वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 86
From जैनकोष
मच्छो वि सालिसित्थो असुद्धभावो गओ महाणरयं ।
इय णाउं अप्पाणं भावह जिणभाव णिच्चंणं ꠰꠰86।।
(260) अशुद्ध भाव की निंदनीयात―जीव में जो अशुद्ध भाव होते हैं उनके कारण उसको दुर्गति में जन्म लेना पड़ता है । जीव का धन है भाव । और कुछ नहीं है जीव के पास । शुद्ध भाव करे तो इस जीव को शांति मिले, अशुद्ध भाव करे तो इस जीव को कष्ट हो । इस गाथा में बताया है कि अशुद्ध भावों से युक्त होकर साली सिक्थ नाम का मच्छ नरक में गया । (उसकी गाथा पीछे कही जायेगी) सो यह जानकर निरंतर आत्मा की भावना करें मायने आत्मस्वरूप का चिंतन करें । आत्मस्वरूप के चिंतन में ही सम्यक्त्व बनता है । पर्यायात्मबुद्धि में मिथ्यात्व है, मिथ्यात्वमूलक अशुद्धभाव दुर्गति का कारण हैं । राघव मच्छ होता है एक बहुत बड़ा मच्छ, जो स्वयंभूरमण समुद्र में है । जैसे जहाँ अपन लोग रहते हैं यह है जंबूद्वीप, उसे घेरकर है लवण समुद्र, उसको घेरकर है दूसरा द्वीप । तो ऐसे द्वीप समुद्र घेर घेरकर अनगिनते हैं । जंबूद्वीप है एक लाख योजन का, उससे दुगुना है समुद्र एक तरफ, उससे दूना है द्वीप । दूने-दूने होते चले गए, और वे करोड़ों अरबों से भी अनगिनते ज्यादा हैं । तो जो आखिरी समुद्र है वह कितना बड़ा होगा सो तो विचारो । इस समुद्र में कोई राघव मच्छ होता है जिसकी 1000 योजन की लंबाई, 500 योजन की चौड़ाई और 250 योजन की मोटाई है, इतना बड़ा मच्छ होता है, और उस ही के कान में एक तंदुल मच्छ बहुत छोटा रहता है ꠰ सो राघव मच्छ अपना मुख बायें रहता है । उसके मुख में सैकड़ों मछलियां आती जाती रहती हैं । यदि किसी समय वह अपना मुख बंद कर ले तो वह एक बार में सैकड़ों मछलियां खा सकता है । यह तो है राघव मच्छ की बात । अब उसके कान में जो तंदुल मच्छ रहता है सो वह सोचता है । देखता है कंठ की तरफ जाकर कि यह मच्छ अपना मुख बाये रहता है, पर यह इन मछलियों को नहीं खाता । इसकी जगह पर यदि मैं होता तो एक भी मछली को बचने न देता । ऐसा खोटा भाव रहता है तंदुल मच्छ का जिसके कारण वह मरकर 7वें नरक में जाता है ।
(261) तंदुल मत्स्य की पूर्व वर्तमान व उत्तर भव की कथा―तंदुल मत्स्य की पूर्व व उत्तर भव की कथा इस तरह है कि बहुत पहले समय में एक सौरसेन नाम का राजा हो चुका है, वह श्रावक कुल में पैदा हुआ था, पर बाद में मांसाहारी हो गया था । एक बार उसने किसी मुनिराज का दर्शन किया तो मुनिराज ने उपदेश दिया कि तू मांस का त्याग कर दें । सो उसने मांस का त्याग कर दिया । अब त्याग तो कर दिया पर उसे कोई प्रधान ऐसा मिल गया कि जो मांसाहार था, उसके प्रसंग में आकर उसको भी मांस खाने की लालसा बनी रहा करती थी । अब देखो नियम तो लिया था यह कि मैं जीवन पर्यंत मांस न खाऊंगा, सो खा तो न सकता था पर उसके मन में