वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 85
From जैनकोष
एएण कारणेण य तं अप्पा सद्दहेण तिविहेण
जेण य लहेह मोक्खं तं जाणिज्जइ पयत्तेण ꠰꠰85꠰।
(249) शांति की अभिलाषा होकर भी शांति न मिलने का कारण―जगत के सभी जीव शांति चाहते हैं और शांति के लिए ही सारा प्रयत्न करते हैं । दिन भर, रात न जाने क्या-क्या करते, कितना परिश्रम करते हैं, क्या-क्या व्यवहार करते हैं तिस पर भी सब अपने-अपने हृदय से पूछें कि शांति मिली अथवा नहीं मिली? तो सबका हृदय कह उठेगा कि सत्य शांति नहीं मिली । झूठ की मौज तो मिल जाती है पर वास्तविक शांति नहीं मिलती । क्या कारण है? कारण यह है कि शांति कहते किसे हैं पहले इस ही को तो समझें । जहाँ रंच भी आकुलता न हो उसे कहते हैं शांति, और पर के जितने प्रसंग मिलेंगे, परपदार्थों का जितना संग समागम रहेगा वह नियम से आकुलता का कारण है । आकुलता का तो कारण है और फिर भी प्रसंग मिलाया जाता है इसका कारण क्या है? जब दूसरे लोगों के संबंध से, चेतन अचेतन पदार्थों के संबंध से आकुलता ही रहती है और फिर भी इनका संबंध जुटाते हैं उसका कारण क्या है? उसके कारण होते हैं दो । एक तो होता है अज्ञान । पता ही नहीं है कि सच्ची बात क्या है? दूसरा यह कारण है कि यदि ज्ञान भी हो तो भी इतनी दृढ़ता नहीं है कि समागम छोड़कर रह सके, इसलिए भी घर में रहना होता है, पर एक बात है सबके लिए, चाहे मुनि हो चाहे गृहस्थ हो, परपदार्थों ने जिसने अपनायत की बुद्धि की कि यह मेरा है उसको नियम से आकुलता होगी । तब क्या करना? तुम अपना स्वरूप सही समझ लो कि मैं आत्मा क्या हूँ ꠰
(250) आत्मज्ञान में शांति―जरा ध्यान देकर सुनो―आपके घर की, निज की बात कही जा रही है, सोचिये―मैं आत्मा क्या हूं ? कोई जानने वाला पदार्थ, ध्यान में आ रहा ना? मैं आत्मा कोई जानने वाला पदार्थ हूँ, ज्ञानस्वरूप हूँ, देह मैं नहीं हूँ, शरीर मैं होता तो शरीर के मिटते ही मैं भी मिटता? यह मैं आत्मा कहां से आ गया? शरीर से पहले भी तो मैं था तब तो इस शरीर में हूँ । तो जो मैं हूँ इसका शरीर से संबंध नहीं । शरीर मेरा नहीं, धन वैभव मेरा नहीं, कुटुंबीजन मेरे नहीं । मेरा तो है एक ज्ञानस्वरूप, उसकी दृष्टि नहीं, सो बाहर में ममता करते हैं इसलिए आकुलता होती है । आकुलता का कारण है ममता और शांति का कारण है अपने आत्मा का सही स्वरूप समझें और यहाँ ही रम करके तुष्ट रहें । भिन्न पदार्थों के प्रेम में संतोष मत करें । संबंध है, बोलना पड़ता है, बोलें, प्रेम से रहें, मगर सत्य समझिये कि मेरा तो ज्ञानस्वरूप ही मेरा सर्वस्व है । मेरा शरण और कुछ भी नहीं है यह दृष्टि जगे तो शांति मिल सकती है ।
(251) तृष्णा में अशांति―भैया ! तृष्णा में तो अशांति है । एक आदमी को सोते हुए में आ गया स्वप्न । क्या स्वप्न में देखा कि मुझको राजा ने प्रसन्न होकर 100 गायें इनाम में दी हैं । गायें ले आया, घर में यथा स्थान बाँध लिया । अब दूसरे दिन कुछ गाय खरीदने वाले लोग आये । (भैया, यह बात स्वप्न की कह रहे, सच की नहीं है । वह सोते हुए में ऐसा स्वप्न देख रहा था) सो ग्राहकों ने कहा कि भाई गायें बेचोगे? हां-हां बेचेंगे, कितनी गायें चाहिए? दस चाहिए, कितने-कितने रुपये में दोगे? सौ-सौ रुपये में.... अजी 70-70 रु0 में नहीं दोगे?....