वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 89
From जैनकोष
णवणोकसायवग्गं मिच्छत्तं चयसु भावसुद्वीए ।
चेइयपवयणगुरुणं करेहिं भत्तिं जिणाणाए ।꠰89।।
(270) मिथ्यात्व व कषाय के त्याग का उपदेश―हे आत्मकल्याण चाहने वाले साधो ! तुम हल्की-हल्की कषायों को भी दूर करो । बड़ी तीव्र कषायों को तो छोड़ो ही पर जैसे लोक व्यवहार में हंसना, हास्य करना या किसी से राग करना, प्रीति करना, किसी से द्वेष रखना, किसी का बुरा मानना, डरना, रंज करना या किसी से घृणा करना, शील की रक्षा न कर पाना, ऐसे भावों को भी तुम छोड़, क्योंकि जिसको ब्रह्मस्वरूप में मग्न होना है उसे तो जैसे ब्रह्मस्वरूप का दर्शन होवे वैसे बाहर में सदाचार करना चाहिए । दुराचार में रहकर और फिर संन्यासी का भेष भूषा रखकर तो वह गृहस्थ से बुरा है, क्योंकि गृहस्थ तो स्पष्ट है, कि घर में रहता है, कितने ही पाप लगते हैं मगर कोई साधु का तो भेष रखे और इस मन की करतूत को करता रहे तो वह उत्तम गृहस्थ भी नहीं है । इसलिए हे साधु, तुम इन कषायों को छोड़ो, मिथ्यात्व का त्याग करो, भावों को निर्मल बनाओ । मिथ्यात्व उसे कहते हैं कि जीव तो है ज्ञानस्वरूप, ज्ञान ज्योति प्रकाश और देह है जड़, उसे माने कि यह मैं हूँ तो यह मिथ्यात्व कहलाता है । कुटुंब आदिक को समझे कि ये मेरे हे इसे मिथ्यात्व कहते हैं । झूठ बात को तो त्याग दो, अपने भावों को निर्मल बनाओ ।
(271) प्रभु प्रभुवचन व गुरू की भक्ति करने का उपदेश―धर्म ध्यान में भगवान का ध्यान करो, भगवान की वाणी सुनो, गुरुवों की भक्ति करो । इस प्रकार के धार्मिक प्रसंगों में रहो । जब कभी इस संसार में रुलते रहे और विपत्ति आती है तो उससे बचने का उपाय बनाना है । विपत्तियों से घबड़ाने से कहीं विपत्ति दूर नहीं होती या विषयों में लगने से आनंद नहीं मिलता । आनंद का कारण और शांति का कारण तो धर्म का सेवन है । धर्म क्या है, उसके लिए चार बातें करनी चाहिए―(1) एक तो भगवान की भक्ति करो जो रागद्वेष से दूर हो गए, कर्म से दूर हो गए, केवल आत्मा ही है, उस भगवान ज्ञानज्योति के दर्शन करो । (2) दूसरा काम है भगवान की वाणी सुनो । भगवान ने क्या बताया है, किस तरह से उद्धार होता है उस वाणी को सुनो, (3) तीसरा काम है गुरुजनों की भक्ति करना, (4) चौथा काम है भगवान की वाणी सुनकर अपने आत्मा को पहिचानकर अपने आत्मा की दृष्टि बनाना है कि मैं हूं यह ज्ञानस्वरूप भगवान ꠰ इन चार कार्यों में बढ़ें, केवल धर्म का भेष रखकर ही काम न बनेगा, किंतु आत्मा की पहिचान करें और उसके लिए प्रभुभक्ति, प्रभुवाणीमनन, गुरुसेवा ये मुख्य तीन काम हैं ꠰ मुख्य काम तो है आत्मा की आराधना ꠰ आत्मा का जो सहज स्वरूप है उसकी दृष्टि रखना और उसका सहायक है भगवद᳭भक्ति, भवत् मनन वाणी और गुरुवों की सेवा ꠰
