वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 78
From जैनकोष
वारसविहतवयरणं तेरसकिरियाउ भाव तिविहेण ꠰
धीरहि मणमत्तदुरियं णाणंकुसएण मुणिपवर ꠰꠰78।।
(191) तपश्चरण से शुद्ध होने का आदेश―इस गाथा में मुनिवरों को आदेश उपदेश किया गया है । मुनिप्रवर ! तुम बारह प्रकार के तपश्चरण और तेरह क्रियाओं का मन, वचन, काय से पालन करो । तथा ज्ञानरूपी अंकुश के द्वारा मन रूपी मत्त हस्ती को वश में करो । मुनियों का शृंगार तपश्चरण है । जिनको ज्ञानस्वरूप आत्मा की धुन है उनके तप तो सहज चलते हैं और कभी यह देखने पर कि यह उपयोग आत्मस्वरूप में नहीं टिक रहा है, तब जानकर भी अनेक प्रकार के तप करते हैं । ये तप दो प्रकार के हैं (1)) बाह्यतप और (2) अंतरंग तप । बाहर में लोगों को दिखे अथवा बाहरी पदार्थ भोजन आदिक की अपेक्षा रखकर प्रवृत्ति बने अथवा अन्य लोग भी जिन तपों को कर सके वे सब बाह्यतप कहलाते हैं । बाह्य तप 6 प्रकार के हैं । (1) अनशन (2) ऊनोदर (3) वृत्तिपरिसंख्यान, (4) रसपरित्याग (5) विविक्त शय्यासन और (6) कायक्लेश । संसार में यह जीव अनादि से अब तक इंद्रिय के विषयों का दास बना चला आया है आहार भोजन आदि में आसक्ति करता हुआ अनेक कर्मों का बंध करता, जन्ममरण करता चला आया है । एक यह मनुष्यभव ही ऐसा उत्तम भव है कि जहां तपश्चरण और संयम की साधना बन सकती है । अन्य गति के जीव तो करें क्या? देवगति एक बहुत अच्छी गति लौकिक हिसाब से मानी जाती है, उस देवगति में भी संयम नहीं है, तपश्चरण नहीं है, देव भी तरसते हैं संयम और तपश्चरण को । ऐसा यह उत्तम भव है मनुष्य का । ऐसे दुर्लभ मनुष्यभव को पाकर धर्म की ओर दृष्टि न हो, तत्त्वज्ञान की उमंग न हो, इंद्रिय के विषयों की ही धुन बने, धन वैभव में ममता, कृपणता, लोभ तृष्णा जगे, धर्म के कार्य में अनुराग रहे तो ऐसा जीवन क्या जीवन है । यों तो अनंत भव गुजार दिए । अब जैन शासन पाया है, उत्तम बुद्धि पायी है तो तपश्चरण और संयम में बुद्धि कीजिए । और यह सब तत्त्वज्ञानपूर्वक हो तो इसका फल उत्तम प्राप्त होता है ।
(192) अनशन एवं ऊनोदर तप की साधना―बाह्य तप 6 प्रकार के हैं, उनमें प्रथम है अनशन । चार प्रकार के आहारों का त्याग करके आत्मोपासना करना, आत्मध्यान आत्मसेव करना इसका नाम है अनशन । जिनके ज्ञान जगा है उनको आहारविषयक कोई प्रवेदना या आसक्ति नहीं होती है । वह ज्ञानबल से अपने आपको वश में किए रहता है, सो उस ही धुन में अनेक बार आवश्यक हुआ, जरूरी ना कि अनशन तप होता रहे । अनशन तप करने के लिए लोग सोचते हैं कि हमारा शरीर इस लायक नहीं है । हम कमजोर हैं या भूख बरदास्त नहीं हो पाती है सो बात यह है कि तपश्चरण करने में मानसिक बल चाहिए, ज्ञानबल चाहिए । कुछ शारीरिक स्थिति भी देखी जाती है, पर विशेषता है मानसिक बल की । जिनके तत्त्वज्ञान है, मनोबल है उनके लिए अनशन आसान है और कोई स्वस्थ है, पर मनोबल नहीं तो उनको अनशन आसान नहीं है, वह कर ही नहीं पाता । अनशन तप करते हुए में साधु की अध्यात्मभावना और प्रबल होती है । दूसरा तप है ऊनोदर―अल्प आहार करना, एक ग्रास, दो ग्रास आदि संख्या में ग्रास लेना याने भूख से कम खाना यह कहलाता है ऊनोदर तप । ऊनोदर तप में बहुत मानसिक बल चाहिए। वैसे मात्र सुनने में ऐसा लगता कि अनशन तप कठिन है, ऊनोदर में क्या कठिनाई? भूख से कुछ कम खा लिया, मगर अनशन तप की अपेक्षा भी कभी-कभी ऊनोदर से अधिक कठिनाई पड़ती है ।
(193) वृत्तिपरिसंख्यान तप की साधना―तीसरा तप है वृत्तिपरिसंख्यान । कोई आहार के लिए चले, उससे पहले अटपट आखिडी ले ली ताकि आहार न मिले तो उसमें भी मैं समता रख सकूं, यह अपनी परीक्षा करू और आहार न मिल सके ऐसी स्थिति में समता भाव रखकर अपना विकास बढ़ाऊं, यह प्रयोजन होता है वृत्तिपरिसंख्यान में । वृत्तिपरिसंख्यान अनेक प्रकार से किए जाते हैं । सीधे रास्ते में ही आहार का योग मिले तो करना अथवा एक मोड़ देकर दूसरे रास्ते में मिले तो करना, इतने घर बाद मिले तो करना, अथवा अमुक-अमुक घटनायें देखने में आये तो आहार लेना अन्यथा नहीं, ऐसे अनेक प्रकार के वृत्तिपरिसंख्यान किए जाते हैं । पुराणों में एक उदाहरण है कि एक मुनिमहाराज ने यह वृत्तिपरिसंख्यान किया कि कोई बैल सामने से ऐसा आता हुआ दिखे कि जिसके सींग पर गुड़ की भेली भिदी हुई हो तो आहार लेना । अब बतलाओ किसी को बताना तो होता नहीं, ऐसा योग कैसे बने, कौन बनाये ? अनेक दिन उपवास में बीत गए, आखिर एक दिन-क्या हुआ कि एक बैल सांड गुड वाले की दुकान से गुजर रहा था और वह थोड़ा सा गुड़ खाने को चला तो इतने में दुकान मालिक ने उसे भगाया, तो जल्दी-जल्दी में उसके सींग में एक गुड़ की भेली भिद गई और वह आगे कुछ दौड़कर बढ़ने लगा । तो वह घटना मुनिराज को दिख गई, उनका आहार हो गया । तो ऐसा वृत्तिपरिसंख्यान कहीं श्रावकों को हैरान करने के लिए नहीं किया जाता, किंतु स्वयं की परीक्षा, समता की भावना के लिए किया जाता है । ये सब बातें बहुत पहले समय की हैं, जबकि उपवास कर सकने की महीना-महीना भर की क्षमता होती थी । अब तो प्राय: कोई अटपट आखिडी ले तो प्राय: उसका कुछ विश्वास भी लोगों को कम होता कि बात यह ही थी या बनाकर कही गई । वृत्तिपरिसंख्यान तप में अटपट आखिडी लेने का विधान है। सो यह वृत्तिपरिसंख्यान अपनी समता की देखभाल के लिए है ।
(194) रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन व कायक्लेश तप की साधना एवं तपश्चरणों का फल―चौथा बाह्य तप है रसपरित्याग । घी दूध आदिक रसों का त्याग करना, छहों रसों का त्याग करे, 5 का, 4 का, 3 का, 2 का, एक का त्याग करे । वह सब रसपरित्याग कहलाता है, जो वास्तविक साधु होते हैं उनकें मन में भोजन करने का ही उद्देश्य नहीं रहता जिंदगी का । उनका उद्देश्य रहता है आत्मसाधना का, परंतु जीवन रखना आवश्यक है आत्मसाधना के लिए और इस जीवन के लिए आहार आवश्यक है, तो यों उपेक्षा बुद्धि से आहार ग्रहण करते हैं, उनको रसत्याग करना बहुत आसान है । क्योंकि उनको भोजन में व्यामोह नहीं, आसक्ति नहीं । 5वां बाह्य तप है विविक्त शय्यासन । एकांत स्थान में सोना, बैठना यह है विविक्त शय्यासन, ऐसे एकांतवास से आत्मध्यान में कोई बाधा नहीं आती है । इस कारण विविक्त शय्यासन नामक तप साधुजनों को लाभकारी होता हे । छठवां बाह्य तप हैं कायक्लेश । अनेक प्रकार के आचरणों से कायक्लेश भी होवे तो वहाँ भी समताभाव ही रखा जाता है । वह है कायक्लेश तप । जैसे भोजन में सिर्फ जल लेना या चावल ही लेना या अन्य प्रकार के नियम, गर्मी में पर्वतपर खड़े होकर तप करना रात्रिभर प्रतिमायोग धारण करना ये सब बाह्य तप कहलाते हैं । इन बाह्य तपों के करने से क्या फायदा होता है? कर्मों का क्षय, इंद्रिय से उपेक्षा संयमभाव, राग का नाश, ध्यान जगत से हटना, ब्रह्मचर्य का पालन होना, दुःख सहन करने का अभ्यास होना, सुख में आशक्त न होना, जैनशासन की प्रभावना होना यह सब उसका फल है । तो यहाँ मुनिवरों को आदेश उपदेश किया जा रहा है कि हे मुनिजनो ! तपश्चरण को करके मन, वचन, काय को वश करो ।
(195) आभ्यंतर तपों का निर्देश―आभ्यंतर तप 6 होते हैं । आभ्यांतर तप के मायने हैं भीतरी तप । जो अन्य मतावलंबी न कर सके, अपने ही संवेदन से जिनका अनुभव हो, बाह्य पदार्थ की उसमें अपेक्षा नहीं रहती इसलिए ऐसा तप अंतरंग तप कहलाता है । वे भी 6 प्रकार के हैं― (1) प्रायश्चित्त, (2) विनय (3) वैयावृत्य (4) स्वाध्याय (5) व्युत्सर्ग अरि (6) ध्यान । सबका लक्षण बतायेंगे, ये सब तप कहलाते हैं । जिससे इस चेतना का विकास हो, ज्ञानस्वभाव के उपयोग की स्थिरता हो ऐसा यह सब तप है ।
(196) आलोचना नाम के अभ्यंतर तप का निर्देश―प्रथम अंतरंग तप है प्रायश्चित्त । प्रायश्चित के 9 भेद है―(1) आलोचना (2) प्रतिक्रमण (3) तदुभय (4) विवेक (5) व्युत्सर्ग (6) तप, (7) छेद (8) परिहार और (9) उपस्थापना । आलोचना कहते हैं निर्दोष विधि से अपने किए हुए पापों को बता देना । शिष्य गुरुवों को अपने पाप बताता है ताकि वह पाप आगे न बने और किए हुए पापों की शुद्धि हो जाये । पाप जब किया, तब हो गया, मगर उस पाप को प्रकट कर दे तो उससे उस दोष की निवृत्ति हो जाती है । तो गुरुवों के सम्मुख अपने किए हुए पापों को बताना, निवेदन करना यह आलोचना तप है । आलोचना ऐसी निर्दोष विधि से हो कि जहाँ किसी प्रकार की मायाचारी न बने, तो ऐसी आलोचना करने से किए हुए पाप, दोष दूर हो जाते हैं । यहाँ भी तो देखो―अगर लड़का सच बोल दे अपराध करके भी तो पिता इसे दंड नहीं देता, गुरु उसे दंड नहीं देते या साधारण दंड देते हैं, क्योंकि उसका अभिभावक जानता है कि इसके हृदय में निर्मलता है । इसने अपना अपराध नहीं छुपाया, झूठ नहीं बोला और सत्य बखान कर दिया, तो ऐसे ही शिष्य गुरुवों के समक्ष बहुत निर्दोष रीति से अपने किए हुए दोषों का निवेदन करता है ।