नहीं 70-70 में नहीं देंगे, 90-90 में दे देंगे ।....90-90 में नही लेते, यदि 75-75 की दे दो तो ले लें ।....75-75 की नहीं देंगे । फिर कितने में दोगे? बस 90-90 की ही देंगे ।....नहीं लेंगे, ऐसा कहकर वे चल दिए । तो इतने में वह जोर-जोर से आवाज देने लगा अच्छा भाई लौट आवो, 70-70 की ही लें लो । इसी प्रसंग में उस पुरुष की नींद खुल गई, स्वप्न भंग हो गया । देखा तो वहाँ कुछ भी न था, सो वह अपनी आँखे मींचकर उसी प्रकार स्वप्न वाला कल्पित सुख देखना चाहता था, पर वहाँ वह कहाँ धरा था । वह तो सब स्वप्न की बात थी । तो ऐसे ही यह सब स्वप्न जैसी बात समझिये । मोह के नींद में सोये हुए अज्ञानी प्राणी बाहर में दिखने वाली सारी बातें सच समझ रहे―यह मेरा है, अच्छा है, अच्छा है, बहुत ठीक है, बड़ा मौज है, और है कुछ नहीं, लगार रंच भी नहीं, क्योंकि ऐसा नियम है कि प्रत्येक परमाणु प्रत्येक जीव भिन्न-भिन्न सत्ता में हैं, एक का दूसरा कुछ नहीं लगता । जैसे ये दो अंगुली हैं तो ये दो ही हैं, एक की दूसरी कुछ नहीं, पर वस्तु के स्वरूप की श्रद्धा नहीं सो मान लेते हैं कि यह उसकी है । उससे आकुलता होती है ।
(252) धर्माराधना बिना मानवजीवन की व्यस्तता―देखिये अपना किसी भी समय ध्यान तो करें कि यदि मैं अपना कल्याण न कर सकूं तौ यह मनुष्यजीवन धिक्कार है । देखो आजकल के मनुष्य क्या कर रहै हैं? भोजन करते हैं, अच्छा नींद लेते हैं, डर भी मानते रहते हैं, कुशील पाप भी करते हैं, तो यह बतलावो कि ये बातें पशु कर सकते कि नहीं कर सकते? भोजन भी पशु करते कि नहीं? जैसे मनुष्य ने भोजन किया । मनुष्य खायेगा जरा लड्डू पेड़ा और पशु खायेंगे हरी-हरी घास, इतने में मनुष्य की चतुराई है, घर लड्डू पेड़ा खाकर जो मौज मनुष्य मानते उससे भी अधिक मौज घास खाकर पशु मानते । आखिर मौज मिलने से मतलब है । नींद मनुष्य लेते, बल्कि मनुष्य की नींद बढ़िया है । जरासी आहट मिली कि पशु की नींद खुल जाती, बेसुध होकर पशु नींद नहीं लेते, गाय, बैल, भैंस, घोड़ा, कुत्ता आदिक पशुओं को देख लो । मनुष्य तो बेसुध होकर सोते हैं । तो नींद लेने में भी मनुष्यों से पशु ठीक है । आहार के मामले में भी मनुष्यों से ठीक हैं पशु का पेट भर जाये तो चाहे बढ़िया वृष्टि का चीज लावो तो भी वे दृष्टि नहीं डालते और मनुष्यों को देख लो, चाहे अभी-अभी खाकर निकले, खूब पेट भरा है, फिर भी कोई चाट पकौड़ी वाला दिख जाये तो कुछ न कुछ चाट पकौड़ी खाने की जगह निकल ही आती है । भय की भी बात देखिये पशु तो तब भय मानते जबकि उनके सामने कोई लाठी लेकर आये, पर मनुष्य तो बड़े-बड़े गद्दों तकियों में पड़े-पड़े भय मानते रहते हैं । कहीं चार डाकुओं का भय, कहीं सरकारी कानून का भय, कहीं व्यापार में हानि लाभ का भय, कहीं इज्जत में बट्टा लगने का भय । कुशील के संबंध में भी देखो कुशीलसेवन में जितना मनुष्य बड़े हुए है उतना पशु नहीं बढ़े । तो किस बात में मनुष्य बड़ा है सो तो बताओ? मनुष्य उस बात से बड़ा है जो बात मनुष्यों को आजकल सुहा नहीं रही । ज्ञान की बात, धर्म की बात कहाँ सुहाती ? तत्त्वज्ञान सीखने की बात मन में कहाँ आती?
