वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 50
From जैनकोष
अवरो वि दव्वसवणो दंसणवरणाणचरणपब्भट्टो ।
दीवायणो त्ति णामो अणंतसंसारिओ जाओ ।।50।।
(90) कषायवश द्वीपायन मुनि की दुर्दशा―इस भावपाहुड़ ग्रंथ में प्रसंग यह चल रहा है कि परमार्थभूत ज्ञानस्वभाव के ज्ञानभाव बिना द्रव्यलिंग धारण करना कार्यकारी नहीं है । इस विषय में अनेक दृष्टांत दिए गए । और अभी गत गाथा में बाहु मुनि का दृष्टांत दिया । इसी तरह द्वीपायन मुनि भी हुए हैं जो द्रव्यश्रमण थे । सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र से भ्रष्ट हुए थे वे भी अनंत संसारी हुए । ये द्वीपायन नेमिनाथ स्वामी के तीर्थ में हुए हैं । एक समय 9वें बलभद्र श्रीकृष्ण के भाई बलदेव ने श्री नेमिनाथ तीर्थकर से पूछा कि हे स्वामी यह द्वारिकापुरी समुद्र में है, उस समय द्वारिकापुरी समुद्र में एक टापू जैसी थी । तो इस द्वारिकापुरी की स्थिति कितने समय तक रहेगी । वहाँ समवशरण में उत्तर मिला कि रोहिणी का भाई जो द्वीपायन है, जो कि तेरे मामा हैं वह 12 वर्ष बाद मद्यपायियों का निमित्त पाकर क्रोध में आकर इस नगरी को जला देगा । ये वचन सभी ने सुन लिये । तो वह द्वीपायन मुनि दीक्षा लेकर पूर्व देश में चला गया यह विचारकर कि हम 12 वर्ष व्यतीत करने के लिए उसने तप करना शुरू कर दिया, और यहाँ बलभद्र ने और नारायण श्रीकृष्ण ने द्वारिकानगरी में मद्यनिषेध की घोषणा करा दी कि यहाँ कोई मद्य न रख सकेगा, न पी सकेगा । उस समय मद्य के बर्तन, मद्य की सामग्री सब कुछ दूर पर्वत अदिक पर फिकवा दिया जिस वक्त जो बर्तन में पड़ी हुई मदिरा थी या मद्य की सामग्री थी वह वहाँ के जल निवास में फैल गई । कहीं द्वीपायन मुनि होकर 12 वर्ष तक तपश्चरण करते रहे । जब द्वीपायन ने समझा कि अब 12 वर्ष पूरे हो चुके तब वहाँ से खुश होता हुआ द्वारिकानगरी में आया । उसको इस बात की खुशी थी कि मेरे यहाँ न रहने से द्वारिका पुरी बच गई । उस वर्ष 13 माह का साल था, वह गिनने में भूल गया था, सो बिना 12 वर्ष बीते ही द्वारिकापुरी में आ गया । उसने भगवान के वचनों पर विश्वास न रखा और बड़ा खुश होता हुआ द्वारिकानगरी में विराजा । उस समय क्या घटना घटी कि संभवकुमार आदिक अनेकों बालक क्रीड़ा करते हुए वन में पहुंचे, वहाँ उनको प्यास बहुत लगी, सो पानी की तलाश में इधर-उधर भटकने लगे । तो वहाँ एक कुंड में पानी पीने लगे । उस मदिरा के निमित्त से वे कुमार उन्मत्त हो गए । उस समय उन कुमारों ने द्वीपायन मुनि को देखा और देखकर कहा―अरे यह बैठा है द्वीपायन जो द्वारिकानगरी को भस्म करने वाला है । सो क्रोध में आकर उस द्वीपायन मुनि पर पत्थर, डले आदि बरसाये । द्वीपायन मुनि को इतने पत्थर लगे कि वह वहीं भूमि पर गिर गया । उस समय द्वीपायनमुनि के इतना कठिन तेज क्रोध उमड़ा कि उनके बायें कंधे से अशुभ तैजस शरीर निकला और वह चारों ओर फैला जिससे द्वारिकापुरी जलकर भस्म हो गई । और खुद भी भस्म हो गया । तो देखिये भावों की शुद्धि न होने से द्रव्यलिंग धारकर अपना व सारे नगर का विघात किया और असार संसार में जन्ममरण की परंपरा बांध ली । तो भावों की शुद्धि ही प्रधान है जिससे कर्म कटते हैं और शांति मिलती है ।