वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 32
From जैनकोष
अण्णे कुमरणमरणं अणेयजम्मंतराइं मरिओसि ।
भावहि सुमरणमरणं जरमरणविणासणं जीव ।।32।।
(50) परमार्थज्ञानभाव के अभाव में कुमरणों की उपलब्धियां―परमार्थस्वरूप भाव है आत्मा का ज्ञानभाव । अपने आपके स्वरूप में बस यह मैं ज्ञानमात्र हूँ । ज्ञान सिवाय इसका कुछ स्वरूप नहीं है, ऐसा समझकर ज्ञानरूप में ही अपने आपको समझता है यह है परमार्थ ज्ञानभाव की पकड़ है । यह परमार्थ ज्ञानभाव न रहा जिसके, उसके कैसे-कैसे जन्ममरण चलते हैं इसका वर्णन किया जा रहा था । तो बताया गया था कि परमार्थ ज्ञानस्वरूप भाव के माने बिना इस जीव के निगोद जैसे दुःख होते रहते हैं और इस तरह से अनेक जन्म जंमांतर पाकर अनेक कुमरण प्राप्त करते रहते हैं । तो हे जीव, परमार्थ ज्ञानभाव के पाये बिना अनेक जन्ममरण कर रहा । अब उस भाव को प्राप्त कर जिस भाव के पा लेने से जन्ममरण नहीं हुआ करते । वह भाव क्या है ? वह भाव है शाश्वत जन्ममरणरहित याने न था और हो गया ऐसा वह भाव नहीं अथवा है और मिटा ऐसा वह भाव नहीं है ꠰ उस भाव का आश्रय करके जीव के जन्म मरण के संकट दूर होते हैं । ज्ञानशक्ति ज्ञानस्वभाव सदा है, उस पर जिसकी दृष्टि है उसका जन्म मरण अब भी न समझिये, भले ही जन्ममरण चल रहे हैं, मगर जन्ममरण रहित मात्र एक ज्ञानस्वभाव का ही जिनके बोध चल रहा है उनको अमरपने का अनुभव चल रहा है । सो इस अजर अमर परमार्थ ज्ञानभाव के पाये बिना अनेक कुमरण किया ।
(51) सप्तदश मरणों में से कुमरण को त्याग कर जन्मजरामरणविनाशक सुमरण-मरण की भावना का अनुरोध―हे मुने ! अब उस परमार्थभाव को प्राप्त कर जिसके प्रताप से कुमरण दूर होता है और सही मरण प्राप्त होता है । सम्यक् मरण है याने समाधिमरण और असमाधिमरण है कुमरण । तो असमाधिमरण हटे, समाधिमरण बने जिससे यह जीव सदा जन्म-मरण रहित हो जाये, यह बात समझने के लिए सभी मरणों का ज्ञान करना होगा । तब उसमें यह छंटनी बनेगी कि यह मरण तो समाधिमरण है और यह मरण खोटा मरण है । तो भगवती आराधना सार आदिक ग्रंथों में मरण 17 प्रकार के बताये गए है । उन मरणों में, प्रथम मरण तो आवीचि का मरण कहा है, समुद्र के लहर जैसा मरण । याने प्रति समय जो आयु के निषेक गल रहे, जिसे लोग बड़े मौज से कहते हैं कि अब हमारी इतनी बड़ी उम्र हो गई है, ऐसा जो प्रतिसमय आयु का गलना हो रहा, वह है आवीचिका मरण अर्थात् जीव का प्रतिसमय मरण चल रहा है। चाहे ऐसा कहा जाये कि यह 18 वर्ष का बालक हो गया या यों कहा जाये कि यह 18 वर्ष मर चुका है, इन दोनों का एक ही अर्थ है । तो ऐसा आवीचिका मरण सभी जीवों के चल रहा । ऐसा ज्ञान करने से भी लाभ है कि मुझे प्रति समय समाधि चाहिए क्योंकि मेरा प्रतिसमय मरण हो रहा है । अब इस आवीचिका मरण के सिवाय जो और मरण कहे जायेंगे वे सब तद्भव मरण से संबंध रखेंगे । प्रसंग यह चल रहा