(253) सहजस्वरूप के सम्यक् दर्शन से अपूर्व अवसर का लाभ लेने का संदेश―जैनधर्म में वह उपदेश है, कि जिसने सहजात्मस्वरूप की परख की वह सारे संकटों से दूर हो जाता है । अच्छा, यही की बात निरख लो, अगर कुछ ज्ञान पहले से भी है तो, या अब कर लो, यदि यह जान जावो कि मैं आत्मा तो इस देह के अंदर ज्ञान स्वरूप हूँ, जितना मेरा स्वरूप है उतना ही मात्र हूँ मैं, उससे बाहर मेरा कहीं कुछ नहीं है, सत्य बात है यह, और मैं अपने में ही कुछ कर पाता हूँ । किसी में मैं कुछ कर नहीं सकता । तो मैं ज्ञानमात्र हूँ । अपने स्वरूप में ही अपना ही करने भोगने वाला हूँ । मेरी दुनिया यही है जितना मैं हूँ, इससे बाहर मेरा कुछ नहीं, इसलिए मुझे पर का कुछ ख्याल नहीं करना, शांतचित्त होकर आराम से बैठना, विकल्प तोड़ना फिर अपने आप जैसा आनंद मिलना है सो वहाँ मिलता है । यही तथ्य जैन शासन ने स्याद्वाद के ढंग से, निश्चयव्यवहार के प्रयोग से भली भाँति बतलाया है । सो आज तो तत्त्वज्ञान में नहीं बढ़ रहे हैं तो उनका ऐसा समझिये कि जैसे हमारे पुरुष आचार्यजन बड़े-बड़े रत्न भर गए है ज्ञान के कि हम लोग उससे लाभ लें और हम ऐसे कुपूत निकले कि उनका लाभ नहीं लेना चाहते, और न ले सके, न मन आया तो यह बतलाओ कि इस जीवन के बाद होगा क्या? मरण तो सबका ही निश्चित है और मरकर जायेंगे कहाँ? जैसा कि भाव बनाया उसके अनुसार गति मिलेगी । तो यह मानव जीवन एक बेकार सा हो जायेगा । ऐसे तो अनंत भव पाये, उन अनंत भवों में एक इस भव की भी गिनती बढ़ गई, इस भव के पाने का लाभ क्या मिला?
(254) मुक्तिमार्ग में प्रगति करने से ही आत्मलाभ―यह मानवभव तो एक ऐसा मौका है कि चाहें तो संसार के संकटों से छुट्टी पा लें या फिर संसार में खुलते रहें । दो में से कोई मार्ग तो चुनो । संसार में रुलते रहना ही पसंद है या जैसे प्रभु मोक्ष गए उस तरह के मार्ग पर चलकर मुक्त होना पसंद है? अगर विषयों की ही प्रीति है तो यहाँ के दर्शन से लाभ क्या? प्रभु के दर्शन से तो यह लाभ लेना चाहिए कि हे प्रभो ये सर्व दृश्यपदार्थ माया है, नष्ट हो जाने वाले हैं । यह आकार नहीं रहने का । इस माया में लगाव रख करके मेरा उत्थान नहीं होने का । जैसे आपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र पाया वही विधि मुझको प्राप्त हो और मैं भी रत्नत्रय पाऊं, बस इस यत्न में मेरे क्षण सफल हैं । तो ऐसा जो ज्ञानी जानता है वह इस कारण से उस आत्मा का मन, वचन, काय से श्रद्धान रहता है और विपरीत अभिप्राय नहीं रहता । खोटा भाव नहीं रहता । जैसा जो तत्त्व है वैसा भाव होना यह है सम्यग्दर्शन । मेरा आत्मा तो शांतस्वरूप है । ऐसा मैं अपने आत्मा में ही रहूं तो शांत हो सकूंगा ।
