वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 98
From जैनकोष
पावंति भावसवणा कल्लाणपरंपराइं सोक्खाइं ।
दुक्खाइं दव्वसवणा णरतिरियकुदेवजोणीए ।।98।।
(356) भावश्रमण के कल्याणपरंपरापूर्वक शाश्वतानंद लाभ―जो भावश्रमण है अर्थात् सम्यग्दृष्टि भावलिंगी मुनि हैं वह कल्याण परंपरा से सुख को प्राप्त करता है, किंतु जो द्रव्यश्रमण है, मिथ्यादृष्टि मुनिभेषी है वह खोटा मनुष्य, तिर्यंच, खोटा देव इन योनियों में दुःख को प्राप्त करता है । भावश्रमण छठे गुणस्थान से लेकर 12वें गुणस्थान तक है । 12वां गुणस्थान तो क्षपक श्रेणी में है ꠰ जिसे 12वां गुणस्थान प्राप्त होता है वह नियम से मोक्ष जाता है उसी भव में, पर जो अन्य मुनि हैं, भावश्रमण हैं उनकी शुद्धभावना के कारण उनके तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है और गर्भकल्याणक, जन्मकल्याणक, तपकल्याणक, ज्ञानकल्याणक, निर्वाणकल्याणक, इन कल्याणकों को प्राप्त कर मोक्ष पहुंचता है ꠰ गृहस्थ श्रावक भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सोलह कारण भावनायें भाकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध करते हैं । यहाँ मुनियों का प्रकरण है इसलिए भावश्रमण की बात कही गई है । तीर्थंकर होना ही कल्याण की बात हो सो काम नहीं है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यक᳭चारित्र कल्याण की बात है । न भी तीर्थंकर हो तो भी जो भी मोक्ष गए जैसे श्रीराम, हनुमान, अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर आदि, वे सब मुक्ति में समान हैं । मुनि मोक्ष गए तो उनके सुख में, उनके ज्ञान में और जो तीर्थंकर होकर मुक्त हुए उनके सुख व ज्ञान में कोई अंतर नहीं । बस संसार में रहते हुए उन मुनियों में अंतर था कि जो तीर्थंकर प्रकृतिबंध वाला मुनि है वह तीर्थंकर केवली होता, दिव्यध्वनि खिरती, विराट समवशरण की रचना होती, अन्य मुनियों के केवलज्ञान होने पर समवशरण की रचना नहीं हैं । गंधकुटी है और जो उपसर्ग से सिद्ध हुए हैं उनके गंधकुटी भी नहीं बन पाती, मोक्ष हो जाता, पर मुक्त हुए बाद समस्त मुक्तों का एक समान ज्ञान और आनंद है । तो भावश्रमण पंचकल्याणक परंपराओं में पाकर शाश्वत सुख को प्राप्त करता है ।
(357) द्रव्यश्रमण के कुयोनिजन्म का व क्लेश का लाभ―द्रव्यश्रमण ने भेष तो मुनि का रख लिया, पर मिथ्यात्व विष नहीं छोड़ा । देह को आत्मा मान रहा, अपने को मुनि मानकर प्रवृत्ति कर रहा, चैतन्यस्वरूप नहीं मान पाता और इसी कारण लोक व्यवहार में लग रहा, जरा-जरासी घटनाओं पर क्रोध, मान, माया, लोभ उत्पन्न होता है । उसमें स्थिरता नहीं है ऐसा नग्नभेषी अज्ञानी मुनि नरक में खोटे मनुष्यों में तिर्यक में कुदेव में उत्पन्न होता है । यह बात इसलिए कही जा रही कि मुनिवरों को संबोधा है कि मिथ्यात्व का विनाश करें और सम्यक्त्व उत्पन्न करें, अपने आत्मा में रमण करने की दृष्टि बनावें, तब तो साधु साधु कहलाता है अन्यथा वह अपने आपको ही ठग रहा है ।