वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 77
From जैनकोष
विसयविरत्तो समणो छद्दसवरकाणाइं भाऊणं ।
तित्थयरणामकम्मं बंधई अइरेंण कालेण ।꠰77।।
(181) विषयविरक्त श्रमण के षोडषभावना से तीर्थंकर प्रकृति का बंध―जो मुनि विषयों से विरक्त है वह षोडष कारण भावना को भाकर शीघ्र ही तीर्थंकर नामकर्म का बंध करता है । जो विषय में लगा है जिसकी विषयों में प्रीति है वह तो धर्ममार्ग में ही नहीं है । जो विषयों से विरक्त है वही धर्म का आदर करता है । ये पंचेंद्रिय के विषय इस जीव के लिए धोखा है । भोगने के समय ये अच्छे लगते हैं, मगर इनका परिणाम फल विपाक अत्यंत बुरा हैं । जैसे एक इंद्रायण फल (विषफल) होता है जिसको खाकर मनुष्य मर जाते हैं वह खाने में बड़ा मधुर होता है । तो जैसे विषफल खाने में मधुर लगता पर उसका फल मरण है ऐसे ही इंद्रिय के विषय भोगने में बड़े मधुर लगते हैं पर उसका फल संसार में परिभ्रमण करना है, इसलिए विषयों से विरक्त होने से ही शांति मिलेगी । विषयों के अभिमुख जीव को कभी शांति नहीं मिल सकती ।
(182) स्पर्शन इंद्रिय की वशता में हाथी के विघात का उदाहरण―एक-एक इंद्रिय के विषय में प्राणी मारे गए, पर यह मनुष्य तो पंचेंद्रिय का दास है । यह कैसा मर रहा है । बरबाद हो रहा है । यह चिरकाल तक संसार में जन्म मरण पायेगा । एक हाथी का दृष्टांत है । हाथी को पकड़ने वाले शिकारी लोग जंगल में एक गड्ढा खोदते हैं और उस गड्ढे पर बांस की पंचें बिछाते हैं । और उस पर एक बांस की झूठी हथिनी बनाते हैं । साथ ही कोई 50-60 हाथ की दूरी पर एक ऐसा झूठा दौड़ता हुआ हाथी बनाते हैं जो यह मालूम होता है कि मानो हथिनी के पास दौड़ता हुआ पहुंच रहा है । इतना कार्य शिकारी लोग करते हैं, उस समय कोई वन का हाथी जब देखता है कि हथिनी खड़ी है स्पर्शन इंद्रिय के विष की कामना के वश होकर वह हाथी हथिनी के पास आना चाहता है और साथ ही जब देखा कि उसकी ओर कोई दूसरा हाथी दौड़ता हुआ उसकी ओर जा रहा है तो वह भी तेज दौड़ लगाकर उस हथिनी के पास आता है । पर वहाँ क्या था? हथिनी तो थी नहीं, बांस की पंचे गड्ढे पर बिछी हुई थी सो वह हाथी उस गड्ढे में गिर जाता है । बस शिकारी का काम बन गया । वह तो यही चाहता था कि हाथी इस गड्ढे में गिर जाये । उसको कई दिन भूखा रखते हैं । जब वह बड़ा हताश हो जाता, तो उस गड्ढे में एक रास्ता बनाकर और हाथी पर चढ़कर अंकुश के बल से उसे अपने कब्जे में कर लेते हैं । यों हाथी शिकारियों के वश हो जाता है ।
(183) रसना घ्राण चक्षु व कर्ण इंद्रिय की वशता में प्राणियों के घात में उदाहरण―रसनाइंद्रिय का उदाहरण हैं कि मछली मारने वाले ढीमर या मछुआ लोग बांस में रस्सी फंसाकर उस रस्सी की छोर पर एक लोहे का कांटा फंसाते हैं और उस पर केचुवा वगैरह कुछ कीड़ा लगाकर उसे पानी में डाल देते हैं । मछली मांस के लोभ में आकर मुख बा कर उस कीड़े को खाती है, मछली का कंठ उस कांटे में फंस जाता है, अब बह विवश हो गई । ढीमर उसे पानी से बाहर निकाल लेता है और वह मछली पानी से बाहर आकर तड़फ-तड़फ कर मर जाती है । घ्राणेंद्रिय के वश होकर भंवरा अपने प्राण गंवा देता है । भ्रमर दिन के समय