वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 21
From जैनकोष
जलथलसिहिपवणंबरगिरिसरिदरितरुवणाइ सव्वत्थ ।
वसिओसि चिरं कालं तिहुवणमज्झे अणप्पवसो ।।21।।
(30) अज्ञानवश तीनों लोकों में सर्वत्र जन्म का तांता―हे मुने, इन तीनों लोकों में तूने न जाने कहां-कहां जन्म मरण नहीं किया । मध्य लोक में जल का स्थान अधिक है, क्योंकि जहाँ असंख्यात द्वीप समुद्र हैं और सबके बीच में जंबूद्वीप है, उसका एक लाख योजन प्रमाण है और उसको घेरे हुए समुद्र है । उसके एक ओर ही दो लाख योजन प्रमाण है, फिर ऐसा चारों ओर है । उसे घेरकर द्वीप है और समुद्र है, और दूने-दूने विस्तार वाले चले गए हैं, और अंत में है समुद्र । तो उस आखिरी समुद्र का जितना विस्तार है, सारे द्वीप समुद्र का भी मिलकर उतना विस्तार नही है । जैसे यही घेरा लेकर देख लो, आखिरी घेरे का विस्तार सारे क्षेत्र से अधिक है, नाप तौल की बांट में ही देख लो मानो सबसे छोटा बाट छटांक है तो उससे दूना आधपाव है, उससे दूना एक पाव है, उससे दूना आधसेर और उससे दूना सेर । तो एक सेर बराबर भी वे सारे बांट नहीं हो जाते । तो ऐसे ही दूने-दूने विस्तार में असंख्याते द्वीप समुद्र है, उसमें जल का स्थान सर्वाधिक है । तो इस जल के मध्य अनेक बार तू ने जन्म मरण किया ।
(31) पृथ्वीकायादि में अनंतोंबार मोही जीव के जन्ममरणों की संतति-―पृथ्वीकाय में अनेक बार जन्ममरण किया, अग्नि बीच अनेक बार जन्म मरण किया । अग्नि में जीव आया तो अग्नि में जन्म मरण अथवा कुछ जीव ऐसे मूल ढंग के हैं कि जिनको गर्मी ही प्रिय होती है, ऐसा अनेक बार अग्नि में जन्म लिया, पवन में जन्म लिया । हवा खुद जीव है, आकाश में जन्म लिया । जहाँ यह पोल दिख रही है यहाँ अनंतानंत निगोद जीव भरे पड़े हैं आकाश में ही उनका जन्म है, पर्वत में जन्म लिया, पेड़ हुए, पौधा हुए, स्थावर मिट्टी पर्वत में भी जन्म लिया । नदियों में जन्म लिया, नदी खुद जल का समूह है और जलकायिक जीव है । पर्वत की गुफावों में जन्म लिया, वृक्षों में जन्म लिया । तीन लोक में कोई ऐसा स्थान नहीं जहाँ अनंत बार जन्म मरण न किया हो । और इस ढाई द्वीप के अंदर जहाँ हम आप रह रहे हैं कोई ऐसा स्थान नहीं जिस जगह से अनंत जीव मोक्ष न गए हों जहाँ आप बैठे हैं वहाँ से भी अनंतानंत जीव मोक्ष गए । सारा ढाई द्वीप सिद्ध तीर्थस्थान है, सिद्ध क्षेत्र है । तीन लोक में कोई भी प्रदेश ऐसा नहीं है कि जहाँ जीव ने अनंतबार जन्म मरण न किया हो ।
(32) जन्म और मरणों का कारण अपने स्वरूप की बेसुधी―ये जन्ममरण क्यों हुए कि जन्मरहित सहज जो ज्ञानस्वरूप है उस रूप अपने को नहीं मान पाया । जीव पर सबसे बड़ी विपत्ति मोह की है । तो मोह में बाधा हो, परद्रव्य को अपना मान ले, ये ही मेरे सब कुछ हैं और वह विपत्ति सुहाती नहीं है, दुःख सुहाये नहीं तो दुःख से छूटने का उपाय भी जीव कर रहा, ऐसा अंधा है प्राणी कि मोह की बड़ी विपत्ति सह रहा है ओर उस विपत्ति को सुख मान रहा । जैसे अपने कुटुंब के लोग, मित्र लोग बड़े सुहावने लगते कि ये मेरे हैं, ममता भी रहती है कि मेरे ही तो हैं ये । ऐसा भाव बनता है और वे सुहाते हैं, देखकर अच्छे लगते हैं मगर इस मोहभाव में कितना पाप चल रहा है, कितना कर्मबंध हो रहा है यह इस जीव की दृष्टि में नहीं है, तो सबसे बड़ी सुरक्षा यह है कि भीतर में शंका न रहनी चाहिए । मेरा मात्र मैं ही हूँ, में अकेला हूँ । अब भी अकेला हूँ, आगे भी अकेला रहूंगा और ऐसा अकेला हूँ कि कर्म से भी निराला हूँ । पर विकार से भी निराला हूँ, ऐसा यह मैं एकाकी ज्ञानमात्र मैं आत्मा हूँ, अगर इस बात पर अड़े रह गए, यह बात चित्त में समायी रहेगी, ऐसा भीतर में ज्ञानप्रकाश जगता रहेगा तब तो इसके क्षण सफल है और एक यह ही ज्ञान न मिल पाया और पुण्योदय में चाहे कितने ही ठाठ मिल गए उनका कोई अर्थ नहीं । तो यह जीव अपने शुद्ध आत्मा की भावना न होने से कर्म के अधीन रहा और कर्मवश होकर तीनों लोकों में सर्वत्र जन्म मरण करता चला आया ।