(197) आलोचना के आकंपित अनुमानित व दृष्ट दोष―वे दोष कौन से हैं जो आलोचना को सदोष बनाते हैं । ऐसे दोष 10 प्रकार के होते हैं । जैसे आकंपित । दोष निवेदन करने तो चले, पर गुरु के सम्मुख दोष प्रकट करने से पहले यह मन में भय आ गया कि मेरे दोषों को सुनकर कहीं आचार्य अधिक दंड न दें दें अथवा ऐसी मुद्रा बनाकर अपने दोष बताना कि जिससे गुरु महाराज को दया आये और अधिक दंड न दें । इस प्रकार का मन में भाव रखकर अपने दोष बताना यह आलोचना का आकिंपत दोष है । दूसरा है अनुमानित दोष । दूसरे ने अनुमान कर लिया कि इसने दोष किया है ऐसा कुछ उसके मन में आया तब उस पाप का निवेदन करता है अन्यथा तो स्वच्छंद है । पाप होते जाते हैं । क्या निवेदन करना? ऐसा ही दूसरों का दोष था उसको यह दंड दिया था वही कुछ कर लेना, निवेदन ही न करना तो वह उसका दोष है । तीसरा दृष्ट दोष है कि अगर किसी अन्य ने कोई दोष देख लिया तो उसकी तो आलोचना करना और जिस दोष को कोई देख न सके उसकी आलोचना न करना, इस प्रकार का जो अपना भाव रखता है उसकी आलोचना में दोष है । शिष्यजन गुरु को अपना सर्वस्व समझते हैं और अपने दोष गुरु से निवेदन करने में उनको जरा भी हिचक नहीं होती, क्योंकि वे जानते हैं कि इनकी शरण में रहकर मैं मोक्षमार्ग में लग रहा हूँ, तो ये तो मेरे सर्वस्व हैं । हम को रंच भी दोष न छुपाना चाहिए ꠰
(198) वादर, सूक्ष्म, छन्न व शब्दाकुल नाम के आलोचनादोष―आलोचना का चौथा दोष है कि मोटे दोष की तो आलोचना कर लेना और छोटे दोष को छुपा लेना । छोटे बड़े सभी प्रकार के दोष बनते हैं, सूक्ष्म और स्थूल, तो उनमें से मोटे दोष की तो आलोचना कर देना और सूक्ष्म दोष छुपा लेना यह आलोचना का दोष है । 5वां दोष है सूक्ष्मदोष याने सूक्ष्म दोष की तो आलोचना करना और मोटे दोष को छिपाना । ऐसा छिपाने वाला शिष्य क्या सोचता है कि आचार्य महाराज समझ जायें कि जब यह इतने छोटे-छोटे सूक्ष्म दोषों को बताता है तो यह मोटे दोष तो करता ही न होगा ऐसा गुरू जान जायें ऐसा आशय उसके रहता है । ऐसे ही मोटे दोष को बोले, सूक्ष्म दोष छुपाये तो उसमें यह भावना रहती है कि गुरू महाराज यह जान जायेंगे कि जब यह बड़े-बड़े दोष कह डालता है तो सूक्ष्मदोष क्यों छुपायेगा? तो ऐसे आशय सहित आलोचना करना दोष है । छठा दोष है छन्न दोष याने आचार्य के आगे दोषों को स्वयं प्रकट न करना, अन्य ढंग से निवेदन करा देना, किन्हीं वचनों से दूसरे का कह दे अपना खुद छिपा ले, इस दोष को छन्न दोष कहते हैं । 7वां दोष है कि किसी समय गुरुमहाराज से बहुत से शिष्य अपने दोष बता रहे हों सो बहुत शब्दों का कोलाहल हो रहा है, उस कोलाहल के समय अपने भी दोष वचन से कह दे, अधिक न सुनें, उसी से अपने में संतोष कर लिया तो वह दोष है । आचार्य तो उसकी धर्मसाधना में सब कुछ सहायक हैं । अगर उनसे दोष छिपाया तो यह तो और भी बड़ा अपराध हुआ ꠰ दोष किया यह भी अपराध और छिपाया यह उससे भी बड़ा अपराध । अब आगे वह कैसे अपने मार्ग में चल सकेगा?
(199) बहुजन अव्यक्त व तत्सेवी नाम के आलोचनादोष―8वां दोष है कि कोई पाक्षिक आदिक प्रतिक्रमण के समय होते हैं, जैसे 15 दिन के लिए हुए दोष का 15वें दिन निवेदन करना, चातुर्मास भर में किए हुए दोषों का चातुर्मास समाप्ति के दिन निवेदनकरना । तो ऐसे समय में सभी साधु अपने दोष प्रकट करते हैं उसी बीच में अपना भी दोष प्रकट कर दिया । याने दोष प्रकट करने का महत्त्व न दिया, यह भी आलोचना का दोष है । 9वां दोष है अव्यक्त दोष याने बिल्कुल स्पष्ट दोष न बताना, किंतु इस तरह से कहना कि हे भगवान यदि किसी से ऐसा अपराध हो गया हो तो उसका क्या प्रायश्चित होता है, इस प्रकार अव्यक्त रूप से अपराध प्रकट करना और जो कहा है वह प्रायश्चित्त लेना प्रायश्चित तो लिया किंतु परिणामों में यह मलिनता थी कि आचार्यदेव यह न जान जायें कि यह दोष इसने किया । 10वां दोष है तत्सेवी दोष जो अपराध किया गया है उस अपराध को कैसे गुरू से सुनायें, उसके लिए यों ढूंढना कि जो गुरू ऐसा हो अपराध किया करते हो उन्हें अपराध सुनाना ताकि वे कोई विशेष दंड न दे सकें अथवा गुरु के सम्मुख जो दोष प्रकट किया है अथवा उसका प्रायश्चित्त लिया है उसी अपराध को व प्रायश्चित्त को बार-बार करना ये सब आलोचना के दोष हैं ।
(200) आलोचना तप का विधान और उसका फल―निर्दोष आलोचना करना यह आलोचना नाम का प्रायश्चित तप कहलाता है । पुरुष तो गुरू से आलोचना कर लेता, उसका काम तो केवल दो ही में बन गया, मगर स्त्री आर्यिका या क्षुल्लिका कृत अपराध गुरु से निवेदन करे तो वहाँ तीन व्यक्ति होने चाहिए । केवल एकांत में गुरू से ही आलोचना करने का स्त्रियों को विधान नहीं है । आलोचना तप भी एक ऐसा महान् तप है कि निर्दोष आलोचना किये बिना कोई बड़ा तपश्चरण भी करे तो भी वह फलदायक नहीं होता । अपने दोष अपने मुख से गुरू को निवेदन कर दे इसमें बहुत निर्मलता चाहिए । आलोचना का अर्थ है आ मायने सर्व प्रकार से लोचना मायने दोष को दिखा देना । अपने दोष का भले प्रकार निवेदन करना यह आलोचना दोष है । मुनि को आत्महित की बहुत तीव्र भावना है जिसके कारण दोष निवेदन में जरा भी हिचक नहीं होती । संसार के मनुष्यों को तो जो आत्महित के विशेष इच्छुक नहीं हैं, अपने दोष अपने मुख से कहने में हिचक आती । कोई यह न जान जाये कि यह दोषी पुरुष है, किंतु भावश्रमण मुनि इस बात का हर्ष मानता है कि मैं अपने दोष सरल रीति से ज्यों का त्यों गुरू को सुना दूं तो मेरा आत्मा पवित्र हो जायेगा । उसके केवल आत्म कल्याण की भावना बनी हुई है । तो आभ्यांतर तप में प्रायश्चित्त नाम के तप में यह आलोचना नामक प्रथम प्रायश्चित्त तप है । इस तप से अंतरंग परिणामों में बहुत विशुद्धि जगती है ।
(201) प्रतिक्रमणनामक प्रायश्चित्त से दोषनिवृत्ति―बारह प्रकार के तपों में आभ्यांतर तप की बात कही जा रही है, पहला अंतरंग तप है प्रायश्चित्त । प्रायश्चित्त के 9 भेद होते हैं । जिसके प्रथम भेद आलोचना का वर्णन किया है, अब द्वितीय भेद है प्रति―क्रमण । प्रायश्चित्त तप से दोषनिवृत्ति हो जाती है । धर्म में कोई दोष लग गया हो हिंसा झूठ विषयक या रत्नत्रय के अपमान विषयक या अन्य किसी भी प्रकार का तो वह दोष कैसे दूर हो, उसके उपाय में है प्रायश्चित्त तप । आलोचना में तो बताया गया था कि कोई दोष हो जाये तो गुरू से ज्यों का त्यों निवेदन कर दे तो दोष निवृत्त हो जाता है। कई दोष ऐसे होते कि जिनका प्रतिक्रमण करना पड़ता । प्रतिक्रमण कहते हैं अपने दोषों का उच्चारण कर-कर जैसे दोष लगे हों उन सब दोषों का उच्चारण कर करके ये मेरे पाप मिथ्या हों इस प्रकार उन पापों का प्रतिकार करना प्रतिक्रमण कहलाता है । मेरे पाप मिथ्या होवें का अर्थ है कि जो मुझ से अपराध हुए वे पाप दूर होवें । दूसरा आध्यात्मिक भाव यह है कि जब इस ज्ञानी ने अपने अविकार ज्ञानस्वभाव की दृष्टि की, जिसमें यह अनुभव बना, निर्णय बना कि मैं हूँ, ज्ञानस्वरूप हूँ, अपने स्वरूप से हूँ, मेरा काम है ज्ञान की वृत्तियां, याने ज्ञान की जाननरूप लहर चले, बस इतना ही मेरा स्वाभाविक कार्य है । उसमें विकार नहीं होते । किसी भी चीज में अपने आपकी ओर से विकार कभी नहीं हुआ करते । विकार कहते हैं उसे जो पर उपाधि के संबंध से कुछ उपादान में विकृतपना आया हो, वह होता है विकार, पर खुद ही निमित्त बन जाये विकार का, ऐसा कहीं नहीं होता । तो जब ज्ञानी ने अपने अविकार स्वभाव को देखा कि मैं ज्ञानमात्र हूँ और ज्ञानरूप परिणमते रहना मेरा काम है उसमें दोष कहां रखे? वहाँ कहां अपराध है? वह अपराध तो मिथ्या था अर्थात् उपाधि के संबंध से था, मेरे स्वरूप में न था, ऐसा बार-बार देखकर अपने स्वरूप की भावना बढ़ा रहा है और उस स्वरूप को निरखकर अपने स्वरूप की भावना बढ़ा रहा है सो यो पाप मिथ्या किया है । तो प्रतिक्रमण तप में यह ज्ञानी अतीतकाल में लगे हुए दोषों को दूर करता है ।