जबकि कमल फूला हुआ होता है, कमल की सुगंध लेने के लोभ से कमल के बीच मकरंद पर बैठ जाता है । शाम होते ही कमल तो बंद हो जाता । क्योंकि कमल का ऐसा ही स्वभाव है कि सूर्य की किरणों के रहने तक कमल फूला रहता है, सूर्य के अस्त होने पर कमल बंद हो जाता है । अब वह भंवरा कमल के फूल में बंद हो गया । यद्यपि उस भ्रमर में ऐसी कला है कि वह काठ को भी कील कीलकर एक ओर से दूसरी और निकल जाता है, मगर सुगंध के लोभ में आकर वह कमल के पत्तों को काट नहीं सकता । फल यह होता है कि गंध का लोभी होकर वह भ्रमर वहीं अपने प्राण गमा देता है, चक्षुइंद्रिय के वश होकर तो देखते ही हैं लोग कि गर्मी के दिनों में या बरसात में दीपक पर पड़कर अपने प्राण गमा देते हैं । कर्णेंद्रिय के वश होकर सर्प, हिरण आदिक जानवर सपेरे की बंशी का मधुर राग तान को सुनकर निकट पहुंच जाते हैं और उस समय वह सपेरा या शिकारी उस सांप या हिरण को पकड़ लेता है । तो ऐसे एक-एक इंद्रिय के वश होकर प्राणियों ने अपने प्राण गमाए, पर मनुष्यों की बात तो सोचो कि यह मनुष्य पांचों ही इंद्रिय के विषयों का दास है, उसकी क्या हालत होगी?
(184) विषयविरक्त श्रमण की विशेषता―जो विषयों में आसक्त हैं उनका तो जीवन ही निष्फल है । हां जो बिषयों से विरक्त हैं वे धर्ममार्ग में लगते हैं । तो जो मुनि विषयों से विरक्त हैं वह जब षोडश कारण भावना को भाता है तो उस काल में ही तीर्थंकर नाम प्रकृति का बंध होता है, तीर्थंकर प्रकृति नामकर्म का भेद है, क्योंकि उसके प्रताप से, उदय से कुछ शारीरिक या मानवीय अतिशय बढ़ जाते हैं । समवशरण की रचना होना सातिशय दिव्यध्वनि होना आदिक यह सब नामकर्म की प्रकृति का फल है । जबकि तीर्थंकर नाम प्रकृति का जिसके उदय होता है वह नियम से मोक्ष जाता है । मोक्ष जाने की अपेक्षा से देखा जाय तो तीर्थंकर प्रकृति अच्छी मान ली जाती है और उसके कारणभूत सोलह कारण भावनायें तो सुमानुषोचित कर्तव्यों में अच्छी हैं ही । फिर भी इस तीर्थंकर प्रकृति का भी क्षय होता है तब जीव मुक्ति में पहुंचता है खैर तीर्थंकर प्रकृति का बंध बड़ी विशुद्ध भावनाओं से ही होता है । वे सोलह भावनायें कौन हैं? सो निरखिये ।
(185) तीर्थंकरनामकर्मप्रकृतिबंधहेतुभूत प्रथमभावना दर्शनविशुद्धि―(1) दर्शन विशुद्धि भावना याने सम्यग्दर्शन अष्ट अंग सहित होना और सम्यक्त्व के होते हुए जीवों के कल्याण की भावना होना इसका नाम दर्शनविशुद्धि भावना है । यदि सम्यग्दर्शन होने का नाम दर्शनविशुद्धि हो तो सम्यग्दर्शन तो सभी जीवों के हुआ, जितने भी मोक्ष गए, पर तीर्थंकर सब नहीं कहलाये । सम्यग्दर्शन के होने पर जीवों के कल्याण की भावना होना दर्शनविशुद्धि भावना है कैसी भावना होती है कि ये जगत के सब जीव ज्ञानानंदस्वरूप हैं । अपनी ही सत्ता के कारण सबसे निराले हैं, किंतु ये जीव अपने आपको सबसे निराला नहीं समझ पाते इस कारण संसार में भटक रहे हैं । अगर यह सबसे निराला अपने ज्ञानस्वरूप को दृष्टि में ले लें तो इनका कल्याण हो, ऐसी कल्याण की भावना होती है । लोक में अनेक लोग जो यह कह बैठते हैं कि तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने वाले