है कि इस संसार में जीव ने अनेक बार जन्म मरण किया, अनेक कुमरण किया । अब इस -गाथा में कुमरण और सुमरण दोनों का संकेत किया गया है और मरण के 17 भेद बताये, तो आवीचिका मरण तो सर्वजीवों के प्रतिसमय होता रहता है । जो आयु के निषेक खिर रहे हैं, प्रतिसमय एक-एक निषेक खिरते हैं तो जो खिरा वह उस काल में मरण है । इस तरह प्रत्येक जीव चाहे देवगति का जीव हो, चाहे नरकगति का जीव हो, चाहे-मनुष्य या तिर्यंच हो सबके आवीचिका मरण चल रहा है ।
(52) तद᳭भवमरण, अवधिमरण, आद्यंतमरण व बालमरण―दूसरा मरण है तद्भवमरण, उस भव का मरण । मनुष्यभव में है तो इस शरीर से जीव का निकल जाना यह मनुष्यभव का मरण है । जिस भव में जीव है उस भव के देह को छोड़कर जीव के चले जाने को तद᳭भव मरण कहते हैं । तीसरा मरण है अवधिमरण । जैसे वर्तमान पर्याय का मरण हुआ ऐसे ही अगली पर्याय का मरण होवे तो अगले भव के मरण से अवधि मरण होता है वह यदि वर्तमान भव के बराबर है तो वह कहलाता है सर्वावधिमरण, और यदि वर्तमान भवमरण कुछ कम बेशी ढंग का है तो वह कहलाता है देशावधि मरण । चौथे मरण का नाम है आद्यंत मरण, याने वर्तमान पर्याय का आयुकर्म का जैसी स्थिति आदिक थी वैसी अगली पर्यायें न आवे तो वह आद्यंत मरण है । 5वां मरण है बालमरण । इन मरणों का विवेक बालमरण और पंडित मरण में चलता है । बालमरण 5 प्रकार के हैं―(1) अव्यक्त बालमरण, (2) व्यवहार बालमरण, (3) ज्ञानबालमरण, (4)दर्शन बालमरण और (5) चारित्र बालमरण । बालमरण नाम है बालक का, और बालक का अर्थ शरीर की अपेक्षा भी होता है, तथा ज्ञानदर्शन आदिक की अपेक्षा भी होता है ।
(53) बालमरण के प्रकार―बालक कहते हैं अपूर्ण को । जिसका शरीर मामूली है, जवान न हो, अपूर्ण है तो वह शरीर से बालक है, मगर ज्ञान नहीं है तो वह ज्ञान से बालक है । इसी प्रकार जो-जो गुण नहीं हैं वे-वे उस गुण की अपेक्षा बालक हैं । व्यवहार बालमरण का अर्थ है कि धर्म, अर्थ, काम इन कार्यों को जो न जान सके और इनका आचरण करने को जो समर्थ न हो ऐसा शरीर वाला जीव अव्यक्त बाल कहलाता है और अव्यक्त बाल के मरण को अव्यक्त बालमरण कहते हैं । व्यवहार बालमरण किसे कहते हैं ? जो लोक को नहीं जानता, लोकव्यवहार को नहीं जानता, तथा बालक अवस्था हो तो वह व्यवहार बाल है । यह बालक अवस्था न सही, किंतु लोकव्यवहार में अथवा शास्त्र में अज्ञान है तो वह कहलाता है व्यवहार बाल और ऐसे प्राणी के मरण को व्यवहार बालमरण कहते हैं । बालमरण क्या है ? जो पुरुष ज्ञान में बच्चा है याने वस्तु के यथार्थ ज्ञान से रहित है वह ज्ञानबाल कहलाता है और ज्ञानबाल के मरण को ज्ञानबाल मरण कहते हैं । दर्शनबालमरण क्या है ? जो जीव मिथ्यादृष्टि हैं, तत्त्वज्ञान से रहित हैं वे कहलाते हैं दर्शनबाल । याने सम्यक्त्व के बारे में तो वह बच्चा है, ऐसे दर्शनबाल के मरण को दर्शनबालमरण कहते हैं । चारित्र बालमरण