वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 97
From जैनकोष
भावसहिदो य मुणिणो पावइ आराहणाचउक्कं च ।
भावरहिदो य मुणिवर भमह चिरं दीहसंसारे ।।97꠰।
(352) भावशुद्धि में सम्यक्त्वाराधना का उपदेश―जो मुनि श्रेष्ठ आत्मभावना से सहित हैं वे तो चार प्रकार की आराधना को प्राप्त होते हैं, और जो भावरहित हैं वे इस संसार में चिरकाल तक जन्म मरण करते हैं । चार आराधनायें क्या हैं? (1) दर्शन आराधना (2) ज्ञान आराधना, (3) चारित्र आराधना और (4) तप आराधना । सम्यक्त्व के भाव की आराधना करना । सम्यक्त्व तो जीव का परम मित्र है । सम्यक्त्व ही जीव को सन्मार्ग दिखाता है । सम्यक्त्व के प्रताप से जीव शांत रहता है । यह सम्यक्त्व मेरा स्वरूप है ꠰ कुछ बाहर से नहीं लेना है । जैसा मेरा सहजस्वभाव है उस रूप में अपने आपका श्रद्धान करना यह है सम्यक्त्व ꠰ इसकी रूचि प्रतीति प्रयोग होना सम्यक्त्व की आराधना है । इस सम्यक्त्व को प्राप्त करने की वही तो चाह करेगा जिसको आत्मकल्याण की इच्छा हुई है । देखो जो लोग समर्थ हैं, धनी हैं, खाने पीने की उनको चिंता ही कभी नहीं है, मौज से सब आता है ऐसी स्थिति पाकर उनका कर्तव्य क्या है? इसी मौज में रहना और दुनिया से अपनी गप्प लड़ाना यह तो कर्तव्य नहीं है । ये पुण्य के ठाठ कितने दिन रहेंगे? यदि हम उल्टे चल रहे हैं तो ये अधिक दिन न रहेंगे और चलें तो भी उस पुण्य में रखा क्या है? ये विषयों के सुख मिल गए तो उससे अशुद्धि कहां मिटी? तब अगर योग्य वातावरण मिल गया है तो सदुपयोग करें यह कि अपना अधिक समय तत्त्वज्ञान में सम्यग्ज्ञान में उपयोग लगे । और जिसको कुछ तंगी है, जो धनिक नहीं है, जिसके पास कोई अधिक काम नहीं है, किसी तरह से अपना टूटा फूटा गुजारा कर लेता है तो वह भी यह ज्ञानप्रकाश चित्त में लाये कि हमारा जो समय शेष बचता है तो मैं उसका ऐसा सदुपयोग करूं जो बड़े-बड़े धनिकों को भी नहीं मिल सकता । तत्त्वज्ञान में, पढ़ने में, स्वाध्याय में सत्संग में अपना समय बितावें । दर्शन आराधना―सम्यक्त्व की महिमा सम्यक्त्व का स्वरूप उपयोग में बसे वह है दर्शन आराधना ।
(353) भावशुद्धि में ज्ञानाराधना व चारित्राराधना का उपदेश―ज्ञानआराधना सम्यग्ज्ञान ही इस जीव का समस्त वैभव है । बाहरी वैभव की तृष्णा क्यों करते ? कुछ आवश्यक है इसलिए उसे बनाये रखें, मगर तद᳭विषयक तृष्णा क्यों करना? छूट जायेगा सब । इस समय भी आपका कुछ नहीं है । आपमें आप हैं । प्रत्येक पदार्थ में वही है । यह तृष्णा दुःखदायी चीज है और आत्मा का यह सहज ज्ञानस्वरूप इस ओर दृष्टि आयें, यह मैं हूँ ऐसा भाव बने, उसको शांति मोक्षमार्ग सब कुछ संपदा प्राप्त होगी । ज्ञान का अपूर्व महत्त्व है । ज्ञानमय ही तो यह जीव है, सो अपने ज्ञानस्वरूप की निरंतर उपासना करना यह है ज्ञान आराधना । चारित्र आराधना-मैं अपने ज्ञानस्वरूप को ही जानता रहूं, अन्य कुछ काम न बने, अन्य कहीं ख्याल न जाये मेरे ज्ञान में यह ज्ञानस्वभाव ही रहे, ज्ञातादृष्टा रहूं, रागद्वेष की वृत्ति न आये, ऐसा मात्र जाननहार रहने की भावना रखना यह है चारित्र आराधना । स्वरूप में चलने का नाम है चारित्र । ऐसा संयम बन जाये, ऐसा अपने आपमें फिट बन जाये कि इसका उपयोग जगत के किसी बाहरी पदार्थ में न रहे यह है संयम आराधना । इस चारित्र आराधना के लिए अपने स्वरूप को अपने उपयोग में निरंतर लिए रहने की आवश्यकता होती है ।
