वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 20
From जैनकोष
भवसायरे अणंते छिण्णुज्झिय केसणहरणालट्ठी ।
पुंजइ जइ को वि जए हवदि य गिरिसमधिया रासी ।।20।।
(29) मुनिभेष से ही मुक्ति न होने से मुक्ति के वास्तविक उपाय का कुंदकुंदाचार्य द्वारा वर्णन―हे मुने, कुंदकुंदाचार्य समझा रहे हैं अपने संघ वाले अन्य अनेक मुनिराजों को कि मुक्ति के मार्ग में जो बढ़ता है सो यह मुनिभेष तो आता है, मगर मुनिभेष से मोक्ष नहीं मिलता । मुनिभेष आये बिना कर्म नहीं कटते, पर मुनिभेष से कर्म नहीं कटते । कर्म कटते हैं ज्ञानस्वरूप का ज्ञान में ज्ञान रखने से । सो एक इस भाव के बिना हे मुने इस अनंत संसार में तूने इतने जन्म लिये कि एक-एक भव का केश, नख, नाल और अस्थि, इनका अगर कोई ढेर करे तो मेरुपर्वत से भी कितना ही अधिक ढेर बन जायेगा । मेरुपर्वत एक लाख योजन का ऊंचा है । और एक योजन होता है दो हजार कोश का । कितना महान ढेर है ? वह मेरु पर्वत, फिर उसकी मोटाई, लो उतने से भी बड़ा ढेर बन जायेगी यदि उन नख केशों के एक-एक भव के नख केश जोड़े जायें लो, इतने जन्ममरण तूने किये हैं । क्यों हुए कि ज्ञानस्वरूप पर दृष्टिपात नहीं हुवा । कितना सुगम उपाय है धर्म का । बैठे हैं, तबीयत ठीक नहीं, बिस्तर से उठा नहीं जाता तिस पर भी वह धर्म कर सकता है । एक अंदर ही उपयोग दिया और ज्ञानस्वरूप आत्मा पर उपयोग जमाया, मैं यह ज्ञानमात्र हूँ, शारीरिक वेदना भी उसकी घट जायेगी, महसूस न होगी और आत्मा में अलौकिक आनंद जगेगा । कोई मनुष्य अच्छे शरीर वाला है, कोई दुर्गंधित शरीर वाला है, किसी को कैसा ही शरीर मिला है । यह किसकी महिमा है ? यह किसका प्रताप है ? तो सीधा कहो कि कर्म का प्रभाव है । अच्छा तो ऐसे कर्म बने कि जिस कर्मोदय से ऐसा शरीर मिलता है तो वह तो कर्मोदय तो कर्म बंधने से ही हुआ । तो ऐसे कर्म बंधे यह किसका प्रभाव है ? यह है आत्मा के भावों का प्रभाव । तो भावों में वह सामर्थ्य है कि शरीर में भी अनेक खटपट दिखा दे और संसार से तिरा भी दे । सब भावों की ही महिमा है । तो ऐसे मुक्ति योग्य भावों को त्यागकर जो संसार में रुलने का भाव बनाये तो उसने कितने जन्म-मरण किये कि एक-एक जन्म के नख केश जोड़े जायें तो मेरुपर्वत से भी कितने ही गुने राशि के ढेर बन जायेंगे । तो एक भावों का माहात्म्य जान । हे आत्मन् ! तू अपने भावों का आदर कर । कोई ज्यादह व्याकरण नहीं जानता, साहित्य नहीं जानता, गद्य पद्य नहीं जानता और केवल एक अपने आपके इस सहज ज्ञानस्वरूप को जानता है, इसका अनुभव करता है, यह तो खुद की चीज है, खुद को देखना है, तो ऐसी सुगम स्वाधीन बात कोई खुद कर सके और नहीं जाना उसने व्याकरण तर्क वगैरह तो भी वह ज्ञानी है, संसार से पार है । और एक अपने स्वरूप का दर्शन न कर सका तो वह चाहे कितना ही बड़ा तपश्चरण कर ले, लेकिन वह संसार में ही रुलता है, तपश्चरण की विधि क्या है और उसकी आवश्यकता क्यों बताई गई ? ग्रंथों में