वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 88
From जैनकोष
भंजसु इंदियसेणं भंजसु मणमक्कडं पयत्तेण ।
मा जणरंजणकरणं बाहिरवयवेस तं कुणसु ।꠰88।।
(268) इंद्रियसेना को भंग करने व मन मरकट को भंजन करने का उपदेश―जों अपने-अपने आत्मा का कल्याण चाहते हैं उनको गुरु महाराज उपदेश करते हैं कि इस इंद्रि की सेना का भंग करो याने इंद्रियां जो चाहती हैं रस, गंध, रूप देखना, अच्छे शब्द सुनना, अच्छा कोमल स्पर्श आदिक जो भी इंद्रियां चाहती हैं सो ये सब चाह रही हैं इसलिए इनको सेना कहा है । जैसे कोई सेना आक्रमण करती है इसी प्रकार इंद्रियां इस ब्रह्मराजा पर आक्रमण कर रही हैं । तो इस ब्रह्मराजा को कह रहे कि तुम इस इंद्रिय की सेना को भंग करो और मन रूपी बंदर को प्रयत्न से भंग करो । जैसे इंद्रिय के विषय इस जीव को सताते हैं ऐसे ही मन का विषय भी सताता है । तो रूपी बंदर को भगाओ ।
(269) जनमनरंजन के अर्थ साधुवेश ग्रहण करने में आत्मपतन―मनुष्यों के दिल बहलाने के लिये बाह्यवेश मत करो । मायने मनुष्यों को खुश करने के लिए जो कपट जाल रचा जाये ऐसा काम मत करो । मनुष्य खुश रहें, मगर खुदगर्जी के लिये, खुश करने के अर्थ खोटी करतूत मत बनायें कि मनुष्य हम से खुश रहें । मेरी इज्जत बढ़ावें इसके लिए साधु बन जावें यह-यह भाव मत लावो । ऐसी बात मन में न विचारो कि चाहे कितने ही पापकार्य करने पड़े फिर भी सब मनुष्य हम को पूजते रहें । तो उन संन्यासियों को उपदेश कर रहे जो बाहर में संन्यासी का भेष रख रहे और इंद्रियों के वश हो रहे । जिनको अपने आत्मस्वरूप को देखने का इरादा नहीं रहता उनको उपदेश किया है कि तुम इन बाह्य विषयों को त्यागकर अपने आपके स्वरूप में लगो, केवल बाह्य भेष धारण करने वाले मत बनो । तो इसमें तीन बातें कही गई । एक तो इंद्रिय को वश में करो, तुम इंद्रिय के वश में मत रहो । दूसरे मन को वश करो मन के आधीन मत रहो । तीसरे लोगों को खुश करने के लिए जंत्रमंत्र आदि का प्रयोग मत करो, ब्रह्मस्वरूप की ही भावना भावो ।