(272) एकांत मिथ्यात्व का भाव―मिथ्यात्व क्या चीज है ? तो मोटे रूप में तो यह है कि शरीर को अन्य पदार्थों को आपा समझना और उसके विस्तार में चलें तो, दर्शन के रूप में चलें तो वे 5प्रकार के मिथ्यात्व हैं―(1) एकांतमिथ्यात्व, इस एकांत मिथ्यात्व के मायने हैं पदार्थ में शक्ति, धर्म तो हैं अनेक, पर हठ करना एक ही धर्म मानने की ꠰ जैसे बतलावो जो यह जीव है वह सदा रहता है, तो सदा रहता है, मगर परिणाम से जो पहले था सो ही अब है, सो ही आगे है, सो स्वभाव से बदलता है ꠰ कैसे बदलता कि कभी क्रोध कर रहे, कभी घमंड कर रहे, कभी मायाचार है, कभी लोभकषाय है तो यह रूप बदला ना ? इसी को कहते हैं नित्य और अनित्य ꠰ अब स्वभावदृष्टि से तो जीव एक है और परिणाम की दृष्टि से जीव भिन्न-भिन्न रूप बन जाते हैं, अब उसमें कोई एक हठ कर ले कि नहीं, सदा एक सा ही रहता है, उसमें जरा भी बदल नहीं होती, तो वह सच होकर भी झूठ हो गया ꠰ जैसे किसी ने पूछा कि बतलावो यह चौकी कैसी है ?तो कोई कहेगा कि यह चौकी 3 इंच मोटी है ꠰ कोई कहेगा कि 9 इंच लंबी है, कोई कहेगा कि यह 8 इंच ऊंची है ꠰ अब देखो बात सबकी ठीक है क्योंकि जब ऊँचाई कि दृष्टि से देखा तो 3 इंच, अब इसमें कोई यह हठ करे कि चौकी तो 3 इंच ही है, बाकी की सब बातें झूठ है, तो वह सच बोलकर भी झूठ हो गया ꠰ मोटाई की दृष्टि से तीन इंच है मगर वह भी गलत बन गया क्योंकि दूसरों की बात को मना किया ꠰ ऐसी ही जीव की बात है ꠰ जीव सदा रहता है ꠰ जब स्वभावदृष्टि से देखा तो जीव एकसा रहता और जब पर्यायदृष्टि से देखा तो उसका नया-नया ढंग रहता है ꠰ तो उनमें से एक ही बात माने तो वह एकांत है ꠰
(273) विपरीत व विनय नामक मिथ्यात्व का भाव―(2) दूसरा मिथ्यात्व है ꠰ विपरीत मिथ्यात्व मायने हो तो कुछ और मान लेवे उसका उल्टा तो यह कहलाता है विपरीत कैसे कि जैसे पशु को मारने से हिंसा है और यह कहे कि नहीं, भगवान का नाम लेकर पशु को मारे तो धर्म है तो यह विपरीत बात हो गई । चाहे भगवान का नाम लेकर पशु मारा जाये चाहे वैसे मारे, वह तो हिंसा है, अधर्म है । अब यह बलिप्रथा जो चली कि किसी देवी देवता के आगे भेड़ बकरा, सूकर आदिक चढ़ाना और उसे धर्म मानना तो यह तो महा अधर्म है, हिंसा है । इस प्रकार के हिंसात्मक कार्य कभी धर्म नहीं हो सकते भला बताओ जो जीव मारा जा रहा उसे संक्लेश से मरण करना पड़ता है और यहाँ स्वार्थवश धर्म की ओट में भगवान का नाम लेकर जीवहिंसा कर धर्म मानते हैं तो यह विपरीत एकांत है । और जैसे शरीर तो जीव नहीं है, शरीर तो अजीव है, पर इसी को ही देखकर कोई माने कि यह मैं हूँ तो यह विपरीत बन गया । यह विपरीत मिथ्यात्व नाम का दूसरा एकांत है । (3) तीसरा एकांत है विनय मिथ्यात्व ꠰ अब देखो मोक्ष जाने का रास्ता तो एक है, अनेक नहीं है मगर सभी लोग आम तौर से ऐसा कह बैठते हैं कि चाहे किसी भी धर्म से (मजहब से) जावो, अंत में मोक्ष मिलेगा । पर ऐसी बात नहीं है । अरे मोक्ष तो आत्मा के धर्म को पहिचानना है मायने आत्मा अपना ज्ञान करे और अपने आपमें रमे उससे मोक्ष होता है । अब यह बात करने से पहले अनेक बातें व्रत तप आदिक की करनी पड़ती है, मगर अंत में जिसको भी मोक्ष मिलेगा सो आत्मा में रमकर ही मिलेगा, और प्रकार नहीं मिल सकता ।