पुरुष जीव के कल्याण करने की भावना करते हैं कि मैं इन जीवों को मोक्ष पहुंचाऊं, इन जीवों को उपदेश देकर इनको तार दूं, मगर ऐसा भाव नहीं होता है दर्शनविशुद्धि का, अगर ऐसा आशय हो तो वहाँ तो सम्यक्त्व ही नहीं है । कोई जीव किसी दूसरे जीव को तार सकता है क्या? कोई किसी को मोक्ष में पहुंचा सकता है क्या? अरे एक जीव किसी दूसरे जीव का कुछ भी नहीं कर सकता । फिर कर्तृत्व बुद्धि बनाये तो वह तो प्रकट मिथ्यात्व है । तो मैं इन जीवों को तार दूं, ऐसी बात नहीं चित्त में आती, किंतु यह बात आती है कि देखो है तो यह स्वयं ज्ञानानंद निधान, इसका स्वरूप समस्त पर और परभावों से न्यारा है, पर अपने को तो समझ नहीं पाते, इस कारण संसार में रुल रहे हैं । इनको दृष्टि मिले, ज्ञानप्रकाश जगे और ये सुखी हों, ऐसी भावना होती है, और उनके सम्यग्दर्शन होता है । यद्यपि क्षयोपशमिक सम्यक्त्व में भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है लेकिन वहाँ चल, मलिन अगाढ़ दोष अत्यंत सूक्ष्म होता जिससे कि उसके अष्टांग में रंच भी बाधा नहीं होती, जो अष्टांग सम्यक्त्व के हैं ।
(186) सम्यग्दर्शन के अष्टअंग―(1) नि:शंकित अंग―किसी प्रकार का भय नहीं रहता सम्यग्दृष्टि को और न अपने स्वरूप में शंका रहती है । स्पष्ट परिचय है कि यह मैं ज्ञानानंदस्वरूप आत्मतत्त्व हूं, उसको कहां से भय होगा? जितना यह मैं हूँ, यह ही मेरा दुनिया है, यही मेरे साथ रहता है । फिर इस लोक का भी भय क्या? और परलोक का भी भय क्या ज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीव को कभी भी कर्मोदय से मिले हुए सुखदुःख भूख प्यास आदिक वेदनाओं में मन नहीं डिगता । उपयोग मोक्षमार्ग से नहीं हटता । उनके कभी मोह उत्पन्न नहीं होता । कभी भी वह अन्य सन्यासियों का चमत्कार देखकर उनके प्रति रंच भी आकर्षित नहीं होता । सबका ज्ञाता रहता है । माहात्म्य समझिये एक इस आत्मस्वरूप का यह परभावों से निराला हो तो इस आत्मा में अद्भुत चमत्कार प्रकट होता है । केवलज्ञान होगा, सिद्ध भगवान होगा समस्त लोकालोक का जाननहार होगा, अनंत सुखी होगा । वह बाहरी भेष चमत्कार पर आकर्षित नहीं होता । सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव उत्तम क्षमा आदिक धर्मों से अपने को बढ़ाया हुआ अपना विकास करता है और किसी अन्य के दोष को बोलने, प्रकट करने का भाव नहीं बनाता । सदा यह अपने को अपने धर्म में स्थित करता है, किंतु धर्म क्या? सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक᳭चारित्र और दूसरे लोगों को भी जो धर्म से हट रहे हैं, उनको भी अनेक उपायों से धर्म में स्थिर करता है । सम्यग्दृष्टि जीव को धर्मात्मा जनों में निष्कपट वात्सल्यभाव रहता है । वह जानता है कि ये भी रत्नत्रय के धारण करने वाले हैं । जिस मोक्ष के पंथ का मैं पथिक हूँ उसी के ही ये पथिक हैं, ऐसा जानकर धर्मात्मावों में उसके वात्सल्य होता है । यह धर्म की प्रभावना करता है अपने निर्मल चारित्र के द्वारा, ज्ञान के प्रसार के द्वारा तो ऐसा अष्टांग से विभूषित सम्यग्दृष्टि ज्ञानी श्रमण षोडश कारण भावनाओं को पाकर तीर्थंकर नामकर्मप्रकृति का बंध करता है ।