(202) तदुभय व विवेक नाम के प्रायश्चित्त से दोषनिवृत्ति―अपराधी शिष्य गुरू से आलोचना करता है और प्रतिक्रमण भी लेता है तो यह कहलाता है तदुभय तप । प्रायश्चित के प्रथम तीन भेद इस प्रकार हैं―1-आलोचना, 2-प्रतिक्रमण और 3―तदुभय । कोई दोष आलोचना से ही दूर हो जाते हैं, कोई दोष प्रतिक्रमण से ही दूर हो जाते हैं और कुछ कठिन दोष हों तो वे आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों ही किए जाने से दूर होते हैं । चौथा प्रायश्चित्त है विवेक । कदाचित् शुद्ध वस्तु भी हो भोजन पानी की और अशुद्धता का संदेह हो जाये कि यह तो अशुद्ध है तो उसका त्याग कर देना अथवा भ्रम हो जाये कि यह तो गलत है तो उसका त्याग कर देना, मुख में पहुंचे तो त्याग कर देना या जिस-जिस वस्तु के ग्रहण करने से रखने से कषाय जगती हो, मोह रागद्वेष जगता हो उस सबका त्याग कर देना यह विवेक नाम का तप है । जैसे कोई बहुत ऊंची कीमती कलम है और उससे प्रेम हो गया कि यह मेरी कलम बड़ी अच्छी है, तो फिर उस कलम को न रखना चाहिए । कोई भी वस्तु जो बहुत सुंदर लगे और मन को बड़ी प्रिय लगे ꠰ ऐसी वस्तु साधुजन नहीं रखते । उस ही का नाम विवेक नाम का तप है, और यदि कोई उसका शौक बढ़ाये, अच्छी ही चीज रखना, बढ़िया-बढ़िया ही सारी बातें होना, तो यह उसका अपराध है । उन-उन वस्तुओं का त्याग करना जिन वस्तुओं के रहने से कोई चित्त में विकार उत्पन्न होता हो, यह है विवेक नामक तप ।
(203) व्युत्सर्ग, तप, छंद नामक प्रायश्चित्त से दोषनिवृत्ति―5वां प्रायश्चित्त है व्युत्सर्ग । एक तो प्रकृत्या ही शरीर से ममता का त्याग रहे और फिर किसी विशेष पौरुष में निश्चित समय तक शरीर, वचन, मन का त्याग कर देना याने इनकी प्रवृत्ति रोकना, इनका ख्याल ही न रहे ऐसा अपना ध्यान रखना यह कहलाता है व्युत्सर्ग । छठा प्रायश्चित है तप । कोई दोष बनने पर कोई विशेष तपश्चरण में लगना, आज ऐसा अपराध क्यों हुआ? मन क्यों चंचल रहा, आज तो गर्मी में ही बैठकर तप करूंगा आदिक किसी भी प्रकार के कायक्लेश तप करना, यह तप नामक प्रायश्चित्त है । इस प्रकरण में यह बताया जा रहा है कि कदाचित् अपने को दोष लगे, अपराध आये, कुछ उपयोग गलत बने तो उससे कैसे निवृत्त होना चाहिए, उन दोषों को कैसे दूर किया जाये, उसका यह सब विधान बताया जा रहा है । 7वा प्रायश्चित्त है छेद । साधु से कोई बड़ी गल्ती हो और वह आलोचना करे अथवा उसकी गली आचार्य को मालूम हो जाये तो उसके तपश्चरण का छेद कर देता है । जैसे मानो साधु हुए उसको 10 वर्ष हुए तो यह 10 वर्ष का दीक्षित कहलाता है । कोई उससे अपराध ऐसा बन जाये कि जिसमें छेद नाम का प्रायश्चित्त ही देना पड़े तो वहाँ सर्वसंग के बीच आदेश कर दिया कि इसकी दो वर्ष की तपस्या छेदी जाती है याने यह अब आठ वर्ष का दीक्षित कहलायगा । यह भी एक दोषनिवृत्ति का उपाय है । इससे दोषों से निवृत्ति होती है और दोष आगे न करें, ऐसा उसका भाव बनता है ।
(204) परिहार व उपस्थापना नाम के प्रायश्चित्त से दोषनिवृत्ति एवं प्रायश्चित तप की महिमा―8वां प्रायश्चित्त है परिहार । कोई ऐसा ही विकट अपराध लग गया तो यह आदेश दे दिया कि तुम इतने वर्ष को हमारे संग से जुदे हो जावो या तुम बिल्कुल ही हट जावो । तो यों संग से कुछ समय को या सदा को निकाल दिया, यह परिहार नाम का तप है । 9वां तप है उपस्थापन । कोई बहुत ही कठिन अपराध बन जाता है, जैसे मान लो कि कोई कुशील करे या अन्य कोई पाप किया तो उसकी सारी दीक्षा नष्ट करके फिर से नई दीक्षा दी जाती है तो उसका नाम है उपस्थापना । इस प्रकार 9 तरह के प्रायश्चित्त तप की भी बहुत महिमा है, किसी अपराध के होने पर यदि विशिष्ट प्रायश्चित बने, भीतर मन में उसके प्रति अत्यंत ग्लानि जगे तो ऐसी स्थिति में वह विशुद्धि जगती है कि उसके ज्ञानादिक का विकास बहुत हो जाता है ।
(205) आलोचनाप्रायश्चित्त से ही निवृत्त होने योग्य कुछ अपराधों का प्रकाशन―अब यह बतलाते हैं कि ऐसे कौन से अपराध हैं कि जिन अपराधों की बुद्धि साधु से निवेदन कर देने से ही दूर हो जाते हैं, उनमें से कुछ दोष बतलाते हैं । जैसे आचार्य से पूछे बिना कोई तप विशेष धारण कर लेना या आतापन आदिक योग धारण करना, कार्य तो अच्छा ही किया, कोई तपश्चरण में बढ़ गया, पर जिस संग में रहता है, जिसकी छत्रछाया में धर्मसेवन करता है, उससे ऐसे बड़े कार्य के करने की बात पूछ लेनी चाहिये थी, पूछा ही नहीं और किया आतापनयोग आदिक तो इस अपराध की शुद्धि आलोचना से हो जाती है, गुरू से निवेदन किया कि महाराज मैंने यह योग धारण कर लिया तो वह आलोचना कहलाती है । जहाँ बहुत से साधुजन रहते हैं तो अक्सर ऐसा हो ही जाता है कि कोई दूसरे का ग्रंथ उठाकर स्वाध्याय करने लगता, या किसी दूसरे की पिछी उठाकर झाड़ने लगे, दूसरे का कोई उपकरण ग्रहण कर लिया, प्राय: ऐसा हो जाता है, पर होना न चाहिए । बिना पूछे पुस्तक पिछी आदिक उपकरणों को ग्रहण करना, इस अपराध की शुद्धि आलोचना से हो जाती है । निवेदन कर दिया, जैसे समझिये कि अपने कुटुंब परिवार में कुछ काम ऐसे हो जाते हैं कि हो गए, पीछे बता दिया कि मैंने ऐसा काम कर दिया है, जिसके कह देने से बात ठीक हो जाती है, पर आप कोई कार्य करें तो पहले पूछना चाहिए और जैसी आज्ञा हो वैसा करना चाहिए, ऐसी ही बात यहाँ है, आचार्य महाराज ने कोई बात कही कि इसका तुम पालन करना, तो पालन करता है वह साधु, फिर भी कदाचित् कोई साधु, कोई देख तो रहा नहीं, ऐसी स्थिति में प्रमादवश आचार्य के वचनों का पालन न करे, ऐसी कोई छोटी बात बने तो उसकी निवृत्ति आलोचना नामक प्रायश्चित्त से होती है । एक दृष्टि से देखा जाये तो आलोचना प्रायश्चित में बड़ी निर्मलता चाहिए । कोई दोष बन गया और उस दोष का कोई अपने आप प्रायश्चित्त ले ले, तेज भी ले ले, तो वह ले लेना आसान है, मगर गुरू से बताना कि मुझ से यह अपराध हुआ है, इसमें बड़ा साहस चाहिए । संघ के स्वामी से पूछे बिना अपने संघ से चला जाना यह भी एक अपराध है और उसकी शुद्धि आलोचना नामक प्रायश्चित्त से होती है । सदा को चला जाना, इसकी बात नहीं कह रहे, मगर दिन में ही बिना पूछे किसी यात्रा को चल दिया, मंदिरों की वंदना को चल दिया या अन्य किसी जगह व्याख्यान को चल दिया, तो चाहे किया कार्य अच्छा, मगर जिसके साथ रहता है उस गुरू को तो मालूम होना चाहिए कि अमुक शिष्य इस जगह है, अमुक इस जगह । तो पूछे बिना थोड़ी देर को कहीं चला जाये तो इस अपराध की शुद्धि आलोचना नामक प्रायश्चित से होती है । कोई आवश्यक कार्य जो जिस समय जरूरी करने योग्य हैं ऐसे व्रत विशेष और वह न कर पाये, किस कारण से कि कोई धर्मकथा में अधिक समय लग गया, भूल गया तो इस तरह से वह करने योग्य कार्यों को भूल जाये और बाद में उसे करे, कुछ समय टालकर किया, ऐसे अपराध की शुद्धि आलोचना नामक प्रायश्चित्त से होती है । ऐसे कुछ अपराध आलोचना से दूर हो जाते हैं ।
(206) प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त से निवृत्त होने योग्य कुछ अपराधों का प्रकाशन―कुछ ऐसे अपराध होते हैं कि जो प्रतिक्रमण प्रायश्चित से दूर होते हैं । प्रतिक्रमण प्रायश्चित में कुछ नियम करना होता और अतीत दोष का बार-बार उच्चारण करके उससे रहित अविकार ज्ञानस्वभाव का विशिष्ट ध्यान करना होता है । वह अपराध क्या है? यदि कोई इंद्रिय की या मन वचन की कोई कुछ खोटी प्रवृत्ति हो तो उसका प्रतिक्रमण करना होता है । आचार्य या पढ़ाने वाले गुरूजनों से अपने पैर का धक्का लग जाये, हाथ का धक्का लग जाये तो यह तो एक अविनय हुई, उसका प्रतिक्रमण करना होता है । गुरूजनों के प्रति विनयभाव रहने से विनय करने वाले शिष्य का उत्थान होता है, उसे सन्मार्ग मिलता है, आत्मानुभव की पात्रता रहती है और जहाँ ऐसा मन खुले कि गुरुवों की विनय का ध्यान भी न रहें तो ऐसे स्वच्छंद मन में आत्मानुभव की पात्रता नहीं रहती । तो किसी भूल से या किसी कारण गुरूजनों को अपना हाथ लग जाये या पैर लग जाये तो उसका दोष प्रतिक्रमण करने से दूर होता है । जो व्रत, समिति गुप्ति ग्रहण की है उनमें कोई थोड़ा अतिचार लगे तो उसका प्रतिक्रमण करना होता है । कदाचित् किसी की चुगली की बात मुख से निकल जाये या कोई जरा कलह हो जाये तो उसका प्रतिक्रमण करना पड़ता है । अब जो संग में रहकर कलह करने में अपनी शूरता समझे कि मैंने इसको दबा दिया और चूंकि मैं बड़ा साधु हूँ सो यह मुझे करना ही चाहिए था तो यह तो उसकी उद्दंडता या स्वच्छंदता कहलायेगी । अपराध हो जाये और उसको अपराध न माने और कर्तव्य समझ ले तो वह तो अज्ञानता है । अगर कषाय के वेग हैं, कोई बात चुगली कलह की बन गई तो उसको प्रतिक्रमण तप करना पड़ता है । अपना कर्तव्य है, दूसरों की वैयावृत्य करना, स्वाध्याय करना आदि ऐसे कार्यों में अगर आलस्य हो तो उस अपराध के दूर करने का प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त करना होता है । आहार चर्या आदि के समय ग्रहण अंग में कभी विकृति आये तो उसका प्रतिक्रमण करना होता है । कोई साधु की प्रवृत्ति ऐसी हो, कि दूसरे के संक्लेश का कारण बने तो उसका प्रतिक्रमण करना होता है । इसके अतिरिक्त एक नियमित प्रतिक्रमण होता है । दिन का प्रतिक्रमण दिन के अंत में होता है जैसा कि साधु शाम को प्रतिक्रमण करते हैं । रात्रि का प्रतिक्रमण प्रात: होता है, भोजन का प्रतिक्रमण प्रारंभ में और अंत में भी । गमन का भी प्रतिक्रमण प्रारंभ में और अंत में । प्रारंभ में तो उसका कोई दोष न लगे, इस भावना के लिए होता है । उस क्रिया में जो दोष लगे हैं उनकी निवृत्ति के लिए अंत में प्रतिक्रमण होता है ।