मांस खाने का भाव निरंतर बना रहता था ꠰ यहाँ तक कि उसने लुक छिपकर रसोइया से छोटे-छोटे जीवों का मांस भी बनवाया पर कुछ ऐसे योग मिलते गए कि संकोच के मारे वह खा न सका ꠰ अब देखो मांस खा न सका और भीतर में प्रबल इच्छा बनी रही तो वह राजा मरकर तंदुल मत्स्य हुआ है ꠰ अब देखो जिसकी जैसी भावना होती है अगले भव में उसकी वैसी ही बात बनती है ꠰ चूंकि पहले भव में मांस तो खा नहीं पाया और मांस खाने की भीतर में बहुत रुचि बनी रही तो वह मरकर तंदुल मत्स्य हुआ ꠰ वह तंदुल मत्स्य उस महामत्स्य के कान में पैदा होता है और उस कान का मैल खाकर अपना सारा समय गुजारता है ꠰ जब वह तंदुल मत्स्य कुछ बड़ा हो गया, समर्थ हो गया, तो एक बार वह वहां से कंठ की तरफ गया ꠰ वहां घूमते हुए में उसने देखा कि वह राघव मच्छ इतना बड़ा मुख फैलाये हैं कि जिसमें सैकड़ों मछलियां लौट रही हैं, यह मच्छ इन्हें खाता नहीं है ꠰ यदि इस मच्छ की जगह मैं होता तो एक भी मछली को बचने न देता, ऐसा भाव तंदुल मत्स्य बनाता है ꠰ तो ऐसे खोटे भाव के कारण वह भी 7वें नरक में पैदा हुआ और राघव मच्छ भी 7वें नरक में पैदा हुआ दोनों नारकी बने ? सो एक बार वह मिला ꠰ उन्हें खोटा अवधिज्ञान तो होता ही है तो बड़े मच्छ ने तंदुल मत्स्य से मानो पूछा कि जरा यह तो बताओ कि हम तो अपना मुख बाये रहा करते थे जिसमें हजारों मछलियां लौटा करती थी सो 7वें नरक में पैदा हुए यह तो वाजिब है, पर तुम क्यों 7वें नरक में पैदा हुए, क्योंकि तुम तो एक भी मच्छी नहीं खा सके ? तो मानो उस मत्स्य ने यही उत्तर दिया कि भाई बात यह है कि तुम तो यों ही मुख बाये पड़े रहे, तुमने अपना भाव मुझ जैसा नहीं बिगाड़ा, पर मेरा तो निरंतर यही खोटा भाव रहा करता था कि यह मत्स्य यों ही मुख बाये पड़ा रहता है, इसके मुख में सैकडों मछलियां लौटती हैं फिर भी यह इन्हें नहीं खाता, यदि इसकी जगह मैं होता तो एक भी मछली बचने न देता ꠰ इस प्रकार मैं यह 7वें नरक में आया ꠰
(262) अपध्यान के त्याग का उपदेश―भैया, अब यह समझलो कि अशुद्ध भाव करने से नियम का अशुद्ध फल मिलेगा । भले ही आज कुछ पुण्य का उदय है और खोटे, भाव करने पर भी कोई तकलीफ नहीं हो रही है, मगर कर्मबंध तो हो ही रहा है । अब उस कर्म का जब उदय आयेगा तो नियम से कष्ट भोगना पड़ेगा ꠰ इस कारण हे आत्मन् ! तू अपने आत्मा को निरख । कैसा है यह आत्मा? सबसे निराला है, ज्ञानस्वरूप है और सिद्ध भगवान के समान स्वरूप वाला है । जिन भगवान को हम पूजने आते हैं वह भगवान क्या हैं? शुद्ध आत्मा, सर्वज्ञ आत्मा, वीतराग आत्मा । तो वही स्वरूप हमारा है, वही स्वरूप तुम्हारा है । यहाँ शरीर में बंधे हैं इस वजह से संसार में रुलते हैं, जन्म मरण करते हैं जब अपने आत्मा को जान जायेंगे और उसी आत्मा से प्रेम रहेगा वहाँ ही संतोष करेंगे तो कर्मों का क्षय होगा और सिद्ध