(187) तीर्थंकरप्रकृतिबंध का हेतुभूत द्वितीय तृतीय चतुर्थभावना―तीर्थंकरप्रकृति बंध में मुख्य कारण दर्शनविशुद्धि भावना है । उसी की शेष 15 भावनाओं में से कोई भावना कम भी रहे तो भी तीर्थकर प्रकृति का बंध हो जाता है मगर दर्शनविशुद्धि भावना न हो, फिर चाहे 15 भावनायें भी होती रहें तो भी तीर्थकर प्रकृति का बंध नहीं होता । (2) दूसरी भावना है विनय संपन्नता । रत्नत्रय के धारी पुरुषों में सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र में, धर्मभाव में, ज्ञानस्वभाव में, विनय संपन्नता होती है । इसके प्रति झुकना यह ही कहलाता है विनय । ऐंठकर मीठी बात बोलना विनय न कहलायेगा, किंतु उसके लिए झुककर उसके प्रति कृतज्ञ बनकर जो भक्ति का भाव जगता है वास्तविक विनय वहाँ हुआ करती है । तो ऐसी विनय संपन्नता से ज्ञानी श्रमण तीर्थंकर प्रकृति का बंध करता है । (3) तीसरी भावना है शील और व्रतों में निर्दोष प्रवृत्ति करना । जो उसने व्रत धारण कर लिया, जिस व्रत में वह चल रहा है उसका निरतिचार पालन करना, ऐसी प्रवृत्ति होती है और ऐसा ही निर्दोष रहने की भावना बनती है (4) चौथी भावना है अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, निरंतर ज्ञान में उपयोग रखना याने स्वाध्याय से, मनन से, सामायिक से, चर्चा से अपने ज्ञानस्वरूप में उपयोग रखना ।
(188) तीर्थंकरप्रकृतिबंधहेतुभूत पंचम षष्ठ सप्तम अष्टम भावना―पांचवीं भावना है संवेग भावना । संसार से भयभीत रहना संवेग कहलाता है । यह संसार में रहने के काबिल नहीं है, संसार अनेक दुःखमय है, मुझे इस संसार में नहीं रहना है, ऐसा संसार से उद्वेग होना, यह है संवेग भावना । (6) छठी भावना है शक्तितस्त्याग । अपनी शक्ति के अनुसार त्याग, इसका अर्थ लोग क्या लगाते हैं कि शक्ति से कम त्याग करना, अधिक न करना, पर इसका यह अर्थ नहीं है । अर्थ यह है कि अपनी शक्ति को न छिपाकर अपनी पूर्ण सामर्थ्य के अनुसार त्याग करना यह शक्तितस्त्याग भावना है । शक्ति को न छिपाकर पूर्ण शक्ति, सामर्थ्य के अनुसार त्याग करने में आत्मा का उत्साह आता है । और ऐसा सोचने में कि देखो शक्ति से कम ही रहे त्याग, अधिक नहीं हो तो वहाँ उत्साह खतम होता है । शक्तितस्त्याग भावना से तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है । (7) सातवीं भावना है शक्तितस्तप । अपनी पूर्ण सामर्थ्य के अनुसार जैनशासन में बताये हुए ढंग से तप करना, कायक्लेश करना यह शक्तितस्तप भावना है । (8) आठवीं भावना है साधुसमाधि । ये सब भावनायें तीर्थंकर प्रकृति का बंध कराने वाली हैं । साधुवों को तपश्चरण करने में आये विघ्नों को दूर करना ताकि साधु बहुत उत्साह विधि से तप में सफल होवे । यों साधुवों की सेवा करना, उनके विघ्न दूर करना साधु समाधि है ।