क्या है कि जो मनुष्य चारित्र से रहित है वह चारित्र में बाल कहलाता है । यों चारित्ररहित प्राणी के मरण को चारित्र बालमरण कहते हैं । तो यहाँ अवस्था से बालक के मरण का कोई प्रकरण नहीं है, किंतु जो इन गुणों में बाल है वह बाल कहलाता और उसका मरण बालमरण कहलाता । उक्त इन गुणों में भी प्रधानतया दर्शनबालमरण का प्रकरण चलता है । जिसके सम्यग्दर्शन नहीं है वह अज्ञानी पुरुष बाल कहलाता और जिसके सम्यक्त्व नहीं है वह सभी दृष्टियों से बाल है । चारित्र का ज्ञान का कोई प्रसंग ही नहीं । तो जो सम्यक्त्वहीन है ऐसे बाल के मरण को बालमरण, दर्शन बालमरण कहते हैं । बालमरण मायने अज्ञानी जीव का मरण दो तरह से होता है―(1) अनिच्छाप्रवृत्त और (2) इच्छाप्रवृत्त । कोई उपद्रव ही आ गया―अग्नि का, शास्त्र का, विष का, जल का, कहीं से गिर पड़ने का या बड़ी तेज सर्दी गर्मी का कि जिसमें मरण करना पड़ रहा तो उस मरण को चाह नहीं रहा यह जीव, फिर भी कर रहा है तो यह कहलाता अनिच्छाप्रवृत्त मरण । और कभी अज्ञानी जीव इच्छा करके मरे तो वह कहलाता है इच्छाप्रवृत्तमरण ।
(54) पंडितमरण व पंडितमरण के प्रकार―छठवें मरण का नाम है पंडितमरण । पंडितमरण चार प्रकार का है―(1) व्यवहारपंडितमरण, (2) सम्यक्त्वपंडितमरण, (3) ज्ञानपंडितमरण और (4) चारित्रपंडितमरण । जो पुरुष लोकव्यवहार में प्रवीण है अथवा दर्शनशास्त्र में प्रवीण हैं वे हैं व्यवहारपंडित, और व्यवहार पंडित के मरण को व्यवहारपंडितमरण कहते हैं । यहाँ अज्ञानी और ज्ञानी का कोई भेद नहीं है । व्यवहारपंडित है चाहे वह ज्ञानवान हो अथवा ज्ञानरहित हो, जो लोकव्यवहार और शास्त्रव्यवहार में चतुर है उसके मरण का नाम है व्यवहारपंडितमरण । सम्यक्त्वपंडितमरण क्या है कि जो जीव सम्यक्त्व सहित है, विवेकी ज्ञानी सम्यग्दृष्टि है उसके मरण को सम्यक्त्व पंडितमरण कहते हैं । जो जीव सम्यग्ज्ञान सहित हो वह ज्ञान पंडित हैं और ज्ञानपंडित के मरण को ज्ञानपंडित मरण कहते हैं । जो सम्यक्चारित्र से युक्त है वह चारित्रपंडित है, चारित्रपंडित के मरण को चारित्रपंडित मरण कहते हैं । यहाँ पंडितमरण के चार भेद किए हैं जिनमें व्यवहार पंडितमरण तो बालमरण में भी शामिल हो सकता है । एक तो था लोकव्यवहार और शास्त्रव्यवहार में अनभिज्ञ और यह है लोकव्यवहार और शास्त्रव्यवहार में कुशल, किंतु यदि सम्यक्त्व नहीं है व्यवहार पंडित के तो इसमें और बालमरण में कोई अंतर नहीं आया, सो व्यवहारपंडितमरण को यहाँ प्रकरण में नहीं लेना है । शेष तीन प्रकार के पंडितमरण प्रकृत पंडितमरण में अभीष्ट हैं ।