भगवान बनेंगे । सो उस आत्मभावना को निश्चय सम्यक्त्व कहते हैं और श्रद्धान रूप व्यवहार को व्यवहार सम्यक्त्व कहते हैं । सो अपध्यान को छोड़कर व्यवहार सम्यक के मार्ग से आगे बढ़कर निश्चय सम्यक्त्व को पावो । अपध्यान करना बुरा है । इस गाथा में मुख्यतया यह उपदेश किया है कि जो दूसरों का बुरा विचारते हैं उनको नरक में जाना पड़ता है । किसी का नाश हो जाये, किसी का कुछ बिगड़ जाये आदिक रूप से जो बुरा करता है उसके पापकर्म का बंध होता है और दुर्गति में जन्म लेना पड़ता है । बताया है स्वामी समंतभद्राचार्य ने कि जो द्वेष के वश होकर किसी का बध विचारता है, किसी का घात विचारता है, किसी का छेदन भेदन विचारता है, वह सब अपध्यान है । उस अपध्यान के कारण इस जीव को नरक में जाना पड़ता है । इसलिए कभी किसी के प्रति खोटा विचार न करें । खोटा विचार करने से उस दूसरे का कुछ नहीं बिगड़ता, यदि उसके ही पाप का उदय है तो बिगड़ेगा, मगर खोटा विचार कर लेने से खुद का जरूर बिगाड़ होता है । जो कर्मबंध जाते हैं वे अपने समय पर फल देते हैं ꠰ वैसे लौकिक दृष्टि से भी देखो, अगर किसी का बुरा विचारने से वर्तमान में कुछ लाभ होता हो तो बताओ । खोटा भाव बनाने के समय व बाद में भी बड़ा संक्लेश करना पड़ता है इस कारण अपध्यान को दूर करें ।
(263) अपघ्यान छोड़कर पदस्थ ध्यान में लगने का संदेश―यहां यह उपदेश किया है कि खोटा ध्यान तो छोड़ो और चार प्रकार का जो धर्मध्यान है उस धर्मध्यान में आवो । पदस्थ धर्मध्यान याने मंत्र के सहारे से मंत्र का अर्थ जानकर भगवान के स्वरूप का ध्यान बनावें । णमोकार मंत्र बोलते हैं सब पर उसके साथ जैसे अरहंत को नमस्कार कहा तो अरहंत का स्वरूप भी सामने आये कि ऐसे आकाश में 5 हजार धनुष ऊपर गंधकुटी में विराजमान हैं, जिनका शरीर धातु उपधातु के दोष से रहित है, स्फटिक मणि की तरह स्वच्छ पवित्र है और उसमें रहने वाले आत्मा सर्वज्ञ वीतराग हैं, रागद्वेष के दोष से दूर हैं, वे अरहंत हैं और वैसा ही मेरा स्वरूप है, मेरा भी स्वभाव वही है जो भगवान का स्वरूप है, ऐसा ध्यान रखकर णमो अरहंताणं शब्द का मुख से उच्चारण करें । लोग कहते हैं कि इस णमोकारमंत्र में अद᳭भुत सामर्थ्य है, इस मंत्र के जाप से बड़े-बड़े संकट टल जाते हैं । तो जो भावसहित णमोकारमंत्र का स्मरण करता है उसके नियम से समस्त संकट दूर हो जाते हैं, क्योंकि भावों की वहाँ निर्मलता है । आप णमों सिद्धाणं कहें तो ऐसा ध्यान करें कि लोक के अंत में सिद्ध भगवान का आत्मा विराजा हैं । केवल आत्मा ही आत्मा है, शरीर और कर्म उसके दूर हो गए हैं, ऐसा शुद्ध आत्मा का चिंतन करके फिर नमस्कार करें―णमो सिद्धाणं बोलकर णमो आयरियाणं जपते तो उस समय ऐसा ध्यान बनायें कि मानो किसी जंगल में मुनियों का संघ ठहरा है । उनके बीच आचार्यमहाराज विराजे हैं बिल्कुल विरक्त, क्षमाशील