(255) बाह्य तत्त्व में लगाव रखने का फल क्लेश―भैया, बाहरी पदार्थों का लगाव आकुलता है, सो बाहरी पदार्थों का लगाव रहेगा तो दुःख मिलेगा । एक जुगल में कोई गुरु, शिष्य रहते थे । वह शिष्य गुरु के पास बचपन से ही रहने लगा था । उसकी आयु जब करीब 20 वर्ष की थी तब की एक घटना है कि उस शिष्य ने गुरु से कहा महाराज मुझे तीर्थवंदना करने जाने के लिए आज्ञा दे दीजिए । तो गुरु ने कहा ठीक हैं बेटा, तीर्थवंदना सब कर आना, पर सबसे पहले तो उस ही तीर्थ की वंदना कर ली जो तीर्थ तुम्हारे अत्यंत निकट है । तुम्हारा खुद का आत्मा ही तो तुम्हारा तीर्थ है । आखिर शिष्य ने तीर्थ क्षेत्रों की वेदना करने की काफी हठ की तो गुरु ने तीर्थवंदना करने की आज्ञा दे दी । अब वह शिष्य वंदना को चला । जब वह पैदल चलता जा रहा था तो रास्ते में उसे एक बारात दिखी । उस शिष्य ने बारात तो कभी देखी न थी और न उसके संबंध में उसे कुछ जानकारी थी, सो वह किसी से पूछ बैठा कि भाई यह क्या चीज है? तो किसी ने बताया कि यह बारात है ꠰....बारात क्या चीज है ?....अरे, बारात में एक दूल्हा होता है, उसकी बारात है ।....सो दूल्हा क्या करता है ?....अरे दूल्हा बारात में जायेगा, फिर उसकी शादी होती है ।....शादी से क्या मतलब?....अरे शादी करने से स्त्री मिलती फिर बच्चे होते कुटुंब चलता ꠰ अब इतनी तो बात सुन ली उसने और वह आगे बढ़ता ही गया चलते-चलते काफी थक गया था सो रास्ते में ही एक कुवे के फर्श पर लेट गया । उस कुवे पर चौखटा न था । उसे थक जाने से नींद आ गई । उस नींद में उसे एक स्वप्न दिखाई दिया, क्या कि मेरी शादी हुई, स्त्री आयी, बच्चे हुए, फिर आगे स्वप्न में क्या देखा कि मेरी स्त्री मेरे पास लेटी हुई है । बीच में बच्चे लेटे हैं । स्त्री बोली जरासा सरक जावो, बच्चे भिचे जा रहे हैं । ठीक है थोड़ा सरक गया । यह सब स्वप्न की बात कही जा रही है । तो स्वप्न की बात पर वह सचमुच ही उस कुवें पर कुछ सरक गया । फिर दुबारा स्त्री ने कहा जरा सा और सरक जावो, अभी बच्चे भिंच रहे हैं । सो वह पुरुष कुछ और सरक गया । इस सरकने में वह कुवें के अंदर गिर पड़ा । उस कुवें से निकलना भी उसे बड़ा मुश्किल हो गया । कुछ ही देर बाद वहीं पास के किसी गाँव का जमींदार उस कुवें से पानी भरने आया, जब लोटा डोर कुवें में छोड़ा तो उस पुरुष ने लोटा डोर पकड़ लिया और आवाज लगायी कि भाई हमें कुवें से निकाल लो, हम मनुष्य हैं, कोई भूत वगैरह न समझ लेना, डरना नहीं । हम इस कुवें में गिर गये हैं, हमें निकाल लो, बड़ी कृपा होगी । सो उस जमींदार ने उसे कुवें से निकाल लिया । बड़ा आभार माना । आखिर वह जमींदार पूछ बैठा कि आप कौन हैं तो उसने कहा―हम तो बाद में बतायेंगे कि कौन हैं, पहले आप ही अपना परिचय दीजिए, क्योंकि आपने हमारा बड़ा उपकार किया । तो जमींदार बोला―अजी मेरा परिचय क्या पूछते, मैं इस गाँव का जमींदार हूँ, बहुत बड़ा परिवार है, बड़ी लंबी जायदाद है, खूब भरी पूरी गृहस्थी है । उस जमींदार की शान भरी बातें वह पुरुष सुनता जा रहा था और बड़े आश्चर्य से उसका शरीर नीचे से ऊपर तक बार-बार देखता जा रहा था, सो वह जमींदार पूछ बैठा कि भाई तुम हमारे शरीर को बारबार नीचे से ऊपर तक क्यों देखते? क्या तुम कोई डाक्टर हो? तो वह पुरुष बोला―भाई हम कोई डाक्टर नहीं हैं, हम इसलिए बार-बार तुमको नीचे से ऊपर तक देखते कि तुम इतनी बड़ी गृहस्थी बसाकर अब तक कैसे जिंदा हो? हमने तो स्वप्न में एक बार गृहस्थी बसायी सो उसका यह फल हुआ कि कुवें में गिरे और तुम सचमुच की इतनी बड़ी गृहस्थी बसाकर कैसे अभी तक जिंदा हो इस बात का हमको बड़ा आश्चर्य हो रहा इसलिए हम तुम्हें आश्चर्यपूर्वक बार-बार नीचे से ऊपर तक देख रहे ।