(354) व्यवहारचारित्र की उपयोगिता―वास्तव में चरित्र भेष नही है या जो विधि पूर्वक खाये, विधि पूर्वक चले, ऐसा चलना ऐसा बैठना जो कुछ भी क्रिया मन, वचन काय की होती है वास्तव में वह चारित्र नहीं है । चारित्र तो आत्मा का उपयोग आत्मा के सहज स्वरूप में लीन हो इसे कहते हैं चारित्र । मगर यह जो वास्तविक चारित्र है तो इस चारित्र को करने के लिए जो चलेगा सो वह किन स्थितियों से गुजर कर अपना यह काम बना पायेगा । उन स्थितियों का नाम है यह सब व्यवहार चारित्र । माचिस का नाम आग नहीं है । सींक का नाम आग नहीं है, सींक में जो मसाला रखा है उसका नाम आग नहीं है, वह तो रगड़ने से जो ज्वाला बनी उसका नाम आग है, मगर वह आग प्रकट कैसे बने उसके लिए ये स्थितियां हैं । तो आत्मा का ज्ञान आत्मा में कैसे रमे उसके लिए ये स्थितियां हैं कि सब कुछ छोड़ दें । केवल शरीर मात्र ही रहे और निःशंक फिर अपने आप में अपने स्वरूप की आराधना करे, यह है चारित्र आराधना । जो चारित्राराधना के लिए अपना प्रयोग कर सके उन महापुरुषों को चूंकि शरीर साथ लगा है तो अनेक परीषह आयेंगे, उपसर्ग आयेंगे । तो यह ज्ञानी इतना धुन का पक्का है कि उन परीषह और उपसर्गों से विचलित नहीं होता और उसका वह कुछ खेल भी खेलता है । कौन? मुनि महाराज ! वह क्या खेल खेलते हैं? नहीं हैं परीषह, नहीं है उपसर्ग तो जान बूझकर तपश्चरण करना, यह उनका खेल है । बच्चे कैसे खेल में रमते हैं, जवानों का कुछ और खेल है, तो मुनियों का खेल तपश्चरण है । तपश्चरण भी किस लिए करते हैं? जानकर उपवास करें । कदाचित् अंतराय कर्मवश आहार विधि 2-4 दिन न मिलें तो वहाँ वे समता से अपने धर्मपालन में रह सकें, उसके लिए यह अभ्यास है । समाधितंत्र में बताया है कि बड़े मौज से पाया हुआ ज्ञान, बिना कष्ट के पाया हुआ ज्ञान कष्ट आने पर खतम हो सकता है । इसलिए आत्मकल्याण के धुनिया को जानबूझकर भी अपने को कष्ट में डालना चाहिए, मायने तपश्चरण करना चाहिए ताकि इतनी दृढ़ता हो जाये कि कठिन स्थितियों में भी हम अपनी समता से च्युत न हो सकें । ऐसे तपश्चरण की आराधना करना तप आराधना है । सो इन चार प्रकार की आराधनाओं को भावसहित मुनिश्रेष्ठ प्राप्त करते हैं ।
(355) भाव की प्रकिया में सुख दुःख व शांति का भाव―जिसकी दृष्टि में आ गया कि मेरी सारी दुनिया मेरा ही यह आत्मस्वरूप है । जो यहाँ ज्ञान जगता है यही मेरा वास्तविक वंदन है, यह मेरा स्वरूप सत् है, यह कभी मिट ही नहीं सकता । स्वरूप में किसी अन्य पदार्थ का प्रवेश नहीं होता, फिर विपत्ति ही क्या? किसी भी परपदार्थ से मेरे में विपत्ति नहीं आया करती । आती हो तो बताओ । कोई धन कम हो गया या कोई मकान गिर गया, वहाँ से कोई विपत्ति आती हुई देखी क्या किसी ने? पर यह मोही खुद अपने आपमें अपनी कल्पनायें बनाकर अपने को विपत्ति में फंसाये रहता है । बाह्य चीज से विपत्ति नहीं, मान लो किसी का लड़का कुपूत हो गया तो लोग मानते कि यह बड़ा दुःखी है, इसका लड़का खोटा निकल आया और किसी का लड़का सपूत निकला आज्ञाकारी बड़े नम्र शब्द बोलता तो बताओ उसे सुख है कि दुःख? अरे उसे ज्यादह दुःख है । कुपूत का दुःख अधिक नहीं होता उससे मन हट गया तो एकदम सोच लिया कि जो इसका होना हो सो हो, हमें इससे कुछ मतलब नहीं । घोषणा करा दी कि मेरा इस पुत्र से कोई मतलब नहीं । मगर सुपूत है घर में तो रात दिन सभी लोग उसकी बड़ी फिक्र रखते । कैसे मैं इसे धनिक बना दूं, खूब पढ़ा लिखा दूं, इसको किसी प्रकार का कष्ट न होने दूं, यह मेरे को बड़ा प्यारा है । यों चिंतन कर करके सारे जीवन भर उसके पीछे दुःखी रहेगा फिर बतलावो सुख है कहां? जो भी दुःख है वह क्या है? ? यह जीव भीतर में अपनी कल्पना बना बनाकर दुःखी होता है । तो ऐसे ही भावरहित मुनि इस दीर्घ संसार में चिरकाल तक भ्रमण करते हैं, अतएव हे मुनिवर, अपना हित चाहो तो अपने आत्मा के स्वभाव की आराधना में चलो ।