । तो ऐसे ही समझो कि देव मिला अरहंत सिद्ध, सो मंगलस्वरूप हैं, मगर इस समय जिससे प्रेरणा मिली आत्महित के लिए वह तो है साधु, तो साधु मंगल हैं । 9वां पद है साहु लोगुत्तमा, याने साधु लोक में उत्तम हैं । जो आत्मदृष्टि करता है, आत्मा की साधना करता है और जिस साधना के लिए जिसने सर्व परिग्रहों का त्याग कर रखा है उसे आत्मतत्त्व दृष्टिगत हुआ । ऐसी भावना वाले पुरुष साधु लोकोत्तम कहलाते हैं । 9वां पद है साहू सरणं याने साधु शरण हैं । अपने से कोई गल्ती हो तो किससे निवेदन किया जाये कि वह गल्ती दूर हो । जो स्वयं गृहस्थ है, श्रावक है, गल्ती कर रहा है उससे निवेदन करने में तो कोई लाभ नहीं है याने अपने जीवन में गुरु से संबंध बनाना कितना आवश्यक है । अन्यथा याने गुरु न हो तो उसका उत्थान होना कठिन है । अनेक बातें जानें । केवल इतना ही न समझिये कि इस पुस्तक को पढ़ जाऊं, कुछ ज्ञान सीख लूं, इतने मात्र से किसी गृहस्थ को गुरु मानकर एक अपने जीवन को निर्दोष समझकर संतोष न करें । दोष स्वयं होते ही रहते हैं । तो गृहस्थों में तो प्रतिदिन अनेक दोष होते हैं । जिनका होना उस पद में उचित नहीं है तो किसी गुरु से निवेदन करें, तो एक आन रहती है, चित्त रहता है कि मुझसे इतने दोष न बनें तो गुरु की आन, विनय, भक्ति मान्यता बिना इस जीवन में सूनापन है, उत्थान का मार्ग नहीं है । तो उत्थान के लिये ये साधु शरण हैं ।
(490) धर्मध्यानपद―10 वां पद है केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं, याने केवलीभगवान के द्वारा कहा गया धर्म मंगल है । वह धर्म क्या? तो उसके आंशिक पारमार्थिक सभी प्रकार के रूपों को लेकर चलना होगा और तब ही धर्म के लक्षण चार बताये हैं । आचार्यों ने उनमें सबसे प्रथम कहा है जीवदया । परदया भी लीजिए स्वदया भी लीजिए । दयाहीन मनुष्य व्रत तप का पालन कर ले तो भी वह स्वर्ग नहीं जा सकता और दयाशील मनुष्य बाह्य व्रतादिक भी चाहे न करे तो भी उसे स्वर्ग सुगम है, वह सद्गति का पात्र होता है । दयालु पुरुष ऐसा समझता है कि किसी प्रकार का अनुचित कार्य करके अपने आप में दयाहीनता बढ़ा लेना यह जीवदया में बाधक हैं । आवक पद में तो इस दयालु पुरुष की पद-पद पर प्रतिष्ठा होती है । हां मुनि पद में स्वदया की विशेषता है । धर्म का एक लक्षण बताया है रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र) । तीसरा लक्षण कहा है उत्तम क्षमा आदिक दस लक्षणरूप और चौथा कहा गया है आत्मा का स्वभाव वस्तु दर्शन । पद्मनंदी आचार्य ने प्रथम परिच्छेद में धर्म की इन लक्षणों से व्याख्या शुरू की है । मेरा धर्म मंगल है, ऐसी वृत्ति बने तो पाप दूर होता है और आनंद उत्पन्न होता है । 11वां पद है धम्मों लोगुत्तमो, याने लोक में धर्म उत्तम है । कभी किसी पुरुष के प्रति यह समझ बनती है कि यह पुरुष महान है तो उसका अर्थ क्या है कि इस पुरुष में धर्म विराजमान है और उस धर्म की बदौलत महान है । वास्तव में महान धर्म कहलाता है वह जिसके प्रताप से यह पुरुष महान बना । तो लोक में उत्तम धर्म है । 12वां पद है धम्मं शरणं याने लोक में धर्म शरण है । अपने भावों में आयें स्वभाव में आये तो उसको संकट नहीं रहता । तो यह ही वास्तविक शरण है । सो ये अरहंत सिद्ध साधु और धर्म देव, मुनि, विद्याधर आदिक के द्वारा पूज्य हैं और वर्तमान नायक तीर्थंकर वीर प्रभु हैं जिससे यह धर्मप्रसार है । वे आराधना के लायक हैं । उनका भी ध्यान करें ।