वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 121
From जैनकोष
जह दीवो गब्भहरे मारुयबाहाविवज्जिओ जलइ ।
तह रायाणिलरहिओ झाणपईवो वि पज्जलइ ।।121।।
(482) रागानलरहित ध्यानप्रदीप का प्रज्वलन―ध्यान का माहात्म्य देखिये―जैसे गर्भ गृह में स्थित दीपक वायु बाधा से रहित होकर प्रज्वलित होता रहता है ऐसे ही जहाँ राग रूपी वायु न लग सके ऐसी स्थिति में यह ध्यान दीपक प्रकट रूप से जलता रहता है । ध्यान में बाधा देने वाला है राग और यह बैठे ही बैठे कहा राग चल रहा, किस ओर दृष्टि जा रही, किसका कैसा भाव है, कहां आकर्षण हैं, यों सारी चक्की चलती रहती है । ध्यान कैसे बने? अविकार स्वभाव अंतस्तत्त्व का दृढ़ लक्ष्य लिए बिना और ऐसा पौरुष बनाये बिना मेरे को मेरा वश एक ही काम है दूसरी कोई धुन नहीं ऐसी धुन बनाये बिना यह ध्यान की स्थिरता नहीं बन सकती । बाह्य पदार्थों का चिंतन कर करके ध्यान को स्थिर कैसे बनाया जा सकता । जिसका चिंतन करते वह विनाशीक है और जिसका चिंतन चल रहा वह मुझसे अत्यंत भिन्न है । अन्य पर मेरा कुछ अधिकारनहीं और उन बाह्य पदार्थों पर उपयोग जाता है तो यह उपयोग भी कुछ हल्कासा छितर बितरसा या अपनी जड़ सी नहीं रख रहा, इस तरह के प्रयोग में रहता है, तो बाह्यविषयक उपयोग कैसे स्थिर चल सकेगा? अतएव आत्मा का स्वरूप जानकर इस स्वरूप में ही रुचि हो, यही आदेय है, इस ही के आश्रय से वह निर्विकल्पता जगती है कि कर्मबंधन अपने आप दूर होता है । वही मेरे लिए श्रेयस्कर है, ऐसा आदर जब रहता है तो वहाँ यह जीव अपने आपमें सहज आनंद को अनुभवता हुआ पवित्र होता हुआ पवित्रता में बढ़ता चला जाता है । तो राग वायु से रहित हुआ ध्यान स्थिर हो पाता है ।