(207) आलोचना व प्रतिक्रमण तदुभय प्रायश्चित्त से निवृत्त होने योग्य अपराधों का प्रकाशन―कुछ अपराध ऐसे भी होते कि आलोचना भी करना और प्रतिक्रमण भी करना, दोनों ही किए जाते हैं । जैसे केशलोंच की विधि में कोई अतिचार लगे या स्वप्न में कोई स्वप्न आने से कुशील संबंधी कोई दोष लगे या स्वप्न में ही रात्रि को भोजन करना बने ऐसा ही स्वप्न आये कि रात्रि को भोजन कर रहा हूँ तो ऐसे अपराध में आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों ही प्रायश्चित्त किए जाते हैं । कुछ नियत तदुभय होते हैं, जैसे 15 दिन का प्रतिक्रमण पाक्षिक प्रतिक्रमण कहलाता है तो पाक्षिक प्रतिक्रमण के समय अपने दोषों की आलोचना और उसका प्रतिक्रमण करना होता है । जैसे वह प्रत्येक दिन के किए हुए अपराधों का प्रतिक्रमण करता था । वहाँ तदुभय न चाहिए मायने गुरू से दोष का निवेदन भी करे और प्रतिक्रमण भी करे, ये दो बातें आवश्यक न थी विशेष दोष न होने पर । किंतु पाक्षिकादिप्रतिक्रमणों में दोनों बातें करनी होती हैं । एक माह का प्रतिक्रमण करे
तो उसमें भी आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों ही करने होते हैं । वार्षिक प्रतिक्रमण में भी, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में भी दोनों प्रकार के प्रायश्चित्त करने होते हैं ।
(208) कायोत्सर्ग नामक प्रायश्चित्त से निवृत्त होने योग्य कुछ अपराधों का प्रकाशन―कुछ अपराध ऐसे हुआ करते हैं कि जिनका कायोत्सर्ग करना प्रायश्चित्त है । यद्यपि कायोत्सर्ग नाम केवल 9 बार णमोकार मंत्र पढ़ लेने को कहा जाता है, कायोत्सर्ग में यह तो होता ही है, पर ऐसा भाव बनायें कि कुछ समय को मन, वचन, काय से निराले ज्ञानस्वभाव आत्मा की दृष्टि जगे, उसका नाम है कायोत्सर्ग । जैसे कोई केशलोंच कर रहा है और उस केशलोंच में ही कुछ बोल आये तो उसे उसी समय कायोत्सर्ग करना चाहिए । कभी ठंड के दिनों में या विशेष जहाँ मच्छर हों उस क्षेत्र में या तेज आंधी वगैरा चल रही हो उस काल में, उस संघर्ष में कोई अतिचार लग जाये तो उसका कायोत्सर्ग है । कोई चिकनी भूमि पर जैसे कि तैल अथवा घी से चिकनी हुई हो उस पर चले या हरे तृण पर चले कोई थोड़ीसी जगह में या कीचड़ पर चलना पड़े, घुटने मात्र या घुटने से ऊपर के जल में प्रवेश करना पड़े तो वहाँ तुरंत कायोत्सर्ग करना होता है । कायोत्सर्ग में नमस्कार मंत्र के ध्यान के बीच ही अविकार ज्ञानस्वभाव पर ध्यान पहुंचाना चाहिए, जिससे कि शरीर का ख्याल भी भूल जाये वह है वास्तविक कायोत्सर्ग । दूसरे के लिए कोई वस्तु रखी हुई हो उसका उपयोग खुद करे, नाव से नदी पार करे तो वहाँ कायोत्सर्ग से शुद्धि होना चाहिए । पुस्तक आदिक नीचे गिर जाए, किसी प्रकार स्थावर जीव का घात हो । जल्दी-जल्दी में बिना देखे किसी स्थान में शरीर का मल छोड़ दे, व्याख्यान के आरंभ में, व्याख्यान के अंत में, इन सब स्थानों में कायोत्सर्ग करना प्रायश्चित्त है । लघुसंख्या, दीर्घसंख्या के समय कायोत्सर्ग करना कर्तव्य है, ऐसे कुछ दोष कायोत्सर्ग से शुद्ध हो जाते हैं ꠰
(209) प्रायश्चित्त तप करने का प्रथम लाभ―इससे पहले यह बताया गया था कि प्रायश्चित्त नाम के तप से दोनों में शुद्धि हो जाती है, इसका कुछ विस्तार रूप से वर्णन था । आज यह बतला रहे हैं कि प्रायश्चित्त तप से क्या फायदा होता है? प्रायश्चित्त करने के भाव में निर्मलता प्रकट होती है । दोष किए थे, उस दोष में उपयोग लगा था, उस कषायवेग को न सम्हाल सके थे, कुछ बुद्धि में दोष आ गया था, वह समय तो गुजरा, मगर उसकी याद बराबर इसको सता रही है । क्यों ऐसा दोष आया? अब वह अपने आपमें घुट रहा है । उसका उपयोग बदले और यह ध्यान में आये कि अब मैं सही हूँ और आगे मोक्षमार्ग में बढ़ना चाहिए, इसके लिए वह अपनी त्रुटि को गुरु से निवेदन करता है और गुरू महाराज जो प्रायश्चित्त देते हैं उसे सहर्ष स्वीकार करता है, अब इस प्रक्रिया से वह अपने को निर्दोष अनुभव कर लेगा । यहाँ एक बात और समझें, शिष्य को गुरु पर पूर्ण विश्वास रहता है । और गुरू के द्वारा कोई प्रायश्चित्त दिया जाने पर फिर वह शंका नहीं रखता कि मेरे दोष निकले नहीं । गुरू की आज्ञा से जब हम प्रायश्चित्त ले रहे हैं, तो अब उस दोष की शल्य न रही, अन्यथा यह सिद्ध होता है कि उसका गुरु पर विश्वास ही नहीं है और ऐसा अविश्वासी बन जाये कोई साधु तो वह अपनी साधना में कभी सफल नहीं हो सकता । तो प्रायश्चित्त तप करने से प्रथम लाभ तो यह है कि परिणाम निर्मल हो जाता है ।
(210) प्रायश्चित्त तप करने के अन्य अनेक लाभ―दूसरा लाभ यह है कि फिर दोषों की संतति नहीं रहती है । दोष किए जा रहें हैं, प्रायश्चित्त लिया नहीं जा रहा है तो उस दोष को रोकने की आदत बन जाती है और दोष किये जाये इस अनवस्था से उसका जीवन धर्म से दूर हो जाता है, तथा प्रायश्चित्त तप के ग्रहण करने से उसका यह संकल्प बनता है कि यह दोष अब न किया जायेगा । प्रायश्चित्त तप का तो इतना माहात्म्य बताया है कुछ भाइयों ने कि कोई बाल साधु किसी प्रकार के अपराध में था, मानो कोई हिंसा जैसे भाव में आ गया था, उसके बाद जब उसे ग्लानि हुई और भगवान के समक्ष प्रायश्चित्त ग्रहण किया तो उस समय की निवृत्ति में इतनी निर्मलता जगी कि उसका ध्यान बना और उसने सिद्धि पायी । खैर कुछ भी हो, प्रायश्चित्त लेते ही तुरंत तो सिद्धि नहीं होती, मगर ऐसा वातावरण बन जाता है कि अपने को निर्दोष अनुभव करके ध्यान में मग्न हो जाता है और यह सिद्धि को प्राप्त करता है, अगर प्रायश्चित का विधान न हो तो देश में, समाज में, परिवार में सब जगह अस्थिरता छा जायेगी । कोई मार्ग ही न मिल पायेगा । प्रायश्चित्त तप से अस्थिरता दूर होती है, उपयोग स्थिर हो जाता है और शल्य बिल्कुल दूर हो जाती है । यह आत्मा स्वयं भगवत्स्वरूप है, अपराध किया, किसी ने देखा भी नहीं, पर अपराध करने वाले इस भगवान आत्मा ने तो देखा, इसकी निगाह में तो है कि मेरे से यह अपराध बना तब इसे शल्य हो जाता है । उस शल्य के दूर करने का उपाय है गुरूवों से दोषों का निवेदन करना और उनके बताये हुए प्रायश्चित्त को ग्रहण करना ꠰ प्रायश्चित्त तप से अपने मार्ग में चलने की दृढता उत्पन्न हो जाती है । यों दोषों से दूर होना और गुणों के विकास में लगना इस प्रक्रिया में यह प्रायश्चित्त तप बहुत साधक है, आखिर मुनि साधक भी कोई साधना करने वाला ही तो है । कुछ गुण भी उत्पन्न हुए, कुछ दोष भी रह गए, कर्मों का ऐसा ही उदय चल रहा, तो उसके अपराध होते रहते हैं । उन अपराधों को दूर करा देने का साधन यह प्रायश्चित्त नाम का आभ्यंतर तप है ꠰
(211) विनयनामक आभ्यंतर तप―गाथा में प्रकरण यह चल रहा है कि 12 प्रकार के तप का आचरण करने वाला योगी साधु मोक्षमार्ग में प्रगति प्राप्त करता है । उन तपों में आभ्यंतर तप का वर्णन चल रहा है और उसमें यह प्रथम प्रायश्चित नाम का आभ्यंतर तप कहा गया, अब दूसरा अंतरंग तप है विनय । विनयभाव जीव को ऐसा सुपात्र बना देता है कि उसमें सम्यग्दर्शन, ज्ञान, आचरण स्फुरित होते हैं । विनय बिना तो कोई इस लोक में भी सुख शांति से नहीं रह सकता । कोई अबे तबे कहता हुआ बोले तो उसे कितने धक्के खाने पड़ते हैं, सर्वत्र कष्ट उठाना पड़ता है । फिर यदि ज्ञानपूर्वक विनय हो तो वह अपने में आध्यात्मिक जागरण भी पाता है । तो जैसे लोक में सुखशांति से रहने का साधन विनय है ऐसे ही मोक्षमार्ग में निर्विघ्न रूप से आगे बढ़कर सिद्धि पाने का आलंबन विनय तप है । विनय तप चार प्रकार का है । (1) ज्ञानविनय (2) दर्शनविनय (3) चारित्र विनय और (4) उपचार विनय ।