(274) संशय व अज्ञानमिथ्यात्व का भाव―(4) चौथा मिथ्यात्व है संशयमिथ्यात्व संशय में झूलना कि जीव है कि नहीं है, वैसी ही बात करता रहे, यह भी मिथ्यात्व है । जिसको पक्का श्रद्धान हो कि यह मैं जीव हूँ, ज्ञानस्वरूप हूँ और इसही में मग्न होने से शांति मिलेगी, जो ऐसी अपने में पक्की श्रद्धा करके रहे उसको तो वह गली मिलती है और जो संशय में झूले भगवान है कि नहीं, तो उसे मार्ग नहीं मिल सकता । एक ऐसा कथानक है कि एक मुसलमान और एक हिंदू दोनों साथ-साथ जा रहे थे, तो रास्ते में पड़ी एक नदी, सो नदी में से पार हो रहे थे । उस नदी में पानी था विशेष सो अब वे अपने-अपने भगवान का स्मरण करने लगे । मुसलमान तो अपने खुदा का ही स्मरण अंत तक करता रहा और आराम से नदी पार हो गया, पर हिंदू भाई कभी तो किसी देवता का नाम ले कभी किसी का मानों कभी कहा हे शंकर जी रक्षा करो, अब मानों शंकरजी रक्षा करने आ रहे थे । तो इतने में ही बोल उठा, हे विष्णु भगवान रक्षा करो । लो आ तो रहे थे शंकर रक्षा करने, पर विष्णु का स्मरण किए जाने पर शंकर वापिस हो गए, फिर मानों विष्णु का स्मरण करने पर विष्णु भी पहुंचे, पर इतने में ही वह उठा, हे ब्रह्मा जी रक्षा कीजिये । मानों ब्रह्मा जी भी रक्षा करने दौड़े मगर इतने में कह उठा―हे दुर्गामाता रक्षा कीजिए । यों अनेकों देवी देवताओं का बार-बार स्मरण करता रहा, किसी एक देव पर आस्था न रखी तो उसका फल यह हुआ कि वह नदी पार न कर सका । उस नदी के जल में डूब गया । तो यह संशय भी मिथ्यात्व है । आत्मा के बारे में इस प्रकार का संशय न करें कि आत्मा है कि नहीं । मैं जीव हूँ ज्ञानस्वरूप हूँ, मेरे में कोई संकट नहीं । मैं चैतन्यस्वरूप हूँ, ऐसी दृढ़ भावना हो तो सम्यग्दर्शन है । नहीं तो संशय मिथ्यात्व है । (5) पाँचवां मिथ्यात्व है अज्ञानमिथ्यात्व अज्ञानमिथ्यात्व में अज्ञान ही अज्ञान भरा रहता है, कोई-कोई लोग तो यों भी कह डालते कि कुछ भी ज्ञान न करें तो मोक्ष मिल जायेगा और यदि ज्ञान करेंगे तो मन में अनेक प्रकार के तर्क उठते रहेंगे, पर ऐसी बात नहीं है । तर्क वितर्क तो होते हैं अज्ञान दशा में । देह जीव को जो एक मानता है वह भी अज्ञान है । तो ये 5 तरह के मिथ्यात्व हैं । सच्चा ज्ञान न हो सकना यह सबसे बड़ा पाप है । मिथ्यात्व युक्त ज्ञान के बराबर दुनिया में कोई पाप नहीं ।
(275) भावशुद्धि से संकटपरिहार―भैया, भावशुद्धि करो याने सच्चे स्वरूप का अनुभव करो । शुद्ध बुद्ध जो एक ज्ञानस्वभाव है, आत्मा है उसकी रुचि करें, भगवान के दर्शन करें, भगवत् वाणी का आदर करें, शास्त्र पढ़े, ज्ञान सीखें, जो हित का उपदेश देने वाले गुरूजन हैं उन गुरुवों की भक्ति करें, तो ऐसी भक्ति द्वारा कम से कम सद्गति तो मिलेगी, फिर आगे बढ़ेंगे । धर्म के लिए ब्रह्मस्वरूप में मग्न होना होता है तब धर्म है । यह बात यदि अभी नहीं कर पाते तो आगे बन जायेगी । प्रभु की भक्ति करें ताकि हृदय निर्मल रहे और पाप की बातें चित्त में न आयें सो शुभ व शुद्ध कार्य करके अपने आत्मकल्याण में लगें । आत्मकल्याण