(189) तीर्थंकरप्रकतिबंधहेतुभूत नवमी दशमी ग्यारहवीं बारहवीं तेरहवीं भावना―नवमी भावना है वैयावृत्य भावना, गुणी पुरुषों पर कोई दुःख आये तो उस समय उनकी ऐसी सेवा करना कि उनकी थकान उनका कष्ट दूर हो जाये, इसे कहते हैं वैयावृत्य भावना । (10) दसवीं भावना है अर्हद्भक्ति । अरहंत भगवान के गुणों में अनुराग करना । ये अरहंत भगवान, सकल परमात्मा अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशक्ति और अनंत आनंद से संपन्न हैं । वे परम पवित्र हो गए हैं, तीन लोक के अधिपति हैं । धन्य है इनके शुद्ध विकास को । यही आत्मा का वास्तविक स्वरूप है जो प्रकट हो गया है, आदिक रूप से अरहंत भगवान के गुणों में अनुराग जगे, इसे कहते हैं अर्हद्भक्ति ꠰ ( 11) ग्यारहवीं भावना है आचार्यभक्ति । विषयविरक्त आत्मध्यान की धुन वाले ये आचार्य संत, इनके प्रसाद से हम भी धर्ममार्ग में निर्विघ्न चलेंगे ऐसा जानकर उनमें भक्ति होना आचार्यभक्ति है । (12) बारहवीं भावना है बहुश्रुत भक्ति, जो अनेक शास्त्रों के ज्ञाता है, उपाध्याय हैं, उनमें भक्ति होना बहुश्रुतभक्ति है । (13) तेरहवीं भावना है प्रवचनभक्ति । जिनागम में जैनशासन में भक्ति जगना, अनुराग जगना यह है प्रवचनभक्ति । आत्मा का कल्याण जैनशासन में बताई हुई विधि से होता है । जैनशासन का हम पर बड़ा उपकार है, जिसके प्रसाद से हमने तत्त्व का ज्ञान पाया, आत्मा की रुचि प्रकट कर पायी । धन्य है यह जिनवाणी ऐसी जिनवाणी के प्रति अनुराग जगे, उसे प्रवचनभक्ति कहते हैं ।
(190) तीर्थकर प्रकृतिकबंधहेतुभूत चौदहवीं पंद्रहवीं व सोलहवीं भावना―(14) चौदहवीं भावना है आवश्यकापरिहाणि । मुनियों के जो आवश्यक कर्तव्य हैं उनको ठीक समय से करना, उनमें हानि न करना आवश्यकापरिहाणि भावना है । 6 कर्तव्य हैं साधुवों के―(1) पहला तो है समताभाव, सर्वजीवों में समताभाव होना, जो किसी को अपना भला मानता किसी पर घृणा करता, वह साधु नहीं है, वह तो गृहस्थों से भी गया बीता है, धर्म पर कलंक लगाने वाला पतित और पापी प्राणी है । श्रमण का, मुनि का तो समता ही एक प्रधान अंग है । सर्व जीवों में समताभाव हो । (2) दूसरा आवश्यक है 24 तीर्थंकरों की स्तुति करना । (3) तीसरा आवश्यक है―किसी तीर्थंकर की स्तुति वंदना करना, (4) चौथा आवश्यक है प्रतिक्रमण । कोई दोष लग जायें तो उन दोषों का तपश्चरण आदिक करके आलोचना आदिक विधान से दोषों की निवृत्ति करना, फिर उन दोषों को न होने देना । (5) पांचवां आवश्यक है प्रत्याख्यान । कभी दोष न लगे, ऐसी अपनी सावधानी करना और (6) छठवां आवश्यक हैं कायोत्सर्ग । शरीर से ममता का त्याग करना और अंतर्मुहूर्त में एकदम समस्त ख्यालों को छोड़कर शरीर का भी ध्यान छोड़कर ज्ञानस्वरूप आत्मा की दृष्टि बनी रहना, अनुभूति होना, ऐसे 6 आवश्यकों में जो श्रमण हानि नहीं करते ऐसे श्रमणों के तीर्थंकर प्रकृति का बंध होगा । पंद्रहवीं भावना है मार्गप्रभावना । ज्ञानादिक के द्वारा धर्म का प्रकाश करना मार्गप्रभावना है । ज्ञान से, अपने आचरण से जैनशासन का उद्योत करना मार्गप्रभावना है । सोलहवीं भावना है प्रवचन वात्सल्य । इस दर्शन विशुद्धि भावना के साथ-साथ ये 15 भावनायें अथवा इन 15 में से कुछ भावनायें हों, इन सबसे तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है । कुछ भावनायें हों, इसका अर्थ यह नही है कि कुछ हों कुछ न हों, पर प्रधान और गौण की अपेक्षा बात कही जा रही है । तो विषयों से विरक्त श्रमण इन 16 भावनाओं को भा करके तत्काल ही तीर्थकर प्रकृतिका बंध करते हैं ।