वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 31
From जैनकोष
अप्पा अप्पम्मि रओ सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो ।
जाणइ तं सण्णाणं चरदिहं चारित्तमग्गो त्ति ।।31।।
(47) निश्चयरत्नत्रय का निर्देशन―इस गाथा में रत्नत्रय का स्वरूप बताया है । रत्नत्रय मायने सारभूत तीन बातें, आत्मा के लिए सारभूत अपना आत्मा ही हो सकता है, क्योंकि इसका जितना भी भविष्य है, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र अथवा किसी भी प्रकार का दर्शन, ज्ञान, चारित्र हो, उस पर निर्भर है । यदि मिथ्यादर्शन ज्ञान, चारित्ररूप प्रवर्तन हो तो उसका खोटा भविष्य है और सही प्रवर्तन हो तो उसका समीचीन भविष्य है । तो यहाँ इस रत्नत्रय का स्वरूप बतला रहे कि जिस तरह से जीव के जन्म-मरण के संकट टल जाते हैं । जो आत्मा आत्मा में रत होकर यथार्थ स्वरूप का अनुभव कर आत्मरूप होता है याने आत्मस्वरूप की श्रद्धा करता है, ज्ञानमात्र ही अपने को अनुभवता है वह जीव सम्यग्दृष्टि है । और उसकी इस आत्माभिमुख दृष्टि को सम्यग्दर्शन कहते हैं, इस आत्मा के जानने को सम्यग्ज्ञान कहते हैं व ज्ञानमात्र आत्मा को जानकर ज्ञानमात्र ही आचरण चलना, रागद्वेष न समा सके, किंतु केवल जाननहार ही रहे, इसे कहते हैं सम्यक्चारित्र । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र परमार्थत: क्या है, इसका वर्णन इस गाथा में किया है । यह है निश्चयरत्नत्रय ।
(48) निश्चयरत्नत्रय व उसका कारणरूप व्यवहाररत्नत्रय―निश्चयरत्नत्रय जीव को सहसा प्राप्त नहीं हो पाता । उससे पहले कैसी योग्यता बनती है, क्या भूमिका होती है जिससे कि निश्चय रत्नत्रय पाया जा सके ? तो उस भूमिका को कहते हैं व्यवहाररत्नत्रय । व्यवहाररत्नत्रय आये बिना निश्चयरत्नत्रय न हो सकेगा । ऐसा प्रत्येक जीव को क्यों होता है क्योंकि सभी जीव मिथ्यादृष्टि होते हैं, उनकी दृष्टि बाह्य पदार्थों की ओर गढ़ी हुई है । तो कुछ तो भाव उनके बदलेंगे । पौरुष करें, ज्ञानाभ्यास करें, चिंतन मनन करें, पर उपदेश सुनें, ये बातें तो आती ही है । अशुभोपयोग के बाद रत्नत्रय किसी को नहीं हुआ । जिसको रत्नत्रय का लाभ हुआ है तो शुभोपयोग के बाद हुआ । यद्यपि शुभोपयोग ही रत्नत्रय नहीं है, किंतु शुभोपयोग से गुजरे बिना रत्नत्रय का लाभ भी किसी को नहीं हुआ है । तो इसी कारण व्यवहार रत्नत्रय होता है और वह निश्चयरत्नत्रय का कारण है । निश्चयरत्नत्रय होने पर जो प्रवृत्ति होती है उसे भी व्यवहार कहते हैं । किंतु यहाँ व्यवहाररत्नत्रय के कारणत्व में उस व्यवहार रत्नत्रय की चर्चा नहीं की जा रही है । जो प्रवृत्ति श्रद्धान, ज्ञान, आचरणरूप निश्चयरत्नत्रय होने से पहले हुआ करता है उसे व्यवहाररत्नत्रय कहते हैं । तो व्यवहाररत्नत्रय कारण है और निश्चयरत्नत्रय कार्य है । कारण और कार्य उपादान कारण में कहा गया है उसके सद्भावरूप से शुद्धोपयोग न होगा, किंतु उसके अभावरूप से शुद्धोपयोग होगा, भैया, ऐसी वार्ता सभी जगह की जा सकती है । घड़े का उपादान कारण वह मिट्टी हैं । तो कोई कहे कि मिट्टी का परिणमन तो और तरह का है, घड़े का परिणमन और तरह का है, उसका मिट्टी कारण कैसे बन जायेगा ? तो जो उपादान कारण होता है उसकी जो विशिष्ट पर्याय है उसका अभाव होकर नवीन पर्याय हुआ करती है, इसी को कहते हैं गुजरना । शुभोपयोग में गुजरे बिना रत्नत्रय नहीं मिलता है । रत्नत्रय भाव शुद्धभाव है । शुभोपयोग भाव अन्य भाव है, मगर जो अनेक ज्ञान वासना में लगे हुए जीव हैं उनकी प्रगति ही उस ढंग से होती है । उसमें कुछ बड़प्पन बताकर आग्रह करना उचित नहीं है । यह तो एक विधि बतायी जा रही है कि जो जीव अज्ञानी है और अनेक वासनाओं में रह रहा है वह किस-किस प्रकार से निश्चयरत्नत्रय में पहुंचता है । तो व्यवहाररत्नत्रय होता है कारण और निश्चयरत्नत्रय हुआ आगे का कदम ।
(49) कार्यरूप व्यवहाररत्नत्रय व कारणरूप व्यवहाररत्नत्रय―जीवादिक 7 तत्त्वों के संबंध में श्रद्धान होना, देव, शास्त्र, गुरु के बारे में श्रद्धान होना, यह सब व्यवहारसम्यग्दर्शन है, और जीवादिक पदार्थों का ज्ञान होना व्यवहारसम्यग्ज्ञान है और 6 काय के जीवों की हिंसा टालना, विषय कषाय के साधनों को दूर करना यह व्यवहार सम्यक्चारित्र है । यह व्यवहार रत्नत्रय है । निश्चयरत्नत्रय होने पर भी इस जीव का मन, वचन, काय कुछ न कुछ तो चलता ही है, सो इस निश्चय रत्नत्रयधारी का जो मन वचन काय का परिवर्तन है वह भी व्यवहार रत्नत्रय है । मगर कारणभूत व्यवहाररत्नत्रय का कार्यभूत अथवा उसके होने वाली प्रवृत्तिरूप व्यवहाररत्नत्रय अन्य । सो यहाँ पूर्व भावी व्यवहाररत्नत्रय की चर्चा लेकर समझना कि निश्चयरत्नत्रय तो प्रधान है और व्यवहाररत्नत्रय उस निश्चयरत्नत्रय को पाने के उपाय का प्रयत्न है । यह व्यवहाररत्नत्रय जब तक है तब तक उसके सम्यक्त्व नहीं, निश्चय सम्यक्त्व नहीं । वह भाव भी अभी संसारस्वरूप भाव है और इसलिए वह व्यवहार है, लेकिन वह निश्चयरत्नत्रय का साधन स्वरूप है । जैसे निश्चयरत्नत्रय के बिना व्यवहाररत्नत्रय संसारस्वरूप है, ऐसे ही यह भी समझ लीजिए कि व्यवहाररत्नत्रय पाये बिना निश्चयरत्नत्रय की व्यक्ति होती नहीं है । और निश्चयरत्नत्रय पा लेने से फिर व्यवहार रत्नत्रय में जो कुछ वृत्ति चलती थी वह वृत्ति रहती नहीं हे ।