चाहने वाले पुरुषों को सर्वप्रथम इन चार दुराशयों को छोड़ना चाहिये―1-अहंकार, 2-ममकार, 3-कर्तृत्वबुद्धि, 4-भोक्तृत्वबुद्धि । जो मैं नहीं हूँ उसे “मैं” मान डालना अहंकार कहलाता है । एक नटखटी बालक दूसरों को धोखा देकर कपड़ों से सजा हुआ घोड़े पर चढ़ा जा रहा था । एक नगर में शाम हो गई । मां मां कहकर अपना, ‘तू ही तो था’ नाम बताकर एक धुनेनी के यहाँ ठहर गया । उस दिन धुनिया बाहर गया था । इस नटखटी ने पास की एक बनिये की दुकान से आटा आदि लिया और ‘‘मैं था’’ नाम बताकर उसको सुबह पैसा देने को कह दिया । इसने रात को रोटी बनाई और धोवन धुनी हुई रुई पर फैंक दिया । सुबह होते ही वह चला गया । अब दुपहर धुनिया आया व रुई खराब देखकर धुनेनी से पूछा कि यह सारी रुई किसने खराब की है? यहाँ कौन ठहरा था? धुनेनी ने उत्तर दिया―‘‘तू ही तो था ।’’ धुनिया ने कई बार पूछा, धुनेनी यही उत्तर देती रही, क्योंकि उस नटखटी ने यही नाम धुनेनी को बताया था । तब धुनिया ने धुनेनी को लाठी से मारा । धुनेनी का रोना सुनकर बनिया दयावश दौड़कर आया और धुनिया से बोला कि इसे मत मारो, जो यहाँ ठहरा था वह ‘मैं था ।’ तब धुनिया ने बनिये पर लाठी बरसाई । सो जो मैं मैं करता है वह विपत्ति पाता है । दूसरा दुराशय है ममकार―परवस्तु को जो मेरा-मेरा मानता है वह बरबाद हो जाता है । कोई परवस्तु त्रिकाल भी मेरी नहीं हो सकता । एक सेठ के चार लड़के थे, उनमें बड़ा कमाऊ था, दूसरा जुवारी था, तीसरा अंधा था और चौथा पुजारी था । कमाऊ ने पिता से न्यारा होने को कहा । पिता सब लड़कों के साथ एक तीर्थयात्रा करने चला । रास्ते में एक नगर के बाहर ठहर गया । पहले दिन पिता ने कमाऊ लड़के को 10) रु0 देकर खाना लाने के लिये भेजा । उसने एक मौहल्ले से 10) का कुछ खरीदकर दूसरे मौहल्ले में बेचा उसे 1 रु0 का लाभ हुआ, वह 11 रु0 का भोजन लाया । दूसरे दिन जुवारी को 10) लिये, उसने रास्ते में दाव लगाया, 10) के 20) हो गये, वह 20) का भोजन लाया । तीसरे दिन अंधे को उसकी स्त्री के साथ 10) देकर भेजा । रास्ते में अंधे को ठोकर लगी, पत्थर उखाड़ा तो सैकड़ों सोने की मुहरों का भरा हंडा मिला । अंधा खूब भोजन लाया व मुहरें भी । चौथे दिन पुजारी लड़के को 10) देकर भेजा । वह चांदी का कटोरा खरीदकर मंदिर में आरती को बैठ गया । एक देव ने उस बालक का रूप धरकर गाड़ियों में भरकर भोजन लाया, गांव भर को खिलाया । पांचवें दिन कमाऊ लड़के से पिता ने पूछा―क्या अब भी न्यारा होना चाहते हो? उसने पिता से क्षमा मांगी । परवस्तु में कुछ करने का किसी को अधिकार नहीं । सो कर्तृत्वबुद्धि में विपदा ही है । चौथी विडंबना है भोक्तृत्वबुद्धि । ये अज्ञानी प्राणी इंद्रियों के विषयों को भोगने की मान्यता करके भोग भोगकर प्राण गंवा देते हैं । सो भैया! भोग में ही यह जीव नाना जन्म मरण करता । सो अहंकार, ममकार, कर्तृत्वबुद्धि, भोक्तृत्वबुद्धि को छोड़े और ज्ञानघन अंतस्तत्त्व में आत्मत्व अनुभव कर सहज आनंद से तृप्त होकर सदा के लिये संकटों से छुटकारा पावें ।