(55) आसन्नमरण, बालपंडितमरण, सशल्यमरण, पलायमरण, वशार्तमरण―7वें मरण का नाम है आसन्न मरण । जो मुनिसंघ से छूट गया, संघभ्रष्ट हो गया और स्वच्छंद अवसन्न स्वेच्छाचारी भी हो गया जिसके कि पार्श्वस्थ स्वछंद कुशील और संसक्त भी भेद हैं । ऐसे 5 प्रकार के भ्रष्ट मुनि का जो मरण है उसे आसन्नमरण कहते हैं । 8वें मरण का नाम है बालपंडितमरण । जो श्रावक सम्यग्दृष्टि हैं और व्रतवान है उसके मरण को बालपंडित मरण कहते हैं । 9वां मरण है सशल्यमरण । जहाँ मिथ्यादर्शन मायाचार और निदान इन शल्यों सहित मरण होता है उसे कहते हैं सशल्य मरण । 10वें मरण का नाम है पलाय मरण । जो मनुष्य शुभ क्रियावों में आलसी हो, व्रत तप आदिक क्रियावों में शक्ति को छिपाये अर्थात् उनका पालन न करे और ध्यानादिक से दूर भागे तो मोक्षमार्ग के रास्ते से वह दूर भागा, इसे पलायमरण कहते हैं । 11 वें मरण का नाम है वशार्तमरण, जो इंद्रिय के वश होकर मरण करें अर्थात् रागद्वेष के भावों में मरण करें तो वह है इंद्रियवशार्तमरण । और जो साता असाता की वेदना के वश होकर मरण करे तो वह है वेदनावशार्तमरण । जो क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों के वश होकर मरण करे तो वह है कषायवशार्तमरण और हास्य विनोद कषाय के वश होकर ऋण करे तो वह है नोकषाय वशार्तमरण । पराधीन, होकर विषय कषाय के भावों के व बाह्य परिग्रहों के अधीन बनकर ऐसा वशीभूत बनकर मरण करने को वशार्तमरण कहते हैं ।
(56) विप्राणमरण व गृद्धपृष्टमरण―12वें मरण का नाम है विप्राणमरण । जो पुरुष ऐसे समय जब कि अपने व्रत क्रिया चारित्र में उपसर्ग आये, विघ्न आये और वहाँ भ्रष्ट होने की शंका आये ऐसे समय में भ्रष्टता हो सकती है । तब विवश होकर अशक्त होकर अन्न जल का त्याग कर दिया तो बहु विप्राणमरण है । अचानक कठिन उपसर्ग आ गया, ऐसी स्थिति में अन्न जल का त्याग करके जो मरण किया जाता है उसे विप्राणमरण कहते हैं । 13वें मरण का नाम है गृद्धपृष्टमरण । शस्त्र ग्रहण करके जो मरण होता है वह गृद्धपृष्ट मरण है । जैसे शस्त्र लेकर चल रहे हैं, किसी को मारने के इरादे से चल रहे हैं, शस्त्र बांधे हैं, किसी ने इस पर हमला बोला या स्वयं का हार्टफेल हो गया व वह मर गया शस्त्र को ग्रहण करने की ही स्थिति में, तो उस मरण को गृद्धपृष्टमरण कहते हैं ।
(57) भक्तप्रत्याख्यानमरण, इंगिनीमरण प्रायोपगमनमरण व केवलिमरण―14वें मरण का नाम है भक्तप्रत्याख्यानमरण । यह संन्यास मरण में शामिल है । क्रम-क्रम से विधिसहित अन्न का, जल का त्याग कर देने को भक्तप्रत्याख्यानमरण कहते हैं । भक्त मायने भोजन आहार उसका प्रत्याख्यान मायने त्याग करना । जैसे पहले अन्न का त्याग, फिर दूध का त्याग फिर छाछ का त्याग फिर जल का भी त्याग, इस तरह क्रम से विधिवत् आत्मध्यान की वृद्धि के लिए जो आहार जल का त्याग किया जाता है उसे भक्तप्रत्याख्यानमरण कहते हैं । 15वें मरण का नाम है इंगिनीमरण । जो संन्यासमरण धारण करे याने संन्यास से मरण करने का नियम ले, उस त्याग पूर्वक भी चले, पर दूसरों से वैयावृत्य कराये ऐसे मरण को इंगिनीमरण कहते हैं । 