(212) ज्ञानविनय का तपश्चरण―इस आत्मा को पवित्र शांत होने के लिए क्या कर्तव्य है कि यह अपने को ज्ञानस्वरूप ही जानकर अपने ज्ञान को इस ज्ञानस्वरूप में लगाये । मैं ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञानस्वरूप सिवाय मैं अन्य कुछ नहीं हूँ, ज्ञानस्वरूप की आराधना मोक्षमार्ग है । तब इस ज्ञानभाव के प्रति जिसके विनय होगा वही ज्ञान में लीन हो सकेगा । यह ज्ञानभाव हितकारी है, यह ज्ञानभाव ही शरण हैं ऐसा जिसके भाव है वह ज्ञान की ओर ही आकर्षित होगा, यही वास्तविक ज्ञानविनय है, साथ ही मान का प्रयोग करना, ज्ञान शिक्षा का लेना, देश, काल, शुद्धि पूर्वक ध्यान करना, ध्यान में आलस्य न करना, ज्ञान व ज्ञानी के प्रति बड़ा सम्मान रखना, ज्ञानस्वरूप का स्मरण बनाये रखना यह सब ज्ञान विनय है । जो जिसका रुचिया होता है वह उसके प्रति विनयभाव अवश्य रखता है । चाहे उसके विनय के ढंग कुछ भी हों, मगर भीतर उसके प्रति आदर हुए बिना उसकी रुचि कैसे कही जा सकती है ꠰
(213) दर्शनविनय का तपश्चरण―दूसरा विनय तप है श्रद्धाविनय । पदार्थ का जैसा स्वरूप है उसका सही श्रद्धान बनाने में तृप्त होना श्रद्धाविनय है । यहाँ प्राय: सभी मनुष्य अपने को दुःखी अनुभव करते हैं । चाहे कैसी भी स्थिति हो, कषायभाव ऐसा है कि यह उस स्थिति में भी अपने को दु खी मानता है, क्योंकि उसके तृष्णा लगी ना । किसी को पद की तृष्णा किसी को धन की तृष्णा, किसी को अन्य प्रकार की तृष्णा । उस तृष्णा के कारण यह जीव सदा व्याकुल रहता है । इस दुःख के मूल को कौन मेटेगा? कोई दूसरा नहीं मेट सकता, सत्य श्रद्धान मेटेगा, प्रत्येक पदार्थ का क्या स्वरूप है इसका श्रद्धान मेटेगा । यह मैं केवल अपने स्वरूप मात्र हूँ, जो कुछ कर पाता हूँ सो अपने ज्ञान की वृत्ति को ही कर पाता हूँ । इस ज्ञान से ही सुख दुःख भोगता हूँ । इस ज्ञान में मलिनता आती है तो मैं पाप भी करता हूँ । ज्ञान का स्वरूप सही दृष्टि में रहता है तो धर्म भी करता हूँ । पर मैं अपने स्वरूप से बाहर परपदार्थ में कुछ भी नहीं कर सकता । बाह्यपदार्थ मेरे स्वरूप में घुसते नहीं, मैं अपने से निकल कर किसी बाहरी पदार्थ में प्रवेश करता नहीं, मेरे में किसी दूसरे का दखल नहीं, किसी दूसरे में मेरा दखल नहीं । मैं अपने में अपना ज्ञान, अपना विचार अपनी कल्पना बनाकर अपने आपको बनाता रहता हूँ । ऐसी जिसकी सत्य श्रद्धा है वह किसी भी परिस्थिति में अधीर नहीं हो सकता और इसी श्रद्धान के बल से मैं अपने स्वरूप में मग्न होता हूँ । तो अष्ट अंगसहित सम्यग्दर्शन के प्रति भक्ति आदर बनाना यह दर्शनविनय है ।
(214) चारित्रविनय व उपचारविनय का तपश्चरण―चारित्रविनय―चारित्र कहते हैं आचरण को । तो वास्तविक आचरण क्या? मैं आत्मा हूँ ज्ञानस्वरूप । ज्ञान को ही करता रहूं । अन्य कुछ रागद्वेष न करूं । यह ही कहलाता है चारित्र । इस चारित्र परिणाम में विनयभाव आना कि यही मेरा शरण है, यही मेरा हितकारी है, यही मोक्ष में पहुंचाने वाला है, इस प्रकार के विनयभाव को चारित्रविनय कहते हैं । चारित्रविनय वाला बड़े प्रेम से अनुराग से अपने सदाचार में प्रवृत्ति करता है । चौथा विनय तप है उपचार विनय । जो अपने गुरूजन हैं उनको देखकर खड़े हो जाना, उनकी वंदना करना, वे जब जाने लगें तो उनके पीछे चलकर पहुंचा देना, कभी स्मरण आये तो परोक्ष में भी हाथ जोड़ना, गुरूजनों का गुणगान करना, और जो गुरूजनों ने बताया सो उस आज्ञा का मन, वचन, काय से पालन करना यह सब उपचार विनय है ।
(215) विनय तपश्चरण का प्रभाव―विनय से पात्रता जगती है । विनय से ज्ञान जगता है । नीतिकार भी कहते हैं कि विनय से पात्रता बनती है, विनय से ज्ञान बढ़ता है, विनय से आत्मलाभ होता है । जैसे किसी कक्षा में बीसों बच्चे पढ़ रहे हैं तो आपने प्राय: देखा होगा कि जो बच्चा गुरू के प्रति विनयभाव रखकर सुनता है उसको विद्या जल्दी आती है और कोई ऐंठ से सुनें, तो वह शिक्षा हृदय में नहीं उतरती ꠰ विनय से आचरण सही बनता है । जिसमें विनय नहीं रही उसका सुधार नहीं हो सकता । एक कथानक है कि एक सेठ का लड़का कोई वेश्यागामी हो गया था, उस सेठ के किसी मित्र ने कई बार कहा कि तुम्हारा लड़का व्यसनी हो गया, तो सेठ बार-बार यही कहे कि अभी हमारा लड़का बिगड़ा नहीं है, तो मित्र बोला―यह क्या बात कहते हो, चलो हमारे साथ, हम तुम्हें उसे उस वेश्या के घर में जाकर दिखायेंगे, आखिर सेठ पहुंचा उस वेश्या के घर, तो अपने लड़के को उसके घर में पाया, मगर लड़के ने सेठ को देखते ही अपना सिर नीचा करके अपने हाथ से अपनी आखें मूंद लीं, वह शर्म के मारे गड़ गया । खैर सेठ तो उसे देखकर वापिस लौट आया और अपने मित्र से कहा कि अभी हमारा लड़का बिगड़ा नहीं है, क्योंकि उसको अभी मेरी आन है, मेरे प्रति विनय है । आखिर बाद में वह लड़का भी पहुंचा और सेठ के पैरों में गिरकर माफी मांगते हुए कहा कि पिताजी आज से अब मैं वेश्या के घर न जाऊंगा । तो सेठ बोला―बेटे अभी तुम बिगड़े नहीं हो, तुम तो बड़े भले हो । तो यहाँ विनय की बात कह रहे हैं कि ऐसी अनेक घटनायें होती हैं कि विनय के कारण जीव कुमार्ग से सन्मार्ग में लग जाता है । इस विनय तप का फल है परिणामों में शुद्धि, मन, वचन, काय की शुद्धि । जिसके विनयभाव है उसका मन कितना सुंदर विचार रखता है, उसके वचन कितने प्रिय निकलते हैं, शरीर की कितनी मनोज्ञ चेष्टायें होती हैं । यह सब विनय तप का फल है, और वास्तविक फल तो यह है कि वह अपने आत्मस्वरूप की आराधना कर लेता है । किसी मनुष्य के प्रति कोई पुरुष अन्याय करे, अविनय से बोले, शान घमंड के साथ बोले तो उसके संस्कार से यह बहुत समय तक मलिन रहता है और यदि कुछ सद्बुद्धि हुई तो यह प्रायश्चित्त करता है कि क्यों मुझसे ऐसा अनर्थ हुआ? और यदि सद᳭व्यवहार से, विनय से लोक में रहता है तो उसकी निर्विघ्न आराधना बनती है । ज्यों ही दृष्टि दी, अपने आपमें अपने स्वरूप की प्राप्ति हुई । तो यह विनय नाम का तप एक अंतरंग तप है, इसके बिना जीवन में शोभा नहीं, आत्मा में विकास नहीं ꠰
(216) वैयावृत्य नामक तृतीय आभ्यंतर तप―तीसरा अंतरंग तप हे वैयावृत्य । यह कार्य ऐसा है कि जिससे मानवता बढ़ती है, आत्मप्रगति बनती है साधुसेवा करने से । यों तो सभी की ही सेवा करना चाहिए । कोई दीन दुःखी हो, यह जानकर कि यह भी मेरा जैसा जीव है, इसका दुःख कैसे दूर हो, सभी की सेवा की जाती है और मोक्षमार्ग के प्रकरण में यहाँ 10 प्रकार का वैयावृत्य बतला रहे हैं । आचार्य की वैयावृत्ति―जो संघ के नायक हैं वे आचार्य कहलाते हैं । उपाध्याय वैयावृत्य―जिनका शिक्षा में ही मन लगा रहता है वे उपाध्याय कहलाते हैं । तपस्वियों की वैयावृत्ति जो बड़े-बड़े उपवास करते हैं उन तपस्वियों की सेवा करना उनकी वैयावृत्ति है । शिष्यों की वैयावृत्ति―जो शिष्यजन शास्त्र सीखते हैं उनकी वैयावृत्ति है । रोगियों की वैयावृत्ति जो रोगों से कष्ट मान रहे हैं उनकी सेवा करना, वृद्ध मुनिजन हों उनकी सेवा वैयावृत्ति करना । वृद्धता स्वयं एक रोग है । तो ऐसे वृद्ध की सेवा, दीक्षा देने वाले आचार्य से संग की सेवा करना, अनेक ऋषिजन या श्रावक, मुनि, अर्जिका आदिक की सेवा करना वैयावृत्य है । जो बहुत समय से दीक्षित मुनि हैं उनकी सेवा और जो मनोज्ञ हैं, विद्वता के कारण सर्वप्रिय हैं, वक्तृत्व कला आदिक के कारण जो लोकप्रिय हैं ऐसे मनोज्ञ साधु अथवा किसी सम्यग्दृष्टि की वैयावृत्ति करना यह सब तप है । और सेवा क्या? कभी रोग हुआ तो उसकी औषधि कराना, कोई परीषह आ जाये तो उस समय उनके उपद्रव को दूर करना, योग्य स्थान में ठहराना, उन्हें ज्ञान के उपकरण देना, किसी कारण से वे धर्म से डगमगा रहे हो तो सद्वचनों से या अनेक उपायों से उन्हें धर्म में स्थिर करना, यह उनकी सेवा है । जो सेवाभावी पुरुष है वह उस सेवा का एक अलौकिक आनंद तुरंत लेता है । एक बात और जानना । जैसे जो कोई दीन दुःखी जीवों की सेवा में समय लगा रहा है तो उसका परिणाम खोंटा नहीं होता । उसके परिणाम नियम से विशुद्ध होंगे और सेवा छोड़कर मौज में रहे, आलस्य में रहे तो उसके परिणामों में गिरावट आ जाती है । सेवा के समय में परिणामों में गिरावट नहीं होती, इसी कारण यह वैयावृत्य तप है । सेवा के करने से चित्त सावधान रहता है, शरीर भी स्वस्थ रहता है, मन, वचन, काय भी सही रहता है इस कारण वैयावृत्य करना कल्याणार्थी का कर्तव्य है ꠰