तपश्चरण धारण करने का उपदेश क्यों किया गया ? उसका कारण यह नहीं है कि तपश्चरण करने से मोक्ष मिल जायेगा । उसके कारण तपश्चरण के द्वारा ऐसा वातावरण बनाना है कि जिससे इसका चित्त पाप में न जाये, अशुभ भाव में न जाये । इतना ही प्रयोजन है । इन बाहरी तपश्चरण से यह जीव सुरक्षित हो गया याने इसका मन पाप में नहीं जाता । दुर्भावना नहीं जगती । तो यह आत्मा उन पापकार्यों से तो सुरक्षित हो गया । अब ऐसी सुरक्षित स्थिति में यदि कोई अपने ज्ञान द्वारा अपने ज्ञानस्वरूप को निहारता रहे तो उसका संसार पार हो जाता है, और बाह्यतपश्चरण किया और एक अंतरंग की सावधानी नहीं की, तो वहाँ यह नियम भी नहीं है कि वह सुरक्षित हो जायेगा । वह वासना में भी चल सकता है । तो बाह्य तपश्चरण का प्रयोजन है कि पाप की वासना से इसका चित्त हट जाये, मोक्ष में चले । यह तपस्या नहीं कर सकता मगर ज्ञान तो कर सकता है । अपना ज्ञान अपने ज्ञान में मग्न रह रहा, है तोर यह अपना मोक्षमार्ग बनता है, मगर जो अनादि काल से पाप की वासना में लगा है तो कितना ही वह ज्ञान में बढ़े, मगर बार-बार उसको वह वासना सताती है, दुर्भावना आती है और यह अनेक बार पतित हो जाता है । तो इसके लिए उपाय बताया है कि यह तपश्चरण करे यह उपदेश निरर्थक नही है । मगर श्रद्धा उनको बनाना है कि जिन्होंने परमार्थ भाव को तो छोड़ दिया और देह की क्रिया, और तपश्चरण से ही मोक्ष माना उनके लिए अनर्थक नहीं है । जैसे कोई योद्धा ढाल लेकर तलवार के बिना खाली ढाल लेकर युद्ध में जाये और सोच ले कि मेरे पास तो यह ढाल है, मैं शत्रु का संहार करूंगा तो क्या कोई शत्रु पर विजय प्राप्त कर सकता है ? नहीं कर सकता और कोई पुरुष खाली तलवार लेकर जाये कि मैं आज शत्रु का संहार करूंगा और ढाल उसके पास नहीं है तो वह एक विकट युद्ध की जगह है । सैकड़ों योद्धा उस पर टूटेंगे तो कोई कहीं से वार करेगा कोई कहीं से । तो प्राय: यह संभव है कि वह अपना कार्य न कर सके और प्राण भी गमा दे । तो जैसे किसी योद्धा को युद्ध में दोनों की आवश्यकता होती है, ढाल की और तलवार की, मगर ढाल से लड़ने की श्रद्धा तो नहीं होती सुभट की । वह जानता है कि ढाल का काम और है, तलवार का काम और है । ढाल का काम दूसरे का वार रोकना है और तलवार का काम शत्रु का संहार करना है । तो ऐसे ही जो ज्ञानीसंत मुनिजन होते हैं वे जानते हैं कि ये व्रत तपश्चरण आदिक तो ढाल का काम कर सकते हैं और यह ज्ञान अपने लक्ष्य में पहुंचे, ज्ञानस्वरूप का ज्ञान बनाये तो यह शस्त्र का काम कर सकता है कर्म के नाश करने के लिए । आवश्यकता दोनों की है मगर जिसने प्रयोजन विपरीत समझ लिया उसके लिए अनर्थक है । तो समझा रहे मुने तूने अपने अपकार्य भाव को त्यागकर जो अनेक बार वह व्रत तपश्चरण किया, दिगंबर मुद्रा धारण की तो भी तेरा जन्म मरण नहीं कट सका । इतने जन्म मरण पाये कि एक-एक भव के नख केश इकट्ठे किए जायें तो मेरूपर्वत से भी महान उनकी राशि बन जायेगी ।