16वां मरण है प्रायोपगमनमरण । जो जीव प्रायोपगमन संन्यास लेता है और किसी से वैयावृत्य नहीं कराता है और स्वयं की वैयावृत्ति नहीं करता बताया गया है कि वहाँ काष्ठ लक्कड़ की तरह देह पड़ा रहता है, उसके लिए कोई भाव भी नहीं करता । भाव है आत्मस्वरूप में, तो ऐसे पुरुष के मरण को प्रायोपगमनमरण कहते हैं । 17वें मरण का नाम है केवलिमरण । केवलज्ञान जिसे उत्पन्न हुआ, ऐसे अरहंत भगवान के चार अघातिया कर्म नष्ट होते ही मुक्ति प्राप्त होती है ꠰ उस मरण को कहते हैं केवलिमरण अर्थात् निर्वाण । ऐसे ये 17 प्रकार के मरण बताये गए हैं ।
(58) सर्व मरणप्रकारों का पंच प्रकारों में गर्भितपना―इन मरण प्रकारों को और भी सुगम विधि से समझना है तो 5 प्रकार के मरणों को समझ लेता, वे 5 प्रकार क्या है―(1) बालबालमरण, (2) बालमरण, (3) बालपंडितमरण, (4) पंडितमरण और (5) पंडितपंडितमरण । बालबालमरण तो अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवों के मरण का नाम है । पहले जो 17 मरण बताये गए, उनमें कई मरण बालबालमरण में आते हैं । जो अज्ञानीजन हैं, मिथ्यादृष्टि हैं उनके मरण को बालबालमरण कहते हैं । निपट बाल । बिल्कुल अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवों को बालबाल कहा गया है । बालमरण जो सम्यग्दृष्टि तो है ज्ञानी है, विवेकी है, मगर किसी भी प्रकार का संयम नहीं ले सका है तो ऐसे पुरुष को कहते हैं ꠰ बालबाल तो न रहा, क्योंकि उसके मिथ्यात्वभाव नहीं है, पर संयम न होने से वह पंडित भी नहीं कहलाता । तो उसे कहते हैं बालमरण । बालपंडितमरण जिसके संयम पूर्ण नहीं है इस कारण तो वह बाल है, पर संयमासंयम हो गया है, इस कारण वह पंडित है । तो जो सम्यग्दृष्टि श्रावक गृहस्थ है वह कहलाता है बालपंडित और उसके मरण का नाम है बालपंडितमरण । पंडितमरण जो विद्वान् है जिसको सम्यक्त्व भी हुआ है । ज्ञान के प्रकाश को भी सम्हालें हुए है, ऐसे पुरुष को पंडित कहते हैं । और उसके मरण को पंडितमरण कहते हैं । पंडितपंडितमरण केवली भगवान के आयुक्षय को कहते हैं । पंडितमरण―जो सकल संयमी मुनि है वह पंडित कहलाता है ꠰ वहां बालकपन जरा भी नहीं रहा याने व्रत अधूरा कुछ नहीं है इसलिए संयमी मुनि को पंडित कहते हैं और उस पंडित के मरण को पंडितमरण कहते हैं ꠰ पंडितपंडितमरण केवली भगवान के आयुक्षय को कहते हैं । वह पूर्ण पंडित हैं, चारित्र में भी पंडित हैं और केवलज्ञान हो जाने से वह पूर्ण पंडित है, समस्त विद्याओं में विशारद है, ऐसे केवली भगवान के आयुक्षय को याने निर्वाण को पंडित पंडितमरण कहते हैं ꠰ इन 5 मरणों में बालबालमरण तो अत्यंत हेय है ꠰ वह अज्ञान का मरण है ꠰ शेष चार ज्ञानियों के मरण हैं ꠰ सो उसमें भी बालमरण अव्रती सम्यग्दृष्टि के हैं ꠰ बालपंडितमरण पंचम गुणस्थान वाले श्रावक के हैं ꠰ पंडितमरण छठवें गुणस्थान से लेकर 11वें गुणस्थान तक के जीव के हैं और पंडितपंडितमरण केवली भगवान के निर्वाण पहुंचने का नाम है ꠰