(256) ज्ञानप्रकाश के प्रयास में शांतिमार्ग का लाभ―भैया ! यहाँ ऐसा समझो कि जिन बाहरी चीजों में हम रम रहे हैं उनमें नियम से खतरा है, पर एक परिस्थिति है ऐसी कि इन सब समागमों के बीच रहना पड़ता है । ठीक है, परिस्थितिवश रहना पड़ता है सो रहो, पर भीतर में ऐसी श्रद्धा रखो कि ये सब मेरे कुछ नहीं हैं । कुछ सोचो तो सही कि यदि अज्ञान में रहकर सारा जीवन गुजार दिया तो फिर आगे क्या हाल होगा? इसलिए एक बात मन में ठान लें कि मुझे तो अपना ज्ञान प्रकाश पाकर रहना है अन्यथा मनुष्य जीवन पाने से फायदा क्या? मेरे को तो मेरे आत्मा का वह ज्ञानप्रकाश पाना है जो मुझे शांति दे । वह ज्ञानप्रकाश क्या है जिसे जैनशासन में आचार्यों ने बताया है । जो आचार्यों के ग्रंथ हैं, उन अर्थों में उन्होंने जो-जो बातें समझायी हैं उन्हें समझे तो जीवन सफल हो जायेगा, नहीं तो जीवन कुछ नहीं है । सब कुछ यों ही व्यर्थ जायेगा । तब सोचिये आत्मतत्त्व का ज्ञान ।
(257) अंतरात्मत्व के उपाय से बहिरात्मत्व का व्यय व परमात्मत्व का विकास―जितने भी जीव है लोक में वे जीव प्रायोजनिक दृष्टि से तीन प्रकार के है―(1) बहिरात्मा (2) अंतरात्मा और (3) परमात्मा । बहिरात्मा मायने जो बाहर की चीज को माने कि यह मैं हूँ, ये मेरी हैं, उसका नाम है बहिरात्मा । अंतरात्मा जो अंदर के स्वरूप को माने कि यह मैं हूँ वह अंतरात्मा है और परमात्मा―जो सर्वज्ञ हुए, वीतराग हुए वे कहलाते हैं परमात्मा । तो अब अपनी खोज करो कि इन तीनों में मैं किसमें हूँ, बताओ―परमात्मा हो क्या? नहीं तो फिर अंतरात्मा हो क्या? नहीं । तब फिर अपने को अभी बहिरात्मा समझना चाहिए, क्योंकि परमात्मा तथा अंतरात्मा अभी बन नहीं पाये । अभी तो बहिरात्मा बने बैठे हैं क्योंकि दृष्टि निरंतर बाहर की ओर ही लगी रहा करती है । इन बाहरी पदार्थों को ही देखकर मानते कि यह मैं हूँ, ये मेरी हैं । तो बहिरात्मा हैं । बहिरात्मा रहना बुरा है । बहिरात्मा कहो, मूढ़ कहो, मोही कहो, संसार में रुलने वाला कहो, सब एक बात है । इस बहिरात्मापन से लाभ कुछ नही मिलना है । इस बहिरात्मापन को छोड़ो, अंतरात्मा बनो । यदि सही-सही तत्त्व का ज्ञान किया जाये तो अंतरात्मा बन सकता है । जो अंतरात्मा हुए वे ही आत्मा का ध्यान कर करके मोक्ष को प्राप्त हुए । तो वह तत्त्वज्ञान उत्पन्न करें जिससे कि मोक्ष मिलता है ।
