वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 49
From जैनकोष
दंडयणयरं सयलं डहिओ अब्भंतरेण दोसेण ।
जिणलिंगेण वि बाहू पडिओ सो रउरवे णरए ।।49।।
(88) परमार्थज्ञानभाव के आश्रय बिना अटपट वृत्तियों से आत्मा का दौर्गत्य―जिस पुरुष को
अपने भाव में लगाव नहीं है, अपने अविकार ज्ञानस्वरूप की सुध नहीं है, परिचय भी नहीं है और किसी भावुकता में बन गया साधु तो वहाँ यह साधुपने के अहंकार में तपश्चरण भी बहुत-बहुत करे, तो भी वह मोक्ष का मार्ग नहीं पाता । बल्कि अपने स्वरूप का परिचय न रहा तो उसका उपयोग कहीं बाहर ही तो घूमेगा । आत्मस्वरूप में कैसे रम सकता? और जब बाहर ही उपयोग घूमा तो वहाँ नाना तरह की चेष्टायें करेगा । यही कारण है कि जहाँ भावलिंग नहीं है, किंतु दिगंबर मुद्रा बाहरी वेशभूषा ही है तो उन जीवों के अटपट वृत्तियां हो जाती हैं । द्रव्यभेष धारण कर कुछ व्रत करे और तपश्चरण के बल से कुछ सामर्थ्य बढ़ जाये और कोई कारण पाकर क्रोध जग जाये तो वह उस क्रोध में अपना और पर का उपद्रव करने का कारण बना लेता है । तब उस द्रव्यलिंग से लाभ क्या मिला? साधु बनने पर तो वह अपनी बुद्धि माफिक उस, साधु की क्रिया को निभा रहा है । तो कुछ विशेषता तो आ ही जायेगी । कुछ प्रताप, कुछ थोड़ासा पुण्य या थोड़ी कुछ महिमा, कुछ चमत्कार थोड़ा बहुत जग ही जायेगा । कुछ थोड़ा चमत्कार जग तो गया, मगर भीतर में बसा हुआ है अज्ञान तो ऐसी घटना बन बैठेगी कोई कि जब इसको क्रोध जग जायेगा तो अपने को भी भस्म करेगा और दूसरों को भी भस्म कर डालेगा ꠰
(89) कषायवश बाहुमुनि की दुर्दशा का कथानक―एक उदाहरण बाहु मुनि का है । एक कुंभकार कटकनगर था वहाँ दंडक नाम का राजा था और उसके मंत्री का नाम था बालक, वहाँं पर अभिनंदन आदिक 500 मुनिराज आये । उस दंडक बन की एक घटना सुनाई जा रही है, वह वही दंडक वन था जिसमें एक बार रामचंद्रजी भी अपने वनवास के समय में घूमते हुए आये थे और उनके आगमन से कुछ वहाँ शोभा सी बन गई थी । मगर था वह सब ऊजड़ देश, उसमें घास का नाम नहीं था । तो ऐसे दंडक बन की घटना बतायी जा रही है । उस दंडक वन में अभिनंदन आदिक मुनि आये, उनमें एक दंडक नाम के मुनि थे । मुनियों के नाम एक साधारण चलते थे । जो नाम पहले था सोही चलता था । अमुक सागर, अमुकनंद, ऐसे नाम न चलते थे । जो है सो चलता रहता था । अब देखो दंडक नाम कहीं अलग से रखा हुआ थोड़े ही था । पहले का ही गांव में रखा हुआ नाम था । जैसे कुंदकुंद, उनके ग्राम का नाम था कुन्डकुन्ड सो उनका नाम पड़ गया कुंदकुंद । नाम के लिए क्या है, कुछ भी नाम रख दो, नाम की क्या संभाल करना? एक दंडक नाम के उनमें मुनि थे सो उन मुनि ने उस राजा के बालक मंत्री को वादविवाद में जीत लिया । कोई शास्त्रार्थ बन गया मंत्रि से, तो मंत्री हार गया, तो मंत्रि को क्रोध आ गया और उसने एक ऐसा ढंग रचा कि जिससे यह राजा गुस्सा हो जाये मुनियों पर और उन पर उपद्रव ढा दे । उस मंत्री ने एक भांड को मुनि का रूप रखा दिया । तो भांडों को कोई विवेक तो नहीं होता । सो राजा की रानी जिसका नाम सुव्रता था उस सहित मायने रानी के साथ उठने बैठने लगा अथवा एक दिन बैठाल दिया और राजा को दिखा दिया कि ये मुनि ऐसे दुष्ट होते हैं । उस मंत्री को था बड़ा भारी क्रोध कि मैं किस तरह इन मुनियों से बदला चुकाऊं, इसने मुझे शास्त्रार्थ में जीत लिया । उसे बड़ा घमंड था । तो यह रूपक बनाया । कितना कठिन रूपक बनाया कि जो विवेकी है वह ऐसी घटना देखकर भी शंका में नहीं आ सकता । मुनि ऐसे होते ही नहीं । मुनि तो शील स्वभावी शुद्धस्वभाव के होते हैं । उनको शंका न जगेगी, मगर यहाँ क्या हुआ कि उस राजा को दिखाया और कहा कि देखो राजा की ऐसी भक्ति है कि जो राजा ने अपनी स्त्री (रानी) भी दिगंबर मुनि को रमा दी है और ऐसा जब राजा ने देखा तो उसे बड़ा क्रोध उमड़ा और उस समय उस राजा ने वहाँ ठहरे हुए 500 मुनियों को कोल्हू में पिलवा दिया । मुनि तो मुनि हैं, उन्हें तो आत्मतत्त्व से प्रयोजन है । वह तो भांड था, जिसने मुनि का भेष रखकर राजा को ऐसा भिड़ाया । खैर राजा ने उन मुनियों को घानी में पिलवाया । मुनियों ने उपसर्ग सहा, समाधिभाव धारण किया और वे मुक्ति पधारे । अब उसी नगर में एक बाहु नाम का मुनि आया सो उसको लोगों ने मना किया कि यहाँ का राजा दुष्ट है, तुम नगर में मत आवो । इस राजा ने तो अभी-अभी जल्दी ही 500 मुनियों को घानी में पेल दिया है, तुम को भी घानी में पेल देगा । तो लोगों के ऐसे वचन सुनकर बाहुमुनि को क्रोध उत्पन्न हुआ । वह तपस्वी थे, ऋद्धिधारी थे, तो इतना क्रोध उत्पन्न हुआ कि उनके बायें कंधे से अशुभ तैजस पुतला निकला, अग्नि की ज्वाला निकली सो उसने राजा को भस्म किया, मंत्रियों को भस्म किया, सब नगर को भस्म किया और खुद भी भस्म होकर 7वें नरक में उत्पन्न हुआ । तो यहाँ यह बात दिखाई जा रही है कि बाहु नामक मुनि ने अपना भाव छोड़ दिया और द्रव्यलिंग में ही उसे सिद्धि जो हुई उसने उसके प्रयोग में सब नगर को भस्म कर दिया, उस समय से दंडक वन भस्म हुआ होगा । उसमें कहीं अंकुर न थे, ऐसा ही दंडक वन था जहाँ एक बार श्रीरामचंद्रजी भी पधारे थे, उनके आगमन से वह दंडक वन भी हरा भरा हो गया, मगर यहाँ बताया जा रहा कि यदि भाव सही नहीं है तो मुनिभेष धारण करने से कोई लाभ नहीं होता ।