(217) स्वाध्यायनामक चतुर्थ आभ्यंतर तप―अब चौथा अंतरंग तप है स्वाध्याय । जिसके 5 भेद है―(1) बांचना-ग्रंथोंकों पढ़ना, जितना समझ में आये उसका अर्थ ग्रहण करना । (2) प्रच्छना-अपने को संसय हो तो बड़े विनय से प्रश्न रखना, उसका समाधान लेना यह भी एक स्वाध्याय है । यदि कोई अभिमानवश कोई बात पूछे कि इनसे उत्तर न देते बने और मैं सबकी दृष्टि में यह समझा जाऊं कि यह कितना समझदार है, वह स्वाध्याय नहीं कहलाता है । प्रश्न करना भी स्वाध्याय है । यदि अपने तत्त्व को दृढ़ करने के भाव से पूछता है, पूछते समय अपनी प्रशंसा का भाव न हो, दूसरे का उपहास न करें, केवल सत्य-सत्य ज्ञान में आये, मेरा हित हो इस भाव से पूछना स्वाध्याय है । अनुप्रेक्षा जिस पदार्थ को जाना है उसका बड़ा मनोयोग पूर्वक अभ्यास बनाना, बार-बार उसका विचार करना यह अनुप्रेक्षा है । चौथा स्वाध्याय है आम्नाय, ग्रंथों का पाठ करना । समाधितंत्र जैसे अनेक ग्रंथ हैं जिनका अर्थ समझते हुए पाठ करना । इसमें आत्मा का स्पर्श होता है । बाह्य विकल्प दूर होते हैं । यह सब शास्त्र स्वाध्याय कर्मनिर्जरा का कारण है । 5वां स्वाध्याय है धर्मोपदेश देना, यह कब स्वाध्याय है? जबकि उपदेश देने वाले का यह आशय हो कि मैं उन वचनों को स्वयं सुनकर अपने आत्मा का उद्धार करूं । और जिन आगम के वचनों को सुनकर श्रोता भी अपने आप में अपना लाभ उठायें । यदि अन्य विचार हों कि मैं इस लोक में महिमा पाऊं, मेरा यश बढ़े तो वह सब मिथ्यात्व संबंधित भाव है । ऐसे ये पांच प्रकार के स्वाध्याय हैं ।
(218) स्वाध्याय का तथ्य और प्रभाव―स्व का अध्ययन करना स्वाध्याय है । प्रत्येक विषय पढ़कर उसको अपने आत्मा पर घटित करना । अगर आत्मा पर घटित न किया, अपने को न संबोधा तो सब कुछ पढ़ लिखकर भी, बड़े उपदेश देकर भी स्वाध्याय नहीं बनता । इस स्वाध्याय का क्या फल होता है? उससे बुद्धि प्रखर होती है । यदि बहुत कुछ याद करके भी उसका आभास न रहा तो वह सब विकृत हो जाता है । स्वाध्याय करने से अपने मार्ग का सही दृढ़ निश्चय होता है कि मुझे यही करना है, आत्मा को जानना है आत्मस्वरूप का अनुभव करना है, यही मेरी दुनिया है । यह ही परलोक है, यही मेरे को शरण है । स्वाध्याय से अपने आत्मा के कार्य में पूरा निश्चय होता है, आगम परंपरा भी रहती है, संशय भी नष्ट हो जाता है और मुख्य बात तो यह है कि स्वाध्याय करने से संवेग भाव बढ़ता है । संसार, शरीर, भोगों से वैराग्य होता है । यह स्वाध्याय का उत्तम फल है । सज्जन पुरुष ही वे कहलाते हैं जो संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हैं और आत्मकल्याण के अभिलाषी हैं । ऐसे संवेगपने की वृद्धि इस स्वाध्याय तप से होती है । कोई अतिचार लगे हों, कोई अपने आपमें निर्बलता आयी हो तो ऐसी निर्बलतायें भी स्वाध्याय से दूर हो जाती है । इस कारण स्वाध्याय नामक तप आत्मकल्याणार्थी का परम कर्तव्य है । तभी तो ‘‘स्वाध्याय: परमं तप:’’ यह प्रसिद्ध हुआ है ꠰
(219) व्युत्सर्ग नामक पंचक आभ्यंतर तप और उसका प्रभाव―अब व्युत्सर्ग तप को निरखिये ꠰ व्युत्सर्ग का अर्थ है नियतकाल तक या आजीवन उपाधि का अर्थात् शरीरममत्व का तथा अन्य विकार हेतुभूत बाह्यपदार्थों का त्याग करना । जैसे बाह्यक्षेत्र में स्थित अनेक पदार्थ प्रकट भिन्न पड़े हैं ऐसे ही स्वरूपदृष्टि बल से अपने जीव के वर्तमान बाह्य आलय स्वरूप इस देह को प्रकट भिन्न समझ लेना और उसमें रंच भी ममत्व न होना प्रभावक महत्त्वपूर्ण तपश्चरण है । देहममत्व त्याग तो उपलक्षण है, कर्मविपाकोदयनिमित्तक राग द्वेषादि विकारों को भी परभाव जानना और उनसे अपेक्षा करना इस व्युत्सर्ग नामक तप का आंतरिक तथ्य है । व्युत्सर्ग तप से निष्परिग्रहता का अभ्युदय होता है । जिसके राग द्वेषादि भावों का भी परिग्रह नहीं है । उसके अन्य परिग्रह की वार्ता तो होगी ही क्या ? व्युत्सर्ग तपश्चरण करने वाले ज्ञानी संतों को अन्य पदार्थविषयक आशा की बात तो दूर ही रहो, उसके तो अपने जीवित रहने की आशा का भी कलंक नहीं है । व्युत्सर्गतप समस्त दोषों का उच्छेद करने वाला है । जिनके व्युत्सर्ग तप निर्बाध चल रहा है वे मोक्षमार्ग की भावना में तत्पर तो हैं ही, मोक्षमार्ग में भी अलौकिक प्रगति कर रहे हैं । व्युत्सर्ग तप के तपस्वी परमपवित्र पूज्य पुरुष हैं, इनके गुणस्मरण से अपने भगवान आत्मा के दर्शन की पात्रता बढ़ती है । व्युत्सर्ग शब्द में तीन शब्द हैं―वि, उत् सर्ग । सर्ग शब्द का रचना अथवा सृष्टि अर्थ किया जाता है सो उसका अर्थ हुआ विशेष उत्कृष्टरूप से अपनी रचना करना ꠰ समग्र परभावों के परिहार से ही आत्मा की उत्कृष्ट ज्ञानानंदमय स्थिति होती है । सर्ग शब्द का अर्थ परिहार किया जाये तो विशेष उत्कृष्ट त्याग भी यही है कि आत्मा अपने ज्ञानमात्र स्वरूप में ही उपयुक्त रहे, अन्य किसी भी परभाव में, रागादि देहादि किसी भी पर तत्त्व में रंच भी उपयुक्त न होवे । इस व्युत्सर्ग का महान् फल है शाश्वत सिद्धि व शांति का लाभ ।
(220) सुख दुःख शांति का अंत: साधन स्थान―हम आप लोगों को जो सुख दुःख शांति प्राप्त होती हे वह किसी ध्यान के कारण होती है । ध्यान सुख की विधि रूप से बन जाये तो सुख होता है । ध्यान कुछ दुःख की विधि का बने तो दुःख होता है और शुद्ध ज्ञान बने तो उस ध्यान से शांति होती है । तो अब यह विचार करें कि ध्यान क्या कहलाता है, ध्यान किस-किस तरह के होते हैं, और उन ध्यानों का अपने आत्मा पर क्या प्रभाव पड़ता है, ध्यान कहते किसे है? एकाग्रचित्तचिंतानिरोध, एक पदार्थ में ही चिंतन चलना, एकाग्रचित्त होकर चिंतन चलना इसे कहते हैं ध्यान । अब राग के विषय के चिंतन चलें वह भी ध्यान है, किसी द्वेष के विषय के चिंतन चलें वह भी ध्यान है । ज्ञान के विषय में चिंतन चले वह भी ध्यान, शुद्ध वस्तुस्वरूप का ध्यान चले तो वह भी ध्यान है । ध्यान चार प्रकार का होता है―1 आर्तध्यान, 2 रौद्रध्यान, 3 धर्मध्यान और 4 शुक्लध्यान ।
(221) इष्टवियोगज आर्तध्यान का फल क्लेश―आर्तध्यान का मतलब है―जिस ध्यान में पीड़ा हो, दुःख हो, क्लेश हो वह ध्यान आर्तध्यान कहलाता है । आर्त शब्द बना है आतौं भवं आर्तम् आर्ति याने दुःख । यह आर्तध्यान चार तरह का है―(1) इष्टवियोगज (2) अनिष्ट संयोगज (3) वेदनाप्रभव और (4) निदान । इष्ट का वियोग होने पर जो कुछ इष्ट के समागम के लिए बार-बार मन चलता है वह ध्यान इष्टवियोगज आर्तध्यान है । इसमें पीड़ा ही पीड़ा है । इस जीव का जब यह विचार बना है कि मेरे लिए यह इष्ट पदार्थ है तो उसका वियोग होने पर अवश्य ही कष्ट होता है और जिस ज्ञानी ने यह समझा कि जगत में बाहर में कोई भी पदार्थ मेरे को इष्ट नहीं है, अनिष्ट भी नहीं, पदार्थ हैं, उनका स्वरूप है, पड़े हैं, वे मेरे लिए क्या इष्ट और क्या अनिष्ट और बात भी यही है―पदार्थ स्वयं न इष्ट होता, न अनिष्ट होता, किंतु मोही अपनी कल्पना से किसी पदार्थ को इष्ट मान लेता, किसी को अनिष्ट । घर में वही एक बालक किसी को इष्ट लग रहा, किसी को अनिष्ट लग रहा, स्वयं वह न इष्ट है न अनिष्ट जैसे जो लोग परिवार में ममता रखते हैं कि यह परिवार मेरा है, पुत्र मेरा है, तो पुत्र की ओर से कोई बात ऐसी नहीं है कि वह इसका हो जाये, इसी ने ही कल्पना गढ़ी है और यही मान रहा है कि यह मेरा है, संसार में और दुःख किस बात का? सही ध्यान बना ले, सही ज्ञान बना लें तो फिर कष्ट का कोई काम नहीं । ये प्राणी खोटे ध्यान बनाते हैं और अपने आपको दुःखी करते हैं । अपने ज्ञान की दुर्बलता से यह जीव किसी भी बाह्यपदार्थ को अपना इष्ट मान लेता है और इष्ट माने गए उस बालक आदि की याद में कष्ट मानता है । इष्टवियोगज ध्यान का फल कष्ट ही है । इस कष्ट से जिसे बचना हो वह सही ज्ञान बनाये कि जो चाहे चीज आये या बिछुड़े, वहाँ मेरा क्या है? मेरा मेरे स्वरूप से बाहर कुछ नहीं है । इष्ट न माने तो कष्ट से बच जाये । यह इष्ट वियोगज आर्तध्यान बहुधा तो अज्ञानी जीवों के होता है, पर किंचित्रूप में ज्ञानी सम्यग्दृष्टियों के भी हो जाता है और यहाँ तक कि मुनियों के भी कभी-कभी हो जाता है, जो इष्ट लगा उसके वियोग का उस प्रकार का ध्यान बनता है ।