(258) मोक्ष और मोक्षप्राप्ति का अंत: उपाय―मोक्ष मायने भी क्या सो विचारिये देखिये हम आप सब तीन चीजों के पिंडोला हैं―(1) शरीर (2) कर्म और (3) जीव । खूब पहिचान लो, शरीर ही जीव है क्या ? यदि शरीर ही जीव है तो जैसे कहते हैं कि मर गए तो फिर मरने के बाद इस शरीर को क्यों जलाते? यदि शरीर ही जीव है तब तो उसे कष्ट होता होगा? अरे मर गए तो वह जीव निकल गया । अब उस जीव को कष्ट नहीं है शरीर के जलाने से । शरीर न्यारा जीव न्यारा और इस समय देख लो कि शरीर और जीव दोनों एक साथ रहे या नहीं । और शरीर मिला क्यों? कर्म से । तो कर्म भी संग में हैं, तो तीन चीजों के पिंड हैं हम आप―शरीर, कर्म और जीव । और भगवान किसे कहते हैं? सिद्ध प्रभु किसे कहते हैं? जो शरीर और कर्म इन दो से अलग हो गया, खालिस अकेला आत्मा ही आत्मा रहा उसे कहते हैं सिद्ध भगवान । जब हम भगवान के दर्शन को आयें तो यह तो चित्त में लाये कि भगवान नाम इसका है और जो भगवान है सो ही मेरा स्वरूप है । भले ही तीन चीजें मिल गई, मान लो दूध, पानी और तेल मिल गये, मगर हैं तो वे न्यारी ही चीजें । तीनों मिलकर केवल स्वरूप तो नहीं बन गया । दूध में पानी डाल दिया तो पानी क्यों अलग हो जाता? दूध फिर अलग हो जाता मशीन से या गर्म करके, तो वे दो थे इसलिए अलग हो गए । ऐसे ही यह तीन का पिंड है, मगर अपना आत्मा इन दो से निराला ही स्वरूप रखता है, उसको जानें कि यह मैं हूँ, शरीर को मत मानें कि मैं हूँ, इसी को कहते हैं अंतरात्मा । तो आचार्य महाराज उपदेश करते हैं कि तुम उस आत्मा की श्रद्धा करो कि जिसकी श्रद्धा से मोक्ष प्राप्त होता है ।
(259) ज्ञानप्रकाश की कला से ही समस्त संकटों का विनाश―भैया, ऐसी कला अपनी बनायें ज्ञान की कि जिससे कदाचित् कर्मविपाकवश संकट भी आये तो भी हम शांति पा सकें । संकट आते हैं अज्ञानी के । अज्ञानी जीवों की बड़ी दुर्दशा होती है और ज्ञानी जन किसी चीज से संकट ही नहीं मानते । मान लो धन कम रह गया तो क्या हो गया? अरे वे थे बाहरी पदार्थ । पास रहे तो क्या, न रहे तो क्या? किसी का वियोग हो गया तो वह जानता है कि वह तो पृथक् जीव था, जितना यहाँ रहना था रहा, अब यहाँ से अन्यत्र कहीं चला गया । यों वह ज्ञानी पुरुष उससे कुछ कष्ट नहीं मानता । अज्ञानी को तो पद-पद पर कष्ट है और ज्ञानी को कहीं भी कष्ट नहीं । एक मियां बीवी थे । बीवी का नाम तो था फजीहत और मियां का नाम था बेवकूफ । उन दोनों में अक्सर करके लड़ाई हो जाया करती थी । एक दिन ऐसी तेज लड़ाई हो गई कि वह बीबी कहीं भग गई । अब वह मियां अपनी बीबी का चारों ओर पता लगाता फिरे, पर कहीं पता न चला । एक बार किसी अपरिचित व्यक्ति से भी पूछ बैठा―भैया, क्या तुमने हमारी फजीहत देखी? तो वह उसका कुछ मतलब ही न समझा, सो पूछ बैठा―भाई आपका नाम क्या है ?....मेरा नाम है बेवकूफ ।....अरे बेवकूफ होकर तुम कहां फजीहत ढूंढ़ते? बेवकूफ को तो जगह-जगह फजीहत है ꠰ जहाँ ही कुछ अटपट बोल दिया, बस वहीं उसके लिए लात, जूते, चप्पल हाजिर हैं । तुम क्यों बेवकूफ होकर फजीहत ढूंढ़ते फिरते हो? तो ऐसे ही समझो कि मोही बनकर विपत्ति को कहीं बाहर नहीं ढूंढ़ना पड़ता । मोही के लिए विपत्ति सदैव हाजिर है । मोह स्वयं विपत्तिरूप है । जिसके अज्ञान है, मोह है वह विपत्ति में पड़ा हुआ है । सो अपना सुधार करना है तो ज्ञानप्रकाश में आइये, ज्ञानप्रकाश जैसे भी मिले उन सारे ढंग को अपनाइये ।