और मुनिसंघ का उपकार करने वाले, ऐसे आचार्यदेव को ध्यान में रखकर बोलें―णमो आयरियाणं । णमो उवज्झायाणं बोलते समय क्या ध्यान करें कि अनेकों मुनिराज एक साथ विराजे हैं, उनके बीच में महान ज्ञाता उपाध्याय उनको पढ़ा रहे हैं, आत्मतत्त्व को समझा रहे हैं । ऐसी दृष्टि में रखकर बोलें―णमो उवज्झायाणं । णमो लोए सव्वसाहूणं-इसमें साधुवों को नमस्कार किया है, सो ऐसा ध्यान में रखकर बोलें कि विशाल जंगल पर्वत में कोई गुफा में बैठे ध्यान कर रहे हैं, कोई पर्वतपर विराजे ध्यान कर रहे हैं, कोई वृक्ष के नीचे ध्यान कर रहे हैं, कोई नदी के तट पर ध्यान कर रहे हैं, केवल आत्मचिंतन कर रहे अपने को ज्ञानस्वरूप अनुभव रहे, अपने में ज्ञानानुभव कर रहे, अलौकिक आनंद ले रहे, कर्मों का क्षय हो रहा, सो अनेक प्रकार के तपश्चरण करने वाले साधुवों को दृष्टि में रखकर कहे णमो लोए सव्वसाहूणं । अपध्यान को छोड़कर ऐसा शुद्ध ध्यान बनायें, यह उपदेश किया जा रहा है ।
(264) अपध्यान से हटकर पिंडस्थ ध्यान से अभ्यस्त होकर रूपस्थ व रूपातीत ध्यान द्वारा शुद्ध ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व का ध्यान करने का अनुरोध―कभी-कभी ऐसा ध्यान बनावें कि जैसे मैं इस पृथ्वी से ऊपर आकाश में विराजा हूँ । पहले तो एक कल्पना का आधार चले, पर उस आधार से विकल्प छूट कर जो आत्मा का ध्यान बनता है उसमे आत्मानुभव होता है । सो एक आसन से विराजे ऐसा ध्यान बनावे कि मैं आकाश में बैठा हूँ । मानो एक मेरूपर्वत हैं, उसके ऊपर विराजे हों और नीचे सर्वत्र समुद्र ही समुद्र है और वहाँ अपना ध्यान बनावे अपने आत्मा में इस ज्ञानस्वरूप का । यह मैं ज्ञानस्वरूप आत्मा जो कि देह के आकार में बना है । मेरे इस देह के भीतर मानो नाभि पर दो कमल हैं, एक नीचे व एक ऊपर से औंधा । नीचे का कमल तो हुआ एक ज्ञानकमल और ऊपर का कमल हुआ कर्म जो उस ज्ञान को कर्म ढक रहे हैं । तो उस ज्ञानकमल के साथ कर्णिका पर बीच में एक अद᳭भूत चैतन्य तेज का ध्यान करें ꠰ मात्र ज्ञानस्वरूप का ध्यान रहे ꠰ इस ध्यान के प्रताप से अग्नि बढ़ी और ऊपर का कमल भस्म हो गया और उसके साथ ही साथ देह भी भस्म हो गया और उसी समय एक शुद्ध सम्यक्त्व विहार की एक शुद्ध वायु चली, सारी भस्म उड़ गई, फिर ज्ञानानुभूति जल की वर्षा हुई, सब मैल धुल गया खालिस आत्मा ही आत्मा रह गया और उसमें यह हूं मैं ज्ञानज्योति ऐसा ध्यान बना तो बाहरी पदार्थों के ख्याल छूट गए और अपने आपमें लीन हो गए ꠰ सो इस आत्मा का ध्यान बनावें और अपध्यान को छोड़ें, खोटी बात का चिंतन न करें ꠰ रूपस्थ ध्यान से सकलपरमात्मा के अंतस्तत्त्व का ज्ञानवृत्ति का व अविकारस्वरूप का ध्यान करें ꠰ रूपातीत ध्यान में अविकार ज्ञानमात्र परम ब्रह्मस्वरूप का ज्ञान करें ꠰ ऐसे अंतस्तत्त्व का ध्यान करके अपने इस मानव जीवन को सफल करें ꠰