(222) अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान का फल क्लेशानुभवन―दूसरा आर्तध्यान है अनिष्टसंयोगज । अनिष्ट पदार्थ के संयोग से जों यह विचार बनता है कि यह कब टले, यों उसके वियोग के लिए जो चिंतन चलता है वह है अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान । जगत में कोई भी पदार्थ मेरे को अनिष्ट नहीं । मेरा ही अज्ञान मेरा अहित करता है और मेरा ही ज्ञानप्रकाश मेरा हित करता है, लेकिन जब मैं इस ज्ञानप्रकाश से जुदा रहता हूँ और किसी पदार्थ को अनिष्ट मान लेता हूँ तो उसका संयोग होने पर जो ध्यान बनता है वह कष्ट देता है । इस कष्ट से बचना है तो सही ज्ञान बनाइये । मेरे लिए जगत में कोई भी पदार्थ अनिष्ट नहीं है । पदार्थ की ओर से अनिष्टपना कहीं नहीं खुदा हुआ है, यह जीव ही अपनी कषाय के प्रतिकूल कुछ देखता है तो उसको अनिष्ट मान लेता है । यह चाहता है कुछ और हो रहा हो कुछ तो हम उसे अनिष्ट समझ लेते हैं । अरे तुम चाहो ही मत कुछ, फिर अनिष्ट कैसे होगा । अथवा बाहरी पदार्थों का सही ज्ञान बना लें फिर अनिष्ट कहां रहेगा? इन कष्टों से यदि बनना हो तो स्व पर का सत्य ज्ञान कीजिए ।
(223) वेदनाप्रभव आर्तध्यान में कष्ट का अनुभवन―तीसरा आर्तध्यान है वेदनाप्रभाव शरीर में कोई रोग हो जाये, कोई चोट आ जाये तो उस समय वेदना होती है । उस वेदना में जो ध्यान बनता है वह वेदनाप्रभव ध्यान है । बात यद्यपि कठिन सी लग रही कि इस शरीर में कोई रोग हो, वेदना हो तिस पर भी दुःख न मानना और शरीर को ऐसा जानें कि यह एक दम बाहर की चीज है । अपने ज्ञानानंदस्वभाव में मग्न रहे यह बात कुछ कठिनसी लगती है, मगर आत्मस्वरूप का बारबार अभ्यास होने से फिर शारीरिक वेदना भी नहीं सताती । सुकुमाल, सुकौशल, गजकुमार आदिक मुनियों के उदाहरण देख लो, वेदना नही मानी, और इस तरह भी अंदाज कर लो कि शरीर में कोई रोग है, बुखार है, वेदना है और एक सा ही है, मानो बुखार है 10-5 आदमियों को है, पर उस एक समान बुखार में भी कोई कम दुःख मान रहा, कोई अधिक दुःख मान रहा यह फर्क कहां से आया? एक समान बुखार है, एक समान स्थिति है, फिर कम बढ़ दुःख क्यों माना जाता है, यह उन पुरुषों के ज्ञान का फल है । जिनका ज्ञान विशेष है, शरीर से अपने आत्मा को निराला मान रहा है, इसकी ओर दृढ़ता है उसे कम वेदना है, किसी को उससे अधिक है, अज्ञानी मोही को तीव्र वेदना है, वह अपना सिर धुनता है तो यहाँ भी तो फर्क देखा जाता है । वह फर्क ज्ञान के कारण ही तो बना । यदि किसी का ज्ञान ज्ञानस्वरूप में ही लग रहा हो तो उसे रंच भी वेदना न हो, इसमें कोई आश्चर्य नहीं । तो शारीरिक वेदनाओं के कष्ट भी मिटते हैं, दूर होते हैं किसके? जिसने आत्मा के सत्य स्वरूप की भावना की है ।
(224) निदान आर्तध्यान में संताप से संतप्तता―चौथा आर्तध्यान है निदान । बाह्यपदार्थों की आशा रखने का नाम है निदान । मुझे परभव में राज्य मिले । मैं देवगति में पहुंचूं आदिक कुछ भी आशा बनाना यह कहलाता है, नियत निदान से भी कष्ट ही है, शांति नहीं मिलती । इस लोक में भी यदि किसी पदार्थ की मन में वांछा है, इच्छा है, तृष्णा है, प्रतीक्षा हैं, आशा है तो वहाँ यह कष्ट ही पायेगा । कष्टरहित जो आत्मा का ज्ञानानंद स्वरूप है उस स्वरूप में जो दृष्टि देगा सो शांति पायगा और बाहरी पदार्थों को जो अपनायेगा, उनकी आशा रखेगा उसको कष्ट ही होगा । सो यदि निदान संबंधी कष्ट से बचना है तो सत्य ज्ञान कीजिए व आशा तजिये । मैं हूँ, ज्ञानस्वरूप हूँ, इसका काम ज्ञान की वृत्तियां हैं, ज्ञान की शुद्ध लहर उठना है, निरंतर जानन वृत्ति से यह चलता रहता है । इतना ही यहाँ मेरा सर्वस्व है, इससे बाहर मेरा कुछ नहीं है । किसी भी बाह्य पदार्थ पर मेरा अधिकार नहीं किसी बाह्य पदार्थ से मेरे को शांति मिलती नहीं । एक आत्मस्वरूप के ज्ञान में, श्रद्धान में, आचरण में, इसकी ओर दृष्टि रखने में शांति है । बाहरी पदार्थों में शांति नहीं है, ऐसा जो ज्ञान बनता है उसके निदान न बनेगा । तो ये चार प्रकार के आर्तध्यान ये कष्ट के हेतुभूत हैं ।
(225) रौद्रध्यान व रौद्रध्यानों में प्रथम रौद्रध्यान―चार होते हैं रौद्रध्यान । रुद्र कहते हैं क्रूर अभिप्राय को । खोटे आशय में होने वाले ध्यान का नाम है रौद्रध्यान । सो यद्यपि रौद्रध्यान में तत्काल मौज मानता है यह जीव, लेकिन उसका फल बहुत खोटा है । यह रौद्रध्यान चार तरह का है―(1) हिंसानंद (2) मृषानंद (3) चौर्यानंद और (4) परिग्रहानंद । हिंसा करने में, कराने में, हिंसा करने वाले को शाबासी देने में आनंद मानना हिंसानंद है । इसमें आनंद शब्द तो खुद पड़ा है कि हिंसा करने में मौन मानना, खुश होना, सो यद्यपि उस समय यह तकलीफ नहीं मान रहा, तकलीफ तो हो रही, पर मान नहीं रहा, मौज मान रहा, मगर यह रौद्रध्यान आर्तध्यान से भी खोटा ध्यान है ।
(226) मृषानंदनामक रौद्रध्यान का वाहियातपन―दूसरा रौद्रध्यान है मृषानंद, झूठ बोलने में आनंद मानना, चुगली में, निंदा में, यहाँ की वहाँ भिड़ाने में आनंद मानना मृषानंद है । अब देखिये सब वाहियात बातें हैं । क्या प्रयोजन पड़ा है व्यर्थ की बातों में? प्रयोजन तो दो बात से है कि कमाई करना और धर्म करना, आजीविका और धर्मपालन, तीसरे की क्या जरूरत है? आजीविका बिना काम न चलेगा गृहस्थों का, सो वह तो इस जिंदगी के लिए जरूरी है किंतु उससे अधिक जरूरी है धर्मपालन । उस आजीविका से तो मौज साधन कुछ वर्ष का बना लेंगे, पर यह जिंदगी तो आगे भी है । मरकर जायेंगे तब भी तो इसकी सत्ता है । कोई और पर्याय पायगा । तो धर्मपालन तो विशेष कर्तव्य है । आजीविका में चाहे कमी हो जाये तो हो जाये, उससे तो गुजारा चल जायेगा, किंतु धर्मध्यान बिना जीव का गुजारा नहीं हो सकता । फिर ये झूठ बातें चुगली, झूठी गवाही, दूसरों की निंदा आदिक इन वचनों के बोलने में अज्ञानीजनों को कैसी उमंग रहती है । जो मनुष्य बहुत बोलते हैं वे अनेक अपराधों को करते रहते हैं । अधिक बोलने की प्रकृति उसके भले के लिए नहीं है । जो कम बोलेगा वह चुगली, निंदा आत्मप्रशंसा, पर का अपमान आदि ऐसे वचनों से दूर रह सकता है । जो अधिक बोलेगा उसके वचन अप्रिय भी हो जायेंगे, अहितकारी भी हो जायेंगे, अपनी मर्यादा से बाहर भी हो जायेंगे, वह उन्नति का पात्र नहीं है, सो जो इन दुर्ध्यानों से बचना चाहता है वह कम बोले विचार कर बोले, सत्य बोले । मेरे इन वचनों से कहीं इनको तकलीफ न हो जाये, ये सदा ध्यान में रखे । वैसे नीति भी है “वचनों की दरिद्रता” वचनों में दरिद्रता क्यों की जा रही है, क्यों नहीं ठीक वचन बोलते? तो यह मृषानंद रौद्रध्यान जीव को दुःखदायक है ।
(227) चौर्यानंद व परिग्रहानंद रौद्रध्यान की असंगतता―तीसरा रौद्रध्यान है चौर्यानंद । चोरी में आनंद मानना । कितने ही चोर तो बड़े होते हैं और कितने ही छोटे होते हैं । कितने ही ऐसे जीव होते हैं कि लगता कि हमने कोई चोरी नहीं की, किंतु चोरी है । जैसे किसी पुरुष का भोजन करना इस ढंग का हो कि लोग थाली सजाकर लायें, बिनती करें तब वह भोजन करे और यदि वही पुरुष अपने ही घर की चीज स्वयं उठाकर खा ले तो उसके भाव में चोरी जैसा परिणाम आ गया । लगता यों होगा कि अपनी ही चीज तो उठायी, मगर जो प्रक्रिया बन गई थी उसके विरुद्ध चला जाना वह भी चोरी हुई । कोई बात ग्रहण किया, सामायिक कर रहे, कोई नहीं देख रहा तो ढीले ढाले हैं और कोई देखने लगा तो बस टन्नाकर, तनकर बैठ गए, बताओ क्या उसने चोरी नहीं की? की, किसी की चीज तो नहीं चुराया फिर भी चोरी हो गई । तो चोरी चाहे सूक्ष्म है चाहे बड़ी है, उन चोरी के कामों में आनंद मानना चौर्यानंद रौद्रध्यान है । चौथा रौद्रध्यान है परिग्रहानंद । पंचेंद्रिय के विषयों का जिन साधनों से पोषण होता है उनको जोड़ने उनकी रक्षा करने में आनंद मानना यह है परिग्रहानंद । इसका दूसरा नाम है विषयसंरक्षणानंद । इस रौद्रध्यान का तत्काल कुछ बुरा प्रभाव नहीं मानता यह जीव, पर उसके बाद वह कुछ पछताता है और मरण के बाद तो इस दुर्ध्यान के फल में उसे दुर्गति भोगनी पड़ती है । ये 8 खोटे ध्यान कहे गए । इन अशुभ ध्यानों का फल कष्ट है ।
(228) चार प्रकार के धर्म्यध्यान―अच्छे ध्यान कौन से हैं? वे दो प्रकार के हैं (1) धर्मध्यान और (2) शुक्लध्यान । जब तक राग अवस्था है तब तक राग का व्यवहार है, किंतु है ज्ञान और शुभ प्रवृत्ति, ऐसी स्थिति में उसके धर्मध्यान बनता है ये धर्मध्यान चार प्रकार के हैं―(1) आज्ञाविचय, (2) अपायविचय, (3) विपाकविचय और (4) संस्थानविचय । प्रभु की आज्ञा को शिरोधार्य करके उस अनुरूप धार्मिक चिंतन करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है । यह सम्यग्दृष्टि पुरुषों के ही होता है । अपायविचय―ये रागादिक विकार, ये खोटे भाव मेरे नष्ट हों, इनसे मेरी उन्नति नहीं है, इनसे संसार में भ्रमण करना पड़ता है । इन रागादिक भावों के विनाश का चिंतन करना और वीतरागता के उपायों का चिंतन करना, यह है अपायविचय धर्मध्यान । तीसरा धर्मध्यान है विपाकविचय । कर्मों का उदय कैसे होता है, कर्मों के बारे में चिंतन बनाना कि ये कर्म कैसे बंध जाते हैं । जीव ने खोटे भाव किये, उनका निमित्त पाकर ये पौद्गलिक वर्गणाएं कार्माणरूप बन जाती हैं, और इनमें प्रकृति, स्थिति, प्रदेश, अनुभाग चार प्रकार का बंध होता है । जब अनुभाग प्रकट होता है तो इन कर्मों में विकृति प्रकट हो जाती है । उस काल में जिसको कर्मोदय में लगाव है वह उसी प्रकार अपने को मानकर कष्ट पाता है । कभी तीव्र उदय आता है तो बड़े सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष भी कुछ अनुचित व्यवहार कर डालते हैं । यह कर्मोदय है, इसका फल बड़ा विचित्र है इस कारण कर्मबंध नहीं हो मुझे ऐसा ही कार्य करना चाहिए । वह कार्य क्या है? आत्मानुभव, आत्मदृष्टि अपनी ओर रहना । संस्थानविचय―तीनलोक तीन काल का सब आकार प्रकार यह सब चिंतन में रहना । इससे लाभ क्या होता कि जब दृष्टि में यह रहता है कि इतना महान विस्तृत लोक है, तब यह चित्त होता है कि इतने बड़े लोक के सामने आज हमारा कितने से क्षेत्र का परिचय है । मान लो हजार 500 मील के क्षेत्र का परिचय है तो इतने सारे लोक के सामने बड़े समुद्र के आगे बूंद बराबर है । इतनी सी जगह के ममत्व से इस जीव का बिगाड़ होता चला जाता है । जब काल का परिचय होता है कि काल है अनादिअनंत, न इसकी आदि है न अंत, तो इस अनादि अनंतकाल के सामने इस भव का पाया हुआ यह 100-50 वर्ष का जीवन क्या कुछ गिनती रखता है? यह तो स्वयंभूरमण समुद्र के एक बूंद बराबर भी नहीं है । तो इतने से काल में मोह ममता करके जो समागम मिला है उसमें अंधे होकर अपने आत्मा का अकल्याण किया जा रहा है । ऐसा क्यों किया जा रहा है? तो जब तक सराग अवस्था है और उत्तम चिंतन है तब तक वह धर्मध्यान कहलाता है ।
(229) चार प्रकार के शुक्लध्यान―चौथा ध्यान है शुक्लध्यान । इसमें राग नहीं आ रहा है, चित्त में व्यक्त नहीं है, और कहीं राग बिल्कुल भी नहीं है, सिर्फ ज्ञान द्वारा पदार्थ ज्ञेय हो रहे हैं और किसी एक ज्ञेय में अपना चिंतन लगा हुआ है वह कहलाता है शुक्ल ध्यान । यह शुक्लध्यान चार स्टेजों में है । पहला है पृथक्त्व वितर्कवीचार याने ध्यान तो है एक पदार्थ का मगर उसी पदार्थ की पर्याय में ज्ञान पहुंचा, गुण पर ज्ञान पहुंचा, द्रव्यत्व पर ज्ञान पहुंचा, सहज स्वरूप पर ज्ञान पहुंचा, ऐसा अदल बदलकर ज्ञान चलता है और कभी किसी शब्द से बदल चलती है, मन, वचन, काय की बदल चलती है तो वह पहले स्टेज का शुक्लध्यान है । जब ध्यान का अभ्यास बढ़ जाता है तब यह बदल रुक जाती है । जिस पदार्थ पर चिंतन है उसी पर रहता है । उसके प्रताप से केवलज्ञान जगता है । फिर समस्त लोक के पदार्थ इसके ज्ञान में झलकने लगते हैं । वह भगवान बन जाता है । अरहंत हो गया । अब अरहंत होने पर भी योग चल रहा है, दिव्यध्वनि खिरना वह वचनयोग है, विहार होना काययोग है । द्रव्यमन भी परिस्पंदरूप है । तो इन योगों के निरोध के लिए, जो एक विशिष्ट समय परिणमन होता है वह कहलाता है तीसरा शुक्लध्यान सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती । उसके प्रताप से अब ये अरहंत प्रभु अयोगकेवली बन गए । अब उस अयोगकेवली के जो अघातिया कर्म शेष रह गए हैं उनके विनाश के लिए चतुर्थ शुक्लध्यान है । यद्यपि तृतीय और चतुर्थ शुक्लध्यान में कोई पदार्थ का चिंतन नहीं है, पर वहाँ कार्य है योग का विनाश, कर्म का विनाश । उस दृष्टि से इनको भी ध्यान कहा है । तो इस ध्यान के प्रकरण में यह शिक्षा लेनी है कि इन खोटे ध्यानों से हटकर हम अच्छे ध्यान में लगें और उसमें भी बढ़कर हम शुद्ध तत्त्व के चिंतन में आयें, केवल ज्ञाताद्रष्टा मात्र रहें, तो यह स्थिति हम आपके लिए कल्याणकारी है ।
(230) निर्दोष त्रयोदश क्रियाओं से युक्त होने का मुनिवरों को आचार्य का उपदेश―इस गाथा में बताया जा रहा है कि हे मुनिश्रेष्ठ ! तुम बारह प्रकार के तपश्चरणों को करो और मन, वचन काय से 13 प्रकार की क्रियावों को भावो और ज्ञानरूपी अंकुश से मनरूपी मत्त गज को वश करो । 12 प्रकार के तपों का वर्णन किया जा चुका है । 13 क्रियायें कौन हैं? पांच महाव्रत, 5 समिति और 3 मुदित । करना क्या है? सिद्ध भगवंत होना है । सिद्ध के मायने खालिस आत्मा रह जाना । सो खालिस आत्मा रह जाये इसके लिए चाहिए अंतस्तत्व का ध्यान कि इस समय हम इस मिले-जुले पिंड में, इस पर्याय में रहकर भी केवल आत्मा के स्वरूप को दृष्टि में लिये रहूं । जिसमें यह भूल बनी है कि मैं ज्ञानस्वरूप आत्मा को ही अपने ज्ञान में लिए रहूं, उसको अन्य बातों से कुछ प्रयोजन नहीं रहता । जब किन्हीं बाहरी बातो से प्रयोजन न रहा तो घर छूटे, कुटुंब छूटे, वस्त्र भी त्यागे इसलिए कि कहीं एक वस्त्र तक की भी मेरे को शल्य न रहे, ख्याल न रहे, ऐसा निर्द्वंद रहूं कि मैं मात्र आत्मा आत्मा का ही ध्यान करूं, अब बतलावो मुनिपद ऐसा उत्कृष्ट है कि जहाँ किसी व्यवहार की बात को सुनने की फुरसत नहीं । वस्त्र त्यागा किसलिए कि एक तौलिया भर भी वस्त्र की मन में चिंता न रहे और कोई नग्न होकर भी गाड़ी चाहिये, मोटर चाहिए, रिक्शा चाहिए, और खटपट चाहिए, अनेक प्रकार की चिंतायें रखें तो देखो कहां तो चिंतायें त्यागने के लिए वस्त्र त्यागा और कहां बड़ा भारी आडंबर रखकर चिंतायें और भी बढ़ा लीं । जहाँ चिंता का भार लदा है वहाँ आत्मशुद्धि नहीं हो सकती । साधु का कितना उत्कृष्ट पद है कि मन, वचन, काय ये वश में रहें, कुछ सोचें ही मत, कुछ बोलें ही मत, कुछ चेष्टा ही मत करे जिससे कि आत्मा में आत्मा का व्यास सतत बना रहे, और यदि सोचना पड़े तो समितिरूप प्रवर्ते बोलना पड़े तो भाषासमिति बनावें, चलना पड़े, विहार करना पड़े, खाना पड़े, शौच जाना पड़े तो समितियों का पालन करें । मुख्य कार्य तो गुप्ति हैं । गुप्ति में न रहा जाये तो समिति में रहें । गुप्ति मायने मन को वश में करना, कुछ न सोचना, वचनगुप्ति मायने मौन रखना, भीतर कोई वाणी भी न आये, कायगुप्ति मायने शरीर को निश्चल रखें, क्योंकि ज्ञान को ज्ञान में ग्रहण करने के लिए ऐसी निष्क्रिय चेष्टा चाहिए और फिर व्यवहार करना पड़े तो 5 महाव्रतरूप प्रवृत्ति करें । यों 5 महाव्रत, 5 समिति, 4 गुप्ति ये 13 क्रियायें हैं मुनि की ।
(231) आचार्यदेव का मुनिवरों को ज्ञानांकुश द्वारा मन मत्त गज को वश करने का उपदेश―आचार्यदेव का उपदेश है कि हे मुनिवरो ! ज्ञानरूपी अंकुश से मनरूपी हस्ती को वश करो । मन वश में हो सकेगा तो ज्ञान से ही वश में होगा, मन चाहता है तृष्णा, इंद्रिय का आराम, कीर्ति, यश बड़े-बड़े छलांग मार रहा मन । उस मन को अगर मारना है तो उसका उपाय है ज्ञान । तत्त्वज्ञान में आयें । मैं आत्मा ज्ञानस्वरूप मात्र हूँ । मैं इस स्वरूप से बाहर कहीं नहीं हूँ, मैं स्वरूप में ही अपना परिणमन करता हूँ । बाहर मेरा कोई काम नहीं । मैं स्वरूपमात्र हूँ । बाहर के लोग जैसा परिणमन करें सो करें, इस ज्ञानी साधु को बाहरी क्रियावों से कोई उद्वेग नहीं होता । मुनि कभी अपना मान और अपमान नहीं समझता । समझे तो मुनि नहीं । मुनि कभी प्रशंसा निंदा में रागद्वेष नहीं रखता, रखे तो वह मुनि नहीं । मुनि पद तो अरहंत के निकट का पद है और अगर कोई इस मुनिपद को धारण करके खिलवाड़ करे तो वह अपने आत्मा से खिलवाड़ कर रहा है । वह तो अनंत संसार में भ्रमण करेगा । यहाँ कुंदकुंदाचार्य उपदेश करते हैं कि हे मुनिप्रवर ! ज्ञानरूपी अंकुश से मनरूपी मत्त गज को वश करो ।